हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 597 ⇒ सर्वे भवन्तु सुखिन: ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सर्वे भवन्तु सुखिन:।)

?अभी अभी # 597 ⇒ सर्वे भवन्तु सुखिन: ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

यह जानते हुए भी, कि सिक्के के दो पहलू होते हैं, जहां दिन होते हैं, वहीं रातें भी होती हैं, जन्म है तो मरण भी, सुख अगर है तो दुख भी, हम सबको सदा सुखी रहो कहना नहीं भूलते, किसी का अशुभ ना हो, प्राणी मात्र का कल्याण हो। कहीं यह हमारी महज मानवीयता अथवा अध्यात्म दर्शन तो नहीं।

जब कि नियति का विधान अपनी जगह है। दैहिक, दैविक और भौतिक ताप अपनी जगह हैं और असुर हों अथवा दुष्ट राक्षस, जो भी अपने इष्ट को भक्ति और जप तप से प्रसन्न कर लेता है वह मुंहमांगा वरदान पा लेता है और हमारे यहां ऐसे तपस्वी सिद्ध पुरुषों और ऋषि मुनियों की भी कमी नहीं, जो अगर रुष्ट हो जाएं तो देवताओं को भी श्राप दे बैठें।।

सांसारिक सुख, सत्य सनातन नहीं है, यह जानते हुए भी इंसान अपने रहने के लिए, संतोष कुटी, सुखनिवास, गरीबखाने, दौलतखाने अथवा आनंद भवन का ही निर्माण करता है, किसी कोपभवन का नहीं। घर की बगिया में फूलों के साथ, देखादेखी में कैक्टस भले ही उगा ले, कभी कांटे नहीं उगाएगा। दिन में किसी को अगर सुप्रभात कहेगा तो रात्रि को शुभ रात्रि भी कहेगा, जन्मदिन पर बधाई भी देगा और विवाह पर वर वधू को सुखी जीवन का आशीर्वाद भी। लेकिन दुख और कष्ट की घड़ी में बधाई नहीं दी जाती, केवल चिंता और अफसोस व्यक्त किया जाता है। जीते जी किसी से लाख दुश्मनी पाल लें, जाते समय वह भी स्वर्गीय हो ही जाता है।

सुख अगर हमारा दर्शन और प्रदर्शन है तो तकलीफ और परेशानी हमारी दुखती रग है। क्या यह हमारा बड़प्पन नहीं जब हम दुख के क्षणों में भी यही गीत गुनगुनाते हैं ;

खुश रहो, हर खुशी हो

तुम्हारे लिए।

छोड़ दो आंसुओं को

हमारे लिए।।

यह भी सच है, दिल खुश होता है तो वाह निकलती है और जब दिल टूटता है तो आह निकलती है। खुशी में जो दिल बल्लियों उछलता है, गम के वक्त बैठ सा जाता है।

कोई सागर,

दिल को बहलाता नहीं,

बेखुदी में करार आता नहीं।।

सृजन में सुख है। अगर सृजन में सुख नहीं होता तो इस सृष्टि का निर्माण ही नहीं होता। युगों से युगों तक, और कयामत से कयामत तक, कई बार यह सृष्टि बनी और बिगड़ी है।

जिसने सृजन का सुख भोगा है, उसी ने सृजन की पीड़ा भी भोगी है।

हम तो हाड़ मांस के इंसान हैं, वह सर्वशक्तिशाली जो सभी ऐश्वर्यों का स्वामी है, सुखसागर के परमानंद सहोदर में जो वैकुंठवासी, आकंठ डूबा हुआ है, उसने भी सृजन सुख की चाह में ही इस नश्वर संसार की रचना कर दी। हम अपनी मर्जी से नहीं, उसकी ही मर्जी से तो पैदा हुए हैं। हम अगर उसके लिए महज खिलौने हैं तो समझ में नहीं आता, क्या कहीं वह भी तो कोई अबोध बालक तो नहीं। जब तक चाहता है, खिलौने से खेलता है, और जब मन भर जाता है, तो खिलौना तोड़ देता है। लेकिन बड़ा निष्ठुर है यह बालक।।

सुख दुख के इस संसार में जब तक इंसान रहेगा, वह अपना खुद का एक सुखी संसार बनाकर ही रहेगा।

वह दुनिया से भी लड़ेगा और दुनिया बनाने वाले से भी। अगर ऐसा नहीं होता तो क्या ये दुनिया हमें चांद से बेहतर नजर आती। हमने सूरज से अगर आग लेना सीखा है तो अपनी खुशियों में हमें चार चांद लगाना भी आता है।

एक पल में हम उससे प्रश्न कर बैठते हैं, दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई ! काहे को दुनिया बनाई ? और दूसरे ही पल जब किसी फूल से बच्चे की ओर देखते हैं, तो अनायास ही चहक कर कह उठते हैं, लो एक कली मुसकाई ! उस पल तो वाकई यही लगता है, यही शास्वत सुख है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 596 ⇒ पीठ सुनती है ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पीठ सुनती है।)

?अभी अभी # 596 ⇒ पीठ सुनती है ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब दीवारों के कान हो सकते हैं, तो पीठ क्यों नहीं सुन सकती ? एक समय था, जब दीवारें भी मजबूत हुआ करती थीं, आज की तरह चार इंच की नहीं। मोटी मोटी दस इंच की दीवारें, जिनमें आले भी, होते थे और ताक भी, और तो और अलमारी भी। कमरों की दीवारों में या तो खिड़कियां होती थीं, या फिर रोशनदान। खिड़की अथवा रोशनदान ही संभवतः दीवारों के कान होते होंगे, जिनसे हवा के साथ कई रहस्य भी दीवारों तक पहुंच जाते होंगे। शायर लोग दीवारों से सर यूं ही नहीं टकराया करते। दीवारें जरूर उनके कान में कुछ कहती होंगी।

जब हम दीवार की ओर पीठ करके खड़े होते हैं, तो शायद हमारी पीठ भी कुछ तो सुनती ही होगी। मुझे अच्छी तरह याद है, बचपन में मैं दीवार से सटकर बैठता था, तो शरीर में कुछ सिहरन, कुछ सरसरी सी होती थी, ऐसा महसूस होते ही, जहां हाथ उस जगह पहुंचा, अनायास खटमल हाथ में आ जाता था। खटमलों की टोली पीठ पर चढ़कर आस्तीन तक पहुंच जाती थी। हमने आस्तीन में सांप ही नहीं, खटमल भी पाले हैं।।

हम जब किसी की तारीफ करते हैं, तो उसकी पीठ थपथपाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण के वक्त सभी सदस्य मेज़ थपथपाया करते हैं। किसी प्रस्ताव को ध्वनिमत से पास करने पर भी मेज़ थपथपाई जाती है। पीठ को थपथपाने पर पीठ को भी कुछ कुछ होता है, पीठ तो सहलाने पर वह भी अभिभूत हो जाती है। पीठ सब सुनती भी है, और महसूस भी करती है।

इंसान का सबसे ज्यादा बोझ उसकी पीठ ही वहन करती है। कंधों पर भी तो बोझ होता है, लेकिन दोनों कंधे भी तो पीठ पर ही लदे रहते हैं। इंसान हो या कछुआ, पीठ तो दोनों की ही मजबूत होती है। हमारा तो छोड़िए, पूरी पृथ्वी का भार वहन करते कूर्मावतार।।

पीठ पीछे तारीफ ही नहीं, बुराई भी होती है। युद्ध में बुजदिल पीठ दिखाते हैं, कायर पीठ पीछे छुरा भी भोंकते हैं, पीठ पीछे लोग क्या क्या गुल खिलाते हैं, कभी पलटकर भी देखिए।

हमें अपनी पीठ नजर नहीं आती, सामने सीना जरूर नजर आता है क्योंकि हमने सीना तानकर ही चलना सीखा है। हम अपनी पीठ ना तो देखते हैं, और ना ही किसी को दिखाते हैं। जिसकी बुराई करना हो, निःसंकोच उसके मुंह पर करते हैं, लेकिन पीठ पीछे उसकी तारीफ ही करते हैं।

हमारी पीठ ही हमारी रीढ़ है, शरीर की सबसे मजबूत और लचीली हमारी रीढ़ ही है। यह हमें झुकना भी सिखाती है और तनकर खड़े रहना भी। स्थूल और सूक्ष्म, मूलाधार से सहस्रार, पंच तत्व और सातों लोक इसी में समाए हैं। लोग आस्तीन में सांप पालते हैं, जब कि असली सर्पिणी रूपी ज्ञानवती कुंडलिनी तो यहीं विराजमान है।।

विद्या और ज्ञान को हम पीठ कभी नहीं दिखाते। विद्यापीठ, ज्ञानपीठ सृजन पीठ और व्यास पीठ हमारे ज्ञान के आगार हैं। श्रुति, स्मृति से यह ज्ञान पुस्तकों में आया और बच्चों की पीठ पर किताबों का बोझ लाद दिया गया। बच्चों की पीठ पर किताबें हैं, या गेहूं का बोरा।

कराग्रे वस्ते लक्ष्मी, कर मूले सरस्वती ! और सरस्वती किताबों से चलकर डिजिटल होती हुई बच्चों की नाजुक हथेलियों में मोबाइल में कैद हो गई। कम उम्र में आंखों पर चश्मा, गर्दन और रीढ़ की हड्डी पर दबाव। घर, दफ्तर मोबाइल, पी सी, डेस्क टॉप। जिस इंसान ने कभी काम से पीठ नहीं चुराई, कमर का दर्द लिए, पीठ की एम .आई. आर., हड्डियों के डॉक्टर को दिखा रहा है। डॉक्टर की रिपोर्ट बयां कर रही है, और पीठ सुन रही है अपनी ही दास्तान।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 117 – देश-परदेश – करे कोई भरे कोई ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 117 ☆ देश-परदेश – करे कोई भरे कोई ☆ श्री राकेश कुमार ☆

जुड़वां भाइयों में जब शक्ल मिलती है, तो ये अक्सर सुनने में आता है, कि शैतानी एक भाई करता है, और दंड दूसरे भाई को मिलता है। हमारी फिल्मों में भी ऐसा ही कुछ दिखाया जाता है, लड़की प्रेम एक भाई से करती है, और घूमने दूसरे भाई के साथ निकल जाती है। सीता और गीता नाम से भी एक ऐसी ही फिल्म आई थी। कुंभ में जुड़वा भाई गुम जाते है, एक ईमानदार तो दूसरा बेईमान बन जाता है। ये सब हमारे बॉलीवुड में ही होता है।

अब जब बात फिल्मों की हो रही है, तो मुम्बई का जिक्र ना हो, ये कैसे हो सकता हैं। मुम्बई और फिल्म जगत एक दूसरे के पूरक हैं। कुछ दिन पूर्व ही नवाब ऑफ पटौदी पर  हुए हमले के सिलसिले में छत्तीसगढ़ के दुर्ग शहर में एक संदिग्ध व्यक्ति को पकड़ा गया, क्योंकि उसकी शक्ल सी सी टीवी कैमरे की तस्वीर से जो मिलती थी।

कुछ समय बाद उस संदिग्ध व्यक्ति को छोड़ दिया गया था। मीडिया ने उसको सभी चैनल पर दिखवाकर उसका खूब प्रचार प्रसार कर डाला था। मीडिया ट्रायल में उसको दोषी भी मान लिया था।

जब पुलिस ने उसको बरी किया तब तक उस व्यक्ति की मुम्बई की नौकरी चली गई है। नियोक्ता ने ये विचार किया होगा, पुलिस उससे आगे भी जिरह कर सकती है, इत्यादि। इन सबसे अच्छा है, उसको नौकरी से ही निकाल दो।

मामला इतना सीधा नहीं है, उस व्यक्ति का विवाह भी तय हो चुका था। अब उसकी सगाई भी टूट गई है। जीवन भर का दाग लग गया है। आने वाले समय में उसकी पहचान के साथ “सैफ का नकली कातिल” जैसे जुमले जुड़ जाएंगे।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 595 ⇒ शहद की मधुमक्खी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “शहद की मधुमक्खी।)

?अभी अभी # 595 ⇒ शहद की मधुमक्खी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कबीर यूँ तो जुलाहे थे, लेकिन जब दुहते थे, तो दोहे निकलते थे।

माखी गुड़ में गड़ी रहे, पंख रह्यो लिपटाय।

हाथ मले और सर धुने, लालच बुरी बलाय।

कबीरदासजी जिस मक्खी की बात कर रहे हैं, वह पहले तो गंदगी पर बैठती है, और बाद में गुड़ की ढेली पर। यह मक्खी बीमारियों की जड़ है। यह BPL माने बिलो पॉवर्टी लाइन वाली मक्खी है। हम जिस मक्खी की बात आज कर रहे हैं, वह मधु की मक्खी याने क्रीमी लेयर वाली मक्खी है।।

यह न तो गंदे में बैठती है, न ही गुड़ से इसे कोई विशेष प्रेम है। यह अपने आप में शहद की एक मैन्युफैक्चरिंग यूनिट है। यह एक रसिक भँवरे की तरह फूलों से परागकण एकत्रित करके शहद का थोक में उत्पादन करती है। लोभी भँवरों की तरह आदमी भी शहद के लालच में इसे पालने लग गया है, और उस लालन-पालन का उसने नाम रखा है, मधुमक्खी पालन।

मक्खी में भी ढाई आखर ही होते हैं, लेकिन मक्खियों से कोई प्रेम नहीं करता। मधुमक्खी में ढाई आखर नहीं है, लेकिन शहद के लालच में इंसान इससे प्रेम करता है। मक्खी से ज़्यादा लालची तो इंसान ही हुआ न।।

जंगलों में, बड़े बड़े वृक्षों के तनों में, पुरानी विशाल इमारतों के वे अंधेरे कोने, जहाँ जीरो मेंटेनेंस होता है, मधुमक्खी पहले मोम के छत्ते बनाती है, और फिर उसमें शहद का निर्माण करती है। फूलों के रस से शहद के निर्माण की यह प्रक्रिया बड़ी रोचक, विचित्र और प्रेरणादायक है। आश्चर्यजनक रूप से एक रानी मधुमक्खी और उसकी श्रमिक मधुमक्खी ही यह पूरा कारोबार संभालती है और नर को निखट्टू कहा जाता है।

जहाँ उत्पादन अधिक होता है, वहाँ परिवार नियोजन का कोई प्रयोजन नहीं। रानी मधुमक्खी निखट्टू नर की सहायता से एक दिन में 1500 अंडे दे देती है, जिनका पालन श्रमिक मधमक्खियों को ही करना पड़ता है। पहले मोम का छत्ता बनाना, और फिर फूलों से मधु निकाल छत्तों में एकत्रित करना। कौन जानता है, यह कर्म सकाम है या निष्काम।।

प्रकृति के आँचल में खनिज है, खाद्यान्न है, सब जीव जंतुओं के लिए राशन पानी है, हवा है, धूप है, पानी है। पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए जंगलों का अस्तित्व अवश्यम्भावी है।

प्रोजेक्ट टाइगर ! यानी प्रोटेक्ट टाइगर और प्रोटेक्ट जंगल। एनिमल किंगडम, ह्यूमन किंगडम से अधिक मूल्यवान है। हम मुँह उठाए मौज मस्ती और मनोरंजन के लिए वन में चले जाते हैं, वनचर हमारी बस्ती में भूले भटके ही आते हैं, और जब भी आते हैं, मुँह की खाते हैं।।

गुलाब में काँटे होते हैं, शहद पैदा करने वाली मधुमक्खी भी डंक मारती है। देवता अमृतपान करते हैं, शंकर गरल को धारण कर नीलकंठ कहलाते हैं। शहद के छत्तों की रक्षा के लिए ही शायद प्रकृति ने इन मधु मक्खियों को डंक हथियार के रूप में दिए हैं। हम प्रेम से शहद चाटते हैं, और मधुमक्खी काटे, तो भागते हैं।

जब भी आप नींबू-शहद का सेवन करें, इनके उपकार को न भूलें। आयुर्वेदिक उपचार में दवाओं का सेवन शहद के साथ ही किया जाता है। पृथ्वी पर अगर कहीं अमृत है, तो वह शहद ही में है। शहद ही में है। मधुमक्खी तुम धन्य हो।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 276 – ऋतुराज ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 276 ऋतुराज… ?

हर क्षण तन छीज रहा,

हर क्षण मन रीझ रहा,

जितना छीजता, उतना रीझता,

छीजना, रीझना, स्वयं पर खीजना,

विरोध का आभास अथाह,

विरुद्ध का समानांतर प्रवाह,

तब पाट का आकुंचन होना,

समानांतर का मिलन होना,

अब न छीजना, अब न रीझना,

भीतर-बाहर मानो संत होना,

देहकाल में  ऐसा भी वसंत होना…!

जीवन बहुआयामी है। वसंत केवल रंगों का समुच्च्य भर नहीं, अपितु विभिन्न राग-भावों का समग्र स्वरूप भी है। हर रंग का अपना अस्तित्व है, हर रंग का अपना महत्व है। जीवन में हर रंग की आवश्यकता भी है।

विचार करें तो रोटी, कपड़ा और मकान, मनुष्य की स्थूल अथवा प्रत्यक्ष मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। अभिव्यक्ति सूक्ष्म या परोक्ष आवश्यकता है। जिस प्रकार सूक्ष्म देह के बिना स्थूल का अस्तित्व नहीं होता, उसी प्रकार अभिव्यक्ति या मानसिक विरेचन के बिना मनुष्य जी नहीं सकता। अक्षर की इकाई को शब्द, वाक्य एवं भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति का, सूक्ष्म का सर्वाधिक सशक्त साधन बनाने वाली वागीश्वरी माँ सरस्वती सरस्वती का आज अवतरण दिवस है।

पौराणिक आख्यान है कि ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना तो कर चुके थे पर सर्वव्यापी मौन का कोई हल ब्रह्मा जी के पास नहीं था। तब माँ शारदा प्रकट हुईं। निनाद,  वाणी एवं कलाओं का जन्म हुआ।  जल के प्रवाह और पवन के बहाव को में स्वर प्रस्फुटित हुआ। मौन की अनुगूँज भी सुनाई देने लगी। आहद एवं अनहद नाद गुंजायमान हुए। चराचर ‘नादब्रह्म’ है।

अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतवायदक्षरम् ।

विवर्तते अर्थभावेन प्रक्रिया जगतोयतः॥

अर्थात् शब्द रूपी ब्रह्म अनादि, विनाश रहित और अक्षर है तथा उसकी विवर्त प्रक्रिया से ही यह जगत भासित होता है।

शब्द और रस का अबाध संचार ही सरस्वती है। शब्द और रस के प्रभाव का एकात्म भाव से अनन्य संबंध है। इसका एक उदाहरण संगीत है। आत्म और परमात्म का एकात्म रूप संगीत है। संगीत को मोक्ष की सीढ़ियाँ माना गया है। महर्षि याज्ञवल्क्य इसकी पुष्टि करते हैं-

वीणावादनतत्वज्ञः श्रुतिजातिविशारदः।

तालश्रह्नाप्रयासेन मोक्षमार्ग च गच्छति।

वैदिक संस्कृति के नेत्रों में समग्रता का भाव है। कोई पक्ष उपेक्षित नहीं है। यही कारण है कि  वसंत पंचमी रति और कामदेव का उत्सव भी है। इस ऋतु में सर्वत्र विशेषकर खिली सरसों का पीला रंग दृष्टिगोचर होता है। प्रकृति का चटक पीला रंग आकर्षित करता है पुरुष को। प्रकृति और पुरुष का एकात्म होना मदनोत्सव है।

मदन भाव से श्मशान वैराग्य तक, सृष्टि में सभी कुछ उत्सव है। जीवन के हर पक्ष को उत्सव की भाँति ग्रहण करने का संदेश है वसंत।  हर भाव को समग्रता से, परिपूर्णता से जीने का प्रतीक है वसंत। यही कारण है कि ऋतुराज कहलाया वसंत।

आज वसंत पंचमी है। आप सबको वसंत पंचमी की मंगलकामनाएँ।💐🙏

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 594 ⇒ गटागट ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गटागट।)

?अभी अभी # 594 ⇒ गटागट ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कुछ काम अगर फटाफट किए जाते हैं तो बहुत कुछ ऐसा भी होता है जीवन में, जो आपको अपने अतीत और बचपन से जोड़ता है। वही नाम और वही स्वाद की जब बात आती है, तो अनायास गटागट की याद आ जाती है।

कुछ बच्चों को दूध पिलाना भी टेढ़ी खीर होता है। उन्हें जब तक आप उनकी मनपसंद चॉकलेट का लालच ना दो, वे दूध को हाथ ही नहीं लगाते। कुछ बच्चे दवा के नाम पर ना तो कोई गोली ही निगल पाते हैं और ना ही कड़वी दवा को चम्मच से ही पी पाते हैं, सौदेबाजी और ब्लैकमेलिंग दोनों ओर से होती है और समझौता हो जाने के बाद दवा के साथ, गटगट, दूध भी अंदर। शायद इसी गटगट से गटागट शब्द भी बना हो।।

गटागट को तो सिर्फ मुंह में रखने की देरी है, यह अपना काम शुरू कर देती है। बस समस्या यह है कि या तो कुछ लोगों ने इसका नाम ही नहीं सुना है, अथवा अगर सुना भी है तो कुछ मीठा हो जाए, जैसे विज्ञापनों की आंधी में बेचारी गटागट कहीं दुबकी पड़ी है।

गटागट है क्या चीज हमें भी चखाओ, ये मिलती कहां है, हमें भी बताओ। तो हम भी इसके जवाब में सिर्फ यही कहेंगे, आप खुद ही ढूंढो, खाओ, और इसका स्वाद जान जाओ।।

मुख शुद्धि के आजकल कई तरीके हैं। जब से स्वच्छ भारत अभियान चला है, पान गुटखे के पीछे लोग हाथ धोकर पड़े हैं। फिर भी चोरी ना सही, हेराफेरी तो अभी भी चल ही रही है। दो बीघा जमीन के गार्डन में, खुले में, खड़े खड़े खाने में, और पसंदीदा आइटम्स ढूंढने में ही इतना व्यायाम हो जाता है कि मुख शुद्धि के लिए एक पान की जगह तो आसानी से बन ही जाती है। कुछ महिलाओं के तो पर्स में ही कच्ची कैरी और इमली के स्वाद वाली कैंडी आसानी से उपलब्ध हो जाती है।

गटागट को आप एक तरह की कैंडी भी मान सकते हैं, बस इस बेचारी का कोई ब्रांड अथवा आकर्षक पैकिंग नहीं होता। रसगुल्ले की तरह हाथ में उठाओ और मुंह में डाल लो। आंवला, इमली, गुड़ और अमचूर से बनी गटागट के ऊपर बूरा शकर का कोटिंग, इसको एक स्वादिष्ट चूरन का स्वाद प्रदान कर देता है।।

हमारे देश में जितना प्रसिद्ध चना जोर गरम है, उतना ही मशहूर चूरन भी है। उधर तबीयत से चना जोर गरम, चाट, गराडू और अटरम, शटरम खाया और इधर हिंगाष्ट और अनारदाना का चूर्ण खाया। इधर हमने कुछ नहीं खाया, बस एक गटागट खाया, बात बराबर।

अगर आपके शहर में बॉम्बे सुपारी स्टोर नहीं, तो किसी भी तम्बाकू अथवा सुपारी वाले की दुकान में, अथवा हवाबाण हरडे की दुकान में, कांच की शीशियों में रखी गटागट आप फटाफट खरीद लें और फुर्सत से चखते रहें। इसे कहते हैं, बिना नशे का चखना। कुछ खाना पीना नहीं, फिर भी गटागट।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 593 ⇒ गन्ने का रस (बच्चों की मधुशाला) ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गन्ने का रस (बच्चों की मधुशाला)।)

?अभी अभी # 593 ⇒ गन्ने का रस (बच्चों की मधुशाला) ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज मेरे शहर में जहां ट्रेड सेंटर और बड़े बड़े मॉल हैं, वहां पहले गन्ने के रस की मधुशाला थी। वसंत पंचमी के आगमन से ही इन खाली जगहों पर अस्थाई निर्माण शुरू हो जाता था। मालवा की शामों में मस्ती और सुरूर होता है। आज जैसी बर्फीली हवाएं तब नहीं बहा करती थी। दोपहर की गर्मी के बाद, ढलती शाम में इंदौर में ये मधुशालाएं आबाद हुआ करती थी।

गन्ने के रस में एक सात्विक नशा है, जिसे teetotaller ही जान सकते हैं। जो पूरी तरह चाय पर निर्भर होते हैं, उन्हें teetotaller कहते हैं। जो आनंद सुबह की चाय देती है, वही आनंद भरी दोपहरी में एक ग्लास ठंडा गन्ने का रस देता है।।

तब ठंडा ठंडा कूल कूल का विज्ञापन नहीं आता था ! कोक और पेप्सी तब तक अपनी जड़ें नहीं जमा सके थे। पचास नए पैसे में अगर आपको एक ग्लास गन्ने का रस मिल रहा है, वह भी बर्फ, नींबू और मसाले के साथ, तो क्या बुरा है।

आज भी उसे गन्ने की चरखी ही कहते हैं। धर्मवीर भारती की कहानी ठेले पर हिमालय की तरह, पूरी गन्ने की चरखी भी आजकल ठेले पर ही नजर आ जाती है। भरी दोपहर में फुटपाथ पर, किसी भी झाड़ की छांव के नीचे इनकी चलित मधुशाला अपना डेरा जमा लेती है। दस अथवा पंद्रह रुपए में गन्ने का पूरा निचोड़ आप उदरस्थ कर सकते हैं। गन्ना दुबला है या मोटा, मीठा है या फीका, यह आपका नसीब। उस बदनसीब को तो कभी भी वहां से हटाया जा सकता है।।

गन्ने की चरखी की भी अपनी एक कहानी है। गांव में खेत से गन्ने लाए जाते थे, गन्ने की चरखी में उनका रस निकाला जाता था, और फिर उसे एक बड़े कढ़ाव में उबालकर गुड़ बनाया जाता था। गन्ने के छिलके जानवरों के लिए चारे का काम करते थे, और गुड़ गरीब की थाली में मिठाई का काम करता था।

हम लोग साइकिलों पर शहर से लगे गांवों में निकल जाते थे, गुड़ और गन्ने के रस का स्वाद लेते हुए, कुछ गन्ने साइकिल पर लाद लिया करते थे। जिनके दांत मज़बूत होते थे, वे तो घुटना मोड़कर गन्ने के टुकड़े कर लिया करते थे और बाद में मुंह से छील छीलकर गन्ना चूसा करते थे। तब कहां दांतों में रूट कैनाल और ब्रिज बनाए जाते थे।।

फिर एक समय गंडेरियों का आया ! कटी कटाई गंडेरी बाज़ार में ठेले पर उपलब्ध होने लगी। पर जिनके मुंह को विमल गुटके का स्वाद लग चुका हो और जो दाने दाने में केसर का दम ढूंढ़ते हैं, वे क्या गंडेरी चबाएंगे।

ये समय बड़ा हरजाई ! अब कहां गन्ना, और गन्ने का खेत। बड़ी बड़ी शकर मिलें किसानों का गन्ना सीधा उठाने लगी। आज शकर से गुड़ अधिक महंगा है। भोजन से मीठा गायब हो गया, शकर की बीमारी जो हो गई।।

हैं आज भी गन्ने के रस के शौकीन, जो गर्मी में अपनी प्यास, किसी चलित मधुशाला पर, एक ग्लास ठंडे गन्ने के रस से बुझाते हैं। अब गन्ना मीठा है या फीका, यह तो खेत ही जाने ..!! एक वयस्कों की मधुशाला बिग बच्चन की भी थी, इसलिए इस मधुशाला को आप बच्चों की मधुशाला कह सकते हैं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #265 ☆ मनन, अनुसरण और अनुभव…… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख मनन, अनुसरण और अनुभव…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 265 ☆

☆ मनन, अनुसरण और अनुभव… ☆

ज्ञान तीन प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है– प्रथम मनन, जो सबसे श्रेष्ठ है, द्वितीय अनुसरण सबसे आसान है और तृतीय अनुभव जो कटु व कठिन है– सफलता प्राप्ति के मापदंड हैं। इंसान संसार में जो कुछ देखता-सुनता है, अक्सर उस पर चिंतन-मनन करता है। उसकी उपयोगिता- अनुपयोगिता, औचित्य-अनौचित्य, ठीक-ग़लत लाभ-हानि आदि विभिन्न पहलुओं के बारे में सोच-विचार करके ही निर्णय लेता है– ऐसा व्यक्ति बुद्धिमान कहलाता है। यह सर्वश्रेष्ठ माध्यम है तथा किसी ग़लती की संभावना नहीं रहती। दूसरा माध्यम है अनुसरण–यह अत्यंत सुविधाजनक है। इंसान महान् विद्वत्तजनों का अनुसरण कर सकता है। इसमें किसी प्रकार की ग़लती की संभावना नहीं रहती तथा इसे अभ्यास की संज्ञा भी दी जाती है। तृतीय अनुभव जो एक कटु मार्ग है, जिसका प्रयोग वे लोग करते हैं, जो दूसरों पर विश्वास नहीं करते तथा अपने अनुभव से ही सीख लेते हैं। वे उससे होने वाले परिणामों से अवगत नहीं होते। वे यह जानते हैं कि इससे उनका लाभ होने वाला नहीं, परंतु वे उसका अनुभव करके ही साँस लेते हैं। ऐसे लोगों को हानि उठानी पड़ती है तथा आपदाओं का सामना करना पड़ता है।

विद्या रूपी धन बाँटने से बढ़ता है। परंतु इसके लिए ग्रहणशीलता का मादा होना चाहिए तथा उसमें इच्छा भाव होना अपेक्षित है। मानव की इच्छा-शक्ति यदि प्रबल होती है, तभी वह ज्ञान प्राप्त कर सकता है तथा जो वह सीखना चाहता है, उसमें और अधिक जानने की प्रबल इच्छा जाग्रत होती है। वास्तव में ऐसे व्यक्ति महान् आविष्कारक होते हैं। वे निरंतर प्रयासरत रहते हैं तथा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखते। ऐसे लोगों का अनुसरण करने वाले ही ठीक राह पर चलते हैं; कभी पथ-विचलित नहीं होते। सो! अनुसरण सुगम मार्ग है। तीसरी श्रेणी के लोग कहलाते मूर्ख कहलाते हैं, जो दूसरों की सुनते नहीं और उनमें सोचने-विचारने की शक्ति होती नहीं होती। वे अहंवादी केवल स्वयं पर विश्वास करते हैं तथा सब कुछ जानते हुए भी वे अनुभव करते हैं। जैसे आग में कूदने पर जलना अवश्यम्भावी है, परंतु फिर भी वे ऐसा कर गुज़रते हैं।

मानव में इन चार गुणों का होना आवश्यक है– मुस्कुराना, प्रशंसा करना, सहयोग करना व क्षमा करना। यह एक तरह के धागे होते हैं, जो उलझ कर भी क़रीब आ जाते हैं। दूसरी तरफ रिश्ते हैं जो ज़रा सा उलझते ही टूट जाते हैं। जो व्यक्ति जीवन में सदा प्रसन्न रहता है तथा दूसरों की प्रशंसा कर उन्हें  प्रसन्न करने का प्रयास करता है, सबके हृदय के क़रीब होता है। इतना ही नहीं, जो दूसरों का सहयोग करके प्रसन्न होता है, क्षमाशील कहलाता है। उसकी हर जगह सराहना होती है. वास्तव में यह उन धागों के समान है, जो उलझ कर भी क़रीब आ जाते हैं और रिश्ते ज़रा से उलझते ही टूट जाते हैं। वैसे रिश्तों की अहमियत आजकल कहीं भी रही नहीं। वे तो दरक़ कर टूट जाते हैं काँच की मानिंद।

अविश्वास आजकल सब रिश्तों पर हावी है, जिसके कारण उसमें स्थायित्व होता ही नहीं। मानव आजकल अपने दु:ख से दु:खी नहीं रहता, दूसरों को सुखी देखकर अधिक दु:खी व परेशान रहता है, क्योंकि उसमें ईर्ष्या भाव होता है। वह निरंतर यह सोचता रहता है कि जो दूसरों के पास है, उसे क्यों नहीं मिला। सो! वह अकारण हरपल दुविधा में रहता है तथा अपने भाग्य को कोसता रहता है, जबकि वह इस तथ्य से अवगत होता है कि इंसान को समय से पहले व भाग्य से अधिक कुछ भी नहीं मिल सकता। इसलिए  उसे सदैव समीक्षा करनी चाहिए तथा निरंतर कर्मशील रहना कारग़र है, क्योंकि जो उसके भाग्य में है, अवश्य मिलकर रहेगा। सो!

मानव को प्रभु  पर विश्वास करना चाहिए। ‘प्रभु सिमरन कर ले बंदे! यही तेरे साथ जाएगा।’ ‘कलयुग केवल नाम आधारा’ अर्थात् कलयुग में केवल नाम स्मरण ही प्रभु-प्राप्ति का एकमात्र सुगम उपाय है। अंतकाल यही उसके साथ जाता है तथा शेष यहीं धरा रह जाता है।

मौन वाणी की सर्वश्रेष्ठ विशेषता है और सर्वाधिक शक्तिशाली है। इसमें नौ गुण निहित रहते हैं। इसलिए मानव को यह शिक्षा दी जाती  है कि उसे तभी मुँह खोलना चाहिए, जब उसके शब्द मौन से बेहतर हों अन्यथा उसे मौन को सर्वश्रेष्ठ आभूषण समझ धारण करना चाहिए। सत्य व प्रिय वचन वचन बोलना ही वाणी का सर्वोत्तम  गुण हैं और धर्मगत अथवा कटु व व्यंग्य वचनों का प्रयोग भी हानि पहुंचा सकता है। इसलिए हमें विवाद में नहीं, संवाद में विश्वास करना चाहिए, क्योंकि ‘अजीब चलन है ज़माने का/ दीवारों में आएं दरारें तो/ दीवारें गिर जाती हैं। पर रिश्तों आए दरार तो/ दीवारें खड़ी हो जाती हैं।’ इसलिए हमें दरारों को दीवारों का रूप धारण करने से रोकना चाहिए। संवाद के माधुर्य के लिए संबोधन की मधुरता अनिवार्य है। शब्दों का महत्व संबंधों को जीवित रखने की संजीवनी है। सो! संबंध तभी बने रहेंगे, यदि संबोधन में माधुर्य होगा, क्योंकि प्रेम वह चाबी है, जिससे हर ताला खुल सकता है।

‘बहुत से रिश्ते तो इसलिए खत्म हो जाते हैं, क्योंकि एक सही बोल नहीं पाता और दूसरा सही समझ नहीं पाता।’ इसके लिए जहाँ वाणी माधुर्य की आवश्यकता होती है, वहीं उसे सही समझने का गुण भी आवश्यक है। यदि हमारी सोच नकारात्मक है तो हमें ठीक बात भी ग़लत लगना स्वाभाविक है। इसलिए रिश्तों में गर्माहट का होना आवश्यक है और हमें उसे दर्शाना भी चाहिए। जो भी हमें मिला है, उसे खुशी से स्वीकारना चाहिए। मुझे स्मरण हो रहे हैं भगवान कृष्ण के यह शब्द ‘मैं विधाता होकर भी विधि के विधान को नहीं टाल सका। मेरी चाह राधा थी और चाहती मुझे मीरा थी, परंतु मैं रुक्मणी का होकर रह गया। यह विधि का विधान है।’ सो!  होइहि वही जो राम रचि राखा।

रिश्ते ऐसे बनाओ, जिनमें शब्द कम, समझ ज़्यादा हो। जो इंसान आपकी भावनाओं को बिना बोले  ही समझ जाए, वही सर्वश्रेष्ठ होता है। सो! कठिन समय में जब मन से धीरे से आवाज़ आती है कि सब अच्छा ही होगा। वह आवाज़ परमात्मा की होती है। इसलिए मानव को मनन करना चाहिए तथा संतजनों के श्रेष्ठ वचनों का अनुसरण करना चाहिए। सत्य में विश्वास कर आगे बढ़ना चाहिए तथा उनके अनुभव से सीखना अर्थात् अनुसरण करना सर्वोत्तम है। व्यर्थ व अकारण अनुभव करने से सदैव मानव को हानि होती है।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 16 -प्रयागराज – महाकुंभ आध्यात्मिक एवं भौतिक दर्शन का केंद्र बिंदु ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’ जी का एक शोधपरक दस्तावेज़ प्रयागराज – महाकुंभ आध्यात्मिक एवं भौतिक दर्शन का केंद्र बिंदु।) 

☆  दस्तावेज़ # 16 – प्रयागराज – महाकुंभ आध्यात्मिक एवं भौतिक दर्शन का केंद्र बिंदु ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

(ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से महाकुंभ दुर्घटना में दिवंगतों को अश्रुपूर्ण विनम्र श्रद्धांजलि )

(विगत कुछ दिनों पूर्व मैंने मॉरीशस के हिंदी साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर से इस विषय पर इस शोधपरक विषय पर खूब चर्चा की, उनके साथ हुई चर्चा पर आधारित ही है यह आलेख – श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’)

 मुद मंगलमय संत समाजू l जो जग जंगम तीर्थराजू l

राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा ll

आज मेरी साहित्यिक,आध्यात्मिक और बौद्धिक चर्चा के केंद्र बिंदु में प्रयागराज है ,जिसे कुछ वर्षो पूर्व हम इलाहाबाद कहते थे, उस पर चर्चा करेंगे l

प्रयागराज अपने पौराणिक अस्तित्व को प्राप्त करने के लिए शायद संघर्ष कर रहा था l इसकी प्रथम कड़ी में जब इसको अपना पौराणिक और पुरातन नाम वापस मिला, तो मुझे लगता है कि आम जनमानस ने सहर्ष इसे स्वीकार भी कर लिया l आज स्थिति यह हुई कि सबकी जुबां पर प्रयागराज नाम इस तरह से विचरण कर रहा है कि मानो प्रयाग की एक अलौकिक छवि जनमानस के दिल पर विचरण कर रही हो l

कुंभ क्या है और कुंभ के पीछे की कहानी क्या है? इस विषय में लगभग हर भरत वंशी पूर्ण रूप से भिज्ञ होगा या कमोबेस जानता होगा l आज मैं इस लेख के माध्यम से एक शोध परक विचारणीय एवं तथ्य से भरे हुए आलेख को प्रस्तुत करना चाह रहा हूं l

तो हम लौटते हैं ऋषि युग की तरफ l उस युग की तरफ जब भारतीय भूखंड में आज की अपेक्षा कई गुना कम जनसंख्या हुआ करती होगी l समूचे भूभाग पर बड़ी -बड़ी पर्वत श्रृंखलाएं एवं वन्य क्षेत्र का एक विशाल स्वरूप होगा l

यदि त्रेता युग कालखंड को मानदंड मानकर उदाहरण स्वरूप ले ले तो भगवान राम ने अपने अधिकांश समय जिस चित्रकूट में बितायें तत् समय वह विशाल वन क्षेत्र रहा होगा , जबकि आज की स्थिति में वह एक नगर क्षेत्र है l 14 वर्ष के वनवास काल के अंतिम कुछ वर्षों में भगवान सुदूर दक्षिण लंका की तरफ बढ़ते हैं तो एक विशाल वन क्षेत्र को पार करते हुए उन्हें जाना होता है l मार्ग में पंचवटी एवं किष्किंधा आदि वन्य क्षेत्र की चर्चा पुराणों में होती है l गोदावरी तट पर भी रुकने के प्रमाण मिलता हैं l यानी जो मैं कहना चाह रहा हूं कि तबकी लगभग पूरी यात्रा वन क्षेत्र से होती हुई पूर्ण होती होंगी l भगवान श्री राम के वन गमन के ऊपर लिखे गए अपने दूसरे खंड पुस्तक को मध्य प्रदेश के विद्वान् हिंदी साहित्यकार गोवर्धन यादव जी “दंडकारण्य की ओर” शीर्षक देते हैं l यानी उसे वन क्षेत्र को दंडक बन कहते थे जब भगवान राम दक्षिण दिशा में गमन कर रहे हैं l तब संसाधन कम हुआ करते थे, या यूं कहे तो पदयात्राएं ही होती थी l यानी घनघोर जंगलों के बीच से गुजरना l इसके बीच में मार्ग की तलाश करना l खूंखार वन्य जीव से स्वयं को बचाते हुए यात्रा करना l रात्रि विश्राम के स्थल होते थे इन्हीं ऋषियों के आश्रम और वहां पर निवास करने वाले ऋषियों के प्रिय वनवासी गण l अब कल्पना करें कितने से दूर भीषण जंगलों के बीच में जो ऋषि निवास करते थे l वे आम तो थे नहीं l वे जन सामान्य से कहीं बहुत ज्यादा विद्वान, विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ महर्षि ऋषि औषधिज्ञ यहां तक की युद्ध कौशल के भी बड़े महारथी थे l तभी यह राजा राजकुमार उनके यहां शस्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा लेने के लिए जाते थे l

लेकिन इतने दुरूह -दुर्गम और एक दूसरे से हजारों मील दूर स्थानों पर रहने वाले ऋषियों का एक दूसरे को भलीभांति जानना एवं मिलना जुलना बदस्तूर जारी था l आखिर इन विशाल वन क्षेत्र में एक-एक ऋषि महर्षि कितनी दूरी पर रहते थे l बड़े बड़े अन्वेषण और शोध करते थे, लेकिन इन विधाओं का आदान-प्रदान इनके बीच कैसे होता होगा? यह प्रश्न मेरे मन में आता है l भगवान अगस्त ऋषि सुदूर दक्षिण में थे l विश्वामित्र,वशिष्ठ, बाल्मीकि,भारद्वाज, श्रृंगी, सदानंद एवं अत्रि आदि आदि मुनि एवं गुरुवृंद हर कोई आस पास तो नहीं रहता था l ये एक दूसरे से 700-800 किलोमीटर दूर रहते थे l तब न तो संपर्क और संवाद के साधन थे, फिर भी एक दूसरे के ज्ञान बुद्धि विवेक और संस्कृति संस्कार से कैसे परिचित थे l यह कैसे संभव होता था l

अब मैं इस वैचारिक विमर्श के केंद्र पर आता हूं l संचार दूरभाष के तमाम संसाधन न होने के बावजूद, राज्य और समाज व्यवस्था कैसे चलेगी, नए अन्वेषणों पर क्या करना है l चिकित्सा,औषधीय ज्ञानवृद्धि की स्थिति क्या करना है तथा खगोलीय स्थिति क्या है l अलग-अलग विषयों के विशेषज्ञ ये ऋषिगण अपनी राय एक दूसरे के समक्ष किसी बड़े कॉन्फ्रेंस में अवश्य ही रखते होंगे, और उसका आदान प्रदान करते होंगे l ठीक उसी तरह से जैसे की भारत में जी 20 के दौरान कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष भारत आए और उन्होंने यहां पर एक लंबा विमर्श किया, खास निर्णय ऊपर जाने के बाद यह निश्चित हुआ कि अगले अमुक वर्ष में अगला जी -20 अमुक शहर में होगा l यह हुआ आधुनिक काल l

मुझे लगता है कि यह चारों कुंभ के निश्चित समय (तिथि) एवं स्थान इस महा कार्य हेतु पूर्ण रूप से सबकुछ तय कर देते थे कि कब कहां पर सारे लोग जुड़ेंगे l वह भी कम समय के लिए नहीं जुटेंगे बल्कि एक लंबी अवधि के लिए, लंबी चर्चा के लिए जुटेंगे l

प्रयागराज कुंभ की ही बात करें तो…

माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥

देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥

माघ मास में कल्पवाश की बात कहीं इसी रूप में जुड़ती है l सबको ज्योतिषी विज्ञान एवं पंचांग के माध्यम से यह पता रहता था कि अगले छः वर्षो पर अर्धकुंभ एवं बारह वर्षो पर महाकुम्भ का मकर संक्रांति स्नान, मौनी अमावस्या स्नान, महाशिवरात्रि स्नान की तिथियां जो निश्चित होती थी l उसके पूर्व सारे विद्वानों का स्थान विशेष पर पहुंचना प्रारंभ हो जाता होगा l और वह भी बिना किसी सूचना के l इसका अर्थ यह कि महर्षियों, विद्वानों देवताओं के मिलन का सबसे उचित और बड़ा माध्यम ये चारों महा कुंभ हुआ करते होंगे l दूसरे शब्दों में कहीं तो इन विद्वानों के महा अधिवेशन का स्थल यह चारों महाकुंभ क्षेत्र ही थे l उपरोक्त इन्हीं तिथियों को ध्यान में रखकर लगभग भारत के हर कोने के सारे ऋषि महर्षि रिसर्चर अपने-अपने मठ मंदिर, कुटिया और आश्रमों से निकलकर एक लंबी यात्रा पर निकल पड़ते होंगे l

इस कल्पवास की अवधि में भारत के कोने-कोने का संत समाज, अपनी चर्चा के समय और एजेंडा तय करते होंगे l विद्वानों के वक्तव्य होते होंगे l अब इन विषय विशेषज्ञ को वक्ता मान लेते हैं l लेकिन इन विषयों पर जो निष्कर्ष निकलते होंगे वह आम जनमानस में जाए इसके लिए कौन कौन श्रोता थे, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है l

तीर्थराज कुंभ में पावन स्नान करने के उद्देश्य से भारत के कोने-कोने से आम जन समाज,हर वर्ग संप्रदाय के लोग भी इस पुण्य को प्राप्त करने के लिए,इन ऋषियों एवं विद्वानों के दर्शन एवं श्रवण करने के लिए, उनकी सभाओं में लिए गए नीतिगत निर्णय पर अपनी सहमति की मोहर लगाने के लिए इस महा संसद के दर्शक दीर्घा में पधारते होंगे l

प्रत्येक छः या बारह वर्ष पर लगने वाले इस बड़े आध्यात्मिक अधिवेशन में यदि बहुत बड़ा प्रबुद्ध समाज एवं आम जनमानस जुटता होगा तो, राज्य से ऊपर धर्मनीति को मानने वाली समर्पित राज सत्ताएं भी होंगी, जो कि इस व्यवस्था को अपने शक्ति,सामर्थ्य अर्थ, वैभव,से सम्पादित कराती होंगी l

पूरे कल्पवास अवधि के लिए ये चारो स्थान ( प्रयागराज, उज्जैन, हरिद्वार एवं नासिक ) विद्वानों के एक बड़े संगम के रूप में अधिवेशन के लिए तैयार होता होगा l इस काल में धर्म संस्कृति ज्ञान,विज्ञान चिकित्सा आदि विषयों पर शैक्षिक बौद्धिक एवं शोध परक सेमिनार चलते होंगे l नवीन अन्वेषण और विचारों का उदय होता होगा l राज सत्ता को अपने शासन की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए क्या करना है l भारतीय संस्कृति को एकीकृत स्वरूप किस प्रकार देना है, इन विषयों पर राजगुरु और राज ऋषियों की राय निकलकर आती होगी और अंत में उसे अंतिम स्वरूप दिया जाता होगा l चूकि जीवन सारे भौतिक संसाधनों, सुख सुविधाओं का का त्याग कर ये महा मानव एक नवीन मार्ग को धारण कर समाज कल्याण के लिए निकल पड़ते थे, इसलिए इन ऋषियों मुनियों की रक्षा एवं इनको आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराए जाने की जिम्मेदारी तत्कालिक राज सत्ता को होती होगी l यानी ऐसे महा संसद में, महाराजा हर्षवर्धन जैसे शासन की भी भागीदारी होती रही है, जैसा कि बाद के इतिहास में भी आता है और वर्तमान में भी इसका स्वरूप दिखाई दे रहा है l

कई माह चलने वाली लंबी चर्चा के उपरांत एक निर्णय पर पहुंचने के बाद आगामी 6 या 12 वर्षों में हमें क्या-क्या करना है,और इसके बाद बाद सभी इस अंतिम निर्णय को स्वीकार करते हुए कि अगला महा अधिवेशन 6 या 12 वर्ष बाद दूसरे स्थान यानी दूसरे कुंभ स्थान में होगा l ऐसा कहते हुए यह सभी ऋषि महर्षि महात्मा व विद्वानगण अपने-अपने वन क्षेत्र स्थित आश्रमों, कुटियों और गुरुकुलों में वापस लौट जाते होंगे l

तीर्थराज प्रयाग के स्थान को पौराणिक दृष्टिकोण से देखें तो मातु गंगा,सरस्वती और यमुना के त्रिवेणी के इस पावन संगम क्षेत्र में स्नान करने का महत्व यह भी है कि यहां हर कोई यदि हम अपने भौतिक शरीर को पवित्र कर माँ सुरसरि के चरणों में वंदन करते हैं तो वही इस त्रिवेणी की भूमि पर आयोजित धार्मिक शिविरो में पहुंचकर वहां पर हो रहे भाषणों, सम्भाषणों, व्याख्यानों को सुनकर शिक्षित दीक्षित होने का भी लाभ प्राप्त करते है l

आज काफी दिनों बाद जैसा कि हम सभी देख रहे हैं कि तीर्थराज प्रयाग अपने अतीत को याद करते हुए एक अलग कलेवर के साथ अपने बौद्धिक एवं पौराणिक महत्व को न सिर्फ प्राप्त कर रहा है बल्कि अध्यात्म के चरम की ओर बढ़ रहा है l

आज भारत ही नहीं बल्कि पूरा विश्व प्रयागराज और प्रयागराज की महिमा पर शोध एवं चिंतन कर रहा है l

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम तीर्थराज प्रयाग के महत्व को किस रूप में देखते हैं, मां गंगा के महत्व को कैसे बखान करते हैं l गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस के अपने दोहे चौपाइयों में बहुत ही सुंदर ढंग से चित्रित किया है –

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 592 ⇒ …तो मुश्किल होगी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “…तो मुश्किल होगी।)

?अभी अभी # 592 ⇒ …तो मुश्किल होगी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हम आम लोगों की मुश्किलें कुछ अलग किस्म की होती हैं, मसलन कभी जेठ की भरी दोपहर में लाइट चली जाए अथवा कड़ाके की ठंड में गीज़र खराब हो जाए। लेकिन शायर कुछ अलग किस्म की मिट्टी के बने होते हैं और उनकी मुश्किलों की तो बस पूछिए ही मत।

कौन किससे प्यार करे, यह उसका जाती मामला होता है, दुनिया इसे चाहत का खेल कहती है। हमारे साहिर साहब तो वैसे भी बड़े दिल वाले हैं, उनको क्या फ़र्क पड़ता है क्योंकि उनका तो पहला प्यार ही शायरी है।।

वे कितनी आसानी और दरियादिली से कह जाते हैं ;

तुम अगर मुझको ना चाहो

तो कोई बात नहीं ..

यह कोई छोटी बात नहीं। यह बतलाता है कि वे भी सामने वाले की पसंद नापसंद की कद्र करते हैं, ठीक है ;

तुम मगर मुझको ना चाहो तो कोई बात नहीं

मेरी बात और है

मैंने तो मोहब्बत की है ..

लेकिन नहीं, यहां हमारे साहिर साहब एकदम पलटी मार देते हैं। वे एकदम कह उठते हैं ;

तुम किसी और को चाहोगी

तो मुश्किल होगी …

अब क्या मुश्किल होगी, कौन सी आफत आ पड़ेगी अथवा कौन सा पहाड़ टूट जाएगा।अरे भाई साफ साफ क्यों नहीं कहते, दिल टूट जाएगा, मैं बर्बाद हो जाऊंगा। लेकिन नहीं, यहां भी शराफत ओढ़, कह दिया, तो मुश्किल होगी।।

बात यहां खत्म नहीं होती, यहां से तो शुरू होती है। आप फरमाते हैं ;

अब अगर मेल नहीं है तो जुदाई भी नहीं

बात तोड़ी भी नहीं तुमने बनाई भी नहीं

ये सहारा भी बहुत है मेरे जीने के लिये

तुम अगर मेरी नहीं हो तो पराई भी नहीं

मेरे दिल को न सराहो तो कोई बात नहीं

गैर के दिल को सराहोगी, तो मुश्किल होगी ..

तुम हसीं हो, तुम्हें सब प्यार ही करते होंगे

मैं तो मरता हूँ तो क्या और भी मरते होंगे

सब की आँखों में इसी शौक़ का तूफ़ां होगा

सब के सीने में यही दर्द उभरते होंगे

मेरे ग़म में न कराहो तो कोई बात नहीं

और के ग़म में कराहोगी तो मुश्किल होगी ..

इतना ही नहीं, जरा आगे देखिए ;

फूल की तरह हँसो, सब की निगाहों में रहो

अपनी मासूम जवानी की पनाहों में रहो

मुझको वो दिन न दिखाना तुम्हें अपनी ही क़सम

मैं तरसता रहूँ तुम गैर की बाहों में रहो

तुम अगर मुझसे न निभाओ तो कोई बात नहीं

किसी दुश्मन से निभाओगी तो मुश्किल होगी ..

हर इंसान में एक पजेसिव इंस्टिंक्ट होती है। जो मेरा नहीं हो सका, वह किसी का भी ना हो। आम आदमी पर इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ सकता है, वह देवदास भी बन सकता है। लेकिन जो लोग संजीदा होते हैं, वे ही कवि अथवा शायर बन पाते हैं।

साहिर भले ही एक कामयाब शायर हों, लेकिन अमृता की तरह खुलकर उन्होंने कभी अपने प्यार अथवा दर्द का इज़हार नहीं किया। आप कह सकते हैं, यही तो फर्क है, एक पुरुष और नारी में। कहीं भावुकता और समर्पण है तो कहीं ग़मों से समझौता करने का गुर अथवा दिल पर पत्थर रख लेने की मजबूरी। शायद यही फर्क है साहिर – अमृता और सुरैया – देवानंद में।

हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया।

मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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