(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “इन सम यह उपमा उर आनी…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 195 ☆ इन सम यह उपमा उर आनी… ☆
एक शब्द दो लोग पर अर्थ अलग निकलता है। हमारा व्यक्तित्व उसके साथ जुड़कर उसे शक्तिशाली बनाता है। जिनकी कथनी और करनी में भेद हो, केवल एक पक्ष को साधते हुए बयानबाजी की जा रही हो तो शक होना जायज है। जल्दबाजी में दूसरे के शब्दों को कापी कर स्वयं बढ़चढ़ कर बोलना और हँसी का पात्र बनना। सच तो ये है कि जब दोहरा चरित्र हो तो हास्य के साथ शर्मनाक स्थिति बन जाती है, जिसे सुधारने की नाकाम कोशिश, अनजाने ही उलझन उतपन्न कर देती है। वर्षों से एक ही पदचिन्ह पर चलना और नए युग से तारतम्यता न रख पाना आपको गर्त में धकेल रहा है। जिसे सब कुछ पहले ही मुक्त हस्त से सौंप दिया हो और अब फिर देने की घोषणा करना कहाँ तक उचित है। बंदरबाट की विचार धारा से उन्नति नहीं हो सकती है। जो जिसके योग्य है उसे वो मिलना चाहिए अन्यथा आप के साथ वो भी डूबेगा जिसकी चिंता में आप दिन- रात एक करते जा रहे हैं।
सत्यराज से सत्यधर्म तक सबको समान अवसर मिलना चाहिए। गुणीजन जब बड़े पदों में बैठेंगे तभी सही निर्णय होंगे। रणनीति बनाने की कला सबको नहीं आती। सही विचारधारा के साथ सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय का चिंतन जनकल्याण की दिशा को गति प्रदान करेगा।
आछे दिन पाछे गए, गुरु सो किया न हेत।
अब पछताए होत क्या? चिड़िया चुग गय खेत।।
हैरानी तो तब होती है जब सलाहकार विदेशी धरती पर बैठकर देश को राह दिखाने की नीतियाँ निर्धारित करता हो। समझदारी को ताक पर रख कुछ भी बोलते जाना क्योंकि जो बोल रहे हैं उसका अर्थ तो सीखा ही नहीं। जिसका जमीनी जुड़ाव नहीं होगा उसे न तो कहावतों न ही मुहावरों का पता होगा। वो बस लिखा हुआ पढ़ेगा। अरे भई कम से कम ऐसा लिखने वाला तो ढूंढिए जो चने के झाड़ में बैठ कर न लिखता हो, उसे हिंदी और हिन्द के निवासियों के मन की जानकारी हो।
अभी भी समय है जागिए अन्यथा- जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है सो खोवत है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्टेटस अपने अपने…“।)
अभी अभी # 355 ⇒ स्टेटस अपने अपने… श्री प्रदीप शर्मा
एक समय था, जब किसी से मिलते थे, तो पहले आपस में दुआ सलाम होती थी, राम राम होती थी, और फिर आमने सामने बात होती थी। जो दूर गांव बसे होते थे, उनसे चिट्ठी पत्री के माध्यम से ही हालचाल जाने जा सकते थे। तब कहां इतने अमीर गरीब थे, समय ही समय था, रिश्तों में हम कितने अमीर थे।
समय बदलता चला गया, हमारे लाखों के सावन में दो टकियाॅं की नौकरी ने आग लगा दी। नौकरी ने ओहदे दिए, दर्जा दिया, इंसान बड़ा छोटा, अमीर गरीब होने लगा। उसका भी अपना एक स्टेटस, दबदबा, कायम होने लगा।।
पहले रेडियो आया फिर टेलीफोन। जिस घर में रेडियो और टेलीफोन होता, वह बहुत बड़ा आदमी समझा जाता। लेकिन फ्रिज टीवी के आते ही इंसान फिर खास से आम हो गया। घर घर लूना, कार और स्कूटर और सबके हाथों में मोबाइल। पहले सम्पूर्ण क्रांति और तत्पश्चात् संचार क्रांति। और आदमी को स्मार्ट होने में ज्यादा समय नहीं लगा।
2G स्कैम और कोलगेट कांड के बाबजूद, देश आखिर 3G, 4G और 5G तक पहुंच ही गया। कैशलेस, ऑनलाइन और डिजिटल होते होते वह आखिर व्हाट्सअप, फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम से जुड़ ही गया।
शिक्षा का स्तर कुछ भी हो, व्हाट्सप यूनिवर्सिटी ने कई की पीठ को ज्ञानपीठ बना दिया, और उधर फेसबुक तो मानो अपनी खुद की प्रिंटिंग प्रेस ही हो गई। शादी की विवाह पत्रिका खजूरी बाजार में नहीं, व्हाट्सएप और पीडीएफ पर ही छपने लगी।।
दुनिया कहां से कहां पहुंच गई, लेकिन मेरे जैसा कुंए का मेंढक पीसी, लैपटॉप और डेस्कटॉप से अनजान ही रहा। स्मार्ट फोन आज भी मेरे हाथ में, मानो बंदर के हाथ में उस्तरा ही है। रोजी रोटी की चिंता से दूर मेरे जैसा पेंशनर सिर्फ व्हाट्सएप और फेसबुक पर ही अपना जीवन गुजार रहा है। स्मार्ट फोन की सांकेतिक भाषा मेरे पल्ले नहीं पड़ती। बच्चे मेरे मार्गदर्शक और गाइड हैं, फिर भी स्मार्ट फोन के बाकी एप्स यानी बंदर मेरे किसी काम के नहीं। करत करत अभ्यास के इतना ही पढ़ पाया कि ape बंदर को नहीं एप्लीकेशन को कहते हैं।
व्हाट्सएप का ही एक अंग है स्टेटस, जिससे मैं अभी तक अनभिज्ञ था। अभी तक नेकी कर, व्हाट्सएप पर डाल, लेकिन आजकल लोग पार्टी करते हैं और स्टेटस पर डाल देते हैं। जब मैंने दूध वाले, ऑटो वाले, मंदिर वाले पंडित जी और काम वाली बाई को भी स्टेटस पर देखा, तो मुझमें हीनता की भावना जाग्रत हो गई। बगल में छोरा जैसा व्हाट्सएप के बगल में स्टेटस और मुझे पता ही नहीं। हाय मैं मर जाऊं।।
इस उम्र में हीनता से ग्रस्त होना स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं। मैंने आज से ही स्टेटस की कोचिंग लेना शुरु कर दी है। सीखने की कोई उम्र नहीं होती। मेरा स्टेटस अभी तक इतना गिरा हुआ था, और मुझे पता ही नहीं था। होगा ignorance is bliss, मैं इस कलंक को अपने माथे से मिटाकर ही रहूंगा। आखिर मेरा भी कुछ स्टेटस है।
अक्सर मैं महिला/पुरुषों को स्टेटस पर टहलते देखा करता हूं, अब मुझे भी अदरक का स्वाद लग चुका है। सुबह सुबह गर्मागर्म चाय के साथ अब स्टेटस का भी जायका लिया जाएगा। हो सकता है, आपसे भी शीघ्र ही स्टेटस पर मुलाकात हो। दिल थामकर बैठिए, अब हमारी बारी है। शांतता, कोचिंग जारी है।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख “सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 169 ☆
☆ आलेख – सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
यह प्रश्न जटिल है कि क्या सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है, इसका कोई आसान उत्तर नहीं है। इस मुद्दे के दोनों पक्षों में मजबूत तर्क दिए जाने हैं।
जो लोग मानते हैं कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर गिरता है, उनका तर्क है कि इससे लेखक न्यायाधीशों या दर्शकों को खुश करने के लिए अपनी कलात्मक अखंडता का त्याग कर सकते हैं। उनका यह भी तर्क है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव रचनात्मकता को दबा सकता है और फॉर्मूलाबद्ध लेखन की ओर ले जा सकता है।
दूसरी ओर, जो लोग मानते हैं कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य के स्तर में सुधार हो सकता है, उनका तर्क है कि यह लेखकों को अपना सर्वश्रेष्ठ काम करने के लिए आवश्यक प्रेरणा और फोकस प्रदान कर सकता है। उनका यह भी तर्क है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव लेखकों को अपने काम के प्रति अधिक आलोचनात्मक होने और उत्कृष्टता के लिए प्रयास करने के लिए मजबूर कर सकता है।
मेरे विचार में, सच्चाई इन दोनों चरम सीमाओं के बीच में कहीं है। हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव कुछ लेखकों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है, लेकिन यह दूसरों के लिए एक शक्तिशाली प्रेरक भी हो सकता है। अंततः, सम्मान के लिए लिखने से साहित्य के स्तर में सुधार होता है या नहीं, यह व्यक्तिगत लेखक और शिल्प के प्रति उनके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।
अपने तर्क का समर्थन करने के लिए, मैं खेल और साहित्य दोनों से दो उदाहरण प्रदान करूंगा। खेल की दुनिया में, हम अक्सर देखते हैं कि जब एथलीट प्रमुख प्रतियोगिताओं में प्रतिस्पर्धा कर रहे होते हैं तो वे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रतिस्पर्धा का दबाव उन्हें खुद को अपनी सीमा तक धकेलने और अपना सब कुछ देने के लिए मजबूर करता है। उदाहरण के लिए, माइकल जॉर्डन एनबीए फ़ाइनल में अपने अविश्वसनीय प्रदर्शन के लिए जाने जाते थे। वह अक्सर कहा करते थे कि उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ बास्केटबॉल तब खेला जब दांव सबसे ऊंचे थे।
साहित्य की दुनिया में, हम ऐसे लेखकों के उदाहरण भी देख सकते हैं जिन्होंने दबाव में होने पर भी अपना सर्वश्रेष्ठ काम किया है। उदाहरण के लिए, चार्ल्स डिकेंस धारावाहिक उपन्यास के उस्ताद थे। वह अक्सर समय सीमा के दबाव में लिखते थे और इस दबाव ने उन्हें नियमित आधार पर उच्च गुणवत्ता वाले काम करने के लिए मजबूर किया। उनके उपन्यास, जैसे “ए टेल ऑफ़ टू सिटीज़” और “ग्रेट एक्सपेक्टेशंस”, अंग्रेजी साहित्य के क्लासिक्स माने जाते हैं।
निःसंदेह, सम्मान के लिए लिखने वाले सभी लेखक महान कार्य नहीं करते। हालाँकि, मेरा मानना है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव कई लेखकों के लिए एक शक्तिशाली प्रेरक हो सकता है, और इससे बेहतर काम का उत्पादन हो सकता है।
जिन उदाहरणों का मैंने पहले ही उल्लेख किया है, उनके अलावा, कई अन्य लेखक भी हैं जिन्होंने दबाव में महान कार्य किया है। उदाहरण के लिए, विलियम शेक्सपियर ने सार्वजनिक मंच के लिए नाटक लिखे, और वह जानते थे कि उनके काम का मूल्यांकन दर्शकों द्वारा किया जाएगा। इस दबाव ने उन्हें ऐसे नाटक लिखने के लिए मजबूर किया जो मनोरंजक और विचारोत्तेजक दोनों थे। उनके नाटक, जैसे “हैमलेट” और “किंग लियर”, आज भी साहित्य के अब तक लिखे गए सबसे महान कार्यों में से एक माने जाते हैं।
मेरा मानना है कि लेखकों की अगली पीढ़ी को सम्मान के लिए लिखने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इससे उन्हें बेहतर काम करने में मदद मिलेगी और लेखक के रूप में सफल करियर बनाने में भी मदद मिलेगी।
अंत में मेरा मानना है कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधर सकता है। प्रतिस्पर्धा के दबाव से बेहतर लेखन हो सकता है, और मान्यता की इच्छा लेखकों को लिखते रहने की प्रेरणा प्रदान कर सकती है। साहित्य और खेल से ऐसे कई उदाहरण हैं जो इस तर्क का समर्थन करते हैं।
यहां उन लेखकों के कुछ अतिरिक्त उदाहरण दिए गए हैं जिन्होंने दबाव में भी बेहतरीन काम किया है:
टोनी मॉरिसन ने 1993 में साहित्य में नोबेल पुरस्कार जीता। उन्होंने “बिलव्ड” और “द ब्लूस्ट आई” सहित कई उपन्यास लिखे।
अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने 1954 में साहित्य में नोबेल पुरस्कार जीता। उन्होंने कई उपन्यास लिखे, जिनमें “द ओल्ड मैन एंड द सी” और “फॉर व्हॉम द बेल टोल्स” शामिल हैं।
जेके राउलिंग ने हैरी पॉटर श्रृंखला लिखी, जो अब तक की सबसे अधिक बिकने वाली पुस्तक श्रृंखला में से एक है। उन्होंने श्रृंखला की पहली पुस्तक एक समय सीमा के दबाव में लिखी, और उन्होंने श्रृंखला में सात और पुस्तकें लिखीं।
ये उन लेखकों के कुछ उदाहरण हैं जिन्होंने दबाव में भी बेहतरीन काम किया है। मेरा मानना है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव कई लेखकों के लिए एक शक्तिशाली प्रेरक हो सकता है, और इससे बेहतर काम का उत्पादन हो सकता है।
मुझे आशा है कि इस लेख से इस बहस पर कुछ प्रकाश डालने में मदद मिली होगी कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है या नहीं। मेरा मानना है कि उत्तर हां में है, और मैं सभी लेखकों को अपना सर्वश्रेष्ठ काम करने का प्रयास करने के लिए प्रोत्साहित करता हूं, भले ही वे पुरस्कार के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हों या नहीं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जितने दूर, उतने पास…“।)
अभी अभी # 362 ⇒ जितने दूर, उतने पास… श्री प्रदीप शर्मा
जीवन में दूरियां भी हैं, और नजदीकियां भी, जो जितना पास है, उसकी कद्र नहीं, जो दूर है उसे पाए बिना सब्र नहीं। आधी छोड़ पूरी को पाना, क्या एक बच्चे द्वारा दोनों हाथों में लड्डू का थाल समेट लेने जैसा अनथक प्रयास नहीं। बच्चा तो अबोध, नासमझ है, लेकिन साधारण मनुष्य भी कहां, जो पास उपलब्ध है, करीब है, उससे संतुष्ट है।
पास और करीबी का अहसास किसे नहीं होता। एक मां तक अपने नवजात शिशु को एक पल के लिए भी अपनी आंखों से दूर नहीं जाने देती। क्या कलेजे के टुकड़े से अधिक करीबी कोई रिश्ता आपने देखा है। ।
लेकिन जब जो पास है, वह पर्याप्त प्रतीत नहीं होता, तब निगाहें दूर तक कुछ खोजा करती हैं। केवल वस्तुओं तक ही यह सीमित हो ऐसा जरूरी नहीं, जब पास के रिश्तों में खटास का अनुभव होने लगे, स्वार्थ, मतलब और खुदगर्जी अपने पांव पसारने लगे, तब रिश्तों में दूरियां पनपनी शुरू हो जाती हैं। अपने कब पराये हो जाते हैं, कुछ पता ही नहीं चलता।
जहां प्रेम की गांठ मजबूत होती है, हमेशा करीबी का अहसास बना रहता है। दूरी और नजदीकी यहां कोई मायने नहीं रखती। एक बंधन ऐसा भी होता है, जब कोई दूर का अनजान मुसाफिर अचानक हमारे जीवन में आता है, और हमारा जीवन साथी बन जाता है ;
कभी रात दिन हम दूर थे
दिन रात का अब साथ है।
वो भी इत्तिफाक की बात थी
ये भी इत्तिफाक की बात है। ।
बस फिर तो, “जनम जनम का साथ है, निभाने को, सौ सौ बार मैने जनम लिए” यानी जितने दूर उतने पास अनंत काल तक। ।
क्या दूर और क्या प्यास, क्या धरती और आकाश, सबको प्यार की प्यास। यह प्यास अगर पास नहीं बुझती तो एक प्यासा मृगतृष्णा की तरह भटकता ही रहता है, बस्ती बस्ती परबत परबत। जहां दो बूंद पानी मिला, बस वहीं विश्राम।
हमारी प्यास जन्मों की है, यह इतनी आसानी से तृप्त नहीं हो सकती। हम दूर के रिश्तों में, यारों में, दोस्तों में कुछ ऐसा तलाश करते हैं, जो हमें और करीब, और पास लाए, जहां रिश्ते दिलों के हों, आत्मीय हों, जिससे चित्त शुद्ध हो, मन शांत हो। यह तलाश कभी खत्म होने का नाम नहीं लेती, क्योंकि हम जिसे दूर दूर तक तलाश रहे हैं, वह तो कहीं नजर ही नहीं आ रहा। थक हारकर व्यथित मन यही कह उठता है ;
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “संतुलन (Balance)“।)
अभी अभी # 361 ⇒ संतुलन (Balance) श्री प्रदीप शर्मा
आर्थिक संतुलन के लिए जिस तरह हमारे खाते में समुचित बैलेंस जरूरी होता है, ठीक उसी तरह एक व्यवस्थित जीवन का आधार भी संतुलन ही है,
जिसमें संतुलित आहार से लगाकर बोलचाल, रहन सहन और आचार विचार तक शामिल है। हमारे मानसिक संतुलन को ही तो हमने मति, समझ और बुद्धि का नाम दिया है। फिर भी इंसान की कभी मति मारी जाती है, और कभी मति, फिर भी जाती है। विनाश काले विपरीत बुद्धि।
तराजू को हम तुला अथवा balance भी कहते हैं।
तराजू के दो पलड़े होते हैं, जब दोनों पलड़े बराबर होते हैं, तब सौदा खरा और सच्चा होता है। हमारे न्याय की देवी के हाथ में भी इंसाफ का तराजू होता है, और आंखों पर काली पट्टी बंधी होती है। निर्माता निर्देशक बी.आर.चोपड़ा को कानून से इतना प्यार था कि उन्होंने सन् १९६० में पहले एक अपराध फिल्म कानून बनाई। फिर भी उनका मन नहीं भरा और सन् १९८० में पुनः एक बार इंसाफ का तराजू फिल्म बना डाली।
लोगों का क्या है, वे तो अंधा कानून जैसी फिल्म भी देख लेते हैं। ।
बाबू जी धीरे चलना,
प्यार में ज़रा संभलना
बड़े धोखे हैं इस राह में ..
सिर्फ प्यार में ही नहीं, जीवन की राह में, हर मोड़ पर हमें संभलकर ही चलना होता है, और फिसलते वक्त अपना संतुलन भी कायम रखना पड़ता है। अपने आप पर काबू रखना, आपा नहीं खोना, हर तरह की सावधानी बिना mental balance के संभव नहीं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी।
मानसिक संतुलन को आप मनोयोग भी कह सकते हैं। आज रपट जाएं, तो हमें ना उठइयो ! फिसलना, रपटना किसी के लिए खेल हो सकता है। बगीचे की फिसल पट्टी पर फिसलने और झूला झूलने में, बच्चों को डर लग सकता है, लेकिन फिर बाद में धीरे धीरे उसकी आदत पड़ जाती है। कई बार सड़क पर वाहन चलाते चलाते, एकाएक बैलेंस बिगड़ जाता है, और हम धड़ाम से गिर जाते हैं। ।
बैलेंस अथवा संतुलन एक तरह का मानसिक अनुशासन है, जो हमारे स्वस्थ समाज का निर्माण करता है। जीवन की सभी विसंगतियों की जड़ में संतुलन और अनुशासन का अभाव होता है। फिल्म मासूम(१९६०) का यह गीत शायद यही संदेश देता है ;
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 82 ☆ देश-परदेश – आज से चालीस पार ☆ श्री राकेश कुमार ☆
मौसम के थर्मामीटर ने बता दिया है, कि अब देश के अधिकतर हिस्सों में पारा चालीस डिग्री पार कर जाएगा। विश्व में प्रगति हुई, तो मौसम विज्ञान में भी कुछ नए आयाम जुड़ गए हैं। मोबाइल हर घंटे का तापक्रम, वायु की गति आदि की जानकारी उपलब्ध करवा रहा हैं। कल एक युवा से बात हुई तो उसने कहा तापमान मायने नहीं रखता है, “फील लाइक” कितना है, ये अधिक महत्वपूर्ण है।
हमने भी अपने मोबाइल पर फील लाइक की जानकारी प्राप्त कर अपने आप को युवा फील करने लगे हैं। पुराने समय के लोग कहते थे, चित्त शांत रहे तो गर्मी/ सर्दी का प्रभाव नहीं होता हैं।
आज जब व्हाट्स ऐप पर ऊंगली चला रहे हैं, तो बहुत अधिक गर्म लग रहा है, इसलिए हाथ में दस्ताने (ग्लोव्स) पहन कर लिख पा रहे हैं। विगत कुछ समय से चुनाव की आग हमारे अधिकतर समूहों को भी प्रभावित कर रही हैं। मोहल्ले के समूह में तो एडमिन ने राजनीति और धर्म से संबंधित मैसेज भेजने पर प्रतिबंध की मुनादी तक करवा दी थी। अंत में तीन सदस्यों को जो विपक्ष, सत्ता और एक स्थानीय दल से संबंधित मैसेज शेयर करते रहते थे, को निष्कासित तक कर दिया हैं। अब उन सदस्यों की पत्नियां जोकि समूह की सदस्य भी है, ने राजनीति के तीर छोड़ने आरंभ कर दिए है।
किसी भी समूह का एडमिन एक नीति निर्धारित कर समूह का संचालन करता है, फिर उसकी बात को मानना सभी सदस्यों के लिए आवश्यक हैं। वर्ना समूह छोड़ देना चाइए।
हमें तो भय लग रहा है, यादि व्हाट्स ऐप पर राजनीति के अंगारे परोसे जायेंगे तो, हमारा मोबाइल कहीं गर्मी से फट ही ना जाय।
आपसी संबंधों को राजनीति के तीर तार तार भी कर रहे हैं। हर व्यक्ति ये मानने लगा है, कि उसके द्वारा प्रेषित मैसेज ही अंतिम सत्य हैं।
राजनीतिक कारणों से मन में पड़ी हुई गांठ हो या दरार कभी ठीक नहीं होती हैं। जीवन के इस अंतिम पड़ाव में नए संबंध बनाए और पुराने संबंधों को भी टूटने से बचाएं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक और एक ग्यारह…“।)
अभी अभी # 360 ⇒ एक और एक ग्यारह… श्री प्रदीप शर्मा
One & one eleven
जहां अक्षर है, वहां स्वर है, व्यंजन है, शब्द है, व्याकरण है, और जहां अंक है, वहां गिनती है, पहाड़ा है, पूरा अंक गणित है। गिनती को अंग्रेजी में नंबर और पहाड़े को टेबल कहते हैं। हमारी पहली दूसरी की पढ़ाई टाट पट्टी पर बैठकर, पट्टी पेम से लिखकर होती थी, और सामूहिक स्वर में पट्टी पहाड़े को याद किया जाता था। इंग्लिश मीडियम की पढ़ाई टेबल कुर्सी और ब्लैक बोर्ड पर होती है अतः उनके लिए, गिनती नंबर और पहाड़े, टेबल कहलाते हैं। हमारा अंकगणित उनका एरिथमेटिक्स (arithmetics) है।
वैसे तो अंकों का सार एक से दस संख्या में ही निहित है, लेकिन हम एक से बीस तक की हिंदी और अंग्रेजी की गिनती तक ही अपने आपको सीमित करेंगे। सम विषम संख्या के पचड़े में भी हम नहीं पड़ना चाहते।।
हमारा हिंदी का एक अंक अंग्रेजी का वन (one) है। इसे आपको one ही लिखना पड़ेगा, आप ven अथवा won नहीं लिख सकते। हां उच्चारण में चाहें तो वन को ओन कर सकते हैं। हमारा दूसरा अंक दो, अंग्रेजी का टू (two) है, जो हमारे दो के अपभ्रंश दुई अथवा दू के बहुत करीब है (गौर कीजिए, दो दूनी चार)।
यही हाल तीन का है, हमारा तीन का अंक उनका थ्री(three) है। उच्चारण में थ्री वैसे भी, तीन का करीबी ही लगता है।
हमारा चार का अंक उनका फोर (four) है, यहां सिर्फ आखरी के सिर्फ `र ` में ही समानता है। हमारा पांच का अंक अंग्रेजी का फाइव (five) है, जिसमें हमें कोई खास करीबी नजर नहीं आती। छः को सिक्स (six), सात सेवन(seven) का भी यही हाल है लेकिन इनका ऐट (eight) हमें हमारे आठ का करीबी लगता है।
वैसे eight को क्या आप अठ नहीं कह सकते। हमारा नौ इनका नाइन (nine) हो जाता है और हमारे दस पर इनकी टेन(ten) बज जाती है।।
आगे ग्यारह से उन्नीस तक का यह अंकों का खेल भी बड़ा रोचक है। हमारा ग्यारह इनका इलेवन(eleven)हो जाता है। जहां एक वन(one) था, वहीं इलेवन में वन की मात्रा eleven हो गई। ग्यारह से आगे के हमारे सभी अंकों में रह रहकर, रह और ह का प्रयोग हुआ है, गौर कीजिए, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह, पंद्रह, सोलह, सत्रह और अठारह। बस उन्नीस और बीस अलग नजर आते हैं। स्मरण रहे, इसमें सोलह बरस भी शामिल है।
और उधर अंग्रेजी के अंकों में इलेवन(eleven) और ट्वेल्व (twelve) के पश्चात् ही टीनेज शुरू हो जाती है, यानी थर्टीन, फोर्टीन, फिफ्टीन, स्वीट सिक्स्टीन, सेवेंटीन, एटीन और नाइनटीन। बस टीनेज खत्म और हमारा बीस उनका ट्वेंटी।।
यह तो बात हुई सिर्फ गिनती की, हमारे पहाड़ों और उनकी टेबल में जमीन आसमान का अंतर है। जो मज़ा दो एकम दो, आठी उठी चौंसठ और नम्मा नम्मा इक्यासी में है, वह टू वंजा टू और फाइव टेंजा फिफ्टी में नहीं। अपनी भाषा में रस है, विदेशी जुबान में गला सूखता है।
फिर भी मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। आज के बच्चे छाछठ, छियोत्तर और छियासी में फर्क नहीं समझते। कहते हैं, पापा हिंदी में बोलो।।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 239☆ मायोपिआ
दिन के गमन और संध्या के आगमन का समय है। पदभ्रमण करते हुए बहुत दूर निकल चुका हूँ। अब लौट रहा हूँ। आजकल कोई मार्ग ऐसा नहीं बचा जिस पर ट्रैफिक न हो। ऐसी ही एक सड़क के पदपथ पर हूँ। कुछ दूरी पर सेना द्वारा संचालित एक स्थानीय विद्यालय है। इसके ठीक सामने एक सैनिक संस्थान है। धुँधलके का समय है, स्वाभाविक है कि इमारतें और पेड़ भी धुँधले दिख रहे हैं। इससे विपरीत स्थिति वह है, जिसमें धुँधलाती तो आँखें हैं और लगता है जैसे इमारतें और पेड़ धुँधला गए हों। प्रत्यक्ष और आभास में यही अंतर है।
विद्यालय से लगे पदपथ पर चल रहा हूँ। देखता हूँ कि कुछ दूरी पर पथ से सटकर एक बाइक खड़ी है। पुरुष बाइक के सहारे खड़ा है। यह भी आभासी है। सत्य तो यह है कि बाइक उसके सहारे खड़ी है। उसके साथ की स्त्री नीचे पदपथ पर चेहरा झुकाए बैठी है। एक तरह की आशंका भीतर घुमड़ने लगी। यद्यपि किसी के निजी जीवन में प्रवेश करने का अधिकार किसी दूसरे को नहीं होता तथापि संबंधित स्त्री यदि किसी प्रकार की कठिनाई में है तो उसकी सहायता की जानी चाहिए। इस भाव ने कदम उसी दिशा में बढ़ाए। थोड़ा और चलने पर यह जोड़ा साफ-साफ दिखाई देने लगा । दूर से ऐसा कुछ लग नहीं रहा था कि दोनों में किसी प्रकार के विवाद की स्थिति हो । मेरे और उनके बीच की दूरी अब मुश्किल 20 फीट रह गई थी। देखता हूँ कि अपने आँचल से ढक कर वह शिशु को स्तनपान करा रही है। स्वाभाविक है था कि मैंने अपने दिशा में परिवर्तन कर लिया।
दिशा में परिवर्तन के साथ विचार भी बदले, मंथन आरंभ हुआ। कैसी और किन-किन परिस्थितियों में संतान का पोषण करती है माँ, उसे अमृत-पान कराती है! माँ के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता है शिशु।
मंथन कुछ और आगे बढ़ा और विचार उठा कि प्रकृति भी तो माँ है। मनुष्य द्वारा मचाये जाते सारे विध्वंस के बीच आशा की एक किरण बनकर खड़ी रहती है प्रकृति। आश्चर्य देखिये कि माँ की कोख में विष उँड़ेलता मनुष्य अपने कृत्य पर लज्जित नहीं होता, प्रकृति का अनवरत शोषण करता हुआ लजाता नहीं अपितु पंचतत्वों के संहार में निरंतर जुटा होता है। विरोधाभास यह कि पंचतत्वों का संहारक, पंचतत्वों से बनी काया के छूटने पर दुख मनाता है। मनुष्य लघु तो देख लेता है पर प्रभु उसे दिखता नहीं, निकट का देख लेता है, पर दूर का ओझल रहता है। नेत्रविज्ञान इसे मायोपिआ कहता है। आदमी के इस शाश्वत मायोपिआ का एक चित्र कविता के माध्यम से देखिए-
वे रोते नहीं
धरती की कोख में उतरती
रसायनों की खेप पर,
ना ही आसमान की प्रहरी
ओज़ोन की पतली होती परत पर,
दूषित जल, प्रदूषित वायु,
बढ़ती वैश्विक अग्नि भी,
उनके दुख का कारण नहीं,
अब…,
विदारक विलाप कर रहे हैं,
इन्हीं तत्वों से उपजी
एक देह के मौन हो जाने पर…,
मनुष्य की आँख के
इस शाश्वत मायोपिआ का
इलाज ढूँढ़ना अभी बाकी है..!
हर हाल में मानव और मानवता को पोषित करने वाली प्रकृति के प्रति मनुष्य का यह मायोपिआ समाप्त होना चाहिए। इससे अनेक प्रश्न भी हल हो सकते हैं।
काँक्रीटीकरण, ग्लोबल वॉर्मिंग, कार्बन उत्सर्जन, पिघलते ग्लेशियर सब रुक सकते हैं। बहुत देर होने से पहले आवश्यक है, अपने-अपने मायोपिआ से मुक्त होना..। इति
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक
श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जल संकट…“।)
अभी अभी # 359 ⇒ जल संकट… श्री प्रदीप शर्मा
पानी इतना दीजिए
जा मे कुटुंब नहाय।
मैं भी प्यासा ना रहूं
पंछी न प्यासा जाय ।।
जब तक किसी वस्तु का अभाव अथवा असुविधा महसूस नहीं होती, हमारा उस पर ध्यान नहीं जाता। जलसंकट का अनुभव भी उसे ही होता है, जिसे पानी नहीं मिलता। गर्मी में पानी बिजली हमारी मूलभूत समस्या है। जहां नियमित जल प्रदाय होता रहता है, वहां इस संकट को महसूस नहीं किया जा सकता।
बढ़ते शहर की प्यास भी तो बढ़ेगी। गर्मी के शुरू होते ही, अधिकांश ट्यूब वेल सूख जाते हैं और सड़कों पर टैंकर दौड़ने लगते हैं। जब तक आप पैसा फेंकते रहेंगे, आपको पानी मिलता रहेगा। कुंए बावड़ी तो अब झांकने को भी नहीं मिलते।।
प्यास लगते ही कुंआ नहीं खोदा जाता, और खोदने के पश्चात् भी पानी की संभावना क्षीण ही रहती है। कुंआ खोदने से बेहतर है, वृक्षारोपण किया जाए, बारिश के पानी को रोका जाए, रीसाइकल किया जाए। जो पेड़ शहर के विकास में बाधा पहुंचाएंगे, उनको तो फिर भी काटा ही जाएगा।
हर आदमी पैसा फेंककर तमाशा नहीं देख सकता।
इधर आदमी को प्यास बढ़ती जा रही है और उधर पानी कम होता चला जा रहा है। याद आते हैं वे दिन, जब जगह जगह सड़कों पर प्याऊ नजर आ जाती थी। क्या एक्वागार्ड और आरो का पानी पीने वाला व्यक्ति इस पानी से अपनी प्यास बुझाएगा। वह तो अपने साथ हमेशा बिसलेरी की बॉटल लेकर चलता है। उसे अपनी सेहत का खयाल भी तो रखना है।।
आसमान की ओर देखो, तो सूरज आग उगल रहा है, और इधर पंखे भी गर्म हवा फेंक रहे हैं। कूलर पैसा और पानी दोनों मांगता है, अब सरकार मुफ्त राशन की तरह मुफ्त एसी तो सबको प्रदान नहीं कर सकती।
गर्मी में ठंड कैसे रखी जाए, इंसान ने पैसा कमाना तो सीख लिया, काश वह पानी बचाना भी सीख पाता, तो उसे गर्मी में पैसा पानी की तरह नहीं बहाना पड़ता।।
क्या समय आ गया है, हमें हवा और पानी दोनों खरीदने पड़ रहे हैं। पंखे, कूलर और ए.सी.की हवा क्या खरीदी हुई नहीं है। पानी पर तो वैसे भी डायरेक्ट जल कर के रूप में टैक्स है ही, हवा पर भी इनडायरेक्ट तौर पर टैक्स लगा हुआ है।
अंग्रेज गर्मियों में हिल स्टेशन चले जाते थे, और साथ साथ राजधानी भी वहीं ले जाते थे। वे भले ही चले गए हों, हमारे लिए गर्मियों की छुट्टियां छोड़ गए थे। इधर परीक्षा खत्म हुई और उधर गर्मी की छुट्टियां शुरू, और सभी साहबजादे चले ननिहाल।
गांव की हरियाली और प्राकृतिक हवा पानी में कैसी गर्मी और कैसी प्यास। छुट्टियां गुजर जाती, मगर प्यास नहीं बुझती थी।।
झूठ क्यूं बोलें, हमें ईश्वर ने हवा भी छप्पर उड़ाकर दी है, और पानी भी छप्पर फाड़कर। याद आते हैं वे दिन, जब नालीदार पतरों की छत से बारिश का पानी टप टप, टपकता था, कहीं बूंद बूंद, तो कहीं धाराप्रवाह। घर के सभी बर्तन, घड़ा, बाल्टी, तपेली, परात, और तो और ग्लास लोटे तक कार सेवा में सहयोग प्रदान करते थे। इतनी बारिश के बाद आंगन में लगे दो नीम और एक गूगल का पेड़, साल भर मस्ती में झूमते रहते थे। उनकी छांव में कहां कभी गर्मी महसूस हुई। माता पिता के साये के साथ इन दरख्तों की छांव भी हमसे छिन गई।
गर्मी पर फिलहाल चुनावी सरगर्मी हावी है। लोकतंत्र का उत्सव वैसे भी पांच वर्ष में एक बार ही तो आता है, जीवन के सुख दुख, और धूप छांव का हंसी खुशी से सामना करते हुए एक सुरक्षा और सुकून की आस में, अगर थोड़ा तप लेंगे तो क्या बुरा है।
अब कोई हवा पानी की भी मुफ्त की गारंटी देने से तो रहा। अगर गर्मी और जलसंकट से बचना चाहते हैं तो आप भी लेह लद्दाख घूम आइए, वर्ना बत्ती गुल होने पर, हाथ से पंखा झलिये और पसीने में नहाइए।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गमले में गिलहरी…“।)
अभी अभी # 358 ⇒ गमले में गिलहरी… श्री प्रदीप शर्मा
कुछ शीर्षक बड़े विचित्र लेकिन असाधारण होते हैं। धर्मवीर भारती ने एक बर्फ वाले को ठेले पर बर्फ की सिल्लियां ले जाते देखा, और अनायास ही उन्हें अपनी कहानी का शीर्षक सूझ गया, ठेले पर हिमालय। मैने जब एक गिलहरी को भरी दुपहरी में, एक गमले के पौधे में आराम फरमाते देखा तो आश्चर्यचकित रह गया, गमले में गिलहरी !
इंसान के अलावा कुछ ऐसे मूक पशु पक्षी भी होते हैं, जिनसे हमें अनायास ही लगाव हो जाता है। बिना संवाद के भी भावनाओं का आदान प्रदान संभव है, अगर एक दूसरे के लिए आकर्षण है। गाय, भैंस के अलावा पालतू कुत्ते बिल्ली और कुछ पक्षी भी इसी श्रेणी में आते हैं। लेकिन आसमान में स्वच्छंद उड़ने वाला पक्षी और पेड़ पौधों पर निवास करने वाले कुछ प्राणी इतनी आसानी से हमारे करीब नहीं आते।
शायद उनमें यह अज्ञात भय व्याप्त हो, यह इंसान हमें मार डालेगा, पिंजरे में बंद कर देगा, अथवा खा जाएगा।।
कुछ लोग पक्षियों को नियमित दाना डालते हैं तो कुछ गर्मी में उनके लिए पीने के लिए पानी का इंतजाम करते हैं। अगर इस दुनिया में नेकी ना हो, तो क्या कोई पक्षी इतना निर्भीक हो, आसमान से उड़कर आपके आंगन में उतर पाएगा। एक दूरी बनाते हुए, वह मूक पक्षी आपको करीबी का अहसास देता है।
मैने ना तो कभी चिड़ियों को दाना डाला और ना ही किसी उड़ती चिड़िया को मैने पिंजरे में बंद करने की कोशिश ही की। मुझे देखते ही चिड़िया फुर्र से उड़ जाती है, मानो मैं उसे खा जाऊंगा, मुझे बहुत बुरा लगता है।।
घर के बाहर की ओपन गैलरी मैने कुछ गमलों में पौधे लगा रखे थे, नीचे आंगन और हरा भरा बगीचा था। कुछ पेड़ों पर गिलहरियों का नियमित निवास था। वे दिन में चोरी से मेरी गैलरी में आती, और बारह रखी खाने लायक चीजों पर हाथ साफ करती, लेकिन मुझे देख, जल्दी से छुप जाती।
धीरे धीरे उसे स्वादिष्ट पदार्थों का स्वाद लग गया, और लालच स्वरूप वह घर में भी प्रवेश करने लगी। लेकिन सब कुछ चोरी छुपे। मेरी निगाह पड़ते ही, यह जा, वह जा। गुस्सा भी आता और प्यार भी। लेकिन इतनी लाजवंती, कि आप उसे कभी छू भी ना पाओ।
इंसानों जैसे बैठकर, जब आगे के दोनों पंजों से मूंगफली छीलकर खाती है, तो बड़ा अचरज होता है।
मैने गिलहरी को अक्सर पेड़ पर चढ़ते उतरते और डाली डाली डोलते देखा है। पक्षियों के बीच रहने से, इसकी आवाज भी कुछ कुछ चिड़ियों जैसी ही हो गई है। जहां थोड़ा भी खतरा नजर आया, यह फुर्ती से पेड़ पर चढ़ जाती है।।
एक बार भरी दोपहर में मुझे बाहर गैलरी में रखे गमले में कोई जानवर बैठा नजर आया, पहले लगा, शायद कोई बिल्ली का बच्चा हो। पास जाकर देखा, तो गिलहरी महारानी गमले की ठंडी मिट्टी में आंखें मूंदे, निश्चिंत हो, आराम फरमा रही हैं, मैंने उसकी नींद में खलल डालना उचित नहीं समझा और चुपचाप अंदर चला आया। मेरी इस छूट का उसने भरपूर फायदा उठाया, और भविष्य में, जब मन करता, गर्मी से राहत पाने के लिए, निश्चिंत हो, गमले में आराम फरमाती।
आप इसे क्या कहेंगे, चोरी चोरी माल खाना, और बाद में निश्चिंत हो, गमले की ठंडी मिट्टी में घोड़े बेचकर सो जाना, लेकिन मुझे रत्ती भर घास नहीं डालना, क्या यह चोरी और सीना जोरी नहीं। कोई दिनदहाड़े हमें लूट रहा है, फिर भी हम उस पर फिदा हैं, और उस ज़ालिम को कुछ पता ही नहीं। क्या जीवन का यह सात्विक सुख, आध्यात्मिक सुख नहीं, क्या ईश्वर भी हमारे साथ कुछ ऐसी ही लीला नहीं कर रहा, हो सकता है, यह गिलहरी ही हरि हो ;