(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सफलता का मूल मंत्र…“।)
अभी अभी # 366 ⇒ सफलता का मूल मंत्र… श्री प्रदीप शर्मा
क्या परिश्रम, पुरुषार्थ और भाग्य के अलावा भी सफलता का कोई मूल मंत्र हो सकता है। कार्य सिद्धि के लिए कई लोग मंत्र का उपयोग करते हैं। कहीं साधना में मंत्र का प्रयोग होता है तो कुछ लोग मंत्र के जरिये सिद्धियां हासिल कर लेते हैं।
आखिर क्या है यह मंत्र, कुछ शब्दों का समूह ही तो है। एक ही शब्द को अगर बार बार बोला जाए, तो वह जप हो जाता है। लोग तो मंत्र जपने के लिए माला का भी प्रयोग करते हैं। कभी सुनिए मुकेश का यह गीत फिल्म शारदा(1957) ;
जप जप जप जप जप जप रे।
जप रे प्रीत की माला।।
कुछ मंत्र गुरु द्वारा कान में फूंके जाते हैं, तो कुछ मंत्रों का लगातार जाप करने से कार्य सिद्धि भी हो सकती है अथवा मंत्र भी सिद्ध हो सकता है। जो स्वयं एक लाख बार मंत्र का जाप नहीं कर सकते, वे पंडितों द्वारा यज्ञ हवन के साथ इनका पाठ करवाते हैं।
महामृत्युंजय मंत्र की महिमा से कौन परिचित नहीं।।
अपने इष्ट की स्तुति भी मंत्र के द्वारा ही की जा सकती है। कुछ बीज मंत्र होते हैं। बीज मंत्र को वैदिक मंत्रों का सार बोला गया है। ॐ को बीज मंत्र माना गया हैं।
कॉलेज के दिनों में सुबह जल्दी उठकर पढ़ने से याद अच्छी तरह हो जाता था। प्रातः सुबह सड़क पर एक बाबा की आवाज से अक्सर नींद खुल जाया करती थी। आज भी वे शब्द कानों में गूंजते रहते हैं ;
जपा कर जपा कर
हरि ॐ तत्सत् जपा कर।
महामंत्र है यह,
जपा कर जपा कर।।
रटने से कोई चीज याद हो जाती है और जपने से निर्दिष्ट फल की प्राप्ति होती है। मोहन की बांसुरी में क्या कोई मंत्र था, जो ब्रज के गोप गोपिकाएं और गैयाएं मंत्रमुग्ध हो जाती थी ;
मधुबन में राधिका नाचे रे।
गिरधर की मुरलिया बाजे रे।।
कलयुग नाम अधारा। आप जिसका नाम लो, वही सिद्ध हो जाता है। कुछ लोग राम नाम की चादर ओढ़ लेते हैं तो कुछ श्रीकृष्ण: शरणं मम। समय के साथ मूल मंत्र भी बदले हैं और उनके उपयोग भी।
मनुष्य की बुद्धि का क्या है। वह शक्ति का सदुपयोग भी कर सकता है, और दुरुपयोग भी। आखिर आसुरी शक्ति भी तो शक्ति का ही एक रूप है। संसारी लोग अपने निहित स्वार्थ के लिए तंत्र मंत्र का सहारा लेकर सामने वाले का अनिष्ट करते हैं। जहां विद्या है, वहीं अविद्या भी है।।
समय का फेर देखिए। आराध्य की जगह अपने प्रिय नेताओं की भक्ति शुरू हो गई है। नारा ही सफलता का मूल मंत्र हो गया है। बच्चे बच्चे की जबान पर जय श्रीराम के साथ अपने नेता का नाम जुड़ा है। कोई अतिशयोक्ति नहीं, अगर भक्त लोग इस बार, अबकी बार 400 पार का मंत्र जपना शुरू ना कर दें।
सामूहिक जाप का बड़ा महत्व होता है। शब्द ही ब्रह्म है। अगर, अबकी बार 400 पार, आपको भी मंत्रमुग्ध करता है, तो आप भी इसका सामूहिक पाठ कर सकते हैं। अबकी बार 400 पार, का दिन में, चार सौ बार पाठ करें। अग्रिम गारंटी वाला जग जाहिर मंत्र है यह।।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 241 – अपरिग्रह- ☆
नववर्ष के आरंभिक दिनों में एक चित्र प्राय: देखने को मिलता है। कोई परिचित डायरी दे जाता है। प्राप्त करनेवाले को याद आता है कि बीते वर्षों की कुछ डायरियाँ कोरी की कोरी पड़ी हैं। लपेटे रखे कुछ कैलेंडर भी हैं। डायरी, कैलेंडर जिनका कभी उपयोग ही नहीं हुआ।
मनुष्य से अपेक्षित है अपरिग्रह। मनुष्य ने ‘बाई डिफॉल्ट’ स्वीकार कर लिया अनावश्यक संचय। जो अपने लिये भार बन जाए वह कैसा संचय?
इसी संदर्भ में विपरीत ध्रुव की दो घटनाएँ स्मरण हो आईं। हाऊसिंग सोसायटी के सामने की सड़क पर रात दो बजे के लगभग दूध की थैलियाँ ले जा रहा ट्रक पेड़ से टकराकर दुर्घटनाग्रस्त हो गया। भय से ड्राइवर भाग खड़ा हुआ। आवाज़ इतनी प्रचंड थी कि आसपास के 500 मीटर के दायरे में रहनेवाले लोग जाग गए। आवाज़ से उपजे भय के वश कुत्ते भौंकने लगे। देखते-देखते इतनी रात गए भी भीड़ लग गई। सड़क दूध की फटी थैलियों से पट गई थी। दूध बह रहा था। कुछ समय पूर्व भौंकने वाले चौपाये अब दूध का आस्वाद लेने में व्यस्त थे और दोपाये साबुत बची दूध की थैलियाँ हासिल करने की होड़ में लगे थे। जिन घरों में रोज़ाना आधा लीटर दूध ख़रीदा जाता था, वे भी चार, छह, आठ जितना लीटर हाथ लग जाए, बटोर लेना चाहते थे। जानते थे कि दूध नाशवान है, टिकेगा नहीं पर भीतर टिक कर बैठा लोभ, अनावश्यक संचय से मुक्त होने दे, तब तो हाथ रुकें!
खिन्न मन दूसरे ध्रुव पर चला आता है। सर्दी के दिन हैं। देर रात फुटपाथ पर घूम-घूमकर ज़रूरतमंदों को यथाशक्ति कंबल बाँटने का काम अपनी संस्था के माध्यम से हम करते आ रहे हैं। उस रात भी मित्र की गाड़ी में कंबल भरकर निकले थे। लगभग आधी रात का समय था। अस्पताल की सामने की गली में दाहिने ओर के फुटपाथ पर एक माई बैठी दिखीं। एक स्वयंसेवक से उन्हें एक कंबल देकर आने के लिए कहा। आश्चर्य ! माई ने कंबल लेने से इंकार कर दिया। आश्चर्य के निराकरण की इच्छा ने मुझे सड़क का डिवाइडर पार कर उनके सामने खड़ा कर दिया। ध्यान से देखा। लगभग सत्तर वर्ष की अवस्था। संभवत: किसी मध्यमवर्गीय परिवार से संबंधित जिन्होंने जाने किस विवशता में फुटपाथ की शरण ले रखी है।… ‘माई ! आपने कंबल नहीं लिया?’ उनके चेहरे पर स्मित उभर आया। अपने सामान की ओर इशारा करते हुए साफ़ भाषा में स्नेह से बोलीं, “बेटा! मेरे पास दो कंबल हैं। मेरा जीवन इनसे कट जाएगा। ज़्यादा किसलिये रखूँ? इसी सामान का बोझ मुझसे नहीं उठता, एक कंबल का बोझ और क्यों बढ़ाऊँ? किसी ज़रूरतमंद को दे देना। उसके काम आएगा!”
ग्रंथों के माध्यम से जिसे समझने-बूझने की चेष्टा करता रहा, वही अपरिग्रह साक्षात सामने खड़ा था। नतमस्तक हो गया मैं!
कबीर ने लिखा है,
कबीर औंधि खोपड़ी, कबहुँ धापै नाहि।
तीन लोक की सम्पदा, कब आवै घर माहि।
पेट भरा होने पर भी धापा हुआ अथवा तृप्त अनुभव न करो तो यकीन मानना कि अभी सच्ची यात्रा का पहला कदम भी नहीं बढ़ाया है। यात्रा में कंबल ठुकराना है या दूध की थैलियाँ बटोरनी हैं, यह स्वयं तय करो।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक
श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गधे घोड़े में अंतर…“।)
अभी अभी # 365 ⇒ गधे घोड़े में अंतर… श्री प्रदीप शर्मा
इंसान का इंसान से हो भाईचारा, लेकिन गधे घोड़े में अंतर पहचानें, यही पैगाम हमारा। वैसे तो इंसान इतना गधा भी नहीं, कि वह गधे घोड़े में अंतर ना पहचान सके, लेकिन फिर भी इंसान कभी कभी धोखा खा ही जाता है।
वैसे घोड़ा भी सिर्फ इंसान की ही सवारी के काम आता है। घोड़े से अच्छा तो उल्लू है, जिस पर लक्ष्मी जी सवार हैं। मूषक पर गणेश जी विराजमान हैं, और शेर पर पहाड़ां वाली शेरां वाली मां वैष्णो देवी। उधर शिवजी ने बैल पर सवारी कर ली तो उनके पुत्र कार्तिकेय ने मोर की। वह तो भला हुआ रामदेवरा के बाबा रामदेव पीर ने घोड़े की सवारी कर ली और मेवाड़ के महाराणा प्रताप के चेतक ने दुनिया में अपना नाम कर लिया लेकिन बेचारा गधा, फिर भी, ना घर का रहा, और ना घाट का।।
वैसे घोड़ा सिर्फ वीरों की सवारी ही नहीं होता, युद्ध में अश्व सेना होती थी, अश्वारोही होते थे, उनके लिए अश्व शाला होती थी। महाभारत के युद्ध में तो चतुरंगिनी और
अक्षौहिणी सेना का वर्णन है, जिनमें हाथी हैं, घोड़े हैं, रथ हैं और पैदल सिपाही हैं, लेकिन बेचारा गधा वहां भी नदारद है।
घोड़े पर जो घुड़सवार बैठता है, वह वीर कहलाता है, जो घोड़ी पर बैठता है, वह वर कहलाता है। समझदार इंसान वैसे एक बार ही घोड़ी चढ़ता है, बार बार घोड़ी तो कोई गधा ही चढ़ता होगा।।
घोड़े की खरीद फरोख्त को हॉर्स ट्रेडिंग कहा जाता है। अरबी घोड़े बहुत महंगे होते हैं। घोड़े की रेस में भी किसी खास घोड़े पर ही बोली लगाई जाती है। हारने पर कई रईस सड़कों पर आ जाते हैं। लेकिन जब से राजनीति में हॉर्स ट्रेडिंग शुरू हुई है, घोड़े गधे एक ही चाल चलने लगे हैं। वैसे शतरंज के खेल में भी आपको हाथी, घोड़ा, ऊंट और सैनिक मिलेंगे, लेकिन गधे को वहां भी कोई लिफ्ट नहीं। गधा ना तो खुद भाग सकता है और ना ही कोई इस पर सवार होना चाहता है। इससे तो खच्चर और टट्टू भला, जो पहाड़ों में बोझा भी ढोते हैं और सवारियों को भी।
राजनीति की हॉर्स ट्रेडिंग में घोड़े तो घोड़े, गधों के भी भाव बढ़े रहते हैं। जो राजनीति के चाणक्य होते हैं, वे ही गधे घोड़े में अंतर कर सकते हैं। शतरंज के इस खेल में कौन प्यादा कब वजीर बन जाए, और कौन घोड़ा ढाई घर चल मात ही दे दे, कुछ कहा नहीं जा सकता।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “योगाग्नि एवं क्रोधाग्नि…“।)
अभी अभी # 364 ⇒ योगाग्नि एवं क्रोधाग्नि… श्री प्रदीप शर्मा
हम यहां वेद और आयुर्वेद की चर्चा नहीं कर रहे, ना ही उस जठरग्नि का जिक्र कर रहे, जिसके कारण हमारे पेट मेंअक्सर चूहे दौड़ा करते हैं, और जब कड़ाके की भूख लगती है, तो जो खाने को मिले, उसे कच्चा चबा जाने का मन करता है।
हमारा शरीर हो, अथवा यह सृष्टि, पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल और आकाश, इन पांच तत्वों का ही तो सब खेल है। अग्नि को साधारण बोलचाल की भाषा में हम आग बोलते हैं। सोलर सिस्टम तक हम भले ही नहीं जाएं, सोलर एनर्जी तक हम जरूर पहुंच गए हैं। गरीब का चूल्हा और एक मजदूर की बीड़ी आज भी आग से ही जलती है। इतनी दूर बैठा सूरज, देखिए कैसा आग उगल रहा है। आपके पास जो आयेगा, वो जल जायेगा।।
अग्नि का धर्म ही जलाना है, खाक करना है। कलयुग में हम कितने सुखी हैं, कोई कितना भी जले, हमें बददुआ दे, हमारा बाल भी बांका नहीं होता। अगर सतयुग होता तो कोई भी सिद्ध पुरुष क्रोध में हमें शाप देकर भस्म कर देता।
आज भी आयुर्वेदिक चिकित्सा में भस्म का बहुत महत्व है। हमने बचपन में अपनी मां को राख से बर्तन मांजते देखा है, और यज्ञ और हवन की भस्म हमने भी माथे पर लगाई है।
एक अग्नि योग की होती है, जहां यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि अवस्था के पश्चात योगियों के सारे काम, क्रोध, लोभ और मोह के विकार जल कर खाक हो जाते हैं, और उसमें योगाग्नि प्रज्वलित हो जाती है। हजारों वर्षों तक ये योगी तपस्या किया करते थे, तब जाकर भोलेनाथ प्रसन्न होते थे। मांग वत्स वरदान।।
यह सब सुनी सुनाई गप नहीं, हमारा सनातन धर्म है। मत करो भरोसा, हमें क्या। लेकिन हमारी बात अभी खत्म नहीं हुई। परशुराम, महर्षि विश्वामित्र और दुर्वासा के क्रोध के चर्चे तो आपने सुने ही होंगे। शिव जी के तीसरे नेत्र से कौन नहीं डरता। जहां योगाग्नि होगी, वहीं क्रोधाग्नि भी अवश्य मौजूद होगी। अग्नि तो अग्नि है, उसका काम ही भस्म करना है।
मर्यादा पुरुषोत्तम हों अथवा वासुदेव कृष्ण, कहीं अचूक रामबाण तो कहीं सुदर्शन चक्र, अगर एक बार चल गए तो बिना अपना काम किए, कभी वापस नहीं आते। बहुत सोच समझकर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया जाता था।।
हमारे पास आज योगाग्नि तो है नहीं, लेकिन क्रोधाग्नि की कोई कमी नहीं। क्रोध में खुद ही जलते भुनते रहते हैं। शक्ति का प्रयोग उन्हें ही करना चाहिए, जिनमें विवेक बुद्धि हो, तप और स्वाध्याय का बल हो। अग्नि से ही ओज
है, अग्नि से ही संहार है।
दुधारी तलवार है, योगाग्नि क्रोधाग्नि।
क्रोध आया, किसी पर हाथ उठा दिया, गाली गलौच कर ली, अपने ही कपड़े फाड़ लिए, हद से हद, अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार ली, लो जी, हो गई तसल्ली। क्या करें योगाग्नि तो है नहीं। ईश्वर समझदार है, कभी बंदर के हाथ में तलवार नहीं देता।।
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख गुण और ग़ुनाह… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 232 ☆
☆ गुण और ग़ुनाह… ☆
‘आदमी के गुण और ग़ुनाह दोनों की कीमत होती है। अंतर सिर्फ़ इतना है कि गुण की कीमत मिलती है और ग़ुनाह की उसे चुकानी पड़ती है।’ हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। गुणों की एवज़ में हमें उनकी कीमत मिलती है; भले वह पग़ार के रूप में हो या मान-सम्मान व पद-प्रतिष्ठा के रूप में हो। इतना ही नहीं,आप श्रद्धेय व वंदनीय भी बन सकते हैं। श्रद्धा मानव के दिव्य गुणों को देखकर उसके प्रति उत्पन्न होती है। यदि हमारे हृदय में उसके प्रति श्रद्धा के साथ प्रेम भाव भी जाग्रत होता है तो वह भक्ति का रूप धारण कर लेती है। शुक्ल जी भी श्रद्धा व प्रेम के योग को भक्ति स्वीकारते हैं। सो! आदमी को गुणों की कीमत प्राप्त होती है और जहां तक ग़ुनाह का संबंध है,हमें ग़ुनाहों की कीमत चुकानी पड़ती है; जो शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना रूप में हो सकती है। इतना ही नहीं,उस स्थिति में मानव की सामाजिक प्रतिष्ठा भी दाँव पर लग सकती है और वह सबकी नज़रों में गिर जाता है। परिवार व समाज की दृष्टि में वह त्याज्य स्वीकारा जाता है। वह न घर का रहता है; न घाट का। उसे सब ओर से प्रताड़ना सहनी पड़ती है और उसका जीवन नरक बन कर रह जाता है।
मानव ग़लतियों का पुतला है। ग़लती हर इंसान से होती है और यदि वह उसके परिणाम को देख स्वयं की स्थिति में परिवर्तन ले आता है तो उसके ग़ुनाह क्षम्य हो जाते हैं। इसलिए मानव को प्रतिशोध नहीं; प्रायश्चित करने की सीख दी जाती है। परंतु प्रायश्चित मन से होना चाहिए और व्यक्ति को उस कार्य को दोबारा नहीं करना चाहिए। बाल्मीकि जी डाकू थे और प्रायश्चित के पश्चात् उन्होंने रामायण जैसे महान् ग्रंथ की रचना की। तुलसीदास अपनी पत्नी रत्नावली के प्रति बहुत आसक्त थे और उसकी दो पंक्तियों ने उसे महान् लोकनायक कवि बना दिया और वे प्रभु भक्ति में लीन हो गए। उन्होंने रामचरित मानस जैसे महाकाव्य की रचना की, जो हमारी संस्कृति की धरोहर है। कालिदास महान् मूर्ख थे, क्योंकि वे जिस डाल पर बैठे थे; उसी को काट रहे थे। उनकी पत्नी विद्योतमा की लताड़ ने उन्हें महान् साहित्यकार बना दिया। सो! ग़ुनाह करना बुरा नहीं है,परंतु उसे बार-बार दोहराना और उसके चंगुल में फंसकर रह जाना अति- निंदनीय है। उसे इस स्थिति से उबारने में जहां गुरुजन, माता-पिता व प्रियजन सहायक सिद्ध होते हैं; वहीं मानव की प्रबल इच्छा-शक्ति,आत्मविश्वास व दृढ़-निश्चय उसके जीवन की दिशा को बदलने में नींव की ईंट का काम करते हैं।
इस संदर्भ में, मैं आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहूंगी कि यदि ग़ुनाह किसी सद्भावना से किया जाता है तो वह निंदनीय नहीं है। इसलिए धर्मवीर भारती ने ग़ुनाहों का देवता उपन्यास का सृजन किया,क्योंकि उसके पीछे मानव का प्रयोजन द्रष्टव्य है। यदि मानव में दैवीय गुण निहित हैं; उसकी सोच सकारात्मक है तो वह ग़लत काम कर ही नहीं सकता और उसके कदम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर नहीं हो सकते। हाँ! उसके हृदय में प्रेम,स्नेह,सौहार्द,करुणा, सहनशीलता,सहानुभूति,त्याग आदि भाव संचित होने चाहिए। ऐसा व्यक्ति सबकी नज़रों में श्रद्धेय,उपास्य,प्रमण्य व वंदनीय होता है। ‘जाकी रही भावना जैसी,प्रभु तिन मूरत देखी तैसी’ अर्थात् मानव की जैसी सोच,भावना व दृष्टिकोण होता है; उसे वही सब दिखाई देता है और वह उसमें वही तलाशता है। इसलिए सकारात्मक सोच व सत्संगति पर बल दिया जाता है। जैसे चंदन को हाथ में लेने से उसकी महक लंबे समय तक हाथों में बनी रहती है और उसके बदले में मानव को कोई भी मूल्य नहीं चुकाना पड़ता। इसके विपरीत यदि आप कोयला हाथ में लेते हो तो आपके हाथ काले अवश्य हो जाते हैं और आप पर कुसंगति का दोष अवश्य लगता है। कबीरदास जी का यह दोहा तो आपने सुना होगा, ‘कोयला होय न ऊजरा,सौ मन साबुन लाय’ अर्थात् व्यक्ति के स्वभाव में परिवर्तन लाना अत्यंत दुष्कर कार्य है। परंतु बार-बार अभ्यास करने से मूर्ख भी विद्वान बन सकता है। इसलिए मानव को निराश नहीं होना चाहिए और अपने सत् प्रयास अवश्य जारी रखने चाहिए। यह कथन कोटिश: सत्य है कि यदि व्यक्ति ग़लत संगति में पड़ जाता है तो उसको लिवा लाना अत्यंत कठिन होता है,क्योंकि ग़लत वस्तुएं अपनी चकाचौंध से उसे आकर्षित करती हैं–जैसे माया रूपी महाठगिनी अपनी हाट सजाए सबका ध्यान आकर्षित करने में प्रयासरत रहती है।
शेक्सपीयर भी यही कहते हैं कि जो दिखाई देता है; वह सदैव सत्य नहीं होता और हमें छलता है। सो! सुंदर चेहरे पर विश्वास करना स्वयं को छलना व धोखा देना है। इक्कीसवीं सदी में सब धोखा है, छलना है,क्योंकि मानव की कथनी- करनी में बहुत अंतर होता है। लोग अक्सर मुखौटा धारण कर जीते हैं। इसलिए रिश्ते भी विश्वास के क़ाबिल नहीं रहे। रिश्ते खून के हों या अन्य भौतिक संबंध–भरोसा करने योग्य नहीं हैं। संसार में हर इंसान एक-दूसरे को छल रहा है। इसलिए रिश्तों की अहमियत रही नहीं; जिसका सबसे अधिक खामियाज़ा मासूम बच्चियों को भुगतना पड़ रहा है। अक्सर आसपास के लोग व निकट के संबंधी उनकी अस्मत से खिलवाड़ करते पाए जाते हैं। उनकी स्थिति बगल में छुरी ओर मुंह में राम-राम जैसी होती है। वे एक भी अवसर नहीं चूकते और दुष्कर्म कर डालते हैं,क्योंकि उनकी रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई जाती। वास्तव में उनकी आत्मा मर चुकी होती है,परंतु सत्य भले ही देरी से उजागर हो; होता अवश्य है। वैसे भी भगवान के यहां सबका बही-खाता है और उनकी दृष्टि से कोई भी नहीं बच सकता। यह अकाट्य सत्य है कि जन्म-जन्मांतरों के कर्मों का फल मानव को किसी भी जन्म में भोगना अवश्य पड़ता है।
आइए! आज की युवा पीढ़ी की मानसिकता पर दृष्टिपात करें, जो ‘खाओ पीयो,मौज उड़ाओ’ में विश्वास कर ग़ुनाह पर ग़ुनाह करती चली जाती है निश्चिंत होकर और भूल जाती है ‘यह किराये का मकाँ है/ कौन कब तक ठहर पायेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा।’ यही संसार का नियम है कि इंसान कुछ भी अपने साथ नहीं ले जा सकता। परंतु वह आजीवन अधिकाधिक धन-संपत्ति व सुख- सुविधाएं जुटाने में लगा रहता है। काश! मानव इस सत्य को समझ पाता और देने में विश्वास रखता तथा परहितार्थ कार्य करता तो उसके ग़ुनाहों की फेहरिस्त इतनी लंबी नहीं होती। अंतकाल में केवल कर्मों की गठरी ही उसके साथ जाती है और कृत-कर्मों के परिणामों से बचना सर्वथा असंभव है।
मानव के सबसे बड़े शत्रु है अहं और मिथ्याभिमान; जो उसे डुबा डालते हैं। अहंनिष्ठ व्यक्ति स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को हेय मानता है। इसलिए वह कभी दयावान् नहीं हो सकता। वह दूसरों पर ज़ुल्म ढाने में विश्वास कर सुक़ून पाता है और जब तक व्यक्ति स्वयं को उस तराजू में रखकर नहीं तोलता; वह प्रतिपक्ष के साथ न्याय नहीं कर पाता। सो! कर भला, हो भला अर्थात् अच्छे का परिणाम अच्छा व बुरे का परिणाम सदैव बुरा होता है। शायद! इसीलिए शुभ कर्मण से कबहुं न टरौं’ का संदेश प्रेषित है। गुणों की कीमत हमें आजीवन मिलती है और ग़ुनाहों का परिणाम भी अवश्य भुगतना पड़ता है; उससे बच पाना असंभव है। यह संसार क्षणभंगुर है,देह नश्वर है और मानव शरीर पृथ्वी,जल,वायु, अग्नि व आकाश तत्वों से बना है। अंत में इस नश्वर देह को पंचतत्वों में विलीन हो जाना है; यही जीवन का कटु सत्य है। इसलिए मानव को ग़ुनाह करने से पूर्व उसके परिणामों पर चिन्तन-मनन अवश्य करना चाहिए। ऐसा करने के पश्चात् ही आप ग़ुनाह न करके दूसरों के हृदय में स्थान पाने का साहस जुटा पाएंगे।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “आ पहुँचा था एक अकिंचन…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 196 ☆ आ पहुँचा था एक अकिंचन… ☆
अक्सर हम अपने विचारों में बदलाव उनके लिए करते हैं जो कुछ नहीं करते क्योंकि हर व्यक्ति आखिरी क्षण तक जीत के लिए प्रयास करता है उसे लगता है शायद ऐसा करने से कोई अंतर आए। सत्य तो यही है कि मूलभूत स्वभाव किसी का नहीं बदलता, हाँ इतना अवश्य होता है कि परिस्थितियों के आगे घुटने टेकने पड़ जाते हैं।
ऐसे लोग जो निरन्तर अपने लक्ष्य के प्रति संकल्पबद्ध होकर परिश्रम करते हैं उनसे भले ही कुछ गलतियाँ जाने- अनजाने क्यों न हो जाएँ अंत में वे विजयमाल वरण करते ही हैं। ऐसी जीत जिससे कई लोगों को फायदा हो वो वास्तव में स्वागत योग्य होती है।
व्यक्ति के अस्तित्व की पहचान उसका व्यक्तित्व होता है। जैसे परिवेश में हम रहते हैं वैसा ही हमारा व्यवहार होने लगता है। संगत का असर हमेशा से ही लोगों के आचरण को प्रभावित करता है। हमारे व्यवहार से ही हमारी पहचान होती है, जो हम लोगों के साथ करते हैं।
कुछ लोग अकारण ही क्रोध करते हैं, हर बात पर चीखना चिल्लाना ही उनकी आदत बन जाती है। झूठ बोलने वाले अक्सर नजरें झुका कर ऊँची- ऊँची बातें करते हैं और पकड़े जाने पर अपशब्दों के प्रयोग से बात को ढाँकने की नाकामयाब कोशिश करते हैं।
हमारे कार्यकलापों का मूल्यांकन लोगों द्वारा किया जाता है इसलिए हमेशा सत्य के साक्षी बन मीठे वचनों के प्रयोग की कोशिश होनी चाहिए। ये बात अलग है कि कार्य क्षेत्रों में कटु शब्दों का प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है क्योंकि बिना डाँट- फटकार अधीनस्थों से कार्य करवाना मुश्किल होता है। कहते हैं न जब घी सीधी उँगली से न निकले तो उँगली टेढ़ी करनी ही पड़ती है।
कुल मिलाकर कार्यों का उद्देश्य यदि सार्थक हो, सबके हित में हो तो ऐसे व्यक्ति सबके प्रिय बन जाते हैं। देर सवेर ही सही उसकी कार्यकुशलता व व्यक्तित्व से सभी प्रभावित होते हैं व उसके अनुयायी बन पद चिन्हों पर चल पड़ते हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अब की बार?“।)
अभी अभी # 362 ⇒ अब की बार? श्री प्रदीप शर्मा
देखिए, हम राजनीतिक रूप से कितने समझदार और परिपक्व हो गए हैं, जो मैंने नहीं लिखा, वह भी आपने पढ़ लिया होगा।
किसी ने गलत नहीं कहा, समझदार को इशारा काफी होता है, यानी हमने आपको समझदार भी बना दिया। शायद अब की बार हमारी पोस्ट की रीच कुछ बढ़ जाए, क्या करें, हथकंडों का जमाना है।
जो, अब की बार, कभी एक तकिया था, वह आजकल नारा बन गया है, एक ऐसा नारा जिसमें नेता सिर्फ हमारा नेता कैसा हो, ही कहता है, वाक्य पूरा तो जनता ही करती है। वे सिर्फ भारत माता की, कहते हैं, बाकी सब देशवासी संभाल लेते हैं।।
विविध भारती पर सुबह सवेरे, भक्ति संगीत के कार्यक्रम वंदनवार में, अक्सर छाया गांगुली के स्वर में, सूरदास जी का एक भजन प्रसारित होता है ;
नाथ मोहे अबकी बेर उबारो।
तुम नाथन के नाथ स्वामी
दाता नाम तिहारो।।
तीन लोक के तुम प्रतिपालक
मैं हूँ दास तिहारो।
क्षुद्र पतित तुम तारे रमापति
अब ना करो जिया डारो।।
नाथ मोहे…
यही अबकी बेर, आगे चलकर, अबकी बार हो गया है। हर व्यक्ति निन्यानवे के फेर में पड़ा है। आज की पीढ़ी के बच्चों से फिर भी माता पिता 100 % की अपेक्षा रखते हैं। पापा पिछली बार मेरे अस्सी प्रतिशत आए थे, इस बार 88 परसेंट आए हैं। जहां कल 93 % था, वहां अबकी बार 98 की उम्मीद है, बेटा दुनिया कहां जा रही है, बहुत प्रतिस्पर्धा है।
अबकी बार, ये दिल मांगे मोर। यहां कौन सूरदास की तरह इस भवसागर से पार जाना चाहता है। उसे उबरना नहीं, आगे बढ़ना है, बहुत आगे निकलना है, सबसे आगे निकलना है। चारों तरफ मोटिवेशनल स्पीच और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ही छाए हुए हैं। अबकी बार अगर टॉप करा, तो iPhone पक्का।।
जिनके इरादे बुलंद होते हैं, उनकी मुट्ठी छोटी नहीं होती। पिछली बार बड़ी मुश्किल से 2BHK का फ्लैट लिया था, अबकी बार अपना खुद का बंगला होगा। बिटिया का पैकेज भी अबकी बार डबल हो गया है। जीवन में बहुत संघर्ष किया, पसीना बहाया, अबकी बार छुट्टियां विदेश में ही बिताएंगे बच्चों के साथ।
सबके अपने अपने, अबकी बार हैं, जहाँ प्रयत्न और पुरुषार्थ है, वहां बेड़ा पार है। कहां विरक्त भक्त सूरदास और कहां हम विभक्त संसारी जीव, लेकिन अबकी बेर हमें भी इस पोस्ट पर नहीं जाना चार सौ पार। हमारी भी नाथों के नाथ से यही टेर है ;
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक आलेख – व्यंग्य पत्रिकाओं का व्यंग्य के विकास में योगदान।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 282 ☆
आलेख – व्यंग्य पत्रिकाओं का व्यंग्य के विकास में योगदान
अब तो जाने कितनी ई पत्रिकाएं निकल रही हैं, पर पुरानी हार्ड कापी व्यंग्य पत्रिकाओं का तथा अन्य पत्रिकाओं में व्यंग्य स्तंभों का व्यंग्य के विकास में योगदान निर्विवाद है।
मेरे घर में “मतवाला” के कुछ अंक थे, जो पिछली सदी में 1923 में कोलकाता से छपी प्रमुख व्यंग्य पत्रिका थी। जिसके संपादक मंडल के सभी चार प्रमुख सदस्य युवा लेखक थे जो बाद में युग प्रवर्तक लेखक बने। इनमें एक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला थे जो बीसवीं सदी के सबसे बड़े कवि माने गए, इनमे दूसरे शिवपूजन सहाय थे जो हिंदी के गद्य निर्माता और साहित्यकार निर्माता माने गए,इनमें तीसरे पांडेय बेचन शर्मा जैसे अद्भुत लेखक भी थे यद्यपि वे बाद में जुड़े और सबसे उम्रदराज लेखक पत्रकार नवजादिक लाल श्रीवास्तव थे जो अल्पायु में चल बसे। इस पत्रिका के मालिक महादेव प्रसाद सेठ थे जो खुद भी एक लेखक थे। आठ पन्नों की यह साप्ताहिक समाचार पत्र नुमा पत्रिका बंगला की हास्य व्यंग्य पत्रिका “अवतार” की प्रेरणा से निकली थी।
1968 में हैदराबाद से शुरू हुआ, शुगूफ़ा मज़ेदार पत्रिका थी। इसका नाम मुहावरे “शगूफे छोड़ना” (कुछ नया और मजेदार कहना) से लिया गया है, इसकी स्थापना अकादमिक डॉ. सैयद मुस्तफा कमाल ने की थी। यह देश की (किसी भी भाषा में) कुछ पत्रिकाओं में से एक है जो पूरी तरह से हास्य को समर्पित है।
अट्टहास और व्यंग्य यात्रा तो सुस्थापित हैं ही, व्यंग्यम, जयपुर से गुपचुप या ऐसे ही किसी नाम से व्यंग्य पत्रिकाएं छपी। सुरेश कांत जी ने हेलो का एक अंक प्रायोगिक रूप से हाल ही निकाला था।
पुरानी नियमित पत्रिकाओं की याद करूं तो मधुर मुस्कान, दीवाना, धर्मयुग, कादंबिनी, सारिका, साप्ताहिक हिंदुस्तान,चंपक,लोटपोट, नंदन,माधुरी, मनोरमा, सरिता, मुक्ता सब में व्यंग्य, कार्टून के स्तंभ होते थे।
हमारे घर में इन पत्रिकाओ को पढ़ने की होड़ लगा करती थी। तब टीवी नही केवल रेडियो था या बड़ी मोटी सेल वाला ट्रांजिस्टर भी आ गया था।
कस्बा उझानी के सुप्रसिद्ध कवि-लेखक टिल्लन वर्मा द्वारा रचित-प्रकाशित हास्य-व्यंग्य पत्रिका ” होली का हुड़दंग ” अपने जीवन के 54वें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है। इसे चमत्कार ही कहा जायेगा कि आज जब अनेक नामचीन पत्रिकाएँ बीच रास्ते में ही दम तोड़ गई हैं, तब टिल्लन जी की यह 54 वर्ष लम्बी रचनात्मक यात्रा पूरी तरह वनमैन-शो रहा।
प्रायः होली के मौके पर कई स्थानों से हास्य व्यंग्य पत्रिकाये निकलती थी। निवास जिला मंडला से मनोज जैन ऐसा ही एक प्रयास करते हैं। प्रमुख लोगो को टाइटिल बांटने में इन पत्रिकाओं का स्थान अब सोशल मीडिया ने ले लिया है।
व्यंग्य विविधा, हास्यम व्यंग्यम, रंग चक्कलस, विदूषक, कार्टून वाच, नई गुदगुदी भी उल्लेखनीय पत्रिकाएं रहीं या हैं।
व्यंग्य विविधा इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण इन अर्थों में रही कि उसने व्यंग्य आलोचना और व्यंग्य पर वैचारिक विमर्श की शुरुआत की, जिसे व्यंग्य यात्रा ने और विस्तार दिया।
अस्तु व्यंग्य पत्रिकाओं को हल्के फुल्के मारक तंज के लिए जाना जाता है।
सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री आशीष गौड़ जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत है।
आपका साहित्यिक परिचय आपके ही शब्दों में “मुझे हिंदी साहित्य, हिंदी कविता और अंग्रेजी साहित्य पढ़ने का शौक है। मेरी पढ़ने की रुचि भारतीय और वैश्विक इतिहास, साहित्य और सिनेमा में है। मैं हिंदी कविता और हिंदी लघु कथाएँ लिखता हूँ। मैं अपने ब्लॉग से जुड़ा हुआ हूँ जहाँ मैं विभिन्न विषयों पर अपने हिंदी और अंग्रेजी निबंध और कविताएं रिकॉर्ड करता हूँ। मैंने 2019 में हिंदी कविता पर अपनी पहली और एकमात्र पुस्तक सर्दशबसुलगतेख़्वाब प्रकाशित की है। आप मुझे प्रतिलिपि और कविशाला की वेबसाइट पर पढ़ सकते हैं। मैंने हाल ही में पॉडकास्ट करना भी शुरू किया है। आप मुझे मेरे इंस्टाग्राम हैंडल पर भी फॉलो कर सकते हैं।”
आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक एवं विचारणीय आलेख साहित्य के बदलते “आयाम”!… जन जन तक पहुँचती “कलम”!
☆ साहित्य के बदलते “आयाम”!… जन जन तक पहुँचती “कलम”! ☆ श्री आशीष गौड़ ☆
साहित्य क्या है? साहित्य लैटिन शब्द साहित्य से बना जिसका अर्थ है ‘अक्षर’| इसका शब्दिक अर्थ है अक्षरो का उपयोग।साहित्य, पश्चिम में, सुमेर के दक्षिणी मेसोपोटामिया क्षेत्र (लगभग 3200 BC) में उरुक शहर में उत्पन्न हुआ और मिस्र में, बाद में ग्रीस में (लिखित शब्द फिलीशियनों से शुरू हुआ था) और वहां से रोम में फला-फूला। .दुनिया में साहित्य की पहली कृति, जिसे इसी नाम से जाना जाता है, उर के उच्च-पुरोहित एनहेदुआना (2285-2250 ईसा पूर्व) जहां, सुमेरियन देवी इन्ना की स्तुति में भजन लिखे गए थे।
मध्यकाल में, कन्नड़ और शास्त्रीय में साहित्य क्रमशः 9वीं और 10वीं शताब्दी में सामने आया। बाद में मराठी, गुजराती, बंगाली, असमिया, उड़िया और मैथिली में साहित्य सामने आया। इसके बाद हिंदी, फ़ारसी और उर्दू की विभिन्न बोलियों में भी साहित्य छपने लगा।
हिंदी भाषा का पहला साहित्य था पृथ्वीराज रासो जो 1170 ई. में आया |हिंदी साहित्य के इतिहास-लेखन का गंभीर एवं उल्लेखनीय प्रयास पं. रामचन्द्र शुक्ल ने किया था। उनके द्वारा लिखित—हिन्दी साहित्य का इतिहास, यह विषय एक शास्त्रीय पुस्तक है। इसकी शुरुआत में उनकी एक और महत्वपूर्ण कृति-हिंदी शब्द सागर की भूमिका लिखी गई थी।
पहले साहित्य लिखने वाले लोग भाषा के और व्याकरण के प्रकांड पंडित थे |साहित्यकार अनेक लेख और कथा कहानियां लिखते थे जो पुराणिक भारत की, इतिहास से जुड़े या धर्म से मेल खाती कहानी लिखते थे | ये साहित्य सर्व व्यापी नहीं था | साहित्य उस समय सिर्फ उन्ही लोगों ने ही पढ़ा था जो या तो साहित्य से जुड़े थे, साहित्य पढ़ते थे फिर साहित्य पढाते थे | जन साधारण में साहित्य इतना सर्वव्यापी नहीं रहा | जन साधारण सिर्फ धर्म और पौराणिक रीतियों से जुड़ी कहानियाँ ही पढ़ता रहा |इसका एक पहलू यह भी हो सकता है कि पुराण बहिरवर्ती थे और वेद अंतरवर्ती थे | जब सामाजिक सोच बहिर्वर्ती से अंतरवर्ती हुई तभी साहित्य ने भी नई राह पकड़ी |
भारत में साहित्य का इतिहास अत्यंत समृद्ध और विविध है। साहित्य इतिहास , भारतीय संस्कृति, साध्य, लोक कथाएँ और रीति रिवाज़ के साथ गहरा जुड़ा हुआ है। यह अनेक वर्णमाला में लिखी गई है, जैसे कि संस्कृत, हिंदी, अरबी, तमिल, जनजाति, बंगाली, गुजराती, पंजाबी, आदि।
साहित्य एक ऐसा साधन है जो समय के साथ बदलता रहता है, और इसमें समाज, संस्कृति और व्यक्तित्व के मानक आयाम हैं। हिंदी के भाषा साहित्य समाज इसी दिशा में साहित्य को नए आयामों तक ले गए हैं। प्राचीन काल की उत्पत्ति से लेकर आधुनिकता और विज्ञान के युग तक, हिंदी साहित्य में समाज के लोकतंत्र का चित्रण किया गया है।
जैसी जैसी भाषा बदली और भाषा में नए प्रयोग किए गए वैसे वैसे साहित्य भी बदलता गया|साहित्य धार्मिक और इतिहास कथाओं से बदल कर अब सामाजिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक विषयों पर लिखा जाने लगा | बदलते समाज की नई तस्वीर साहित्य का हिस्सा बानी और कथाकारो ने अपने हिसाब से नवीन समय के समाज को सार्थक दिशा की तरफ मोड़ने के लिए जो प्रयोग किया वह भी साहित्य का हिस्सा बन गया |
धीरे धीरे साहित्य बदल रहा था |
प्राचीन काल के साहित्यकार जैसे कबीर, सूर दास और तुलसीदास जी ने जहां भक्ति काल का साहित्य रचा | वही उनके आगे आए रहीम जिन्होंने सत्य, प्रेम और मानवता के मुद्दे को अपने साहित्य में उकेरा | प्रेमचंद के लेखन ने गाव , देहात और समाज के गरीब और पिछड़े वर्ग की रोज़ मर्रा की जीवन गाथा को कहानियों में पिरोया। तो वही निराला, बच्चन, और मुक्ति बोध ने नई धारा को प्रवाह दिया |
आज के युग का साहित्य |
आज के समय के अनुभव, सामाजिक समीक्षा, तकनीकी बदलाव और तरक्की आज के साहित्य के बदलते चेहरे की वजह है |आज की राजनीतिक हवा और क्षेत्रीय समीक्षा भी आज के साहित्य का बड़ा हिस्सा है |आज का साहित्य सर्वव्यापी है | आज के साहित्य और काव्य की लिपि निजी है, और उसका मुख्य कारण कला का विकेंद्रीकरण और कैनवास का लोकतंत्रीकरण है |कविता की लोकप्रियता, लेख में तिरोहित विचारधारा और साहित्य में राजनीति और सामाजिक जागरूकता की खिचड़ी सबके घर परोसी जाए और सबका स्वाद वापस फिर रसोई घर और रसोईये को पता लगे इसका पूरा श्रेय है हैशटैग # की ताकत |
कला का विकेंद्रीकरण और कैनवास का लोकतंत्रीकरण
आज का साहित्य और कला दोनों ही समाज के विभिन्न पहलुओं को व्यक्त करने का एक माध्यम हैं। कला के विकेंद्रीकरण ने आधुनिक कला और साहित्य को नए और अनूठे रूपों में प्रस्तुत किया है, जो समाज में गैहरा परिवर्तन और प्रभाव लाया है।लेखन, फोटोग्राफी, चित्रकला, फिल्म, और ऑडियो-विजुअल मीडिया का एक संगम साहित्य को और भी रोचक और बौद्धिक बना रहा है।
डिजिटल साहित्य इंटरनेट का उपयोग करते हुए, लेखकों और कलाकारों को अपनी रचनाओं और कला को आसानी से व्यक्त करने का अवसर मिलता है। इलेक्ट्रॉनिक साहित्य या डिजिटल साहित्य एक ऐसी शैली है जहां डिजिटल क्षमताएँ जैसे अन्तरक्रियाशीलता, बहु-तौर-तरीके और अलोगोरिदम पाठ का सौंदर्यपूर्ण उपयोग किया जाता है। इलेक्ट्रॉनिक साहित्य के कार्यों को आमतौर पर कंप्यूटर, टैबलेट और मोबाइल फोन जैसे डिजिटल उपकरणों पर पढ़ा जाता है।
ब्लॉग, सोशल मीडिया, और ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म्स के माध्यम से, साहित्य और कला विभिन्न लोगों तक पहुंच रही हैं।आज के युग में, साहित्यिक आदान-प्रदान भी नए और विविध रूपों में हो रहा है। लेखकों, कवियों, और कलाकारों के बीच विचारों और विचारों का दिमागी तूफान , उन्हें साझा करना और उनके संदेश को बढ़ावा देना आम हो गया है।इस प्रकार, कला के विकेंद्रीकरण और आज का साहित्य एक साथ काम करके, समाज को नए और अनूठे रूपों में सोचने और अनुभव करने का अवसर प्रदान कर रहे हैं। यह उत्कृष्ट साधन है जो विभिन्न पहलुओं को समाहित करता है और समाज के विकास में महत्वपूर्ण योगदान करता है।
हैशटैग # की ताकत
आज के युग में हैशटैग की शक्ति ने साहित्य को फैलाने में बड़ी भूमिका निभाई है। हैशटैग सोशल मीडिया का एक महत्वपूर्ण तत्व है जो किसी भी विषय को वायरल करने और उसे बढ़ाने में मदद करता है। साहित्य के क्षेत्र में भी, हैशटैग एक प्रभावशाली और शक्तिशाली उपकरण है।हैशटैग का प्रयोग करके लेखक और कवि अपने ब्लॉग को सार्वजनिक रूप से साझा कर सकते हैं। यह उन्हें अपने वैज्ञानिक कार्यों को बड़े पैमाने पर लोगों तक पहुंचाने का एक अच्छा माध्यम प्रदान करता है।
इसके अलावा, हैशटैग के माध्यम से लेखक और कवि अपने विचार और दृष्टिकोण को दुनिया के साथ साझा कर सकते हैं, जो शास्त्र समुदाय में वाद-विवाद और साझा दृष्टिकोण को दार्शनिक कर सकते हैं।सोशल मीडिया के दिग्गज जैसे कि ट्विटर, सोशल मीडिया और फेसबुक पर हैशटैग का प्रयोग साहित्य के प्रचार और इसके प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लेखक, विचारक और कवि अपनी रचनाओ और दृष्टिकोण को हैशटैग के ज़रिये जन साधारण तक पहूचा सकता है ।इस प्रकार, हैशटैग आज के युग में साहित्य को नए आयामों तक पहुँचाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम बन गया है। यह आर्टिस्ट और पेंटिंग को अपने थिएटर के साथ साझा करने का एक उत्कृष्ट माध्यम प्रदान करता है।
साहित्य का बदलता आयाम और जन-जन तक पहुंचति कलम का आधार है कला का विकेंद्रीकरण, कैनवास का लोकतंत्रीकरण और हैशटैग की ताकत | इन्ही तीन करणों के साथ आज के लेखक की नई अस्थिर निज्जी लिपि और व्याकरणहिंता के बावजुद साहित्य सर्व व्याप्त है |
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जी और जान…“।)
अभी अभी # 361 ⇒ जी और जान… श्री प्रदीप शर्मा
क्या जी और जान एक ही ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिसमें जान है,वह ही तो जीव है। जान से ही तो प्राणियों का जीवन है।
जी और जान को जानने,समझने के लिए,आप चाहें तो जी को मन और जान को प्राण
भी कह सकते हैं।
जी का दायरा बड़ा विस्तृत है,जब कि बेचारी जान तो नन्हीं सी है,लेकिन इसी जान से तो यह जहान है। जी का विस्तार जिजीविषा तक है और अगर इस दुनिया से जी भर जाए तो ,अब जी के क्या करेंगे,जब दिल ही टूट गया।।
उधर दूसरी ओर यह हालत है,वो देखो मुझसे रूठकर मेरी जान जा रही है। साफ साफ क्यों नहीं कहते कि किसी ने आपका जी चुरा लिया है। यह जी ही कभी जिया बन जाता है,तो कभी हिया। लागे ना मोरा जीया।
ये कवि और शायर लोग शब्दों से खेलते हैं,अथवा इंसान के जज़्बातों से,कुछ पता ही नहीं चलता। जरा इन महाशय को देखिए ;
जान चली जाए
जिया नहीं जाए।
जिया जाए तो फिर
जिया नहीं जाए।।
जीवन की कड़वी सच्चाई तो यही है कि जी जान एक करके ही जीवन में आगे बढ़ा जाता है। सफलता यूं ही किसी के पांव नहीं चूम लेती। लेकिन यह भी सच है कि निराशा और अवसाद के क्षणों में यही जी इतना भारी हो जाता है, कि इंसान को कुछ भी नहीं सूझता।
यही जी कभी खास बन जाता है,तो कभी आम। जब जी करता है,मन की जगह विराजमान हो जाता है। कभी राग द्वेष में उलझ जाता है,तो कभी मौज मस्ती में डूबा रहता है।।
यही जी कभी मन है तो कभी दिल और जब मूड में आ जाए तो फिर यह किसी के वश में नहीं। कभी किसी को जी भर के गालियां दे दी तो कभी किसी को जी भर के आशीर्वाद। फिलहाल तो राजनीति में एक दूसरे को,जी भर के कोसने का चलन जोरों पर है।
कौन नहीं चाहता,जी भर के जिंदगी जीना। क्या चाहत से कभी किसी का जी भरा है। जी लो,जी भर के जिंदगी,कल किसने देखा है। इस जान के रहते ही आप कुछ जान सकते हो। इसलिए अगर जी को लगाना ही है तो कुछ जानने में लगाएं,जान सके तो जान। और कुछ तो हमारे बस में नहीं जानना,जी और जान के बारे में,बस ;