(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – क्षण-क्षण
कविता का एक दिवस होता है। लघुकथा का एक दिवस होता है। कहानी का एक दिवस होता है। नाटक का एक दिवस होता है। नृत्य का एक दिवस होता है। हर विधा, हर कला का एक दिवस होता है। कविता दिवस पर रचता हूँ कविता, लघुकथा दिवस पर लिखता हूँ लघुकथा। जैसा दिन होता है, वैसा सृजन करता हूँ, मैं हूँ जो सबसे हटकर जीता हूँ।
..सुनो, हर क्षण अनुभूति का होता है। हर क्षण अभिव्यक्ति का होता है। अनुभूति स्वयं चुनती है अभिव्यक्ति। अभिव्यक्ति स्वयं चुनती है अपनी विधा। हर अनुभूति, हर अभिव्यक्ति, हर कला, हर विधा का हर क्षण होता है।
…हर क्षण सृजन का होता है, हर क्षण विसर्जन का होता है। हर क्षण जीवन का होता है और हर क्षण मरण का भी होता है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गरीबी की रेखा…“।)
अभी अभी # 425 ⇒ गरीबी की रेखा… श्री प्रदीप शर्मा
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो।
क्या ग़म है, जिसको छुपा रहे हो।।
गरीबी भाग्य का खेल है, या पुरुषार्थ का अभाव, यह अभिशाप है अथवा सियासी देन, इस पर संवाद विवाद से कभी कोई निष्कर्ष नहीं निकला है, और जमीनी हकीकत यही है कि गरीबी भी उतनी ही फल फूल रही है, जितनी अमीरी। वास्तव में सुख दुख और लाभ हानि की तरह ही अमीरी गरीबी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
क्या दोनों के बीच कोई खाई है, अथवा यह छोटी मछली और बड़ी मछली वाला मामला है। लेकिन सच्चाई तो यही है, समंदर में छोटी मछली भी है और बड़ी भी।।
अगर इसे रेखाओं का खेल मानें तो जरूर हमारे हाथ में भाग्य और जीवन रेखा की तरह कोई गरीबी की रेखा भी होगी। एक हस्त रेखा विशेषज्ञ जब किसी व्यक्ति का हाथ देखता है, तो कई बार हाथ को टेढ़ा मेढ़ा और ऊपर नीचे करता है, मानो किसी डंडी चूम स्कूटर की पेट्रोल टंकी में पेट्रोल ढूंढ रहा हो। जब दृष्टि काम नहीं करती, तो मैग्निफाइंग ग्लास का उपयोग करता है। और जब फिर भी कुछ पल्ले नहीं पड़ता तो दूरदृष्टि का सहारा लेता है, जिसमें सारे ग्रहों का योगदान होता है और बात पुखराज, नीलम और गंडे ताबीज पर आ जाती है। लेकिन उस भले आदमी को कोई गरीबी की रेखा नजर नहीं आती।
रेखाओं का खेल है मुक़द्दर. रेखाओं से मात खा रहे हो.
इस बात में कितनी सच्चाई है, हम नहीं जानते, लेकिन केवल एक सरकार को ही यह कड़वी सच्चाई पता है कि कितने लोगों के हाथ में यह गरीबी रेखा है, और केवल मुफ्त राशन ही उनके चेहरे पर कुछ वक्त के लिए मुस्कुराहट ला सकता है।।
तकदीर की काट केवल तदबीर यानी युक्ति और प्रयास है। जो भाग्य के भरोसे रहते हैं, वे कहीं के नहीं रहते। जब हमने अच्छी तरह से ठोक बजाकर देख लिया है, और तसल्ली कर ली है, कि हमारे हाथ में कोई गरीबी की रेखा है ही नहीं, तो हम मुफ्त में चिंता क्यों पालें।
ऐसे में साहिर दो कदम आगे आते हैं और हमारा हाथ थाम लेते हैं। वे कहते हैं ;
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी।)
☆ कथा-कहानी # 111 – जीवन यात्रा : 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
शिशु वत्स जब खड़े होकर पग पग चलते हुये आत्मनिर्भर बनने की दिशा में आगे बढ़ने की शुरुआत करता है तो इस वक्त उसका हाथ पकड़ने जो कठोर मगर मजबूत हाथ साथ में आते हैं, वह हाथ होते हैं “पिता” के. बाबूजी, पापा, डेडी, बाबा के अलावा भी कई भाषाओं में अलग अलग नाम हैं जीवनयात्रा के इस पात्र के पर अर्थ एक ही है, संकेत एक ये भी है कि “ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनिया ” के बाद अगला पड़ाव आ गया है. ये मृदुलता, सौम्यता, ममता, सांत्वना से साहस, कठोरता, अनुशासन, परिश्रमशीलता और ज्ञानार्जन, प्रशिक्षण की ओर बढ़ने की यात्रा है.
पिता का साथ और उन पर धीरे धीरे जागता विश्वास, हवा में उछाले जाने पर भी शिशु को खिलखिलाने का साहस देता है. वो होता अबोध है पर वह समझ जाता है कि हवा से धरातल पर उसकी यात्रा रोमांचक होने के साथ साथ सुरक्षित भी है, तभी तो वह निश्चिंत होकर हंस पाता हैं. पिता के ये मज़बूत हाथ ही उसे बाहर की दुनियां में प्रवेश करने लायक आत्मिक शक्ति और कुशलता के लिये प्रशिक्षण देंगे. ये पितृत्व का संरक्षण, उसके जीवन में गति लेकर आता है जो उसे दौड़ना सिखाता है, साइक्लिंग सिखाता है, बात करने की कला सिखाता है और अनुशासन में बंधना सिखाता है. सुबह सुबह गहरी नींद में जगाने का काम प्राय: पिता ही करते हैं. भले ही बचपन, मन में ये गुनगुनाये कि “बापू सेहत के लिये तू तो हानिकारक है ” पर वास्तविकता इससे उलट होती है. हमारी सेहत, पढ़ाई लिखाई, कलात्मक प्रशिक्षण और गणित, विज्ञान से लेकर संगीत और सामान्य ज्ञान भी हम पिता से ही लिखते हैं. हमारी क्लास में प्रदर्शन, परसेंटेज़, पोजीशन की सबसे ज्यादा चिंता, खुशी पिता को ही होती है. डांटते भी सबसे ज्यादा पिता ही हैं जब हम उनकी अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाते पर यह डांट ही हमें सफल होने, कुछ बनने की दिशा, उत्साह, देती है हमें अपने लक्ष्य के प्रति फोकस करना सिखाती है. हम जानते हैं कि हमारी सफलताओं पर बिना जश्न मनाये अंदर ही अंदर सबसे ज्यादा खुश होने वाले पिता ही होते हैं. हम अपनी असफलताओं को अपनी मां से शेयर करते हैं पर सफल होने पर दिल से चाहते हैं कि ये समाचार सबसे पहले पिता सुनें. उनकी हल्की सी मुस्कुराहट किसी स्वर्ण पदक से कम नहीं होती. जीवनयात्रा का यह भाग पिता और पुत्रों को समर्पित है.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “भूरि भूरि प्रशंसा (Panegyrize)…“।)
अभी अभी # 424 ⇒ भूरि भूरि प्रशंसा (Panegyrize)… श्री प्रदीप शर्मा
जब हम किसी की तारीफ करते हैं, तो खुलकर करते हैं, और जब बुराई करते हैं तो जमकर। याने जो भी काम करते हैं, तबीयत से करते हैं। इन दोनों के मिले जुले स्वरूप को ही निंदा स्तुति भी कहते हैं। राजनीति में कड़ी निंदा की जाती है और ईश्वर की स्तुति आंख बंद करके की जाती है। वह स्तुति, जिसे चापलूसी कहते हैं, वह तो जी खोलकर की जाती है।
तारीफ शब्द थोड़ा उर्दू और थोड़ा फिल्मी है, जब कि प्रशंसा शब्द शुद्ध और सात्विक रूप से हिंदी शब्द है। इतना सात्विक कि इस प्रशंसा को भूरि भूरि प्रशंसा भी कहा जाता है। यानी किसी की जब बुराई करने का मन हो, तो उसे खरी खोटी सुनाना, और प्रशंसा करने का मन किया तो भूरि भूरि प्रशंसा। ।
निंदा स्तुति अथवा बुराई और भूरि भूरि प्रशंसा एक ही मुंह से की जाती है। लेकिन प्रशंसा में चाशनी घोलने के लिए यह जरूर कहा जाता है, आपकी प्रशंसा किस मुंह से करूं ! अरे भाई, उसी मुंह से करो, जिस मुंह से कल बुराई कर रहे थे। कल जो कलमुंहा था, आज उसका चेहरा चांद सा कैसे हो गया।
चलिए, हमें इससे क्या, हमारा मन तो आज भूरि भूरि प्रशंसा करने का हो रहा है, इसलिए आज हम गुस्से से लाल पीले नहीं होने वाले। प्रशंसा लाल नहीं होती, नीली, पीली, हरी नहीं होती यह भूरि ही क्यों होती है।
स्तुति और प्रशस्ति के करीब, भूरि’ संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है बहुत, प्रचुर मात्रा में और बार-बार। जैसे भूरि दान =प्रचुर मात्रा में दिया गया दान। भूरि-भूरि प्रशंसा का अर्थ है बहुत-बहुत प्रशंसा, बारम्बार प्रशंसा। ।
अंग्रजी भाषा इतनी संपन्न नहीं। आप किसी की अंग्रेजी में brown brown praise नहीं कर सकते, उसके लिए उनके पास एकमात्र शब्द पेनिगराइज़ (panegyrize) है। यह शब्द हमें अपोलोज़ाइज (apologize) का करीबी लगता है, लेकिन इसका और panegyrize का छत्तीस का आंकड़ा है, जहां भूरि भूरि प्रशंसा नहीं होती, उल्टे माफी मांगी जाती है।
ईश्वर की प्रशंसा नहीं की जाती, गुणगान किया जाता है। हमें तो भूरि भूरि प्रशंसा में चापलूसी अथवा चाटुकारिता की कतई बू नहीं आती। सज्जनों, मनीषियों, अथवा विद्वत्जनों की भूरि भूरि प्रशंसा करने में कोई दोष नहीं, अतिशयोक्ति नहीं।।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 93 ☆ देश-परदेश – सोने की सीढ़ी चढ़ना ☆ श्री राकेश कुमार ☆
विगत दिन एक परिचित ने सोने की सीढ़ी चढ़ने की रस्म अदायगी के लिए हमें मैसेज द्वारा आमंत्रित किया था। फोन द्वारा हमने इस बाबत जानकारी प्राप्त करी, हमारे तो होश ही फक्ता हो गए। प्रतीकात्मक रूप से छोटी सी सोने की सीढ़ी पर घर के सबसे बड़े बुजर्ग का पैर छुआ जाता हैं।
परिचित ने बताया उनके यहां पौत्र का जन्म हुआ है। उनकी माता जी अभी जीवित है, इसलिए हम उनको सोने की सीढ़ी चढ़ा कर, चौथी पीढ़ी की खुशी मनाएंगे।
परिचित के सभी बच्चे अच्छे स्कूल से पढ़े लिखे होने के साथ ही साथ सुयोग्य श्रेणी में आते हैं। उससे हमने कहा तुम्हारे यहां तो चौथी पीढ़ी (पोत्री) तीन वर्ष पूर्व ही आ चुकी थी।
उसने बताया की हमारे समाज में तो बेटों से ही पीढ़ी गिनी जाती है, बेटियों से नहीं। इस विषय पर उससे हमारी लम्बी बहस भी हो गई। हम कभी कभी दुश्मन देश पाकिस्तान के ड्रामे (सीरियल) देखते है, जिसमें सम्पन्न और पढ़े लिखे परिवारों में अक्सर बेटे को महत्व दिया जाता हैं।
हमने भी परिचित को कह दिया, कि तुम्हारे और पाकिस्तान के लोगों में क्या फर्क रह गया है ? पढ़े लिखे होकर भी तुम इस कुत्सित विचार धारा वाली तालिबानी सोच के साथ जीवनयापन कर रहे हो।
हमने तो उसे स्पष्ट मना कर दिया कि मैं ऐसी तुष्ट समझ के साथ वालों से कोई संबंध नहीं रखना चाहता हूं।
परिचित हंसते हुए बोला, देख लो वर्षा ऋतु के इस मौसम में मुफ्त की असीमित दाल बाटी और चूरमा का रसवादान से चूक जाओगे। हम भी आखिर इंसान है, जबान के स्वाद के सामने हथियार डाल, समय से पूर्व ही कार्यक्रम में पहुंच गए।
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख आज ज़िंदगी : कल उम्मीद… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 241 ☆
☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद… ☆
‘ज़िंदगी वही है, जो हम आज जी लें। कल जो जीएंगे, वह उम्मीद होगी’ में निहित है… जीने का अंदाज़ अर्थात् ‘वर्तमान में जीने का सार्थक संदेश’ …क्योंकि आज सत्य है, हक़ीकत है और कल उम्मीद है, कल्पना है, स्वप्न है; जो संभावना-युक्त है। इसीलिए कहा गया है कि ‘आज का काम कल पर मत छोड़ो,’ क्योंकि ‘आज कभी जायेगा नहीं, कल कभी आयेगा नहीं।’ सो! वर्तमान श्रेष्ठ है; आज में जीना सीख लीजिए अर्थात् कल अथवा भविष्य के स्वप्न संजोने का कोई महत्व व प्रयोजन नहीं तथा वह कारग़र व उपयोगी भी नहीं है। इसलिए ‘जो भी है, बस यही एक पल है, कर ले पूरी आरज़ू’ अर्थात् भविष्य अनिश्चित है। कल क्या होगा… कोई नहीं जानता। कल की उम्मीद में अपना आज अर्थात् वर्तमान नष्ट मत कीजिए। उम्मीद पूरी न होने पर मानव केवल हैरान-परेशान ही नहीं; हताश भी हो जाता है, जिसका परिणाम सदैव निराशाजनक होता है।
हां! यदि हम इसके दूसरे पहलू पर प्रकाश डालें, तो मानव को आशा का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि यह वह जुनून है, जिसके बल पर वह कठिन से कठिन अर्थात् असंभव कार्य भी कर गुज़रता है। उम्मीद भविष्य में फलित होने वाली कामना है, आकांक्षा है, स्वप्न है; जिसे साकार करने के लिए मानव को निरंतर अनथक परिश्रम करना चाहिए। परिश्रम सफलता की कुंजी है तथा निराशा मानव की सफलता की राह में अवरोध उत्पन्न करती है। सो! मानव को निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए और उसका जीवन में प्रवेश निषिद्ध होना चाहिए। इच्छा, आशा, आकांक्षा…उल्लास है, उमंग है, जीने की तरंग है– एक सिलसिला है ज़िंदगी का; जो हमारा पथ-प्रदर्शन करता है, हमारे जीवन को ऊर्जस्वित करता है…राह को कंटक-विहीन बनाता है…वह सार्थक है, सकारात्मक है और हर परिस्थिति में अनुकरणीय है।
‘जीवन में जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं। सो! हम वह करते हैं, जो हम चाहते हैं। परंतु होता वही है, जो परमात्मा चाहता है अथवा मंज़ूरे-ख़ुदा होता है।’ फिर भी मानव सदैव जीवन में अपना इच्छित फल पाने के लिए प्रयासरत रहता है। यदि वह प्रभु में आस्था व विश्वास नहीं रखता, तो तनाव की स्थिति को प्राप्त हो जाता है। यदि वह आत्म-संतुष्ट व भविष्य के प्रति आश्वस्त रहता है, तो उसे कभी भी निराशा रूपी सागर में अवग़ाहन नहीं करना पड़ता। परंतु यदि वह भीषण, विपरीत व विषम परिस्थितियों में भी उसके अप्रत्याशित परिणामों से समझौता नहीं करता, तो वह अवसाद की स्थिति को प्राप्त हो जाता है… जहां उसे सब अजनबी-सम अर्थात् बेग़ाने ही नहीं, शत्रु नज़र आते हैं। इसके विपरीत जब वह उस परिणाम को प्रभु-प्रसाद समझ, मस्तक पर धारण कर हृदय से लगा लेता है; तो चिंता, तनाव, दु:ख आदि उसके निकट भी नहीं आ सकते। वह निश्चिंत व उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर करता है और सदैव अलौकिक आनंद की स्थिति में रहता है…अर्थात् अपेक्षा के भाव से मुक्त, आत्मलीन व आत्म-मुग्ध।
हां! ऐसा व्यक्ति किसी के प्रति उपेक्षा भाव नहीं रखता … सदैव प्रसन्न व आत्म-संतुष्ट रहता है, उसे जीवन में कोई भी अभाव नहीं खलता और उस संतोषी जीव का सानिध्य हर व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है। उसकी ‘औरा’ दूसरों को खूब प्रभावित व प्रेरित करती है। इसलिए व्यक्ति को सदैव निष्काम कर्म करने चाहिए, क्योंकि फल तो हमारे हाथ में है नहीं। ‘जब परिणाम प्रभु के हाथ में है, तो कल व फल की चिंता क्यों?
वह सृष्टि-नियंता तो हमारे भूत-भविष्य, हित- अहित, खुशी-ग़म व लाभ-हानि के बारे में हमसे बेहतर जानता है। चिंता चिता समान है तथा चिंता व कायरता में विशेष अंतर नहीं अर्थात् कायरता का दूसरा नाम ही चिंता है। यह वह मार्ग है, जो मानव को मृत्यु के मार्ग तक सुविधा-पूर्वक ले जाता है। ऐसा व्यक्ति सदैव उधेड़बुन में मग्न रहता है…विभिन्न प्रकार की संभावनाओं व कल्पनाओं में खोया, सपनों के महल बनाता-तोड़ता रहता है और वह चिंता रूपी दलदल से लाख चाहने पर भी निज़ात नहीं पा सकता। दूसरे शब्दों में वह स्थिति चक्रव्यूह के समान है; जिसे भेदना मानव के वश की बात नहीं। इसलिए कहा गया है कि ‘आप अपने नेत्रों का प्रयोग संभावनाएं तलाशने के लिए करें; समस्याओं का चिंतन-मनन करने के लिए नहीं, क्योंकि समस्याएं तो बिन बुलाए मेहमान की भांति किसी पल भी दस्तक दे सकती हैं।’ सो! उन्हें दूर से सलाम कीजिए, अन्यथा वे ऊन के उलझे धागों की भांति आपको भी उलझा कर अथवा भंवर में फंसा कर रख देंगी और आप उन समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए छटपटाते व संभावनाओं को तलाशते रह जायेंगे।
सो! समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए संभावनाओं की दरक़ार है। हर समस्या के समाधान के केवल दो विकल्प ही नहीं होते… अन्य विकल्पों पर दृष्टिपात करने व अपनाने से समाधान अवश्य निकल आता है और आप चिंता-मुक्त हो जाते हैं। चिंता को कायरता का पर्यायवाची कहना भी उचित है, क्योंकि कायर व्यक्ति केवल चिंता करता है, जिससे उसके सोचने-समझने की शक्ति कुंठित हो जाती है तथा उसकी बुद्धि पर ज़ंग लग जाता है। इस मनोदशा में वह उचित निर्णय लेने की स्थिति में न होने के कारण ग़लत निर्णय ले बैठता है। सो! वह दूसरे की सलाह मानने को भी तत्पर नहीं होता, क्योंकि सब उसे शत्रु-सम भासते हैं। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है तथा किसी अन्य पर विश्वास नहीं करता। ऐसा व्यक्ति पूरे परिवार व समाज के लिए मुसीबत बन जाता है और गुस्सा हर पल उसकी नाक पर धरा रहता है। उस पर किसी की बातों का प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वह सदैव अपनी बात को उचित स्वीकार कारग़र सिद्ध करने में प्रयासरत रहता है।
‘दुनिया की सबसे अच्छी किताब हम स्वयं हैं… ख़ुद को समझ लीजिए; सब समस्याओं का अंत स्वत: हो जाएगा।’ ऐसा व्यक्ति दूसरे की बातों व नसीहतों को अनुपयोगी व अनर्गल प्रलाप तथा अपने निर्णय को सर्वदा उचित उपयोगी व श्रेष्ठ ठहराता है। वह इस तथ्य को स्वीकारने को कभी भी तत्पर नहीं होता कि दुनिया में सबसे अच्छा है–आत्मावलोकन करना; अपने अंतर्मन में झांक कर आत्मदोष-दर्शन व उनसे मुक्ति पाने के प्रयास करना तथा इन्हें जीवन में धारण करने से मानव का आत्म-साक्षात्कार हो जाता है और तदुपरांत दुष्प्रवृत्तियों का स्वत: शमन हो जाता है; हृदय सात्विक हो जाता है और उसे पूरे विश्व में चहुं और अच्छा ही अच्छा दिखाई पड़ने लगता है… ईर्ष्या-द्वेष आदि भाव उससे कोसों दूर जाकर पनाह पाते हैं। उस स्थिति में हम सबके तथा सब हमारे नज़र आने लगते हैं।
इस संदर्भ में हमें इस तथ्य को समझना व इस संदेश को आत्मसात् करना होगा कि ‘छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान को … जिसके लिए सुनना व सीखना अत्यंत आवश्यक है।’ यदि आपने सहना सीख लिया, तो रहना भी सीख जाओगे। जीवन में सब्र व सच्चाई ऐसी सवारी हैं, जो अपने शह सवार को कभी भी गिरने नहीं देती… न किसी की नज़रों में, न ही किसी के कदमों में। सो! मौन रहने का अभ्यास कीजिए तथा तुरंत प्रतिक्रिया देने की बुरी आदत को त्याग दीजिए। इसलिए सहनशील बनिए; सब्र स्वत: प्रकट हो जाएगा तथा सहनशीलता के जीवन में पदार्पण होते ही आपके कदम सत्य की राह की ओर बढ़ने लगेंगे। सत्य की राह सदैव कल्याणकारी होती है तथा उससे सबका मंगल ही मंगल होता है। सत्यवादी व्यक्ति सदैव आत्म-विश्वासी तथा दृढ़-प्रतिज्ञ होता है और उसे कभी भी, किसी के सम्मुख झुकना नहीं पड़ता। वह कर्त्तव्यनिष्ठ और आत्मनिर्भर होता है और प्रत्येक कार्य को श्रेष्ठता से अंजाम देकर सदैव सफलता ही अर्जित करता है।
‘कोहरे से ढकी भोर में, जब कोई रास्ता दिखाई न दे रहा हो, तो बहुत दूर देखने की कोशिश करना व्यर्थ है।’ धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाते चलो; रास्ता खुलता चला जाएगा’ अर्थात् जब जीवन में अंधकार के घने काले बादल छा जाएं और मानव निराशा के कुहासे से घिर जाए; उस स्थिति में एक-एक कदम बढ़ाना कारग़र है। उस विकट परिस्थिति में आपके कदम लड़खड़ा अथवा डगमगा तो सकते हैं; परंतु आप गिर नहीं सकते। सो! निरंतर आगे बढ़ते रहिए…एक दिन मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपका स्वागत अवश्य करेगी। हां! एक शर्त है कि आपको थक-हार कर बैठना नहीं है। मुझे स्मरण हो रही हैं, स्वामी विवेकानंद जी की पंक्तियां…’उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक तुम्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।’ यह पंक्तियां पूर्णत: सार्थक व अनुकरणीय हैं। यहां मैं उनके एक अन्य प्रेरक प्रसंग पर प्रकाश डालना चाहूंगी – ‘एक विचार लें। उसे अपने जीवन में धारण करें; उसके बारे में सोचें, सपना देखें तथा उस विचार पर ही नज़र रखें। मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों व आपके शरीर के हर हिस्से को उस विचार से भरे रखें और अन्य हर विचार को छोड़ दें… सफलता प्राप्ति का यही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।’ सो! उनका एक-एक शब्द प्रेरणास्पद होता है, जो मानव को ऊर्जस्वित करता है और जो भी इस राह का अनुसरण करता है; उसका सफल होना नि:संदेह नि:शंक है; निश्चित है; अवश्यंभावी है।
हां! आवश्यकता है—वर्तमान में जीने की, क्योंकि वर्तमान में किया गया हर प्रयास हमारे भविष्य का निर्माता है। जितनी लगन व निष्ठा के साथ आप अपना कार्य संपन्न करते हैं; पूर्ण तल्लीनता व पुरुषार्थ से प्रवेश कर आकंठ डूब जाते हैं तथा अपने मनोमस्तिष्क में किसी दूसरे विचार के प्रवेश को निषिद्ध रखते हैं; आपका अपनी मंज़िल पर परचम लहराना निश्चित हो जाता है। इस तथ्य से तो आप सब भली-भांति अवगत होंगे कि ‘क़ाबिले तारीफ़’ होने के लिए ‘वाकिफ़-ए-तकलीफ़’ होना पड़ता है। जिस दिन आप निश्चय कर लेते हैं कि आप विषम परिस्थितियों में किसी के सम्मुख पराजय स्वीकार नहीं करेंगे और अंतिम सांस तक प्रयासरत रहेंगे; तो मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपकी प्रतीक्षा करती है, क्योंकि यही है… सफलता प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग। परंतु विपत्ति में अपना सहारा ख़ुद न बनना व दूसरों से सहायता की अपेक्षा करना, करुणा की भीख मांगने के समान है। सो! विपत्ति में अपना सहारा स्वयं बनना श्रेयस्कर है और दूसरों से सहायता व सहयोग की उम्मीद रखना स्वयं को छलना है, क्योंकि वह व्यर्थ की आस बंधाता है। यदि आप दूसरों पर विश्वास करके अपनी राह से भटक जाते हैं और अपनी आंतरिक शक्ति व ऊर्जा पर भरोसा करना छोड़ देते हैं, तो आपको असफलता को स्वीकारना ही पड़ता है। उस स्थिति में आपके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य कोई भी विकल्प शेष रहता ही नहीं।
सो! दूसरों से अपेक्षा करना महान् मूर्खता है, क्योंकि सच्चे मित्र बहुत कम होते हैं। अक्सर लोग विभिन्न सीढ़ियों का उपयोग करते हैं… कोई प्रशंसा रूपी शस्त्र से प्रहार करता है, तो अन्य निंदक बन आपको पथ-विचलित करता है। दोनों स्थितियां कष्टकर हैं और उनमें हानि भी केवल आपकी होती है। सो! स्थितप्रज्ञ बनिए; व्यर्थ के प्रशंसा रूपी प्रलोभनों में मत भटकिए और निंदा से विचलित मत होइए। इसलिये ‘प्रशंसा में अटकिए मत और निंदा से भटकिए मत।’ सो! हर परिस्थिति में सम रहना मानव के लिए श्रेयस्कर है। आत्मविश्वास व दृढ़-संकल्प रूपी बैसाखियों से आपदाओं का सामना करने व अदम्य साहस जुटाने पर ही सफलता आपके सम्मुख सदैव नत-मस्तक रहेगी। सो! ‘आज ज़िंदगी है और कल अर्थात् भविष्य उम्मीद है… जो अनिश्चित है; जिसमें सफलता-असफलता दोनों भाव निहित हैं।’ सो! यह आप पर निर्भर करता है कि आपको किस राह पर अग्रसर होना चाहते हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पार्टी/शन…“।)
अभी अभी # 423 ⇒ पार्टी/शन… श्री प्रदीप शर्मा
पार्टीशन को आप बंटवारा भी कह सकते हैं। मैं देश के बंटवारे की बात नहीं कर रहा, क्योंकि मेरा जन्म आजादी के बाद ही हुआ, इसलिए देश की आजादी में मेरा कोई योगदान नहीं। साथ ही आजादी के साथ ही हुए बंटवारे के लिए भी मैं जिम्मेदार नहीं। जो कथित रूप से जिम्मेदार थे, उन्हें भी सब जानते हैं।
पार्टीशन, डिविजन को भी कहते हैं। जब तक दो भाई प्रेम से रहते हैं, बंटवारे की बात नहीं होती, जहां परिवार बढ़ा, हर व्यक्ति अपने हिस्से और अधिकार की बात करने लगता है। अगर समझदारी और राजी खुशी से पार्टिशन हो जाए, तो सबको बराबरी से अपना हिस्सा मिल जाता है, लेकिन विवाद की स्थिति में मनमुटाव भी होता है, और कोर्ट कचहरी का मुंह भी देखना पड़ता है।।
संपत्ति का बंटवारा तो आप आसानी से कर सकते हैं, लेकिन देश का बंटवारा कैसे हो, लोगों के दिलों का बंटवारा कैसे हो। दूरदर्शन पर सन् १९८७ में एक धारावाहिक का प्रसारण हुआ था, बुनियाद, जिसमें एक ऐसे ही परिवार की दास्तान, मनोहर श्याम जोशी की कलम से, पर्दे पर प्रस्तुत की गई है।
बुनियाद का मुख्य पात्र हवेलीराम (आलोक नाथ) अपने पारिवारिक कर्तव्यों और स्वतंत्र भारत में रहने की इच्छा के बीच संतुलन बनाने के लिए संघर्ष करता है। आखिरकार, उसे देश के विभाजन के बाद बनी चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के बीच भी जीना पड़ता है।।
भले ही पार्टिशन गलत हुआ हो, बाद की बिगड़ती परिस्थितियों और पड़ोसी देश द्वारा आतंकवादी गतिविधियों के चलते, आज हमें इस कड़वे सच को स्वीकार करना पड़ेगा, कि अब हम हमारा रिश्ता भाई भाई का नहीं, एक दुश्मन देश का है। हिंदी चीनी भाई भाई का स्वाद हम पहले ही चख चुके हैं।
देश की छोड़िए, आज घर घर में हो रहे पार्टिशन की बात कीजिए। पहले दिलों के बीच दरार पड़ती है, उसके बाद ही घर के बीच दीवार खड़ी होती है। कैसे आदर्श संयुक्त परिवार थे, जहां सभी बड़े छोटे, काका बाबा, बेटे बहू और नाती पोते, एक ही छत के नीचे रहते थे। लेकिन पिछले ५० वर्षों में सब कुछ बदल गया है।।
आज अगर दो भाई ही साथ साथ नहीं रह सकते, तो हम कैसे उम्मीद करें कि हिंदू मुसलमान साथ साथ रह सकते हैं। सरकार किसी की भी हो, सियासत की फितरत एक जैसी रहती है।
अंग्रेज भले ही चले गए हों, लेकिन डिवाइड एंड रूल का महामंत्र पीछे छोड़ गए हैं। ये दुश्मनी हम नहीं छोड़ेंगे, मर मिटेंगे, लेकिन दुश्मन को मिटाकर ही दम लेंगे। भाईचारे की बात छोड़िए, हमारा दुश्मन चाहे भूखा मरे अथवा चारा खाए। हमने दुश्मन को भाई मानने से इंकार कर दिया है।।
पहले दिलों में दरार पड़ती है, दीवार तो बाद में खड़ी होती है। क्या टूटे हुए दिलों को जोड़ने वाली कोई अल्ट्राट्रैक सीमेंट नहीं। पांच रुपए के फेवीक्विक से बच्चों के खिलौने और घरों की क्रॉकरी जोड़ने के भ्रामक विज्ञापन तो बहुत देखे हैं, ज़ख्मी दिलों पर लगाने वाला मरहम हम अभी तक ईजाद नहीं करवा पाए।
क्या दिल की बीमारी का दिल के दर्द से कोई संबंध है। है कोई विज्ञान के पास ऐसी स्कैनिंग मशीन, जो दिल के जख्मों को पहचान ले। क्या घात प्रतिघात और बदले की भावना, तनाव और मानसिक आघात को जन्म नहीं देती। जिन चेहरों पर बनावटी मुस्कुराहट नजर आ रही है, कौन जानता है?
उनके दिलों का दर्द। काश हम स्वार्थ, खुदगर्जी और जोड़ तोड़ का कुछ तोड़ निकाल पाते। दो दिलों के बीच की दीवार को गिरा पाते।।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जाहि निकारि गेह ते…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
वैचारिक रूप से समृद्ध व्यक्ति सही समय पर सही फैसले करता है। जनकल्याण उसके जीवन का मूल उद्देश्य होता है। कहते हैं-
प्रतिष्ठा का वस्त्र जीवन में कभी नहीं फटता, किन्तु वस्त्रों की बदौलत अर्जित प्रतिष्ठा, जल्दी ही तार- तार हो जाती है।
अक्सर लोग कहते हुए दिखते हैं- चार दिन की जिंदगी है, मौज- मस्ती करो, क्या जरूरत है परेशान होने की। कहीं न कहीं ये बात भी सही लगती है। अब बेचारा मन क्या करे? सुंदर सजीले वस्त्र खरीदे, पुस्तकें पढ़े, सत्संग में जाए या मोबाइल पर चैटिंग करे?
प्रश्न तो सारे ही कठिन लग रहे हैं, एक अकेली जान अपनी तारीफ़ सुनने के लिए क्या करे क्या न करे?
15 लोगों का समूह जिन्हें एक जैसी परिस्थितियों में रखा गया , भले ही वे अलग- अलग पृष्ठभूमि के थे किन्तु मिलजुलकर रहने लगे। इस सबमें थोड़ी बहुत नोकझोक होना स्वाभाविक है। यहाँ अवलोकन इस आधार को ध्यान में रखकर किया गया कि सबसे ज्यादा सक्रिय कौन सा सदस्य है। जो लगातार न केवल स्वयं को योग्य बना रहा है वरन वो सब भी करता जा रहा है जिसके कारण उसका चयन यहाँ हुआ है।
देखने में स्पष्ट रूप से पाया गया कि जमीन से जुड़ी प्रतिभा न केवल शारीरिक दृष्टि से मजबूत है बल्कि उसकी सीखने की लगन भी उसे शिखर पर पहुँचा रही है। वहाँ उपस्थित सभी लोग उसका लोहा मान रहे हैं। कुछ लोग दबी जुबान से उसकी तारीफ करते हैं।
कहने का अर्थ यही है कि लगातार सीखने की इच्छा आपको सर्वश्रेष्ठ बनाती है। केवल एक पल का विजेता बनना आपको शीर्ष पर भले ही विराजित कर दे किंतु हर क्षण का सदुपयोग करने वाला सच्चा विजेता होता है। उसका मुकाबला कोई नहीं कर सकता।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “असंग्रह (अपरिग्रह)…“।)
अभी अभी # 422 ⇒ खुरचन… श्री प्रदीप शर्मा
खुरचन एक अकर्मक क्रिया भी है, जिसमें कड़ाही, तसले आदि में चिपका तथा लगा हुआ किसी वस्तु का अंश किसी उपकरण अथवा चम्मच आदि से रगड़कर निकाला जाता है। त्वचा में खुजाल चलने पर, त्वचा को खुरचने की क्रिया के लिए खुर, यानी नाखूनों का उपयोग भी किया जाता है। पीठ की खुजाल का कोई हल नहीं, आप मेरी खुजालो, मैं आपकी खुजालूं।
बच्चे अक्सर नाखूनों से दीवार को खुरचने की कोशिश किया करते हैं। दीवार अथवा फर्श पर, इस तरह अकारण नाखून रगड़ने से, देखने वाले को, न जाने क्यूं, खीझ पैदा होती है। मां के मुंह से एक अक्सर एक शब्द सुनने में आता था, कुचराई, जिसका सामान्य अर्थ अनावश्यक छेड़छाड़, दखल अथवा टांग अड़ाना होता था। सभ्य समाज आजकल उसे उंगली करना कहता है।
वैसे खिसियानी बिल्ली खंभा ही नोचती है, यह सभी जानते हैं।।
बोलचाल की भाषा में बचे खुचे को भी खुरचन ही कहते हैं। जब भी घर में खीर अथवा कोई मिठाई बनती थी, तो खुरचन पर हमारा अधिकार होता था।
बर्तन भी साफ हो जाता था, और माल मलाई हमारे हाथ लग जाती थी।
खुरचन नाम से जले को खुरच कर बनाया हुआ मत समझिए, ये मिठाई है, मिठाई, वो भी शुद्ध मलाई से बनी हुई, मखमली स्वाद देने वाली। वैसे तो बुलंदशहर जिले का खुर्जा अपने पॉटरी उद्योग के लिए बेहद मशहूर है लेकिन इसके साथ-साथ इसकी पहचान एक अनोखी मिठाई से भी है। ऐसी मिठाई जिसका इतिहास 100 साल से भी ज्यादा पुराना है। ये मिठाई है शुद्ध दूध की मलाई से बनी खुरचन, जो मलाई की कई परतें जमने के बाद मखमली सी दिखती है। हालांकि इस मिठाई पर किसी एक जगह का एकाधिकार नहीं. हम इंदौर वाले भी किसी से कम नहीं।।
जो साहित्य में बरसों से जमे हुए हैं, और जिन्होंने कभी सृजन रस बरसाया भी है, और मलाई खाई भी है, वे भी देखा जाए तो अब बचा खुचा ही परोस रहे हैं, लेकिन हाथी दुबला होगा तो भी कितना और जो स्वाद के भूखे होते हैं, वे तो पत्तल तक चाट जाते हैं।
जिस तरह किसी भक्त के भाव के लिए ठाकुर जी के प्रसाद का एक कण ही पर्याप्त होता है, और गंगाजल की केवल दो बूंद ही अमृत समान होती है, उसी प्रकार काव्य, शास्त्र और साहित्य के चुके हुए मनीषियों की खुरचन भी पाठकों और प्रकाशकों द्वारा दोनों हाथों से बटोर ली जाती है।।
वरिष्ठ, सफेद बाल, खल्वाट और वयोवृद्ध नामचीन प्रसिद्धि और पुरस्कार प्राप्त, साहित्य को समृद्ध करने वाले कर्णधारों पर जब कोई असंतुष्ट यह आरोप लगाता है कि उनमें से अधिकांश चुक गए हैं और केवल खुरचन ही परोस रहे हैं, तो प्रबुद्ध पाठकों के कोमल मन को ठेस पहुंचती है।
बंदर क्या जाने खुरचन का स्वाद ! ज्ञानपीठ और राजकमल जैसी साहित्य की ऊंची दुकानों पर कभी फीके पकवान नजर नहीं आते। जो अधिक मीठे से परहेज करते हैं, केवल वे ही ऐसी खुरचन में मीन मेख निकालकर आरोप लगाते हैं, ऊंची दुकान फीके पकवान।।
साहित्य की खुरचन में भी वही स्वाद है, जो छप्पन भोग में होता है। कल के नौसिखिए हलवाई नकली खोए और कानपुरी मिलावटी घी से बने पकवान बेच साहित्य की असली खुरचन से बराबरी करना चाहते हैं। लेकिन दुनिया जानती है, खुरचन ही असल माल है। खुरचन से साहित्य जगत मालामाल है।।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक आलेख – “ओजोन कवच की आत्मकथा ”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 179 ☆
☆ आलेख – ओजोन कवच की आत्मकथा☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
मैं हूं ओजोन कवच, पृथ्वी की पारदर्शक छत। मैं वायुमंडल के ऊपरी भाग में मौजूद हूं, जहां से मैं सूर्य से आने वाले हानिकारक पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित करता हूं। ये विकिरण मनुष्यों, पौधों और जानवरों के लिए बहुत ही हानिकारक होते हैं। वे त्वचा कैंसर, मोतियाबिंद, प्रतिरक्षा प्रणाली को नुकसान और अन्य कई बीमारियों का कारण बन सकते हैं।
मेरी खोज 1913 में फ्रांस के भौतिकविदों फैबरी चार्ल्स और हेनरी बुसोन ने की थी। उन्होंने सूर्य से आने वाले प्रकाश के स्पेक्ट्रम में कुछ काले रंग के क्षेत्रों को देखा, जो पराबैंगनी विकिरण के अवशोषण के कारण थे।
मेरा निर्माण सूर्य से आने वाले ऑक्सीजन के अणुओं से होता है। ये अणु वायुमंडल में ऊपर उठते समय, उच्च तापमान और ऊर्जा के कारण टूट जाते हैं और ऑक्सीजन के तीन अणुओं से बने ओजोन अणुओं में बदल जाते हैं।
मैं पृथ्वी के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण सुरक्षा कवच हूं। मैं सूर्य से आने वाले हानिकारक पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित करके, जीवन को सुरक्षित रखने में मदद करता हूं।
अंतर्राष्ट्रीय ओजोन परिषद की स्थापना 1985 में हुई थी। इस परिषद ने ओजोन परत के संरक्षण के लिए कई समझौते किए हैं। इन समझौतों के तहत, दुनिया भर के देश ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थों का उपयोग कम करने या समाप्त करने पर सहमत हुए हैं।
ओजोन परत के संरक्षण के लिए किए गए प्रयासों के परिणामस्वरूप, ओजोन परत में क्षरण की दर में कमी आई है। हालांकि, ओजोन परत पूरी तरह से ठीक होने में अभी भी कई वर्षों का समय लगेगा।
मैं पृथ्वी के लिए एक अनिवार्य हिस्सा हूं। मैं जीवन को सुरक्षित रखने में मदद करता हूं। मैं सभी लोगों से मेरा संरक्षण करने का आग्रह करता हूं।
मेरा संदेश
मैं ओजोन कवच हूं, पृथ्वी की पारदर्शक छत। मैं आप सभी को याद दिलाना चाहता हूं कि मैं आपके लिए कितना महत्वपूर्ण हूं। मैं आपके जीवन को सुरक्षित रखने में मदद करता हूं। कृपया मेरा संरक्षण करें।
मैं आपसे निम्नलिखित बातें करने का अनुरोध करता हूं:
मुझे यानी ओजोन परत के बारे में जागरूकता बढ़ाएं।
मुझको नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थों का उपयोग कम करें या समाप्त करें।
अपने आसपास के पर्यावरण की रक्षा करें।
मैं आपके सहयोग की सराहना करता हूं। मिलकर हम मुझे यानी ओजोन परत को बचा सकते हैं और एक सुरक्षित भविष्य सुनिश्चित कर सकते हैं।