हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #213 ☆ दस्तूर-ए-दुनिया… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख दस्तूर-ए-दुनिया…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 213 ☆

☆ दस्तूर-ए-दुनिया

‘ता-उम्र किसी ने जीने की वजह न पूछी/ अंतिम दिन पूरा मोहल्ला पूछता है/ मरा कैसे?’ जी हां! यही है दस्तूर-ए-दुनिया और जीवन का कटु सत्य, क्योंकि संसार में सभी संबंध स्वार्थ के हैं। वैसे भी इंसान अपनी खुशी किसी से सांझी नहीं करना चाहता। वह अपने द्वीप में कैद रह कर उन खूबसूरत लम्हों को जी लेना चाहता है। सो! वह आत्मकेंद्रित हो जाता है। परंतु वह अपने दुख दूसरों से बांटना चाहता है, ताकि शह उनकी सहानुभूति बटोर सके। वैसे भी दु:ख बांटने से हल्का हो जाता है। अक्सर लोग गरीब व दुखी लोगों के निकट जाने से कतराते हैं, कहीं उनकी आफत उनके गले का फंदा न बन जाए। वे भयभीत रहते हैं कि कहीं उनकी खुशियों में खलल न पड़ जाए अर्थात् विक्षेप न पड़ जाए। परंतु वे लोग जिन्होंने आजीवन उनका हालचाल नहीं पूछा था, मृत्यु के पश्चात् अर्थात् अंतिम वेला में  वे लोग दुनियादारी के कारण उसका हाल जानना चाहते है।

जीवन एक रंगमंच है, जहाँ इंसान अपना-अपना क़िरदार निभाकर चल देता है। विलियम शेक्सपीयर ने ‘Seven Stages Of Man’ में  मानव की बचपन से लेकर वृद्धावस्था की सातों अवस्थाओं का बखूबी बयान किया है। ‘क्या बताएं लौट कर नौकरी से क्या लाए हैं/ गए थे घर से जवानी लेकर/ लौटकर बुढ़ापा लाए हैं’ में भी उक्त भाव प्रकट होता है। युवावस्था में इंसान आत्म-निर्भर होने के निमित्त नौकरी की तलाश में निकल पड़ता है, ताकि वह अपने परिवार का सहारा बन सके और विवाह-बंधन में बंध सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देकर अपना दायित्व वहन कर सके। सो! वह अपनी संतान की परवरिश में स्वयं को झोंक कर अपने अरमानों का खून कर देता है। उसके आत्मज भी अपनी गृहस्थी बसाते हैं और उससे दूर चले जाते हैं। दो से उन्होंने अपनी जीवन यात्रा प्रारंभ की थी और दो पर आकर यह समाप्त हो जाती है और सृष्टि चक्र निरंतर चलता रहता है।

अक्सर बच्चे माता-पिता के साथ रहना पसंद ही नहीं करते और रहते भी हैं, तो उनमें अजनबीपन का एहसास इस क़दर हावी रहता है कि सब अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं। वैसे तो आजकल मोबाइल ने सबका साथी बन कर दिलों में दरारें नहीं, दीवारें उत्पन्न कर दी हैं। सो! एक छत के नीचे रहते हुए भी वे एकां त की त्रासदी झेलने को विवश रहते हैं और उनमें संवाद का सिलसिला प्रारंभ ही नहीं हो पाता।  घर के सभी प्राणी मोबाइल में इस प्रकार लिप्त रहते हैं कि वे सब अपना अधिकांश समय मोबाइल के साथ गुज़ारते हैं, क्योंकि गूगल बाबा के पास सभी प्रश्नों के उत्तर व सभी समस्याओं का समाधान उपलब्ध है। आजकल तो लोग प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी भी मोबाइल से करते हैं।

इस प्रकार इंसान आजीवन इतना व्यस्त रहता है कि उसे अपने बारे में सोचने का समय ही नहीं मिलता। परंतु बुढ़ापा एक समस्या है, क्योंकि इस अंतराल में मानव दुनिया के मायाजाल में उलझा रहता है। उसे अपने बारे में सोचने का समय ही नहीं मिलता। परंतु वृद्धावस्था एक समस्या है, क्योंकि इस काल में असंख्य रोग व चिंताएं इंसान को जकड़ लेती हैं और अंत काल में उसे प्रभु को दिए गये अपने वचन की याद आती है कि कब होता है कि मां के गर्भ में उल्टा लटके हुए उसने प्रार्थना की थी कि वह उसका नाम स्मरण करेगा। परंतु जीवन का प्रयोजन कैवल्य प्राप्ति को भूल जाता है। ‘यह किराए का मकान है/ कौन कब तक ठहरेगा। खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ जाएगा।’ अंतकाल में न संतान साथ देती है, न ही शरीर व मनोमस्तिष्क ही कार्य करते है। वह प्रभु से ग़ुहार लगाता है कि वह उसके सब अवगुण  माफ कर दे और उससे थोड़ी सी मोहलत दे दे। परंतु परिस्थितियों के अनुकूल होते ही वह दुनिया की रंगीनियों व बच्चों की संगति में अपनी सुधबुध खो बैठता है। इसलिए कहा जाता है कि इंसान युवावस्था में नौकरी के लिए निकलता है और वृद्धावस्था में सेवानिवृत्त होकर लौट आता है और शेष जीवन प्रायश्चित करता है कि उसने सारा जीवन व्यर्थ क्यों गंवा दिया है। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित  पंक्तियां ‘यह जीवन बड़ा अनमोल बंदे/ राम राम तू बोल’ यही है जीवन का सत्य। लोग बाह्य आंकड़ों में लिप्त रहते हैं तथा दिखावे के लिए परिवारजन भी चार दिन आंसू बहाते हैं, फिर वही ढाक के तीन पात। किसी ने बहुत सुंदर कहा है कि ‘इंसान बिना नहाए दुनिया में आता है और नहा कर चल देता है। लोग श्मशान तक कांधा देते हैं और अग्निदाह कर लौट आते हैं। सो। आगे का सफ़र उसे अकेले ही तय करना पड़ता है।  ‘जप ले हरि का नाम फिर पछताएगा/ जब छूटने लगेंगे प्राण फिर पछताएगा’ तथा ‘एक साचा तेरा नाम’ से भु यही स्पष्ट होता है कि केवल प्रभु नाम ही सत्य हैं और सत्य सदैव मंगलकारी होता है। इसलिए उसका सुंदर होना तो स्वाभाविक है तथा उसे जीवन में धारण करें, क्योंकि वही अंत तक साथ निभाएगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 242 ⇒ गौ सेवा और श्वान प्रेम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गौ सेवा और श्वान प्रेम ।)

?अभी अभी # 243 ⇒ गौ सेवा और श्वान प्रेम… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं।

आदमी हूं, आदमी से प्यार करता हूं।।

इंसान से इंसान का प्रेम तो भाईचारा कहलाता है, यह अपराध कहां हुआ ! लेकिन हां, फिर भी यह एक सीमित दायरा और संकुचित सोच अवश्य है। जो सच्चा इंसान होता है, वह तो प्राणी मात्र से प्रेम करता है। प्राणियों में पशु पक्षी तो आते ही हैं, जिनका चित्त शुद्ध होता है, उन्हें तो कण कण में भगवान नजर आते हैं। मुझमें राम, तुझमें राम, रोम रोम में राम वाली अवस्था होती है यह।

हमने तो वे दिन भी देखे हैं, जब गौ माता और श्वान साथ साथ, गली गली, चौराहों चौराहों पर घूमते नजर आते थे। तब घर घर, द्वार द्वार गौ माता नजर आ जाती थी। तब भले ही मुफ्त राशन नहीं था, लेकिन फिर भी पहली रोटी गाय की ही निकाली जाती थी। लेकिन हो सकता है, यह केवल सिक्के का एक ही पहलू हो, उसकी वास्तविक स्थिति एक आवारा पशु से बेहतर नहीं थी।।

घूरे की तरह गौ माता के दिन भी फिरे, और उसे ससम्मान गौ शालाओं में प्रतिष्ठित किया गया। माता पिता भले ही घरों से वृद्धाश्रम में पहुंच गए हों, हमारी गौ माता आज गौ शालाओं में सुरक्षित है।

लेकिन एक बेचारे श्वान की ऐसी तकदीर कहां। वह तो कल भी सड़क पर ही था, और आज भी सड़क पर ही है।

लेकिन एक गाय और श्वान में एक मूलभूत अंतर है। हमें गाय तो देसी चाहिए, लेकिन अगर श्वान विदेशी नस्ल का हो, तो उसके लिए हमारे घर के द्वार खुले हैं। यानी गऊ माता के लिए अगर गौ शाला तो श्वान महाशय के लिए कार बंगला सब कुछ। बड़े भाग श्वान तन पाया साहब की बीवी, बेबी मन भाया।।

साहिर का पैसा और प्यार बहुत घिसा हुआ जुमला हो गया। आज पुण्य और प्रेम का जमाना है। पैसे को पुण्य में लगाओ और प्रेम की गंगा बहाओ। अब गौ सेवा के लिए हम आलीशान बंगले में गाय तो नहीं बांध सकते न, वहां तो एक बढ़िया विदेशी नस्ल का श्वान ही शोभा देता है। गऊ तो हमारी माता है, हाल ही में हमने एक विशाल गौ शाला के लिए एक अच्छी मोटी रकम अर्पित कर पुण्य कमाया है, जिसमें गौ माता के चारे और देखभाल की व्यवस्था भी शामिल है। हर सप्ताह सपरिवार हम गौ शाला जाते हैं, गऊ सेवा करते हैं, उसे अपने हाथों से चारा खिलाते हैं, उसी प्रेम से जिस तरह घर में डेज़ी को दूध रोटी खिलाते हैं। मत पूछिए घर में डेज़ी कौन है और डॉली कौन।

क्या धरती और क्या आकाश, सबको प्यार की प्यास। दुनिया में पैसा ही सब कुछ नहीं है। आज पुण्य कमाया जाता है और प्यार लुटाया जाता है। हमें इस वैतरणी से गऊ माता ही पार लगाएगी, इसलिए अगर आप सनातनी हैं तो जितना बने गौ सेवा करें। आज के 2 और 3 बेडरूम किचेन के जमाने में गाय पालना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। अपनी हैसियत के अनुसार गो सेवा, गो दान और गौ रक्षा का संकल्प ही श्रेयस्कर है।।

विदेशी नस्ल के श्वान के भाग तो काग के भाग से कम नहीं, लेकिन सड़कों पर जो आवारा कुत्ते हैं, नजर उन पर भी कुछ डालो, अरे ओ पैसा, पुण्य कमाने वालों और प्यार लुटाने वालों ! हम नहीं चाहते, इस संसार में कोई भी प्राणी कुत्ते की मौत मरे। प्राणियों में प्रेम हो, धर्म की विजय हो, विश्व का कल्याण हो। सनातन धर्म की जय हो। ओम् तीन बार शांति ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 242 ⇒ आज का दिन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आज का दिन।)

?अभी अभी # 242 ⇒ आज का दिन… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज का दिन अभी उगा नहीं, लेकिन कल, चला गया। रात अभी बाकी है, लेकिन एक नई सुबह हो ही गई। क्या एक रात में वक्त बदल जाता है, तारीख बदल जाती है, बरस बदल जाता है। अगर नहीं बदलता, तो बस इंसान नहीं बदलता।

आज के दिवाकर के उदय होने के पूर्व ही, कल सोशल मीडिया पर दिनकर चले, और खूब चले ! दिनकर चले गए, उनकी कविता चलती रही। विचार एक धारा है, विचार में धार होती है, चाकू में धार होती है, तलवार में धार होती है। चाकू से सब्ज़ी काटी जाती है, तलवार से इंसानों को भी गाजर मूली की तरह काटा जाता था। इसलिए बंदर के हाथ में आजकल तलवार नहीं दी जाती, उसे एक विचारधारा पकड़ा दी जाती है। वह जीवन भर उसकी ही धार तेज करता रहता है।।

यह आज तो मेरा है, पर यह बरस मेरा नहीं ! केवल दिनकर का ही नहीं, कइयों का नया वर्ष, चैत्र वर्ष प्रतिपदा, हिन्दू कैलेंडर के अनुसार, गुड़ी पड़वा से शुरू होता है। हम हर जगह तेरा मेरा तो कर सकते हैं, अपनी मान्यता अनुसार नया वर्ष भी निर्धारित कर सकते हैं लेकिन वक्त को नहीं बदल सकते।

पुरुषार्थ क्या नहीं कर सकता। क्या आपने देखा नहीं, पहले कैसा वक्त था और हमने वक्त के पहिए बदल दिए, वक्त की चाल बदल दी, जंग लगी तलवार बदल दी, ढाल बदल दी। बस नहीं बदल पाए तो किसी की तकदीर नहीं बदल पाए।।

शुभ दिन का इंतज़ार नहीं किया करते। अगर बहारें मुहूर्त देखती तो चौघड़िए आड़े आ जाते। फूल को रोज खिलना है। कुदरत का हर पल, हर लम्हा, एक मुहूर्त है। प्रकृति भी अपने उत्सव मनाती है। उसके लिए पतझड़ भी एक उत्सव है। उसे आप कायाकल्प भी कह सकते हैं।

हमें भी बहारों का इंतज़ार है।

हमारा भी कायाकल्प होना है। क्यों न आज ही वह शुभ घड़ी साबित हो। शुभ संकल्प के लिए मुहूर्त नहीं तलाशे जाते, सिर्फ कृत – संकल्प होने से ही काम चल जाता है। मत मानें दिनकर की तरह आप भी इस आज के दिन को वर्ष का पहला दिन, लेकिन एक अच्छा दिन तो मान ही सकते हैं। सूरज अभी उगा नहीं, अगर हमारे इरादें नेक हैं तो उम्मीद का सूरज भी आज ही निकलेगा जो कल से बेहतर होगा। आज का आपका दिन शुभ हो। वर्ष २०२४ मानवता के लिए मंगलमय हो।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 251 ☆ आलेख – रामचरित मानस में स्थापत्य एवं वास्तु शास्त्रीय वर्णन – भाग-2 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेखों की शृंखला – रामचरित मानस में स्थापत्य एवं वास्तु शास्त्रीय वर्णन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 251 ☆

? आलेख – रामचरित मानस में स्थापत्य एवं वास्तु शास्त्रीय वर्णन – भाग-2 ?

लंका :-

अयोध्या, जनकपुर के बाद जो एक बड़ी नगरी मानस में वर्णित है, वह हे रावण की सोने की लंका। लंका में एक स्वतंत्र भव्य प्राचीन बाटिका है, “अशोक वटिका” जहाँ रावण ने अपहरण के बाद माँ सीता को रखा था। लंका का वर्णन एक किले के रूप में है –

गिरि पर चढ़ी लंका तह देखी ।

कहि न जाइ अति दुर्ग विशेषी ।।

कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदराय तना घना ।

चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीशीं, चारूपुर बहु बिधि बना ।।

गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गने ।

बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहीं बनें ॥

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापी सोहहिं ।

नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहहिं ।।

सुन्दर काण्ड 5/3 लंका सोने की है। वहां सुन्दर-सुन्दर घर है। चौराहे, बाजार, सुन्दर मार्ग और गलियां है। नगर बहुत तरह से सजा हुआ है। नगर की रक्षा हेतु चारों ओर सैनिक तैनात है। नगर में एक प्रवेश द्वार है। लंका में विभीषण के महल का वर्णन करते हुये गोस्वामी जी ने लिखा है कि –

 रामायुध अंकित गृह शोभा वरनि न जाय । नव तुलसिका वृंद तहं देखि हरषि कपिराय ।।

रावण के सभागृह का वर्णन, लंकादहन एवं श्रीराम दूत अंगद के प्रस्ताव के संदर्भ में मिलता है। इसी तरह समुद्र पर तैरता हुआ सेतु बनाने का प्रसंग वर्णित है जिसमें समुद्र स्वयं सेतु निर्माण की प्रक्रिया श्रीराम को बताता है।

 भी “नाथ नील” नल कपि दो भाई। लरकाई ऋषि आसिष पाई ।

तिन्ह के परस किए गिरि भारे। तरहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ।।

‘एडम्स ब्रिज’ के रूप में आज भी भौगोलिक नक्शे पर इसके अवशेष विद्यमान है। यांत्रिकीय उन्नति के उदाहरण स्वरूप पुष्पक विमान, आयुध उन्नति के अनेक उदाहरण युद्धों में प्रयुक्त उपकरणों के मिलते हैं। स्थापत्य जो आधारभूत अभियांत्रिकी है, के अनेक उदाहरण विभिन्न नगरों के वर्णन में मिलते है। ये उदाहरण गोस्वामी तुलसीदास के परिवेश एवं अनुभव जनित एवं भगवान राम के प्रति उनके प्रेम स्वरूप काव्य कल्पना से अतिरंजित भी हो सकते है, किन्तु यह सुस्पष्ट है कि मानस के अनुसार राम के युग में स्थापत्य कला सुविकसित थी। अंत में यह आध्यत्मिक उल्लेख आवश्ययक जान पड़ता है कि सारे सुविकसित वास्तु और स्थापत्य के बाद भी श्रीराम बसते है मन मंदिर में।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 241 ⇒ एक लोटा जल… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आड़े तिरछे लोग…।)

?अभी अभी # 241 ⇒ एक लोटा जल… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सन् १९७१ में के. ए.अब्बास की एक फिल्म आई थी, दो बूंद पानी, जिसमें परवीन सुल्ताना और मीनू पुरुषोत्तम का एक बड़ा प्यारा सा गीत था ;

पीतल की मोरी गागरी,

दिल्ली से है मोल मंगाई !

यहां विरोधाभास देखिए, कहां दो बूंद पानी और कहां पीतल की गागरी, यानी वही ऊंट के मुंह में जीरा।

एक लोटा जल, हमारा आदर्श सनातन माप है, एक लोटे जल में प्यासे की प्यास भी बुझ जाती है, और रसोई के भी कई काम निपट जाते हैं। लाठी में गुण की तो बहुत बात कर गए गिरधर कविराय, लेकिन कभी किसी भले आदमी ने एक लोटा जल के महत्व पर प्रकाश नहीं डाला।।

लोटा और बाल्टी किस घर में नहीं होते। बचपन में सुबह नहाते वक्त ठंडा गरम, जैसा भी जल उपलब्ध हो, जब लोटे से स्नान किया जाता था, तो मुंह से ॐ नमः शिवाय निकल ही जाता था। एक पंथ दो काज, खुद का स्नान और शिव जी का अभिषेक भी। आत्म लिंग शिव तो सर्वत्र व्याप्त और विराजमान है, मुझमें भी और तुझ में भी।

शिव जी ने गंगा को अपनी जटा में स्थान दिया और जटाशंकर कहलाए। नर्मदा नदी का हर कंकर एक शंकर है, जिसका हर पल नर्मदा मैया की लहरों द्वारा अभिषेक होता है। महाकाल उज्जैन में रोज प्रातः भस्म आरती होती है, और तत्पश्चात् शिव जी का अभिषेक होता है। जिसका लाइव दर्शन व्हाट्सएप पर करोड़ों श्रद्धालु नियमित रूप से करते हैं।।

सब एक लोटा जल की महिमा है। सभी मंदिरों में आपको शिवजी और नंदी महाराज भी प्रतिष्ठित मिलेंगे। श्रद्धालु जाते हैं, एक लोटा जल से शिवजी का अभिषेक करते हैं, और नंदी के कान में भी कुछ कहने से नहीं चूकते।

कर्पूरगौरं करूणावतारं

संसारसारं भुजगेन्द्रहारं।

सदा वसन्तं हृदयारविन्दे

भवं भवानि सहितं नमामि।।

पूजा आरती कहां इस मंत्र के बिना संपन्न होती है।

संत महात्मा जगत के कल्याण का बीड़ा उठाते हैं, कथा, सत्संग, प्रवचन, निरंतर चला ही करते हैं। कुछ लोग सुबह एक लोटा जल सूर्यनारायण को भी नियमित रूप से अर्पित करते हैं। जल ही जीवन है, एक लोटा जल के साथ यह जीवन भी आपको समर्पित है। तेरा तुझको अर्पण। ईश्वर और प्रकृति में कहां भेद है।।

सीहोर के संत ने तो एक लोटा जल की मानो अलख ही जगा दी है। चमत्कार को नमस्कार तो हम करते ही हैं। शिवजी को समर्पित एक लोटा जल का चमत्कार देखिए, उनके प्रवचन में लाखों भक्तों की भीड़ देखी जा सकती है। साधारण सी बात असाधारण तरीके से समझाए वही तो होते हैं, संत ही नहीं राष्ट्रीय संत।

आप इनकी महिमा और करुणा तो देखिए, लाखों भक्तों को मुफ्त में रुद्राक्ष वितरित कर रहे हैं। श्रद्धालुओं की भीड़ संभाले नहीं संभल रही है। बेचारे शिक्षकों को भी स्वयंसेवक बन अपनी सेवा देनी पड़ रही है।।

आप भी शिव जी को एक लोटा जल तो चढ़ाते ही होगे। उनकी कथाएं शिव पुराण पर ही आधारित होती हैं। संसार में अगर दुख दर्द ना होता, तो कौन ईश्वर और इन संतों की शरण में जाता। भक्ति, विवेक और वैराग्य अगर साथ हो, तो शायद इंसान इतना हर जगह ना भटके। आखिर किसी की शरण में तो जाना ही पड़ेगा इस इंसान को ;

लाख दुखों की एक दवा

सिर्फ एक लोटा जल ….

पहले किसी प्यासे को एक लोटा जल पिलाइए, उसका दुख दर्द मिटाइए, फिर प्रेम से शिवजी को भी जल चढ़ाइए।।

कितने भोले होते हैं ये भोले भंडारी के कथित देवदूत, इतनी यश, कीर्ति और प्रचार के बावजूद बस इतना ही विनम्र भाव से गाते रहते हैं ;

मेरा आपकी कृपा से

सब काम हो रहा है।

करते हो तुम भोले,

मेरा नाम हो रहा है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 240 ⇒ घड़ी और समय… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घड़ी और समय।)

?अभी अभी # 240 ⇒ घड़ी और समय… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमें समय दिखाई नहीं देता, फिर भी हर घड़ी, हर पल, समय बदलता रहता है। समय को देखने के लिए हमारे पास घड़ी है। समय कभी नहीं बजता, फिर भी हमें तसल्ली नहीं होती, घड़ी देखते रहते हैं, कितना बजा ! घंटे की आवाज सुनकर, अलार्म लगाकर हमें पता चलता है, कितना बजा, कितनी बजी।

घड़ी की टिक टिक और हमारे दिल की धड़कन में भी बड़ी समानता है। अगर उधर टिक टिक, तो इधर धक धक। उधर इंतजार की घड़ियां और इधर दिल की धड़कन। इंतजार और अभी, और अभी, और अभी।।

समय देखने के लिए अगर हमारे पास घड़ी है, तो तारीख और तिथि देखने के लिए कैलेंडर और पंचांग।

वेतन के लिए हम तारीख देखते हैं और शुभ मुहूर्त के लिए तिथि और वार। शुभ समय के निर्धारण के लिए घड़ी नहीं, चौघड़िया देखा जाता है। हमारे अच्छे बुरे समय का निर्णय घड़ी से नहीं, काल निर्णय से होता है। सिर्फ अपनी ही नहीं, ग्रहों की दशा भी देखी जाती है।

दिन रात बदलते हैं,

हालात बदलते हैं।

साथ साथ मौसम के

फूल और पात बदलते हैं:

और कैलेंडर भी हर साल बदलते हैं।।

नए कपड़ों की ही तरह लोग नए वर्ष की भी खुशी मनाते हैं। कोई जीन्स पहन रहा है तो कोई धोती कुर्ता ! यह साल मेरा नहीं। हिंदू तिथि और पंचांग वाला साल मेरा है। खुशी तो खुशी है, वक्त क्या तेरा मेरा। जन्म मरण कहां चौघड़िया और कैलेंडर देखते हैं। हां, जन्म तो फिर भी तारीख, तिथि और मुहूर्त से होने लग गया है। सिजेरियन जिंदाबाद। जो भविष्य दृष्टा होते हैं, उनकी बात और है, आम आदमी के लिए तो आज भी जिंदगी एक पहेली ही है और मौत अंतिम सत्य।

आपको आपका नव वर्ष मुबारक चाहे वह अब वाला हो या आगामी ९ अप्रैल २०२४ चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि। गया दिसंबर आई जनवरी। हो सकता है सभी हिंदू उत्सव इस बार २२ जनवरी को ही धावा बोल दें। असली काउंट डाउन तो यही है। जब वक्त ठहर जाएगा, इतिहास बदल जाएगा और इस देश में फिर से रामराज्य की स्थापना हो जाएगी। शायद अच्छे समय और अच्छी घड़ी की यह जुगलबंदी हो। नेपथ्य में कहीं से तथास्तु की ध्वनि कानों में पड़ रही है।

Be it so ! शुभ शुभ सोचें स्वागत नव वर्ष २०२४ …..

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 250 ☆ आलेख – रामचरित मानस में स्थापत्य एवं वास्तु शास्त्रीय वर्णन – भाग-1 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेख की शृंखला – “रामचरित मानस में स्थापत्य एवं वास्तु शास्त्रीय वर्णन” का पहला भाग।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 250 ☆

? आलेख – रामचरित मानस में स्थापत्य एवं वास्तु शास्त्रीय वर्णन – भाग-1 ?

रामचरित मानस विश्व का ऐसा महान ग्रंथ है, जिसे शोध कीजिस दृष्टि से देखा जावे, तो अध्येता इतना कुछ पाता है, कि वह उसे चमत्कृत कर देने को पर्याप्त होता है। रामचरित मानस की मूल कथा में अयोध्या, जनकपुर, लंका, चित्रकूट, नन्दीग्राम, श्रंगवेरपुर, किष्किंधा, कैकेय, कौशल आदि नगरों, राज्यों का वर्णन मिलता है। रामजन्म भूमि प्रकरण की राष्ट्रीय ज्वलंत समस्या के निराकरण हेतु न्यायालय के आदेश पर, इन दिनों भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के विशेषज्ञ, अयोध्या के विवादित स्थल पर उत्खनन कार्य कर रहे है। सारा देश इस उत्खनन के परिणामों की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस अवधपुरी का वर्णन करते हुए लिखा है:-

 अयोध्या

बंदऊ अवधपुरी अति पावनि । सरजू सरि कालि कलुष नसावनि ॥ (प्रसंग : वन्दना)

बालकाण्ड 1/16

 अवधपुरी सोइहि एहि भाँती । प्रभुहि मिलन आई जनु राती ॥ (प्रसंग : रामजन्म)

 बालकाण्ड 2/195

 इसी तरह रामविवाह के प्रसंग में भी अयोध्या का वर्णन मिलता है –

 जद्यपि अवध सदैव सुहावनि । रामपुरी मंगलमय पावनि ॥ तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई ॥

 बालकाण्ड 3/296

इसी प्रसंग में गोस्वामी जी लिखते है कि रामविवाह की प्रसन्नता में, माँ सीता के नववधू के रूप में स्वागत हेतु अयोध्यावासियों ने अपने घर सजा कर अपनी भावनायें इसी तरह अभिव्यक्त की।

मंगलमय निज-निज भवन, लोगव्ह रचे बनाई । बीथी सींची चतुर सम, चौके चारू पुराई ।।

बालकाण्ड 296 राजा दशरथ के देहान्त एवं राम वन गमन के प्रसंग में भी अयोध्या के राजमहल का वर्णन मिलता है :-

गए सुमंत तब राउर माही। देखि भयावन जातं डेराहीं ॥ (राउर अर्थात राजमहल)

 अयोध्या काण्ड 2/38

अयोध्या का नगर एवं प्रासाद वर्णन पुनः उत्तर काण्ड में मिलता है, जब श्रीर। म वनवास से लौटते है।

बहुतक चढ़ी अटारिन्ह निरखहिं गगन विमान । देखि मधुर सुर हरषित करहि सुमंगल गान ॥

उत्तरकाण्ड /3 ख

जद्यपि सब बैकुण्ठ बखाना । वेद पुरान विदितजग जाना । अवधपुरी सम प्रिय नहीं सोऊ । यह प्रसंग जानड़ कोऊ कोऊ ॥

उत्तरकाण्ड 2/4

 जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि । उत्तर दिसि बह सरजू पावनि ।

उत्तरकाण्ड 3/4

रामराज्य के वर्णन के प्रसंग के अंतर्गत भी अवधपुरी के भवनों, सडकों, बाजारों का विवरण मिलता है।

जातरूप मनि रचित अटारी । नाना रंग रूचिर गच ढारी ॥

पुर चहुं पास कोट अति सुन्दर । रचे कंगूरा रंग-रंग वर ।।

स्वर्ण और रत्नों से बनी हुई अटारियां है। उनमें मणि, रत्नों की अनेक रंगों की फर्श ढली है। नगर के चारों ओर सुन्दर परकोटा है। जिस पर सुन्दर कंगूरे बने है।

नवग्रह निकर अनीक बनाई । जनु घेरी अमरावति आई ।।

मानों नवग्रहों ने अमरावति को घेर रखा हो।

धवल धाम ऊपर नग चुंबत । कलस मनहुं रवि ससि दुति निंदत ॥ उज्जवल महल ऊपर आकाश को छू रहें है, महलों के कलश मानो सूर्य-चंद्र की निंदा कर रहे है, अर्थात उनसे ज्यादा शोभायमान है।

छंद-

मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरी विदुम रची ।

मनि खंब भीति, विरचि विरचि कनक मनि मरकत खची । 

सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रूचिर फटिक रचे ।

प्रति द्वार-द्वार कपाट पुरट बनाई बहु बजहिं खचे ॥

घरों में मणियों के दीपक हैं। मूंगों की देहरी है। मणियों के खम्बे है।

पन्नों से जड़ित दीवारें ऐसी है, मानों उन्हें स्वयं ब्रम्हा जी ने बनाया हो। महल मनोहर और विशाल है। उनके आगंन संगमरमर के है। दरवाजे सोने के हीरे लगे हुये है।

चारू चित्रसाला गृह-गृह प्रति लिखे बनाई । राम चरित जे निरख मुनि, ते मन लेहि चौटाई ॥

सुमन बाटिका सबहि लगाई । विविध शाति करि जतन वनाई ।।

घर-घर में सुन्दर चित्रांकन कर राम कथा वर्णित है। सभी नगरवासियों ने घरों में पुष्प वाटिकायें भी लगा रखी है।

छंद-

बाजार रूचिर न बनई बटनत वस्तु बिनु गश्च पाइये । जहं भूप रमानिवास तहं की संपदा किमि गाइये ।

बैठे बजाज, सराफ बनिक, अनेक मनहुं कुबेर ते । सब सुखी, सब सच्चरित सुंदर, नारि नर सिसुजख ते ॥

सुन्दर बाजारों में कपड़े के व्यापारी, सोने के व्यापारी, वणिक आदि इस तरह से लगते है, मानो कुबेर बैठे हों। सभी सदाचारी और सुखी है। इसी तरह सरयू नदी के तट पर स्नान एवं जल भरने हेतु महिलाओं के लिए अलग पक्के घाट की भी व्यवस्था अयोध्या में थी –

दूरि फराक रूचिर सो घाटा, जहं जल पिअहिं बाजि गज ठाटा ।

पनिघट परम् मनोहर नाना, तहाँ न पुरूष करहि स्नाना ॥

उत्तरकाण्ड 1/29 जल व्यवस्था हेतु बावड़ी एवं तालाब भी अयोध्या में थे । सार्वजनिक बगीचे भी वहाँ थे।

पुट शोभा कछु बरनि न जाई । बाहेर नगर परम् रूचिराई ।

देखत पुरी अखिल अध भागा । बन उपबन बाटिका तड़ागा ।।

उत्तरकाण्ड 4/29 इस प्रकार स्थापत्य की दृष्टि से अयोध्या एक सुविचारित दृष्टि से बसाई गई नगरी थी। जहाँ राजमहल बहुमंजिले थे। रनिवास अलग से निर्मित थे। रथ, घोड़े, और हाथियों के रखने हेतु अलग भवन थे। आश्रम और यज्ञशाला अलग निर्मित थी। पाकशाला अलग बनी थी। शहर में पक्की सड़कें थी। आम नागरिकों के घरों में भी छोटी सी वाटिका होती थी। घर साफ सुथरे थे, जिनकी दीवारों पर चित्रांकन होता था। शहर में सार्वजनिक बगीचे थे। जल स्रोत के रूप में बावड़ी, तालाब, स्त्री एवं पुरुषों हेतु अलग-अलग पक्के घाट एवं कुंए थे। ऐसा वर्णन तुलसीदास जी ने किया है।

 जनकपुरी :-

मानस में वर्णित दूसरा बड़ा नगर मिथिला अर्थात जनकपुरी है। जिसका वर्णन करते हुये गोस्वामी जी ने लिखा है कि –

बनई न बरनत नगर निकाई । जहाँ जाई मन तहंड लाभाई ॥

 उत्तरकाण्ड 1/213

जनकपुर का वर्णन धनुष यज्ञ एवं श्रीराम सीता विवाह के प्रसंग में सविस्तार मिलता है।

जनकपुर में बाजार का वर्णन :-

धनिक बनिक वर धनद समाना । बैठे सकल वस्तु लै नाना ।

चौहर सुंदर गली सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई ॥

अर्थात यहाँ चौराहे, सड़के सुंदर है, जिनमें सुगंध बिखरी है। सुव्यवस्थित बाजारों में वणिक विभिन्न वस्तुयें विक्रय हेतु लिये बैठे है।

मंगलमय मंदिर सब केरे । चित्रित जनु रतिनाथ चितेरे ।

अर्थात, सभी घरों पर सुंदर चित्रांकन होता था।

भवनों के दरवाजों पर परदे होते थे। किवाड़ों पर सुन्दर नक्काशी और रत्न जड़े होते थे –

सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा । भूप भीर नट मागध भाटा ।

सेनापति, मंत्रिगण आदि के घर भी महल की ही तरह सुन्दर और बड़े थे। घुड़साल, गजशाला, अलग बनी थीं। धनुष यज्ञ हेतु एक सुन्दर यज्ञशाला नगर के पूर्व में बनाई गई थी। जहां लंबा चौड़ा आंगन एवं बीच में बेदी बनाई गई थी। चारों ओर बड़े-बडे मंच बने थे। उनके पीछे दूसरे मकानों का घेरा था। पुष्पवाटिका जहां पहली बार श्रीराम का सीताजी से साक्षात्कार हुआ था, का वर्णन भी गोस्वामी जी रचित मानस में मिलता है। वटिका में मंदिर भी है। बाग के बीचों बीच एक सरोवर है। सरोवर में पक्की सीढ़ियां भी बनी है। इस प्रकार हम पाते है कि स्वयं श्रीराम जिनको चौदहों लोकों का प्रणेता कहा जाता है, जब अपने मानव अवतार में संसारी व्यवहारों से गुजरते है, तो

“मकान” की मानवीय आवश्यकता के अनेक वर्णन उनकी लीला में मिलते है। भगवान विश्वकर्मा, जो देवताओं के स्थापत्य प्रभारी के रूप में पूजित है, जो क्षण भर में मायावी सृष्टि की संरचना करने में सक्षम है, जैसे उन्होनें ही माँ सीता की नगरी बसाई हो, इतनी सुव्यवस्थित नगरी वर्णित है जनकपुर।

क्रमशः… 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 64 – देश-परदेश – नया सवेरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 64 ☆ देश-परदेश – नया सवेरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

जीवन के छै दशक से भी अधिक का काल बीत गया,कान सुन सुन कर पक गए,अब नया सवेरा आयेगा।

जीवन में खुशियां और सुख की बाढ़ आयेगी।

आज फिर एक और अंग्रेज़ी नव वर्ष आरंभ हो रहा हैं।हम प्रतिदिन की भांति तैयार होकर प्रातः भ्रमण के लिए निकल पड़े। मौसम समाचार और व्हाट्स ऐप के माध्यम से प्राप्त सूचनाओं के मद्दे नज़र बंदर टोपी के ऊपर मफलर लपेट लिया,ऊनी मोजे , हाथ में चमड़े के दस्ताने,ओवर कोट के ऊपर लाल इमली,कानपुर वाली पुरष शाल लपेट कर अपनी दिनचर्या का पहला कदम मंजिल की तरफ बढ़ा दिया।

घर के बाहर कोहरे की घनी चादर , खड़े हुए वाहनों पर  ओस की परत देखकर मन में अंतरद्वंद चल रहा था,की लोट चले रजाई में वापिस,कल देखेंगे।

व्हाट्स ऐप के ज्ञान ने हमे हिम्मत और सबल दिया,घर की दहलीज पार कर ली।प्रतिदिन की भांति कुछ लोग कान में यंत्र डाल कर भ्रमण करते हुए दृष्टिगोचर हुए।कुछ नए बरसाती मेंढक भी दिखे, हर नव वर्ष पर दो चार दिन ऐसा ही होता हैं।

एक स्थान पर प्लास्टिक के ग्लास ठंडी हवा मे तांडव करते हुए अवश्य दिखें।एक समाज सुधारक ठेकेदार ने विगत रात्रि मुफ्त गर्म दुग्ध वितरण करवाया था।उनको आगामी लोक सभा में पार्टी के टिकट जो प्राप्त करना हैं।

अगले नुक्कड़ पर कुछ अधिक अंधेरा था,लेकिन दस बारह वर्ष के कुछ बच्चे अंधेरे में कुछ खोज रहे थे।वहां कांच की टूटी बोतलें पड़ी थी।बच्चे साबूत बोतलों को डूंड कर   अपनी पेट की क्षुधा को शांत करने की मुहिम में जीजान से लगें हुए थे।

नए सवेरे की इंतजार में रात्रि के अंधेरे में अवश्य मद्यपान वालों की महफिल सजी होगी।नया सवेरा तो कहीं दिख नहीं रहा था।प्रतिदिन की भांति दो दूध वाले सरकारी नल के पास पानी का इंतजार कर रहे थे।उनके मोबाइल से अवश्य आवाज़ आ रही थी,दूध में कितना पानी मिलाएं ?

भ्रमण से वापसी में घर के पास सफाई कर्मचारी सड़क पर फैले हुए जले हुए पटाखे के कचरे को एकत्र करते हुए,परेशान से दिख रहे थे।

कुछ युवा जो क्षेत्र में कार सफाई का कार्य करते है,आपस में बातचीत करते हुए कह रहे थे,आज पहली तारीख है,गाड़ी अच्छे से साफ करनी पड़ेगी।

ये सब तो प्रतिदिन होता है,वो व्हाट्स ऐप पर हजारों संदेश जो कह रहे थे, कि आज नया सवेरा होगा,आशा की किरण होगी,सब तरफ खुशहाली होगी,खुशियों का समुद्र होगा,कहां हैं,कब होगा ? नया सवेरा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 239 ⇒ उंगलियों का अंकगणित… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उंगलियों का अंकगणित।)

?अभी अभी # 239 ⇒ उंगलियों का अंकगणित… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मैं जब सुबह सोकर उठता हूं, तो अपने ही हाथों का दर्शन कर, दोनों हथेलियों को आपस में रगड़ता हूं, और अपने गर्म हाथों से अपने चेहरे को कोमल स्पर्श द्वारा, एक मां की तरह सहेजता हूं, दुलारता हूं, और ईश्वर का स्मरण करता हूं ;

कराग्रे वसते लक्ष्मी:

करमध्ये सरस्वती।

करमूले तू गोविन्द:

प्रभाते करदर्शनम्।।

ये हाथ अपनी दौलत है, ये हाथ अपनी किस्मत है।

हाथों की चंद लकीरों का

बस खेल है सब तकदीरों का।

जिसे हम हस्त कहते हैं, वही अंग्रेजी का palm है, और हस्तरेखा अथवा Palmistry एक विज्ञान भी है। हमारे जगजीतसिंह तो फरमाते हैं ;

रेखाओं का खेल है मुकद्दर

रेखाओं से मात खा रहे हो।

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो

क्या गम है जिसको छुपा रहे हो।।

रेखा को ही लकीर भी कहते हैं। हम आज हाथों की नहीं, उंगलियों की लकीरों की बात करेंगे। अगर हमारी पांच उंगलियां नहीं होती, तो क्या हमारा हाथ पंजा कहलाता, क्या हम मुट्ठी बांध और खोल पाते। हमारे हाथ में पांच उंगलियां हैं, जिनमें अंगूठा भी शामिल है।

ज्योतिष का क्या है, हाथों की चंद लकीरें पढ़, शुभ अशुभ के तालमेल के लिए सारे नग उंगलियों की अंगूठी में ही तो आते हैं।

उधर अंगूठे का ठाठ देखो, और thumb impression देखो। नृत्य की मुद्रा, और योग में भी मुद्रा का महत्व उंगलियों की उपयोगिता को सिद्ध करता ही है, इन्हीं उंगलियों पर लोग नाचते और नचाते भी हैं।।

क्या कभी आपने आपकी उंगली पर गौर किया है। हमारी उंगलियों का भी अजीब ही गणित है। हर उंगली में तीन आड़ी लकीरें हैं। यानी ये लकीरें एक उंगली को तीन बराबर हिस्सों में बांटती है। आप चाहें तो इन्हें खाने भी कह सकते हैं। लेकिन मेरे दाहिने हाथ का अंगूठा यहां भी सबसे अलग है, उसमें तीन नहीं चार खाने हैं।

आपने कभी उंगलियों पर हिसाब किया है ! अवश्य किया होगा। लोग तो छुट्टियाँ भी उंगलियों पर ही गिन लेते हैं। सप्ताह में सात दिन हमने उंगलियों पर ही याद किए थे और दस तक की गिनती भी।

बहुत काम आती हैं ये उंगलियां जब कागज कलम नहीं होता।।

जब आज की तरह मोबाइल और कैलकुलेटर नहीं था, तब सब्जी का हिसाब उंगलियों पर ही किया जाता था। दूध के हिसाब के लिए तो कैलेंडर जिंदाबाद।

इन उंगलियों का उपयोग मंत्र जपने के लिए भी किया जा सकता है। आपके एक हाथ की उंगलियों में देखा जाए तो पंद्रह मनके हैं, यानी दो हाथ में तीस। याद है बच्चों को एक से सौ तक की गिनती भी इसी तरह सिखाई जाती थी। रंग बिरंगे प्लास्टिक के मोती एक स्लेटरूपी तार के बोर्ड में पिरो दिए जाते थे।

क्या क्या याद नहीं किया जा सकता इन उंगलियों पर, मत पूछिए। अभी कितने बजे हैं, रात के सिर्फ दो। यानी सुबह होने में, और उंगलियों पर गिनती शुरू, तीन, चार, पांच, छः, यानी बाप रे, चार घंटे कैसे कटेंगे। फिर कोशिश करते हैं, शायद आंख लग जाए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 218 ☆ चिंतन – “विपक्ष की भूमिका में व्यंग्यकार” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक चिंतनीय आलेख – “विपक्ष की भूमिका में व्यंग्यकार”)

☆ चिंतन – “विपक्ष की भूमिका में व्यंग्यकार☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

हमें ऐसा लगता है कि व्यंग्य कभी भी कहीं भी हो सकता है बातचीत में, सम्पादक के नाम पत्र में, कविता और कहानी आदि में भी। व्यंग्य लिखने में सबसे बड़ी सहूलियत ये है कि “जैसे तू देख रहा है वैसे तू लिख”।

समसामयिक जीवन की व्याख्या उसका विश्लेषण  उसकी सही भर्त्सना एवं विडम्बना के लिए व्यंग्य से बड़ा कारगर हथियार और कोई नहीं। समाज में फैली विषमता, राजनीति में व्याप्त ढकोसला, भ्रष्टाचार, दोगलापन आदि सहन नहीं होता तो व्यंग्य लिखा जाता है। जो गलत या बुरा लगता है उस पर मूंधी चोट करने व्यंग्य बाण छोड़े जाते हैं और कहीं न कहीं से लगता है कि व्यंग्यकार की कलम ईमानदार, नैतिक और रुढ़ि विरोधी को नैतिक समर्थन दे रही है। इसलिए हम कह सकते हैं कि व्यंग्य साहित्य की ही एक विधा है।

साहित्य में व्यंग्य की पहले शूद्र जैसी स्थिति थी, कहानीकार, कवि आदि व्यंग्य को तिरस्कृत नजरों से देखते थे, पत्रिकाएं व्यंग्य से परहेज़ करतीं थीं, पर अब व्यंग्य का दबदबा हो चला है परसाई ने लठ्ठ पटककर व्यंग्य को ऊपर बैठा दिया है, व्यंग्य की लोकप्रियता को देखकर आज कहानीकार, कवि जो व्यंग्य से चिढ़ते थे ऐसे अधिकांश लोग व्यंग्य की शरण में आकर अपना कैरियर बनाने की ओर मुड़ गए हैं।

पाठक अब कहानी के पहले व्यंग्य पढ़ना चाहता हैं, क्योंकि आम आदमी समाज में फैली विषमता, राजनीति में व्याप्त ढकोसला, भ्रष्टाचार, दोगलापन, पाखण्ड और केंचुए की प्रकृति के लोगों के चरित्र को देखकर हैरान हैं,जो पाठक व्यक्त नहीं कर पाता है वह व्यंग्य पढ़कर महसूस कर लेता है। व्यंग्य समाज को बेहतर से बेहतर बनाने की सोच के साथ काम करता है। इसीलिए माना जाता है कि समाज और साहित्य में  व्यंग्य की भूमिका बहुत महत्व रखती है।जब लोकतंत्र को खत्म करने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ताले लगाए जाते हैं, प्रेस और मीडिया बिक जाते हैं तो व्यंग्य और व्यंग्यकार की भूमिका अहम हो जाती है।  व्यंग्यकार अपने व्यंग्य से जनता के बीच चेतना जगाने का काम करता है,समाज में जाग्रति फैलाता है और विपक्ष की भूमिका में नजर आता है, पर इन दिनों नेपथ्य में चुपचाप कुछ यश लोलुप, सम्मान के जुगाड़ू लोग शौकिया व्यंग्यकारों की भीड़ इकट्ठी कर चरवाहा बनकर भेड़ें हांक रहे हैं और व्यंग्य को फिर शूद्र बनाने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं, उन्हें समाज और सामाजिक सरोकारों से मतलब नहीं है वे पहले अपने नाम और फोटो से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने में तुले हैं,समाज और साहित्य के लिए ये स्थितियां घातक हो सकतीं हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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