हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 260 – सार्थक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 260 सार्थक… ?

जीवन मानो एक दौड़ है। जिस किसी से पूछो, कहता है; वह दौड़ना चाहता है, आगे बढ़ना चाहता है। फिर बताता है कि अब तक जीवन में कितना आगे बढ़ चुका है। अलबत्ता कभी विचार किया कि आगे यानी किस ओर बढ़ रहे हैं? मनुष्य प्रतिप्रश्न दागता है कि यह कैसा निरर्थक विचार है? स्वाभाविक है कि जीवन की ओर बढ़ रहे हैं। सच तो यह है कि प्रश्न तो सार्थक ही था पर मनुष्य का उत्तर नादानी भरा है। जीवन की ओर नहीं बल्कि मनुष्य मृत्यु की ओर बढ़ रहा होता है। 

भयभीत या अशांत होने के बजाय शांत भाव से तार्किक विचार अवश्य करना चाहिए। मनुष्य चाहे न चाहे, कदम बढ़ाए, न बढ़ाए, पहुँचेगा तो मृत्यु के पास ही। मनुष्य के वश में यदि पीछे लौटना होता तो वह बार-बार लौटता, अनेक बार लौटता, मृत्यु तक जाता ही नहीं, फिर लौट आता, चिरंजीवी होने का प्रयास करता रहता।

स्मरण रखना, मृत्यु का कोई एक गंतव्य नहीं है,  बल्कि यात्रा का हर चरण मृत्यु का स्थान हो सकता है, मृत्यु का अधिष्ठान हो सकता है। विधाता जानता है मनुष्य की वृत्ति, यही कारण है कि कितना ही कर ले जीव, पीछे लौट ही नहीं सकता। जिज्ञासा पूछती है कि लौट नहीं सकते तो विकल्प क्या है? विकल्प है, यात्रा को सार्थक करना।

सार्थक जीने का कोई समय विशेष नहीं होता। मनुष्य जब अपने अस्तित्व के प्रति चैतन्य होता है, फिर वह अवस्था का कोई भी पड़ाव हो, उसी समय से जीवन सार्थक होने लगता है।

एक बात और, यदि जीवन में कभी भी, किसी भी पड़ाव पर मृत्यु आ सकती है तो किसी भी पड़ाव पर जीवन आरंभ क्यों नहीं हो सकता? इसीलिए कहा है,

कदम उठे, 

यात्रा बनी,

साँसें खर्च हुईं

अनुभव संचित हुआ,

कुछ दिया, कुछ पाया

अर्द्धचक्र पूर्ण हुआ,

भूमिकाएँ बदलीं-

शेष साँसों को

पाथेय कर सको 

तो संचय सार्थक है

अन्यथा

श्वासोच्छवास व्यर्थ है..!

ध्यान रहे, जीवन में वर्ष तो हरेक जोड़ता है पर वर्षों में जीवन बिरला ही फूँकता है। आपका बिरलापन प्रस्फुटन के लिए प्रतीक्षारत है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 3 अक्टूबर 2024 से नवरात्रि साधना आरम्भ हो गई है 💥

🕉️ इस साधना के लिए मंत्र इस प्रकार है-

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ मैं अकेला रहता हूं, पर अकेलेपन में नहीं – प्रो एम पी गुप्ता ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है श्री अजीत सिंह जी द्वारा प्रस्तुत एक अनुभव पर आधारित आलेख मैं अकेला रहता हूं, पर अकेलेपन में नहीं – प्रो एम पी गुप्ता…’।)

☆ आलेख – मैं अकेला रहता हूं, पर अकेलेपन में नहीं – प्रो एम पी गुप्ता ☆  श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

(हिसार में वरिष्ठ नागरिकों की हमारी संस्था वानप्रस्थ के सदस्य प्रो एम पी गुप्ता जी का 89वां जन्मदिन है। वे अकेले ही रहते हैं पर उनकी दिनचर्या सभी वरिष्ठ नागरिकों के लिए एक प्रेरणा जैसी है।)

☆ गूगल बन रहा है बुढ़ापे का दोस्त – अजीत सिंह ☆

छोटे होते परिवारों और रोज़गार के लिए दूर शहरों और विदेशों में जाने की नई पीढ़ी की मजबूरी के कारण अक्सर देखने में आता है कि माता-पिता बुढ़ापे में  अकेले ही रह जाते हैं। स्थिति उस समय और भी विकट ही जाती है जब पति-पत्नी में से कोई एक चल बसे।

हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय हिसार के पूर्व प्रोफेसर 87 वर्षीय डॉ एम पी गुप्ता 12 साल पहले पत्नी के स्वर्गवास होने के बाद  घर में अकेले रहते हैं लेकिन अकेलापन महसूस नहीं करते। उन्होंने इसका एक ढंग निकाल लिया है। वे रोजाना 4 घंटे घर में रखे कंप्यूटर  पर काम करते हैं। वे ब्रॉडबैंड सुविधा के साथ यह समय इंटरनेट पर अपनी मनमर्जी की जानकारी ढूंढने और उसे पढ़ने में लगाते हैं।

” मैं फेसबुक, वॉट्सएप जैसे सोशल मीडिया साइट पर अपना समय बर्बाद नहीं करता। वहां लोग ऊट-पटांग संदेश भेजकर अपना रौब जमाना चाहते हैं। अक्सर तो फॉरवर्ड किए गए संदेशों की भरमार रहती है। यह सब कुल मिलाकर बहुत बोरिंग होता है।

प्रो गुप्ता का कहना है कि गूगल का मामला अलग है हालांकि ये सभी इंटरनेट या ब्रॉडबैंड पर आधारित हैं।

“गूगल आपको आपकी मर्ज़ी की सूचना खोजने और आनंदित होने की सुविधा देता है। में चाहूं तो नोबेल पुरस्कारों के बारे उनके घोषित होते ही विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकता हूं। या फिर मेरी हॉबी फोटोग्राफी के बारे सब कुछ जान सकता हूं। चाहूं तो अपनी पसंद के पुराने पंजाबी गाने सुन सकता हूं और गीतों के  बोल भी प्राप्त कर सकता हूं”।

डॉ गुप्ता ने बताया कि उन्होंने अपने पैतृक कस्बे जगराओं और वहां की मशहूर हस्ती लाला लाजपतराय के बारे में रोचक जानकारी हाल ही में गूगल से ही प्राप्त की।

“मुझे यह जानकर खुशी मिली कि लाला लाजपतराय जगराओं से हिसार आए थे वकालत के लिए और मैं जगराओं से हिसार आया था नौकरी के लिए और यहीं का होकर रह गया।

“समाचार माध्यमों से या फिर मित्रों से बातचीत में अक्सर कुछ सवालों के जवाब पूरे नहीं मिल पाते। गूगल पर जाकर मैं उनके जवाब ढूंढ लेता हूं। ऐसा करने पर मुझे एक तरह की संतुष्टि और आनंद मिलता है। मुझे ऐसा भी लगता है कि काश यह सुविधा उस वक़्त उपलब्ध होती जब मैं यूनिवर्सिटी में पढ़ाता था। उस समय जानकारी इकट्ठा करने के लिए लाइब्रेरियों के चक्कर लगाने पढ़ते थे। कई हफ्ते लग जाते थे। अब वही काम एक दो घंटे या फिर एक दो दिन में हो जाता है।

पहले पुस्तक ढूंढ़ना, फिर जानकारी ढूंढ़ना और फिर हाथ से नोट लिखना या संबंधित पृष्ठों की फोटो कॉपी लेना, यह सब काफी लंबी व ऊबाऊ प्रक्रिया थी। आज तो गूगल पर जानकारी सर्च करना है और फिर उसका कॉपी-पेस्ट लेना है। सीधा प्रिंट ले लो या पेन ड्राइव में डाल लो।

डॉ गुप्ता कहते हैं कि वरिष्ठ नागरिकों को कंप्यूटर व स्मार्टफोन की टेक्नोलॉजी अवश्य सीखनी चाहिए। यह बहुत ही आसान है। गूगल का भरपूर उपयोग करना चाहिए मगर फेसबुक और वॉट्सएप की लत नहीं डालनी चाहिए।

गूगल आपका अकेलापन दूर कर देगा। आप बुढ़ापे का आनंद ले सकेंगे, अपनी शर्तों पर, मन चाहे ढंग से।

डॉ गुप्ता की राय है कि बच्चों को भी वॉट्सएप और फेसबुक की बजाय गूगल के उपयोग की तरफ मोड़ना चाहिए। इसमें अध्यापकों व अभिभावकों की अहम भूमिका होगी।

“जिसकी हमें ज़रूरत है , हम वही जानकारी लेंगे। किसी की हम पर थोंपी जा रही जानकारी क्यों लें?”

“बुढ़ापे में अकेलापन बहुत से लोगों को परेशान करता है। इसे दूर करने के लिए टेक्नोलॉजी की मदद ली जा सकती है। समाचारपत्र, रेडियो, टेलीविजन ये सभी एकतरफा संवाद करते हैं। अपनी सुनाते हैं, हमारी नहीं सुनते। हमारा सारा समय भी खा जाते हैं। गूगल आज्ञाकारी पुत्र है। जब कहोगे, तभी हाज़िर होगा, जो मांगोगे वही ला कर देगा। आजकल मैं गूगल की मदद से अंगदान, देहदान के बारे में जानकारी इकट्ठा कर रहा हूं”।

डॉ एम पी गुप्ता 1996 में प्रोफेसर के पद से रिटायर हुए थे। बेटा सेना में कर्नल है और दो बेटियां जयपुर और दिल्ली में अच्छी तरह अपनी अपनी घर गृहस्थी चला रही हैं।  बातचीत होती रहती है, मिलना जुलना समय समय पर ही हो पाता है, पर यह कोई समस्या नहीं है।

” मैं अकेला रहता हूं, पर अकेलेपन में नहीं। कुछ साथी मिलते रहते हैं, और सबसे बढ़िया दोस्त गूगल है जो हरदम मेरे साथ ही रहता है”।

डॉ गुप्ता की  ज़िन्दगी यूं तो सही ढंग से चली पर  2009 में पत्नी को ब्रेन कैंसर हुआ तो कष्ट भी उठाना पड़ा। 2012 में उनका स्वर्गवास हुआ और तबसे डॉ गुप्ता अकेले ही रहते हैं।

“बुढ़ापे की सही काट यह है कि आदमी अपनी पसंद के किसी रचनात्मक शौक को अपना ले। किसी चीज़ से इश्क करले; पेंटिंग, बागबानी, ज्ञानवर्धन, गायन, लेखन,शेरो-शायरी, किसी से भी।  दोस्तों की मंडली भी ज़रूरी है। यह मानसिक सेहत के लिए अति आवश्यक है। खुशी एक मानसिक अवस्था मात्र है। ज़िन्दगी में न ऊंचे पहाड़ हैं न गहरी घाटी। बस छोटे मोटे उतार चढ़ाव हैं”।

डॉ गुप्ता बुधवार व शुक्रवार को वरिष्ठ नागरिकों की संस्था वानप्रस्थ की बैठकों में नियमित रूप से जाते हैं। सेक्टर-15 में उनके कई पुराने मित्र रहते हैं जिनके साथ वे सुबह शाम की सैर भी करते हैं और गपशप भी।

“गपशप बहुत ज़रूरी है, हंसना हंसाना ज़रूरी है और मिलना जुलना बहुत ज़रूरी है।

उम्र की परवाह न करें। मस्त रहें।

स्व. अटल बिहारी बाजपेयी जी  की कविता याद रखें,

‘उम्र का हरेक दौर मज़ेदार है

अपनी उम्र का मज़ा लीजिये।

ज़िंदा दिल रहिए जनाब,

ये चेहरे पे उदासी कैसी,

वक्त तो बीत ही रहा है,

उम्र की ऐसी की तैसी…!

☆ ☆ ☆ 

© श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन हिसार।

मो : 9466647037

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार से स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 494 ⇒ ॥ दीवार॥ ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हमारे पास भी भेजा है ।)

?अभी अभी # 494 ⇒ ॥ दीवार॥ ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

THE WALL

यहां हम अमिताभ बच्चन अभिनीत, और सलीम जावेद के संवाद वाली फिल्म दीवार का जिक्र नहीं कर रहे। हम उस दीवार का जिक्र कर रहे हैं जो दो घरों के बीच, दो दिलों के बीच, और दो मुल्कों के बीच खड़ी हो जाती है। बंटवारे की त्रासदी तो हमने सुनी है, लेकिन देखी नहीं, क्योंकि हमारा जन्म आजादी के बाद ही हुआ है। एक दीवार घर बनाती है और एक दीवार घर का बंटवारा करवाती है। एक दीवार पैसे की भी होती है। मुकेश का यह गीत शायद आपने सुना हो ;

चाँदी की दीवार न तोड़ी, प्यार भरा दिल तोड़ दिया

इक धनवान की बेटी ने, निर्धन का दामन छोड़ दिया

दुनिया की सबसे बड़ी दीवार चीन की है। यह अलग बात है कि इसी चीन ने हाल ही में कोरोनावायरस फैलाकर इंसान और इंसान के बीच भी दीवार खड़ी कर दी थी। कभी हमारे घरों की भी दीवारें मोटी होती थी आजकल तो 4 इंच की दीवारों से ही काम चल जाता है। पुराने किलों की दीवारें देखिये, वे इतनी चौड़ी और मोटी होती थी कि उनके ऊपर से हाथी गुजर जाते थे।।

पैतृक संपत्ति में आजकल अपना हिस्सा कोई नहीं छोड़ता। गांव में संयुक्त परिवार की जमीन जायदाद होती थी परिवार के सभी सदस्य एक साथ रहते थे। कुछ मकानों में तो सिर्फ देखरेख और रखरखाव के लिए ही किसी रिश्तेदार अथवा जरूरतमंद परिवार को बिना किराए के ही रख लिया जाता था। सदियां गुजर जाती थी और मकान पर जिसका कब्जा था उसका ही हो जाता था।

वक्त करवट लेता है, परिवारों में प्रेम और सम्मान का स्थान स्वार्थ और लालच ले लेता है। परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों की तो छोड़िए, आज के समय में तो पुराने किराएदार भी मकान खाली नहीं करते। जब मुआवजे से भी बात नहीं बनती तो कानूनी कार्रवाई करनी पड़ती है।।

अगर कोई व्यक्ति सीधा-साधा और कमजोर हुआ तो जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला सिद्धांत लागू हो जाता है। अतिक्रमण और अवैध कब्जा आजकल आम बात है। आज भी गांवों में अधिकतर विवाद जर जोरू और जमीन को लेकर ही होते हैं। शहरों में तो बहू के आते ही बंटवारे शुरू हो जाते हैं घरों में दीवार खड़ी हो जाती है।

कानून आपको कर्तव्य नहीं सिखाता केवल अधिकार की लड़ाई लड़ना ही सिखाता है। व्यक्ति में प्रेम और त्याग की जगह जब स्वार्थ और लालच जन्म ले लेता है, तब इंसान और इंसान के बीच नफरत की दीवार खड़ी हो जाती है। इधर रिश्ते में दरार आई और उधर दीवार खड़ी हुई। देखिए, जगजीत सिंह की यह खूबसूरत ग़ज़ल, जिसमें दर्द भी है और उम्मीदभी ;

रिश्तों में दरार आई

बेटे ना रहे बेटे,

भाई ना रहे भाई

रिश्तों में दरार आई

परखा है लहू अपना,

भरता है ज़माने को

तूफ़ान में कोई भी,

आया ना बचाने को

साहिल पे नज़र आए, कितने ही तमाशाई

रिश्तों में दरार आई

ढूँढे से नहीं मिलता,

राहत का जहाँ कोई

टूटे हुए ख़्वाबों को,

ले जाए कहाँ कोई

हर मोड़ पे होती है, एहसास की रूसवाई

रिश्तों में दरार आई

ज़ख़्मों से खिली कलियाँ, अश्क़ों से खिली शबनम

पतझड़ के दरीचे से,

आया है नया मौसम

रातों की स्याही से,

ली सुबहो ने अंगड़ाई

रिश्तों में दरार आई

ख़ामोश नज़र दिल का क्या राज़ छिपाएगी

टूटेगा अगर शीशा आवाज़ तो आएगी

अब अपना मुकद्दर है,

ये दर्द ये तन्हाई

रिश्तों में दरार आई

मुश्किल हैं अगर राहें, इतनी भी नहीं मुश्किल

ख़्वाबों पे यकीं हो तो,

कैसे न मिले मंज़िल

वो देख तेरी मंज़िल

बाहों में सिमट आई

रिश्तों में दरार आई।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ सुप्रसिद्ध लेखिका ममता कालिया को  उदयराज सम्मान – अभिनंदन ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ आलेख ☆ सुप्रसिद्ध लेखिका ममता कालिया को  उदयराज सम्मान – अभिनंदन ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

सुप्रसिद्ध लेखिका श्रीमती ममता कालिया को प्रतिष्ठित उदयराज सम्मान प्रदान किया जायेगा। फोन पर बधाई देते समय जब मैंने ममता जी की प्रतिक्रिया जाननी चाही तब उन्होंने कहा कि पूरे सात साल बाद उन्हें कोई पुरस्कार मिलेगा। सात साल पहले व्यास सम्मान मिला था । इस तरह मेरे घर व जीवन में बारिश के छींटे पड़े हैं ।

श्रीमती ममता कालिया ने कहा कि अब तो पत्र पत्रिकाओं से पहले जैसा पारिश्रमिक भी नहीं आता । पुरस्कारों और पारिश्रमिक पर जैसे धूल पड़ गयी हो ।

श्रीमती ममता कालिया ने स्वर्गीय उदयराज को भी स्मरण करते कहा कि मैं उनसे सन् 1970 में पटना में आयोजित एक समारोह में मिली थी । मैं मुम्बई से समारोह में भाग लेने आई थी और आयोजकों ने एक साधारण सी धर्मशाला में रहने की व्यवस्था कर रखी थी

मेरी दुविधा देखते हुए उदयराज जी मुझे अपने घर ले गये, जहां दूसरे लेखक भी पहुंच गये और माथे पर बिना शिकन डाले उन्होंने सभी का आतिथ्य किया।

पुरस्कार की घोषणा नई धारा, पटना के संपादक डाॅ प्रमथराज ने की, जोकि नई धारा के स्वामी व कुलपति  भी हैं । श्री प्रमथराज ने बताया कि सम्मान स्वरूप ममता कालिया को एक लाख रुपये व स्मृति चिन्ह प्रदान किये जायेंगे। उन्होंने बताया कि डाॅ रामदरश मिश्र की अध्यक्षता में गठित तीन सदस्यीय समिति ने श्रीमती ममता कालिया का चयन किया।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख ☆ स्मृति शेष राजुरकर राज : एक ज़िद्दी स्वप्न दृष्टा ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज प्रस्तुत है  स्व राजुरकर राज जी  पर आपका आलेख )

(२७ सप्टेंबर १९६१ – १५ फेब्रुवारी २०२३)

? आलेख ☆ स्मृति शेष राजुरकर राज : एक ज़िद्दी स्वप्न दृष्टा ☆ श्री सुरेश पटवा ?

हमारा वीर सिपाही इस बात को जानता था कि स्वप्न देखना आसान है लेकिन उसे सच की ज़मीन पर उतरना अत्यंत दुष्कर काम होता है। नामचीन साहित्यकारों की पांडुलिपियाँ, दैनिक उपयोग की चीजें, आवाजों के नमूने और न जाने क्या-क्या समेटने के जुनून ने घर में चीजों का ढेर लगाना शुरू कर दिया, और घर भी क्या डेढ़ कमरे का मकान जिसमें बैठक, शयन कक्ष, रसोई, गुसलख़ाना सब कुछ शामिल। चीजों का ढेर लगता जा रहा था। पति-पत्नी दोनों नौकरीशुदा। घर-गृहस्थी सम्भालना मुश्किल होता है तो इन बाहरी चीजों का ढेर लगाना झुँझलाहट और तकरार को जन्म देता था।

राजुरकर जानते थे कि स्वप्न वह नहीं जो सोते हुए नींद में देखे जाते हैं, बल्कि स्वप्न वह होता है जो आपकी नींद ही उड़ा दे। वे रात-रात भर जाग कर बहुमूल्य चीजों को व्यवस्थित करते। उन्हें इस तरह देखते जैसे कोई माँ अपने सोते बच्चे के मासूम चेहरे को निहार कर गर्व से भर जाती है। 

उसके लिए संघर्ष का एक लम्बा रास्ता तय करना था।  गृहस्थी और नौकरी की परेशानियाँ के बीच रास्ता आसान नहीं था।  इसमें कदम-कदम पर कठिनाइयाँ उनका स्वागत करतीं।  वास्तव में रास्ता तनावभरा होता। वो जानते थे कि जो इन रास्तों पर चलते हैं, उनकी राह में मुश्किलें आती ही हैं, पर उन्हें आसान रास्ता कतई पसंद नहीं था। वे सदैव नए रास्तों की तलाश में होते। यह जानते हुए भी कि यह नया रास्ता तनाव भरा होगा, फिर भी वे चल पड़ते अपना रास्ता स्वयं बनाते हुए एक तयशुदा मंजिल की ओर….। राजुरकर राज उन्हीं विरले लोगों में से हैं, जिन्हें अपना रास्ता स्वयं तलाशने और बनाने की ज़िद होती है, उन्हें उसी में आनंद आता था।

इस मुश्किल राह पर उनका साथ देने आये अशोक निर्मल। जिनकी अध्यक्षता में एक अनौपचारिक समिति गठित हुई। उन्हें दुष्यंत कुमार जी की पत्नी श्रीमति राजेश्वरी त्यागी जी का सहयोग मिलने लगा। दुष्यंत जी से जुड़ी चीजें क़रीने से रखी जाने लगीं। उन्होंने उस डेढ़ कमरे के मकान में “दुष्यंत कुमार स्मारक पांडुलिपि संग्रहालय” नाम का पौधा रोप दिया। दोनों उस पौधे को देखते, उसकी नाज़ुक पत्तियों की सहलाते, उसे धूप और पानी देते और बारिश में अति पानी और गर्मी के दिनों में धूल से बचाते। जब चीजों को सहेजने हेतु कमरा छोटा पड़ने लगा तो बड़ा मकान लेने की बात पर विचार हुआ। उन्होंने सितम्बर 1999 में नेहरू नगर स्थित उद्धवदास मेहता परिसर में एक मकान ले लिया। घर के सामान के साथ संग्रहालय भी नये आवास में घर के सदस्य की भाँति छोटे ट्रक पर लद कर पहुँच गया। नये आवास में घर के बाक़ी सदस्य अपनी-अपनी चीजों को व्यवस्थित करके बैठ गए। संग्रहालय की चीजों का ढेर राजुरकर राज का मुँह चिढ़ाता रहा। उन्होंने रात-रात भर जागकर चीजों को क़रीने से ज़माना शुरू किया। जगह की क़िल्लत ने झिकझिक और तकरार को जन्म दिया। लेकिन स्वप्न दृष्टा अडिग था। अपनी बनाई राह पर चलता रहा।

समिति का पंजीयन कराया। कार्यकारिणी गठित की। यह सब आसान नहीं होता। समिति का विधान बनाना, नियमित बैठक करना, सरकारी महकमे को प्रतिवेदन भेजना, आवश्यक धन की व्यवस्था करना और समिति में उपजते अंतर्विरोधों को सुलझाना, विघ्नसंतोषियों की चालों को काटना, ग़लत आलोचनाओं और निंदा को अनदेखा करना। राजुरकर की ज़िद अशोक निर्मल का साथ मिलने से इन सबका सामना करते हुए तय मंज़िल की तरफ़ बढ़ती रही।  

यह एक छोटा-सा पौधा था, जिसे सपनों ने रोपा और जिसे अपनों का सम्बल मिला, वह आज सघन बटवृक्ष बन गया है। ढेर सारी उपलब्धियों के बीच राजुरकर भले ही अपने स्वास्थ्य को लेकर धीमे कदमों से चलते रहे, पर सच तो यह है कि उनके कदम सधे हुए थे। अपनी मिलनसारिता के चलते दोस्तों के साथ गति बनी रही। इस दौरान कई आपदाएँ भी आई, सभी का बहादुरी से सामना किया।

कितना बलिदान, कितना श्रम, कितना धन, कितनी पीड़ा व कितना समर्पण, इन सबसे  गुजरकर राजुरकर ने अपना तन मन धन अर्पित कर अपने भीतर संजोये स्वप्न को ग्लेशियर के पिघलने की गति से साकार किया। अपने दो कमरे के आवास का एक कमरा “संग्रहालय“ बना दिया था। बाक़ी पूरा परिवार एक कमरे में गुज़ारा करता था।

राजुरकर राज के इस कार्य में प्रमुख रूप से सहयोग करने वालों में कुछ नाम का उल्लेख  वो हमेशा करते थे, अशोक निर्मल, बाबूराव गुजरे, घनश्याम मैथिल, आर एस तिवारी, श्रीमती करुणा राजुरकर।  बाद में पुत्रवत संजय राय आ जुड़े। जिनके सहयोग के बिना ये दुष्कर कार्य संभव नहीं हो सकता था।

कई साथी इस सफर में शामिल हुए, तो कई बिछुड़ भी गए। मिलने और बिछुड़ने के इस क्रम में भाई राजुरकर का स्वास्थ्य भी उनका साथ छोड़ने लगा था। अपनों का प्यार और कुछ कर गुज़रने मी ज़िद उन्हें वापस अपने कर्मपथ पर ले आता था। दुर्लभ, अनोखी और अनमोल धरोहर के बीच राजुरकर भी अनमोल होते चले गए। उनके ख़्वाब को पंख तो लग गये लेकिन मुश्किलें कम नहीं थीं। 1997 से यह सफर शुरू हुआ, 2023 तक न जाने कितने पड़ाव तय किए। सबका लेखा जोखा नहीं किया जा सकता। 

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 493 ⇒ लडुअन का भोग ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लडुअन का भोग।)

?अभी अभी # 493 ⇒ लडुअन का भोग? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 बधाई हो बधाई

जन्मदिन पे तुमको

तुम्हारी होगी शादी

मिलेंगे लड्डू हमको…

हमें अच्छी तरह याद है प्रयागराज वाले शुक्ल जी के यहां, उनके सुपुत्र के शुभ विवाह के मंगल प्रसंग के अवसर पर, उनके द्वारा भेजे गए प्रेम रस से सराबोर लड्डुओं का हमने यहां सुदूर, इंदौर में आस्वादन किया था।

उन्हें शायद पता था, लड्डू हमारी कमजोरी है। लड्डू पेड़े की जोड़ी बहुत पुरानी है। हर खुशी के मौके पर लड्डू बांटे जाते हैं। लड्डू की महिमा इतनी विचित्र है, कि कभी कभी तो बिना खाए ही मन में लड्डू फूटने लगते हैं।।

पकवान कोई भी हो, बिना दूध और घी के नहीं बनता। घी भी एक तरह से मिल्क प्रोडक्ट ही तो है।

हर प्रकार के दूध में कम अथवा ज्यादा मात्रा में एनिमल फैट होता है जिसे बोलचाल की भाषा में फैट कहा जाता है। दूध पीने से बच्चे ताकतवर बनते हैं।

मां के दूध का कोई विकल्प नहीं।

मैं बचपन से ही भैंस को दूध पीता चल रहा हूं, क्योंकि भैंस के दूध में ज्यादा मलाई आती है। अक्ल बड़ी कि भैंस ? हो सकता है, भैंस के दूध से मुझे कम अक्ल आए, लेकिन फिर भी मेरी अक्ल कभी घास चरने नहीं गई।।

मलाई दूध की हो अथवा दही की, बिल्ली के मुंह मारने के पहले मैं चट कर जाता हूं। रबड़ी शब्द सुनकर तो आज भी मेरे मुंह में पानी आ जाता है।

मुझे डालडा घी से एलर्जी है। असली घी अगर मिलावट वाला हुआ तो मेरी खैर नहीं, एकदम सांस चलने लगती है, इसलिए बहुत सोच समझ कर कम मात्रा में ही दूध और शुद्ध घी से बने पदार्थों का सेवन करना पड़ता है। दूध की अधिक मलाई से घर में ही डेयरी खुल जाती है, असली घी, मक्खन और छाछ आसानी से उपलब्ध हो जाती है।

खाद्य पदार्थों में मिलावट एक दंडनीय अपराध तो है ही लेकिन करोड़ों लोगों की आस्था के साथ खिलवाड़ पाप की श्रेणी में आता है। अपराधियों को दंड तो खैर कानून दे ही देगा लेकिन जो पाप के भागी हैं, उनका हिसाब तो ऊपर वाला ही करेगा। एक आस्थावान भक्त तो सिर्फ प्रायश्चित ही कर सकता है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 492 ⇒ मक्खी, मच्छर, खटमल ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मक्खी, मच्छर, खटमल।)

?अभी अभी # 492 ⇒ मक्खी, मच्छर, खटमल? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारे युग ने भले ही डायनासोर की प्रजाति को ना देखा हो, लेकिन जुरासिक पार्क तो देखा है, मक्खी मच्छर से तो हमारा रोज पाला पड़ता है लेकिन खटमल की तो अब केवल याद ही शेष रह गई हैं।

आज भी मक्खी को उड़ाया जाता है और मच्छर को मारा जाता है, क्योंकि मक्खी गंदगी फैलाती है और मच्छर मलेरिया चिकनगुनिया और डेंगू जैसी जानलेवा बीमारियां। जो प्रबुद्ध नागरिक बढ़ती जनसंख्या और स्वास्थ्य के प्रति सजग होते हैं, वे छोटे परिवार के साथ ही पेस्ट कंट्रोल द्वारा अपने परिवार की बीमारियों से रक्षा करते हैं।

मक्खी मच्छरों को गंदगी बहुत पसंद होती है। जहां तहां रुके हुए पानी और गंदे नालों में इनकी आबादी दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती रहती है। मक्खी तो सुना है, जहां बैठती है वहीं अंडे देना शुरू कर देती है। जीव: जीवस्य भोजनम् के सिद्धांत के अनुसार ये कीट पतंग भी किसी का भोजन हैं, इसीलिए ये जीव समुद्र की मछली की तरह थोक में पैदा होते हैं। ।

आज की पीढ़ी ने शायद खटमल का सिर्फ नाम ही सुना होगा देखा नहीं होगा। ये जीव अपने आप में चलते-फिरते ब्लड बैंक होते थे, क्योंकि हमारा खून ही इनका भोजन होता था। जो लोग इन खटमलों के दौर से गुजरे हैं वे जानते हैं, यह गीत उनके लिए ही लिखा गया था ;

करवटें बदलते रहे

सारी रात हम

आपकी कसम

आपकी कसम

घर की कुर्सियों में, खाट में, अलमारी में, दीवारों के गड्ढे में, कहां नहीं होते थे ये खटमल। रात होते ही ये अपने घरों से निकल पड़ते थे इंसान का खून पीने।

घासलेट यानी केरोसिन इनका दुश्मन था। अब आप बिस्तर में तो घासलेट नहीं छिड़क सकते ना। इसलिए रात रात भर जागकर, एक पानी की कटोरी में इन्हें गिरफ्तार किया जाता था, तब जाकर इंसान रात में चैन की नींद सो पाता था।

सुना है जिन देशों में मच्छर नहीं है वहां मलेरिया भी नहीं है। काश खटमल की तरह यह मच्छर की प्रजाति भी हमारा पीछा छोड़ दे तो हम कितनी जान लेवा बीमारियों से बच सकते हैं। कहते हैं, Prevention is better than cure, यानी रोकथाम, इलाज से बेहतर है। बढ़ती जनसंख्या की तरह ही, गंदगी भी अभिशाप है। ।

सफाई और बदबू का आपस में क्या मेल ? ऐसा क्यों होता है कि हमें आसपास सफाई तो नजर आ जाती है लेकिन फिर भी ना जाने कहां से, नाक में बदबू भी प्रवेश कर ही जाती है। तामसी और सड़ा हुआ भोजन बहुत जल्दी बदबू फैलाता है। ‌

इंपोर्टेड परफ्यूम और डिओडरेंट का प्रचलन बाजार में यूं ही नहीं है।

मच्छरों से लड़ने के लिए हमारे पास बहुत हथियार हैं, ऑल आउट, ऑडोमास और काला हिट। बाजार में खुली मिठाइयों पर मक्खियों का राज होता है। कटे फल और देर तक रखा हुआ सलाद भी इनकी नजर से बच नहीं सकता। मक्ख महारानी गंदे नाले से निकलकर आती है, और भोजन पदार्थ पर बैठकर अंडे देकर चली जाती है। हमारे पास कहां माइक्रोस्कोप है। सुरक्षा और सावधानी ही इसका एकमात्र विकल्प है।

याद आती है, वह धुएं की मशीन, जो डीडीटी छिड़ककर कभी मोहल्ले से मच्छरों का सफाया करती थी। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 215 ☆ हिन्दी पखवाड़ा … ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना हिंदी पखवाड़ा। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 215 ☆ हिंदी पखवाड़ा

सागर में मिलती धाराएँ, हिन्दी सबकी संगम है।

शब्द, नाद, लिपि से भी आगे, एक भरोसा अनुपम है। ।

गंगा कावेरी की धारा, साथ मिलाती हिन्दी है।

पूरब- पश्चिम, कमल- पंखुरी, सेतु बनाती हिन्दी है। ।

 – गिरजा कुमार माथुर

हिन्दी का गुणगान करती हुयी अद्भुत पंक्ति अपने आप में सबके हृदय की भावनाओं का उद्गार ही है जो कवि गिरजा कुमार माथुर जी की लेखनी से प्रस्फुटित हुआ।

राष्ट्र निर्माण का कार्य हमारे शिक्षक बखूबी करते हैं। भारत के द्वितीय राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन जी के जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाकर हम सभी अपने शिक्षकों को नमन करते हुए उनके दिखाए रास्तों को याद कर उस पर चलने हेतु हर वर्ष संकल्प लेते हैं।

हिन्दी को जब तक हम बोलचाल, लेखन, कार्यालयीन व अध्ययन में शामिल नहीं करेंगे तब तक इसे राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित होने के लिए संघर्ष करना ही पड़ेगा। हमें प्रान्तवाद से ऊपर उठ कर देशहित में चिंतन करना चाहिए। जहाँ के निवासी अपनी भाषा व बोली का सम्मान नहीं करते उनका विकास वहीं रुक जाता है।

हम सबको एक जुट होकर संकल्प लेना चाहिए कि केवल हिन्दी को ही बढ़ावा देंगे। विश्व गुरु बनने की चाहत मातृ हिन्दी के प्रयोग से ही संभव हो सकती है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #188 – आलेख – बाल साहित्यकार कैसा हो ? – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख “बाल साहित्यकार कैसा हो?

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 188 ☆

☆ आलेख – बाल साहित्यकार कैसा हो? ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

☆ जो बच्चों को जाने वही बाल साहित्यकार : जो बच्चों को दुनिया की सैर कराएं

क्या सच में सिर्फ बच्चे को जानने वाला ही बाल साहित्यकार हो सकता है?

यह एक दिलचस्प सवाल है जिसके जवाब में हमें बाल साहित्य की गहराइयों में उतरना होगा। क्या बाल साहित्य सिर्फ मनोरंजन का माध्यम है या इससे कहीं ज्यादा है? क्या एक बाल साहित्यकार का काम सिर्फ बच्चों को कहानियां सुनाना है या उनका मन और मस्तिष्क भी विकसित करना है?

बाल साहित्य: सिर्फ कहानियां नहीं

बाल साहित्य बच्चों के लिए एक खिड़की की तरह होता है, जिसके ज़रिए वे दुनिया को देखते हैं। यह उनके मन को समृद्ध करता है, उनकी कल्पना शक्ति को बढ़ाता है और उन्हें जीवन के मूल्यों से परिचित कराता है। एक अच्छा बाल साहित्यकार न केवल बच्चों को मनोरंजन करता है बल्कि उन्हें सोचने, समझने और सवाल करने के लिए प्रेरित भी करता है।

बच्चों को जानना जरूरी, लेकिन काफी नहीं

हाँ, यह सच है कि एक बाल साहित्यकार को बच्चों की मनोदशा, उनकी रुचियों और उनकी भाषा को अच्छी तरह समझना चाहिए। लेकिन सिर्फ इतना ही काफी नहीं है। एक सफल बाल साहित्यकार को एक अच्छे लेखक की तरह होना भी जरूरी है। उसे कहानी कहने की कला आनी चाहिए, पात्रों को जीवंत बनाना आना चाहिए और भाषा पर पकड़ होनी चाहिए। वह क्या लिखकर क्या संदेश भेज देना चाहता है? यह सब बातें उसे आनी चाहिए।

बच्चे जिस चीज के बारे में नहीं जानते हैं उस अज्ञात चीजों को बातें करके उनकी रूचि और जिज्ञासा को बढ़ाया जा सकता है। उदाहरण के लिए हम रूडयार्ड किपलिंग का उदाहरण लें। उन्होंने ‘जंगल बुक’ जैसी कहानियों के माध्यम से बच्चों को प्रकृति और जानवरों के बारे में बहुत कुछ सिखाया। चूँकि बच्चे उनके बारे में नहीं जानते हैं इसलिए ऐसी कहानी पढ़ने में उनकी बहुत जरूरी रहती है। ऐसी कहानियों को आनंद के साथ पढ़ते हैं।

एक अच्छा बाल साहित्यकार वह होता है जो:

बच्चों की भाषा में लिखता है: वह ऐसी भाषा का प्रयोग करता है जिसे बच्चे आसानी से समझ सकें।

कल्पना शक्ति को बढ़ाता है: वह बच्चों की कल्पना शक्ति को उड़ान देने के लिए नए-नए विचारों और कहानियों का प्रयोग करता है।

सकारात्मक मूल्यों को बढ़ावा देता है: वह बच्चों में सत्य, अहिंसा, प्रेम और करुणा जैसे गुणों को विकसित करने के लिए प्रेरित करता है।

बच्चों को सोचने के लिए प्रेरित करता है: वह बच्चों को सवाल करने और अपनी राय बनाने के लिए प्रोत्साहित करता है।

बच्चों के हितों को ध्यान में रखता है: वह ऐसी कहानियाँ लिखता है जो बच्चों को पसंद आती हैं और उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं।

निष्कर्ष

बाल साहित्यकार होना सिर्फ एक बच्चे को जानने से कहीं ज्यादा है। यह एक कला है, एक शिल्प है, एक भाव और एक जिम्मेदारी भी है। एक अच्छा बाल साहित्यकार बच्चों के लिए एक मित्र, एक गुरु, एक पालक और एक मार्गदर्शक होता है। वह बच्चों के मन में बीज बोता है जो पूरे जीवन भर फलते-फूलते रहते हैं।

अंत में, यह कहना गलत होगा कि सिर्फ बच्चे को जानने वाला ही बाल साहित्यकार हो सकता है। एक सफल बाल साहित्यकार वह होता है जो बच्चों को जानने के साथ-साथ एक अच्छा लेखक भी होता है।

आप क्या सोचते हैं? क्या आप सहमत हैं इस बात से कि सिर्फ बच्चे को जानने वाला ही बाल साहित्यकार हो सकता है?

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14-08-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 307 ☆ आलेख – कृषि और देश की सुरक्षा को बराबर महत्व देने वाले हमारे दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 306 ☆

?  आलेखकृषि और देश की सुरक्षा को बराबर महत्व देने वाले हमारे दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

2 अक्टूबर को महात्मा गांधी के जन्मदिन के साथ-साथ स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री का भी जन्मदिन है। जब दूसरे भारत पाकिस्तान युद्ध के समय हमे अपनी खाद्य जरूरतों के लिए अमेरिका का मुंह देखना पड़ा तो स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान जय किसान का महत्वपूर्ण नारा दिया था। उन्होंने देश व्यापी उपवास को अपना अस्त्र बनाया। जनता में देश के लिए उत्सर्ग का आचरण प्रदर्शित किया। आम लोगों ने उनके आव्हान पर आगे बढ़कर प्रधानमंत्री सहायता कोष में अपने गहने दान किए। सदैव अपने परिश्रम, कर्तव्य और आचरण से ईमानदारी और सादगी की एक अनुकरणीय मिसाल उन्होंने बनाई । छोटी उम्र में ही उनने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लिया था, और कई लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बने।

 लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी से सात मील दूर एक छोटे से रेलवे टाउन, मुगलसराय में हुआ था। उनके पिता शारदा प्रसाद श्रीवास्तव एक स्कूल शिक्षक थे। जब लाल बहादुर शास्त्री केवल डेढ़ वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया था। तब उनकी माँ रामदुलारी देवी अपने तीनों बच्चों के साथ अपने पिता के घर मिर्जापुर जाकर बस गईं। यहीं पर शास्त्री जी का पालन पोषण हुआ और उनकी प्राथमिक शिक्षा शुरू हुई। कहा जाता है कि उस छोटे-से शहर में शास्त्री जी की स्कूली शिक्षा कुछ खास नहीं रही उन्होंने वहाँ काफी विषम परिस्थितियों में शिक्षा हासिल की। वहीं उन्हें स्कूल जाने के लिए रोजाना मीलों पैदल चलना और नदी पार करनी पड़ती थी। बड़े होने के साथ ही शास्त्री जी ब्रिटिश हुकूमत से आजादी के लिए देश के संघर्ष में रुचि रखने लगे। वे भारत में ब्रिटिश शासन का समर्थन कर रहे भारतीय राजाओं की महात्मा गांधी द्वारा की गई निंदा से अत्यंत प्रभावित हुए थे। शास्त्री जी जब केवल ग्यारह वर्ष के थे तब से ही उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने का मन बना लिया था। शास्त्री जी स्वतंत्रता के पहले आजादी की लड़ाई के प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता थे। वे स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लेते थे। आंदोलन के लिए उन्होंने अपनी पढ़ाई से भी समझौता किया। वर्ष 1930 में शास्त्री जी को कांग्रेस कमेटी के स्थानीय इकाई का सचिव बनाया गया था। शास्त्री जी स्वतंत्रता आंदोलन के उन क्रांति कारी नेताओ में शामिल हैं जिन्हें 1942 में ब्रिटिश गर्वेमेंट द्वारा जेल में बंद किया गया था। देश के आजाद होने के बाद उन्होंने कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। वो आजादी के बाद उत्तर प्रदेश में पुलिस मंत्री भी रहे थे। इसके बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें केंद्र में रेल मंत्री का पद दिया। पर शास्त्री जी के लिए नैतिकता सबसे उपर थी, 1956 में हुई एक रेल दुर्धटना के कारण उन्होंने अपना इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद वे एक बार फिर 1957 में परिवहन और संचार मंत्री बने। इसके बाद 1961 में वे गृह मंत्री बनाए गए। वर्ष 1925 में काशी विद्यापीठ से ग्रेजुएट होने के बाद उन्हें “शास्त्री” की उपाधि दी गई थी। ‘शास्त्री’ शब्द एक ‘विद्वान’ या एक ऐसे व्यक्ति को इंगित करता है जिसे शास्त्रों का अच्छा ज्ञान हो। काशी विद्यापीठ से ‘शास्त्री’ की उपाधि मिलने के बाद उन्होंने जन्म से चला आ रहा सरनेम ‘श्रीवास्तव’ हमेशा हमेशा के लिये हटा दिया और अपने नाम के आगे ‘शास्त्री’ लगा लिया। इसके पश्चात् शास्त्री शब्द लालबहादुर के नाम का पर्याय ही बन गया। 16 मई 1928 में शास्त्री जी का विवाह मिर्जापुर निवासी गणेशप्रसाद की पुत्री ललिता जी से हुआ। उनके क्रान्ति कारी सामाजिक विचार इसी से समझे जा सकते हैं की उन्होंने अपनी शादी में दहेज लेने से इनकार कर दिया था। लेकिन अपने ससुर के बहुत जोर देने पर उन्होंने कुछ मीटर खादी का दहेज लिया था। गांधी जी ने असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए देशवासियों से एकजुट होने का आह्वान किया था, उस समय शास्त्री जी केवल सोलह वर्ष के थे। उन्होंने महात्मा गांधी के इस आह्वान पर अपनी पढ़ाई छोड़ देने का निर्णय कर लिया था। वर्ष 1930 में महात्मा गांधी ने नमक कानून को तोड़ते हुए दांडी यात्रा शुरू की। इस प्रतीकात्मक सन्देश ने पूरे देश में एक तरह की क्रांति ला दी। शास्त्री जी विह्वल ऊर्जा के साथ स्वतंत्रता के इस संघर्ष में शामिल हो गए। उन्होंने कई विद्रोही अभियानों का नेतृत्व किया एवं कुल सात वर्षों तक ब्रिटिश जेलों में रहे। आजादी के इस संघर्ष ने उन्हें पूर्णतः परिपक्व बना दिया। स्वतंत्रता संग्राम के जिन जन आन्दोलनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही उनमें वर्ष 1921 का ‘असहयोग आंदोलन’, वर्ष 1930 का ‘दांडी मार्च’ तथा वर्ष 1942 का ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ महत्वपूर्ण है। लाल बहादुर शास्त्री भारत के दूसरे प्रधानमंत्री थे उससे पहले जब नेहरू जी बीमार थे वे बिना विभाग के मंत्री के रूप में सारा काम देख ही रहे थे। नेहरू जी मृत्यु के 13 दिनों बाद उन्होंने प्रधानमंत्री का पद संभाला। अन्न संकट के कारण तब देश भुखमरी की स्थिति से गुजर रहा था। वहीं 1965 में भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान देश आर्थिक संकट से जूझ रहा था। उसी दौरान अमरीकी राष्ट्रपति ने शास्त्री जी पर दबाव बनाया कि अगर पाकिस्तान के खिलाफ लड़ाई बंद नहीं की गई तो हम गेहूँ के आयात पर प्रतिबंध लगा देंगे। यह वो समय था जब भारत गेहूँ के उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं था इसलिए शास्त्री जी ने देशवासियों को सेना और जवानों का महत्व बताने के लिए ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया था। इस संकट के काल में शास्त्री जी ने अपनी तनख्वाह लेना भी बंद कर दिया था और देशवासियों से कहा कि हम हफ़्ते में एक दिन का उपवास करेंगे। पाकिस्तान के साथ वर्ष 1965 का युद्ध खत्म करने के लिए वह समझौता पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए ताशकंद में पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान से मिलने गए थे लेकिन इसके ठीक एक दिन बाद 11 जनवरी 1966 को अचानक खबर आई कि हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हो गई है। हालांकि उनकी मृत्यु पर वर्तमान समय में भी संदेह है। भारत सरकार ने वर्ष 1966 में लाल बहादुर शास्त्री को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित कर उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन किया था। उनके सिद्धांत आज भी प्रेरक और प्रासंगिक हैं।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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