हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 617 ⇒ पाप का घड़ा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पाप का घड़ा ।)

?अभी अभी # 617 ⇒ पाप का घड़ा ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

पुण्य का कोई घड़ा नहीं होता। आप पुण्य संचित करते जाइए, उसका हिसाब चित्रगुप्त रखेंगे और स्वर्गवासी होने के बाद आपको स्वर्ग में प्रवेश देंगे। लेकिन पाप का ऐसा नहीं है, आप पाप करते जाइए, आपके पाप का घड़ा भरते जाएगा। यह घड़ा आपको कौन देता है, पता नहीं, लेकिन जो दुष्ट और पापी होते हैं, उनका ही पाप का घड़ा भरता है।

पाप की एक गठरी भी होती है जो पिछले कई जन्मों की होती है और हर जीव उसे अपने सर पर उठाए घूमा करता है, इस जन्म से उस जन्म तलक।

किसी ने कहा भी तो है ;

ले लो ले लो दुआएं

मां बाप की।

सर से उतरेगी

गठरी पाप की।।

पाप की तरह पुण्य भी एक जन्म से दूसरे जन्म तक ट्रांसफर होते रहते हैं। बड़े विचित्र हैं मिस्टर चित्रगुप्त। हम सब पिछले जन्मों के पाप और पुण्य को ही तो भोगते रहते हैं। इस जन्म के पाप पुण्य और उसमें शामिल होते रहते हैं। कभी देखी है किसी ने अपने पिछले कर्मों के पाप और पुण्य की बैलेंस शीट।।

लेकिन ईश्वर कितना दयालु है। गीता में भगवान कृष्ण शरणागत अर्जुन के समक्ष ऐलान कर देते हैं ;

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

18.66।

सभी जानते हैं, इसके अनुवाद की आवश्यकता नहीं, लेकिन समझने की अवश्य जरूरत है। तू अगर सभी धर्मों को त्याग शरणागत हो अगर कोई पाप करता भी है, तो मैं तुझे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा। वैसे भी पाप और पुण्य दोनों ही मोक्ष के मार्ग अवरोधक हैं।

हम अगर यदा कदा दान दक्षिणा, यज्ञ हवन और तीर्थाटन करते रहे, गंगा स्नान कर पाप धोते रहे, तो हमारा पाप का घड़ा तो भरने से रहा। फिर हम प्रार्थना, प्रायश्चित, जप तप और पूजा पाठ भी तो करते रहते हैं। अगर जमा खर्च की तरह देखें, तो पाप की बनिस्बत पुण्य ही अधिक जमा होगा हमारे खाते में।।

कुंभ स्नान और गौ सेवा के साथ साथ साधु संतों का संग और कथाओं का श्रवण हमारे रहे सहे पापों को भी नष्ट करने में सक्षम होता है, अर्थात् हमारे खाते में अब सिर्फ पुण्य ही बच रहता है।

अगर यही स्थिति आज हर सनातन हिन्दू की रहती है, तो मान लीजिए, हमें स्वर्ग नहीं जाना पड़ेगा, साक्षात् स्वर्ग ही इस धरा पर अवतरित हो जाएगा।

हो सकता है, हमें ऐरावत हाथी, पारस पत्थर, कल्पवृक्ष और कामधेनु भी उपलब्ध हो। घी दूध की नदियां तो वैसे भी बहेंगी ही, साथ में  मक्खन और पनीर की भी।।

उधर जो उग्रवादी, नास्तिक, विधर्मी, आदि हैं, उनके तो पाप के घड़े भरते ही जाएंगे और जब एक दिन उनके पाप का घड़ा फूटेगा, तो वे नर्क के भागी होंगे। जैसी करनी वैसी भरनी।

जो समझदार होते हैं, उन्हें तो केवल इशारा ही काफी होता है। आगे क्या कहूं, आप खुद समझदार हो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 121 – देश-परदेश – अंक 144 की महत्ता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 121 ☆ देश-परदेश – अंक 144 की महत्ता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे यहां तो प्रत्येक अंक की महत्ता होती है।अंक 144 इस मामले में सर्वोपरि कहा जा सकता हैं। अस्सी के दशक से ये सुनते आ रहे थे, 144 धारा लग गई हैं। सावधान रहें।

पूर्व में घर के लिए बहुत सारे सामान दर्जन के हिसाब से क्रय किए जाते थे। जब पिताजी इस बाबत दादा श्री को हिसाब देते तो वो पूछते थे ? ग्रोस (Gross) का क्या भाव है, आरंभ में हमे समझ नहीं आता था, कि ये ग्रोस (Gross) क्या पैमाना है ? बारह दर्जन का ग्रोस (Gross) अर्थात संख्या 144 होता है।

हमारे यहां पवित्र स्नान भी 6 या 12 वर्ष पश्चात कुम्भ के माध्यम से होता हैं।इस बार का कुम्भ 144 वर्ष बाद हुआ, जिसको महाकुंभ कहते हैं। हमारे पूर्व की तीन पुश्तों को तो कभी ऐसा अवसर प्राप्त नहीं हुआ था।

परिवार के सबसे उम्रदराज चाचा श्री नौ दशक से अधिक का जीवन काल व्यतीत कर चुके हैं। हमने उनसे इस बाबत पूछा क्या आपने कभी महाकुंभ के बारे में कुछ सुना था ?

उन्होंने याददाश्त के सभी घोड़े खोल कर कुछ समय में बताया कि उन्होंने भी अपने दादा श्री से ही सुना भर था।

हमारा परिवार उस समय देश के अविभाजित उत्तर पश्चिम में निवास करता था। वहां से प्रयागराज करीब पंद्रह सौ से अधिक मील की दूरी पर है। यातायात का एक मात्र साधन घोड़े ही हुआ करते थे।

परिवार से चार पुरुष घोड़े से दिवाली के बाद प्रयागराज गए थे, वापसी बैसाख में हुई, चारों घोड़े तो वापस आ गए थे, लेकिन एक सवार कम था। मार्ग में जंगली जानवर के शिकार हो गए थे।

उनके आगमन पर आसपास के गांवों में बहुत सम्मान भी मिला था। लोग दूर दूर से उनके दर्शन के लिए भी आए, क्योंकि उस समय में वो महाकुंभ (144 वर्ष पूर्व) स्नान कर वापिस जो आए थे। इस से ये माना जा सकता हैं, कि इस बार का कुंभ 144 वर्ष बाद महाकुंभ के रूप में था।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 279 – साक्षर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 279 ☆ साक्षर… ?

बालकनी से देख रहा हूँ कि सड़क पार खड़े,  हरी पत्तियों से लकदक  पेड़ पर कुछ पीली पत्तियाँ भी हैं। इस पीलेपन से हरे की आभा में उठाव आ गया है,  पेड़ की छवि में समग्रता का भाव आ गया है।

रंगसिद्धांत के अनुसार नीला और पीला मिलकर बनता है हरा..। वनस्पतिशास्त्र बताता है कि हरा रंग अमूनन युवा और युवतर पत्तियों का होता है। पकी हुई पत्तियों का रंग सामान्यत: पीला होता है। नवजात पत्तियों के हरेपन में पीले की मात्रा अधिक होती है।  

पीले और हरे से बना दृश्य मोहक है। परिवार में युवा और बुजुर्ग की रंगछटा भी इसी भूमिका की वाहक होती है। एक के बिना दूसरे की आभा फीकी पड़ने लगती है। अतीत के बिना वर्तमान शोभता नहीं और भविष्य तो होता ही नहीं। नवजात हरे में अधिक पीलापन बचपन और बुढ़ापा के बीच अनन्य सूत्र दर्शाता है। इस सूत्र पर अपनी कविता स्मरण हो आती है-

पुराने पत्तों पर नयी ओस उतरती है,

अतीत का चक्र वर्तमान में ढलता है,

सृष्टि यौवन का स्वागत करती है,

अनुभव की लाठी लिए बुढ़ापा साथ चलता है।

प्रकृति पग-पग पर जीवन के सूत्र पढ़ाती है। हम  देखते तो हैं पर बाँचते नहीं। जो प्रकृति के सूत्र  बाँच सका, विश्वास करना वही अपने समय का सबसे बड़ा साक्षर और साधक भी हुआ।

© संजय भारद्वाज 

अपराह्न 3:26 बजे, 12.9.2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 बुधवार 26 फरवरी को श्री शिव महापुराण का पारायण कल सम्पन्न हुआ। अगले कुछ समय पटल पर छुट्टी रहेगी। जिन साधकों का पारायण पूरा नहीं हो सका है, उन्हें छुट्टी की अवधि में इसे पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। 💥 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 616 ⇒ गीतकार इन्दीवर ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पंचवटी।)

?अभी अभी # 616 ⇒  गीतकार इन्दीवर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

एक संस्कारी बहू की तरह, मैंने जीवन में कभी आम आदमी की दहलीज लांघने की कोशिश ही नहीं की। बड़ी बड़ी उपलब्धियों की जगह, छोटे छोटे सुखों को ही तरजीह दी। कुछ बनना चाहा होता, तो शायद बन भी गया होता, लेकिन बस, कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे

गीतकार इन्दीवर से भी मुंबई में अचानक ही एक सौजन्य भेंट हो गई, वह भी तब, जब उनके गीत लोगों की जुबान पर चढ़ चुके थे। मैं तब भी वही था, जो आज हूं। यानी परिचय के नाम पर आज भी, मेरे नाम के आगे, फुल स्टॉप के अलावा कुछ नहीं है। कभी कैमरे को हाथ लगाया नहीं, जिस भी आम और खास व्यक्ति से मिले, उसके कभी डायरी नोट्स बनाए नहीं। यानी जीवन में ना तो कभी झोला छाप पत्रकार ही बन पाया और न ही कोई कवि अथवा साहित्यकार।।

सन् 1975 में एक मित्र के साथ मुंबई जाने का अवसर मिला। उसकी एक परिचित बंगाली मित्र मुंबई की कुछ फिल्मी हस्तियों को जानती थी।

तब कहां सबके पास मोबाइल अथवा कैमरे होते थे। ऋषिकेश मुखर्जी से फोन पर संपर्क नहीं हो पाया, तो इन्दीवर जी से बांद्रा में संपर्क साधा गया। वे उपलब्ध थे। तुरंत टैक्सी कर बॉम्बे सेंट्रल से हम बांद्रा, उनके निवास पर पहुंच गए।

वे एक उस्ताद जी और महिला मित्र के साथ बैठे हुए थे, हमें देखते ही, उस्ताद जी और महिला उठकर अंदर चले गए। मियां की तोड़ी चल रही थी, इन्दीवर जी ने स्पष्ट किया। बड़ी आत्मीयता और सहजता से बातों का सिलसिला शुरू हुआ। कविता अथवा शायरी में शुरू से ही हमारा हाथ तंग है। उनके कुछ फिल्मी गीतों के जिक्र के बाद जब हमारी बारी आई तो हमने अंग्रेजी कविता का राग अलाप दिया। लेकिन इन्दीवर जी ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि उन्हें अंग्रेजी साहित्य का इतना इल्म नहीं है। हमने उन्हें प्रभावित करने के लिए मोहन राकेश जैसे लेखकों के नाम गिनाना शुरू कर दिए, लेकिन वहां भी हमारी दाल नहीं गली।।

थक हारकर हमने उन्हें Ben Jonson की एक चार पंक्तियों की कविता ही सुना दी। कविता कुछ ऐसी थी ;

Drink to me with thine eyes;

And I will pledge with mine.

Or leave a kiss but in the cup

And I will not look for wine…

इन्दीवर जी ने ध्यान से कविता सुनी। कविता उन्हें बहुत पसंद आई। वे बोले, एक मिनिट रुकिए। वे उठे और अपनी डायरी और पेन लेकर आए और पूरी कविता उन्होंने डायरी में उतार ली।

इतने में एक व्यक्ति ने आकर उनके कान में कुछ कहा। हम समझ गए, हमारा समय अब समाप्त होता है। चाय नाश्ते का दौर भी समाप्ति पर ही था। हमने इजाजत चाही लेकिन उन्होंने इजाजत देने में कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई और बड़ी गर्मजोशी से हमें विदा किया।।

इसे संयोग ही कहेंगे कि उस वक्त उनकी एक फिल्म पारस का एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था। मुकेश और लता के इस गीत के बोल कुछ इस प्रकार थे ;

तेरे होठों के दो फूल प्यारे प्यारे

मेरी प्यार के बहारों के नजारे

अब मुझे चमन से क्या लेना, क्या लेना।।

एक कवि हृदय ही शब्दों और भावों की सुंदरता को इस तरह प्रकट कर सकता है। ये कवि इन्दीवर ही तो थे, जिनके गीतों को जगजीत सिंह ने होठों से छुआ था, और अमर कर दिया था।

सदाबहार लोकप्रिय कवि इन्दीवर जी और जगजीत सिंह दोनों ही आज हमारे बीच नहीं हैं। हाल ही में पंकज उधास का इस तरह जाना भी मन को उदास और दुखी कर गया है ;

जाने कहां चले जाते हैं

दुनिया से जाने वाले।

कैसे ढूंढे कोई उनको

नहीं कदमों के निशां

दुनिया से जाने वाले …

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय विज्ञान दिवस विशेष – कविता में विज्ञान…, आत्मकथ्य ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – कविता में विज्ञान…, आत्मकथ्य🙏  ? ?

(कुछ वर्ष पूर्व किसी पत्रिका ने कविता में विज्ञान पर आत्मकथ्य मांगा था। राष्ट्रीय विज्ञान दिवस पर आज उसे विनम्रता से साझा कर रहा हूँ।)

विज्ञान को सामान्यतः प्रत्यक्ष ज्ञान माना गया है जबकि कविता को कल्पना की उड़ान। ज्ञान, ललित कलाओं और विज्ञान में धुर अंतर देखनेवालों को स्मरण रखना चाहिए कि राइट बंधुओं ने पक्षियों को उड़ते देख मनुष्य के भी आकाश में जा सकने की कल्पना की थी‌। इस कल्पना का परिणाम था, वायुयान का आविष्कार।

सांप्रतिक वैज्ञानिक काल यथार्थवादी कविताओं का है।  ऐसे में दर्शन और विज्ञान में एक तरह का समन्वय देखने को मिल सकता है। मेरा रुझान सदैव अध्यात्म, दर्शन और साहित्य में रहा। तथापि अकादमिक शिक्षा विज्ञान की रही। स्वाभाविक है कि चिंतन-मनन की पृष्ठभूमि में विज्ञान रहेगा।

विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को परिभाषित करते हुए लिखा है, ‘पोएट्री इज़ स्पॉन्टेनियस ओवरफ्लो ऑफ पॉवरफुल फीलिंग्स।’ कविता स्वत: संभूत है।  यहाँ ‘स्पॉन्टेनियस’ शब्द महत्वपूर्ण है। कविता तीव्रता से उद्भुत अवश्य होती है पर इसकी पृष्ठभूमि में वर्षों का अनुभव और विचार होते हैं। अखंड वैचारिक संचय ज्वालामुखी में बदलता है। एक दिन ज्वालामुखी फूटता है और कविता प्रवाहित होती है। 

अपनी कविता की चर्चा करूँ तो उसका आकलन तो पाठक और समीक्षक का अधिकार है। मैं केवल अपनी रचनाप्रक्रिया में अनायास आते विज्ञान की ओर विनम्रता से रेखांकित भर कर सकता हूँ।

‘मायोपिआ’ नेत्रदोष का एक प्रकार है। यह निकट दृष्टिमत्ता है जिसमें दूर का स्पष्ट दिखाई नहीं देता। निजी रुझान और विज्ञान का समन्वय यथाशक्ति ‘मायोपिआ’ शीर्षक की कविता में उतरा। इसे नम्रता से साझा कर रहा हूँ।

वे रोते नहीं

धरती की कोख में उतरती

रसायनों की खेप पर,

ना ही आसमान की प्रहरी

ओज़ोन की पतली होती परत पर,

दूषित जल, प्रदूषित वायु,

बढ़ती वैश्विक अग्नि भी,

उनके दुख का कारण नहीं,

अब…,

विदारक विलाप कर रहे हैं,

इन्हीं तत्वों से उपजी

एक देह के मौन हो जाने पर…,

मनुष्य की आँख के

इस शाश्वत मायोपिआ का

इलाज ढूँढ़ना अभी बाकी है..!

(कवितासंग्रह ‘योंही’ से)

 आइंस्टिन का सापेक्षता का नियम सर्वज्ञात है। ‘ई इज़ इक्वल टू एम.सी. स्क्वेयर’ का सूत्र उन्हीं की देन है। एक दिन एकाएक ‘सापेक्ष’ कविता में उतरे चिंतन में गहरे पैठे आइंस्टिन और उनका सापेक्षता का सिद्धांत।

भारी भीड़ के बीच

कर्णहीन नीरव,

घोर नीरव के बीच

कोलाहल मचाती मूक भीड़,

जाने स्थितियाँ आक्षेप उठाती हैं

या परिभाषाएँ सापेक्ष हो जाती हैं,

कुछ भी हो पर हर बार

मन हो जाता है क्वारंटीन,

….क्या कहते हो आइंस्टीन?

(कवितासंग्रह ‘क्रौंच’ से)

कविता के विषय में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है,” कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में पाई जाती है। चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो, पर कविता अवश्य ही होगी। इसका क्या कारण है? बात यह है कि संसार के अनेक कृत्रिम व्यापारों में फंसे रहने से मनुष्य की मनुष्यता के जाते रहने का डर रहता है। अतएव मानुषी प्रकृति को जाग्रत रखने के लिए ईश्वर ने कविता रूपी औषधि बनाई है। कविता यही प्रयत्न करती है कि प्रकृति से मनुष्य की दृष्टि फिरने न पाए।’

न्यूक्लिअर चेन रिएक्शन की आशंकाओं पर मानुषी प्रकृति की संभावनाओं का यह चित्र नतमस्तक होकर उद्धृत कर रहा हूँ,

वे देख-सुन रहे हैं

अपने बोए बमों का विस्फोट,

अणु के परमाणु में होते

विखंडन पर उत्सव मना रहे हैं,

मैं निहार रहा हूँ

परमाणु के विघटन से उपजे

इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन,

आशान्वित हूँ हर न्यूक्लियस से,

जिसमें छिपी है

अनगिनत अणु और

असंख्य परमाणु की

शाश्वत संभावनाएँ,

हर क्षुद्र विनाश

विराट सृजन बोता है,

शकुनि की आँख और

संजय की दृष्टि में

यही अंतर होता है।

(कवितासंग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता’ से)

अपनी कविता के किसी पक्ष की कवि द्वारा चर्चा अत्यंत संकोच का और दुरूह कार्य है। इस सम्बंध में मिले आत्मीय आदेश का विनयभाव से निर्वहन करने का प्रयास किया है। इसी विनयभाव से इस आलेख का उपसंहार करते हुए अपनी जो पंक्तियाँ कौंधी, उनमें भी डी एन ए विज्ञान का ही निकला,

ये कलम से निकले,

काग़ज़ पर उतरे,

शब्द भर हो सकते हैं

तुम्हारे लिए,

मेरे लिए तो

मन, प्राण और देह का

डी एन ए हैं !

(कवितासंग्रह ‘योंही’ से)

 ?

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 बुधवार 26 फरवरी को श्री शिव महापुराण का पारायण कल सम्पन्न हुआ। अगले कुछ समय पटल पर छुट्टी रहेगी। जिन साधकों का पारायण पूरा नहीं हो सका है, उन्हें छुट्टी की अवधि में इसे पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। 💥 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 615 ⇒ अक्षर जगत ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अक्षर जगत।)

?अभी अभी # 615 ⇒  अक्षर जगत ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

“अ” से ही शुरू होती अक्षरों की दुनिया ! अम्बर, अवनि, अग्नि, अखिलेश, अमर, अटल, असीम, अनंत, अक्षत, अनिमेष।

शब्द पहले अक्षर था, शब्द ब्रह्म, और जिसका क्षरण न हो वह कहलाया अक्षर।

ब्रह्म की तरह शब्द सब तरफ व्याप्त है, क्योंकि शब्द अपने आप में अक्षरों का समूह है, अक्षर भी सभी ओर व्याप्त है, लेकिन ब्रह्म की तरह दृष्टिगोचर भी नहीं होता।।

ब्रह्म ने अपने आप को व्यक्त किया ! पहले श्रुति, स्मृति और तत्पश्चात पुराण। वेदों की रचना ईश्वर ने की होगी, लेकिन हमारे अक्षर का तो कोई अतीत ही नहीं। एक ॐ से सृष्टि का निर्माण हो जाता है। शब्दातीत अक्षर तो फिर सनातन ही हुआ।

वाणी में वाक्, शब्द अवाक !

अक्षर में बीज, बीजाक्षर मंत्र।

बगुलामुखी, त्रिपुरा-सुंदरी,

सौन्दर्य-लहरी, कुंडलिनी माँ जगदम्बे।

कहीं भैरव तंत्र तो कहीं जन जन का गायत्री-मंत्र।

और सभी मंत्रों में श्रेष्ठ सद्गुरु का गुरु-मंत्र।।

कितनी संस्कृति, कितनी भाषाएँ, कितने ग्रंथ ! अक्षर ही अक्षर। सौरमंडल में व्याप्त शब्द और गुरुवाणी का सबद। हमने-आपने बोला, वह शब्द, और एक नन्हे अबोध बालक में, परोक्ष रूप से विराजमान परम पिता, लीला रूप धारण कर, कोरे कागद पर छोटी छोटी उँगलियों में कलम पकड़े, मुश्किल से अक्षर- ज्ञान प्राप्त करता हुआ, जगत को यह संदेश देता हुआ, कि ज्ञान की परिणति अज्ञान ही है।

आज वही अक्षर कागज़ कलम का मोहताज नहीं ! एक नया संसार आज हमारी मुट्ठी में है। यह गूगल की अक्षरों की दुनिया है। शब्दों का भंडार है उसके पास ! पर प्रज्ञा नहीं, वाक् नहीं ! यहाँ श्रुति, स्मृति नहीं, सिर्फ मेमोरी है। कोई किसी का गुरु नहीं, कोई किसी का शिष्य नहीं ! कोई रिसर्च नहीं, केवल गूगल सर्च और गूगल गुरु को दक्षिणा, डेटा रिचार्ज।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 614 ⇒ हरफनमौला ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हरफनमौला ।)

?अभी अभी # 614 ⇒  हरफनमौला ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिन्हें अरबी फारसी नहीं आती, वे हरफनमौला को उर्दू शब्द मानते हैं। जिन्हें उर्दू नहीं आती, वे इसे मुसलमानों का शब्द मानते हैं। एक बहुमुखी व्यक्ति, जो कई चीजों में विशेषज्ञ है, हरफनमौला कहलाता है। क्रिकेट की भाषा में इसे आल राउंडर कहते हैं। कपिल दा जवाब नहीं।

एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी को आप अंग्रेज़ी में multifaceted talent भी कह सकते हैं। बहुविज्ञता ही बहुमुखी प्रतिभा है। एक मुख वाली प्रतिभा के धनी तो हमने देखे है, बहुमुखी प्रतिभा के धनी की तो बात ही और है। अंग्रेज़ी में एक शब्द और है, jack of all! सभी विषयों की थोड़ी थोड़ी जानकारी रखना क्या बुरा है। लेकिन यह वाक्य अधूरा है। जब इसके आगे, master of none, लगता है, तब इसका अर्थ पूरी तरह बदल जाता है।।

जो किसी एक विषय के जानकार होते हैं, उनसे आप किसी अन्य विषय के बारे में बातचीत नहीं कर सकते। मैं मेरे कितने ही दोस्तों को जानता हूं, उनका जीवन सिर्फ शेयर मार्केट बनकर रह गया है। जिस तरह कुछ लोग दिन भर टीवी पर न्यूज़ लगाए बैठे रहते हैं, ये लोग हमेशा सेंसेक्स पर नजर गड़ाए बैठे रहते हैं। एक छोटे से उतार चढ़ाव में लाखों के बारे न्यारे हो जाते हैं। यही इनकी ज़िन्दगी है, खून पसीने की कमाई है।

लाला हरदयाल की एक पुस्तक है, Hints for Self-Culture. इसका प्रथम संस्करण सन् १९३४ में प्रकाशित हुआ था।

इस पुस्तक का अब हिंदी अनुवाद भी उपलब्ध है। इस पुस्तक में जीवन के हर पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। यहां केवल भारतीय संस्कारों का जिक्र नहीं है, स्वयं के व्यक्तित्व के विकास के लिए, किन किन विषयों की जानकारी आवश्यक है, उनका विस्तारपूर्वक विवेचन, हर विषय को लेकर किया गया है। व्यक्ति के बौद्धिक, और शारीरिक विकास के साथ कलात्मक विकास की भी चर्चा की गई है इस पुस्तक में। साहित्य से इतर जितनी भी ललित कलाएं हैं, उनकी चार अध्यायों में विस्तृत व्याख्या इस पुस्तक की मुख्य विशेषता है।।

जानना ही ज्ञान है। ज्ञान की कोई सीमा नहीं ! सही समय पर ज्ञान का उपयोग, सदुपयोग है, अनावश्यक ज्ञान का प्रदर्शन व्यक्ति को दंभी और अहंकारी बनाता है। जो ज्ञानी कम बोलते हैं, उनसे और अधिक जानने की उत्सुकता रहती है। लेकिन जो अधूरे ज्ञान का ढोल पीटा करते हैं, उनके लिए ही शायद यह कहावत बनी हो। थोथा चना, बाजे घना।

व्यक्ति हो या व्यक्तित्व, गंभीरता और गहराई जीवन में परिपक्वता लाती है। आम का पेड़, जब फलों से लद जाता है, तो उसकी डालियां झुक जाती हैं। बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर। बोलने में भी अगर मितव्ययिता हो, जहां बोलना ज़रूरी हो वहीं बोला जाए, मृदु भाषी भी अगर हों, तो सोने में सुहागा। गागर में सागर केवल शब्दों में ही संभव है। मीन तो बेचारी सागर में भी प्यासी ही रह जाती है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 120 – देश-परदेश – जब जागो तब सबेरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 120 ☆ देश-परदेश – जब जागो तब सबेरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

महाकुंभ का अंतिम सप्ताह हो चला है, हम दो मित्रों ने भी निश्चय किया कि सपत्नीक प्रयागराज जाते हैं। हमारे जो परिचित यात्रा कर वापिस आ गए थे, उनसे पूरी जानकारी प्राप्त कर, ट्रैवल एजेंट्स से संपर्क भी करा है। सभी लुभावने सपने दिखा रहे हैं।

 एक ट्रैवल एजेंट से जब हमने पूछा के स्लीपर कोच की क्षमता से अधिक यात्री तो नहीं बैठाते हो ? उसने कहा आप के शयन में कोई खलल नहीं होगी। हमारे एक परिचित ने बताया था, कि ये एजेंट बस की सीटों के मध्य गली में भी रात को यात्रियों को लिटा देता है, और शयन करते हुए यात्रियों को बहुत कठिनाई होती हैं।

 हमने भी उस एजेंट से जब ये बात बताई, तो बोला कुछ लोग हाइवे पर प्रयागराज के लिए बसों का इंतजार करते है, उनको पुण्य से वंचित ना रहना पड़े, तभी बैठाते हैं।

विषय को लेकर वाद विवाद हुआ, तब वो बोला यदि आपको सस्ते में जाना है, तो बस की छत पर लेट कर चले, आधे पैसे लूंगा। हमने कहा यदि छत से गिर गए तो क्या होगा ? उसने बताया आप को रस्सी से बांध देंगे, जब भी मार्ग में चाय आदि के लिए बस रुकेगी, तो आपकी रस्सी खोलकर ऊपर ही चाय की व्यवस्था कर देंगे।

हमने कहा गलत काम क्यों करते हो, वो लपक कर बोला साहब अभी तक सैकड़ों लोगों को अमेरिका भिजवा चुके हैं, वो तो आजकल थोड़ी सख्ती है। हम ये चिंदी के काम नहीं करते, आपकी जैसी मर्जी। हम समझ गए, ये अवश्य पहले “डंकी रूट” में कार्य करता होगा।

हम ने भी अब ट्रेन से जाने का मानस बना लिया है। बिना टिकट कहीं भी प्रवेश ले लेंगे यदि कहीं पकड़े गए तो पेनल्टी भर देंगें। जाने से पहले कुछ पाप (बिना टिकट) तो कर लेवें।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 613 ⇒ फ्रेंड्स लॉज ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “फ्रेंड्स लॉज ।)

?अभी अभी # 613 ⇒  फ्रेंड्स लॉज ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारे देश में ऐसा कौन सा औद्योगिक शहर होगा, जहां यात्रियों के ठहरने के लिए सराय, धर्मशाला, होटल अथवा लॉज नहीं हो। सन् ७० और ८० के दशक में, हमारे मालवा की अहिल्या नगरी यात्रियों के लिए एक आदर्श नगरी थी। हाल ही में प्रवासी निवेशकों ने जब इस महानगर के आतिथ्य के जलवे देखे होंगे तो उनका सर गर्व से ऊंचा हो गया होगा।

इंदौर स्वर कोकिला लता मंगेशकर का जन्म स्थान भी है। सिख मोहल्ले के जिस गुरुद्वारे के पास का मेहता क्लॉथ स्टार्स आज धरोहर बन चुका है, बस उसी के आसपास थी कभी हमारी फ्रेंड्स लॉज। जब इंदौर हमारा है तो फ्रेंड्स लॉज भी हमारी ही हुई न। ।

एक यात्री को क्या चाहिए ! ठहरने की उत्तम व्यवस्था और स्वादिष्ट भोजन। आइए धर्मशालाओं से शुरुआत करें। धर्मशाला अगर सस्ती, सुंदर, सुविधायुक्त और बाजार में ही हो तो अति उत्तम। धर्मशाला और प्याऊ से इस शहर का बहुत पुराना नाता रहा है।

नसिया जी की धर्मशाला हो, छावनी की जगन्नाथ जी की धर्मशाला, अथवा शिकारपुर की सिंधी धर्मशाला, इस शहर में आज भी हर समाज की अपनी अपनी धर्मशाला है।

हुकमचंद सेठ की तो छोड़िए, यहां परदेशीपुरा में तो सेठ राखौड़ीमल की भी धर्मशाला है। जेलरोड, जो आजकल नॉवेल्टी मार्केट बन चुका है, वहां आज भी श्रीराम धर्मशाला मौजूद है।

चलिए अगर आपको धर्मशाला में नहीं रुकना तो यहां कई लॉज हैं। आज से ५० वर्ष पुराना इंदौर तब इतना विस्तृत, आधुनिक और भीड़भाड़ भरा नहीं था। आप इंदौर की मुख्य सड़कों पर शाम को भी परिवार सहित टहलने जा सकते थे। आज वहां पार्किंग तक की भी जगह नहीं। ।

तब अधिकांश यात्रियों का  आगमन रेल अथवा बस से ही होता था। सरवटे बस स्टैंड के सामने ही ठहरने के लिए चंद्रलोक लॉज थी। गांधी हॉल के सामने आराम लॉज और रामपुरावाला बिल्डिंग में सेंट्रल होटल थी। थोड़ा आगे चलने पर ही तो थी यह फ्रेंड्स लॉज जहां ठहरने की सुविधा के साथ माहवारी भोजन की भी व्यवस्था थी।

होटल और लॉज का रिश्ता 2 in 1 का रहता है। एक मुसाफिर को दुनिया में क्या चाहिए। बस ठहरने की अच्छी जगह और स्वादिष्ट भोजन चाहिए। बाहर के व्यापारी क्लॉथ मार्केट खरीदी के लिए आते थे। वहीं सीतलामाता बाजार में पृथ्वीलोक लॉज में रुक गए, ऊपर पृथ्वीलोक भोजनालय में शुद्ध सात्विक स्वादिष्ट शाकाहारी खाना भी।।

गुजराती साइंस कॉलेज में तब केन्या और नैरोबी से प्रवासी गुजराती छात्र पढ़ने इंदौर आते थे। यहां उनका एडमिशन आसानी से हो जाता था। फ्रेंड्स लॉज नजदीक ही था। पूरा इंदौर साइकिल पर आसानी से नाप लिया जाता था।

फ्रेंड्स लॉज की ही तरह शहर के अन्य प्रमुख हिस्सों में भी कई लॉज और होटलें थीं, लेकिन तब वातावरण सभी जगह उतना ही फ्रेंडली था जितना दोस्तों के बीच होना चाहिए। आज भले ही फ्रेंड्स लॉज वहां नहीं हो, लेकिन उस जमाने के दोस्तों की यादें तो आज भी मौजूद हैं। ।

तब कहां फोन और कहां मोबाइल, न दिन देखा न रात, उठाई साइकिल और चल पड़े दोस्त के पास।

सुविधाएं नजदीक आती चली गई, दोस्त दूर होते चले गए।

आजकल कौन ठहरता है धर्मशाला और लॉज में।

इतनी पांच सितारा होटलें किसके लिए खुली हैं।

अपने ही शहर को देखने के लिए आज एक टूरिस्ट की निगाह चाहिए। कुछ नहीं बचा पुराना। बस एक आम इंसान, बचा खुचा, पुराना। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 278 – सामान्य लोग, असामान्य बातें ! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 278 ☆ सामान्य लोग, असामान्य बातें ! ?

सुबह का समय है। गाय का थैलीबंद दूध लेने के लिए रोज़ाना की तरह पैदल रवाना हुआ। यह परचून की एक प्रसिद्ध दुकान है। यहाँ हज़ारों लीटर दूध का व्यापार होता है। मुख्य दुकान नौ बजे के लगभग खुलती है। उससे पूर्व सुबह पाँच बजे से दुकान के बाहर क्रेटों में विभिन्न ब्रांडों का थैलीबंद दूध लिए दुकान का एक कर्मचारी बिक्री का काम करता है।

दुकान पर पहुँचा तो ग्राहकों के अलावा किसी नये ब्रांड का थैलीबंद दूध इस दुकान में रखवाने की मार्केटिंग करता एक अन्य बंदा भी खड़ा मिला। उसके काफी जोर देने के बाद दूधवाले कर्मचारी ने भैंस के 50 लीटर दूध रोज़ाना का ऑर्डर दे दिया। मार्केटिंग वाले ने पूछा, “गाय का दूध कितना लीटर भेजूँ?” ….”गाय का दूध नहीं चाहिए। इतना नहीं बिकता,” उत्तर मिला।…”ऐसे कैसे? पहले ही गायें कटने लगी हैं। दूध भी नहीं बिकेगा तो पूरी तरह ख़त्म ही हो जायेंगी। गाय बचानी चाहिए। हम ही लोग ध्यान नहीं देंगे तो कौन देगा? चाहे तो भैंस का दूध कुछ कम कर लो पर गाय का ज़रूर लो।”….”बात तो सही है। अच्छा गाय का भी बीस लीटर डाल दो।” ..संवाद समाप्त हुआ। ऑर्डर लेकर वह बंदा चला गया। दूध खरीद कर मैंने भी घर की राह ली। कदमों के साथ चिंतन भी चल पड़ा।

जिनके बीच वार्तालाप हो रहा था, उन दोनों की औपचारिक शिक्षा नहीं के बराबर थी। अलबत्ता जिस विषय पर वे चर्चा कर रहे थे, वह शिक्षा की सर्वोच्च औपचारिक पदवी की परिधि के सामर्थ्य से भी बाहर था। वस्तुतः जिन बड़े-बड़े प्रश्नों पर या प्रश्नों को बड़ा बना कर शिक्षित लोग चर्चा करते हैं, सेमिनार करते हैं, मीडिया में छपते हैं, अपनी पी.आर. रेटिंग बढ़ाने की जुगाड़ करते हैं, उन प्रश्नों को बड़ी सहजता से उनके समाधान की दिशा में सामान्य व्यक्ति ले जाता है।

एक सज्जन हैं जो रोज़ाना घूमते समय अपने पैरों से फुटपाथ का सारा कचरा सड़क किनारे एकत्रित करते जाते हैं। सोचें तो पैर से कितना कचरा हटाया जा सकता है..! पर टिटहरी यदि रामसेतु के निर्माण में योगदान दे सकती है तो एक सामान्य नागरिक की क्षमता और उसके कार्य को कम नहीं समझा जाना चाहिए।

आकाश की ओर देखते हुए मनुष्य से प्राय: धरती देखना छूट जाता है। जबकि सत्य यह है कि सारा बोझ तो धरती ने ही उठा रखा है। धरती की ओर मुड़कर और झुककर देखें तो ऐसे लोगों की कमी नहीं जो अपने-अपने स्तर पर समाज और देश की सेवा कर रहे हैं।

इन लोगों को किसी मान-सम्मान की अपेक्षा नहीं है। वे निस्पृह भाव से अपना काम कर रहे हैं।

युवा और किशोर पीढ़ी, वर्चुअल से बाहर निकल कर अपने अड़ोस-पड़ोस में रहनेवाले इन एक्चुअल रोल मॉडेलों से प्रेरणा ग्रहण कर सके तो उनके समय, शक्ति और ऊर्जा का समाज के हित में समुचित उपयोग हो सकेगा।

सोचता हूँ, सामान्य लोगों की असामान्य बातों और तदनुसार क्रियान्वयन पर ही जगत का अस्तित्व टिका है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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