(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उंगली कटा के शहीद”।)
अभी अभी # 209 ⇒ उंगली कटा के शहीद… श्री प्रदीप शर्मा
मुझे उंगली कटा के शहीद होने का कोई शौक नहीं, लेकिन मेरे हर शुभ अशुभ, अच्छे बुरे, और खरे खोटे काम में, मेरी समस्त उंगलियों का योगदान अवश्य रहता है। स्वावलंबी होने के कारण, मैं अपने समस्त काम अपने हाथों से ही करता हूं, क्योंकि ये हाथ हमारी ताकत ही नहीं, अपना हाथ जगन्नाथ भी है। हाथों की इस मजबूती ही ने गब्बर को यह कहने पर मजबूर कर दिया था, ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर।
और भूलिए मत, ठाकुर ने क्या कहा था, तेरे लिए तो मेरे पांव ही काफी हैं गब्बर ! यानी हाथ पांव हैं, तो हम हैं। क्या हम इन हाथ पाॅंवों की कल्पना पाँचों उंगलियों के बिना भी कर सकते हैं। यहां ना तो हम यह कहना चाहते हैं कि उंगली टेढ़ी किए बिना घी नहीं निकलता अथवा किसी के सामने घुटना टेकने वाले से तो एक स्वाभिमानी अंगूठा छाप ही
भला। फिर भी सच तो यह है कि अंगूठे की असली कीमत तो एक द्रोणाचार्य जैसा गुरु ही जानता है।।
मुझे अपनी पाॅंचों उंगलियों पर गर्व है, इसलिए नहीं कि वे सदा घी में रहती हैं, लेकिन इसलिए, क्योंकि आपस में बराबर नहीं होते हुए भी उनमें गजब की एकता और एकजुटता है।
जब भी कोई काम करना होता है, पांचों उंगलियां मुट्ठी बांध लेती हैं, और काम तमाम करके ही छोड़ती हैं।
क्या आप अपने हाथ से कोई भी काम, बिना उंगलियों की सहायता के कर सकते हैं। कलम हो या हथौड़ा, अगर उंगलियां सहयोग ना करे तो इंसान क्या करे। मुझे खेद है कि इस स्वार्थी संसार ने सारा श्रेय इन हाथों को तो दिया है, लेकिन इन उंगलियों की कभी तारीफ नहीं की।।
लेकिन जहां किसी भी काम में हाथ डालो, बदनाम बेचारी ये उंगलियां ही होती हैं। रहने दो, फालतू में उंगली मत करो। फिर भी, दिल है कि, उंगली किए बिना मानता नहीं। एक सुबह हमने भी एक काम में उंगली डाली, और उंगली कटा बैठे। बस उंगली में थोड़ा सा कटने का अहसास हुआ, और तत्काल खून टपकने लगा।
ऐसा लगा, किसी ने पानी का नल खुला छोड़ दिया है।
यह वक्त उंगली कटा के
शहीद होने का नहीं होता, बहते खून को थामने का होता है। कटी उंगली को मुंह में रखकर अपना ही खून चूसना, एक सात्विक ना सही, लेकिन स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, जिसके पश्चात् ही प्राकृतिक चिकित्सा प्रारंभ होती है।।
हमारी पीढ़ी के चक्कू और ब्लेड से पेंसिल छीलने वाले बच्चे, अक्सर अपनी उंगली कटा लेते थे। वह जमाना कहां शार्पनर और इरेजर
का था, और कौन हर आए दिन उंगली करने पर एंटी टेटनस का इंजेक्शन लगवाता फिरे। बोरोलिन और बोरोप्लस ने आजकल हल्दी का स्थान ले लिया है, जिससे सैप्टिक की संभावना भी क्षीण हो जाती है।
एक कटी उंगली पूरे शरीर का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। पूरे शरीर को यह अहसास हो जाता है, कि शरीर का कोई अंग उंगली कटाकर शहीद हुआ है। लेकिन जब यह खबर मस्तिष्क तक पहुंच जाती है, तो वह इसे एक जुमला मानकर खारिज कर देता है। किसी की खातिर भले ही सर कटाएं, लेकिन जरा भी शोर ना हो। महज उंगली काटकर शहीद बनने का नाटक ना करें।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “M R I (अमीराई)”।)
अभी अभी # 208 ⇒ M R I (अमीराई)… श्री प्रदीप शर्मा
अमराई आम के बाग को कहते हैं। आम सबके लिए है लेकिन MRI, Magnetic resonance imaging अथवा जिसे आप चुंबकीय अनुनाद इमेजिंग, भी कह सकते हैं, एक ऐसी जांच, उन खास लोगों के लिए है, जो इसकी कीमत अदा कर सकते है।
एक समय था, जब कुशल वैद्य केवल नाड़ी देखकर बीमारी का पता लगा लेते थे। लक्ष्मण की मूर्च्छा के वक्त भी दुश्मन के सुषैण वैद्य द्वारा नाड़ी देखकर बताई गई संजीवनी बूटी ही काम आई थी। आजकल वैद्यराज नहीं, मशीनें यह काम करती है। सी टी स्कैन और M R I जैसी जांच के बाद उपचार आसान हो जाता है। जब तक हम ज़िंदा हैं, हम अमर हैं। आज के युग में M R I अमीराई से कम नहीं।।
जांच के अभाव में आज भी कई लोग गंभीर बीमारियों से ग्रसित हो, जीवन से हाथ धो बैठते हैं। एक समय था, जब पोलियो, हैजा और कुष्ट रोग का इलाज आसानी से संभव नहीं था। एक महामारी कितने ही मासूमों की जान ले बैठती थी। पल्स पोलियों ड्रॉप और हेपेटाइटिस बी के वैक्सीन जहां मानवता के लिए वरदान है, वहीं कैंसर जैसी बीमारी से चिकित्सा विज्ञान आज भी जूझ रहा है। covid-19 के वैक्सीन के अभाव में कितने ही लोग अपनी जान गंवा बैठे।
इंसान की जान कीमती है, लेकिन इलाज उससे भी ज़्यादा महंगा है।
एक पुरानी कहावत है, भगवान सबको वकील और अदालत के चक्कर से बचाए। आजकल वही हालत डॉक्टर्स की हो गई है। लेकिन डॉक्टर बिना चैन कहां रे! एक उम्र के बाद तो हर छ: माह में रूटीन जांच करवाते रहने की सलाह दी जाती है। फिर भी अस्पताल कम पड़ रहे है, मरीजों की संख्या बढ़ती चली जा रही है। केवल मेरी दो आंखों के लिए मेरे आसपास पांच किलोमीटर में दस आंख के अस्पताल हैं। लेकिन जहां जाओ, वहां भीड़ ही भीड़।।
अगर अमर होना है, तो पहले अमीर बनो। अगर गरीब हो तो बीमार पड़ने पर M R I और सी टी स्कैन जैसी जांचें कैसे करवाओगे। मैं इतना गरीब भी नहीं कि कहीं से बी पी एल कार्ड कबाड़ लूं और अपनी पत्नी का इलाज महंगे अस्पतालों में करवा लूं। डॉक्टर ने एक M R I जांच करवाने का क्या लिखा, पहुंच गए डायग्नोस्टिक सेंटर खीसे में दस हज़ार भरकर। दुनिया हमसे दो कदम आगे ही चलती है। वहां बोला गया साढ़े बारह हजार रूपए जमा करवा दो जांच के। जांच लंबी चौड़ी है। डेबिट कार्ड ने स्थिति संभाल ली।
एक M R I रिपोर्ट ने मेरी पत्नी की बीमारी की नस पकड़ ली। अब डॉक्टर आसानी से दवाओं की संजीवनी विद्या से उपचार कर पाएगा। बीमार को जो बीमारी से छुटकारा दिलवाने में मदद करे वह विद्या अमराई अर्थात अमरत्व प्रदान करने वाली सी टी स्कैन और M R I जांच। ईश्वर ने हमारी सांसें गिनकर भेजी हैं, संभलकर, संभालकर खर्च करें।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “राजनीति और व्यंग्य“।)
अभी अभी # 207 ⇒ राजनीति और व्यंग्य… श्री प्रदीप शर्मा
राजनीति एक शास्त्र है और व्यंग्य एक सहित्यिक विधा ! जो कभी शास्त्र था, वह एक शस्त्र कब से बन गया, कुछ पता नहीं चला। वैसे तो अरस्तु को राजनीति शास्त्र का जनक माना जाता है, लेकिन भारत के संदर्भ में चाणक्य पर आकर सुई अटक जाती है। कौटिल्य शब्द से ही कूटनीति टपकती है, और कौटिल्य के अर्थ-शास्त्र के बिना सभी शास्त्र अधूरे हैं।
विडंबना देखिये, अर्थशास्त्र पर अर्थ हावी हो गया, और राजनीति शास्त्र पर राजनीति। बुद्धि पर बुद्धिजीवी भारी पड़ गया और ज्ञान पर ज्ञानपीठ। और व्यंग्य जो शास्त्र नहीं था, हास्य की पगडंडियों से चलता चलता साहित्य की प्रमुख धारा में शामिल हो गया। अगर कल का राजनीति शास्त्र आज अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित है, तो व्यंग्य भी किसी ब्रह्मास्त्र से कम नहीं।।
कितने दुःख का विषय है, राजनीति से व्यंग्य है, और तो और व्यंग्य में राजनीति भी है, लेकिन राजनीति में आज व्यंग्य का नितांत अभाव है। याद आते हैं वे दिन जब संसद में ज़ोरदार बहस होती थी, शायरी होती थी, नोंकझोंक होती थी, हंगामे भी होते थे, लेकिन किसी का अपमान नहीं होता था। शून्यकाल में बहस चलती थी। प्रश्नोत्तर काल में मंत्री महोदय पर विपक्ष द्वारा प्रश्नों की बौछार कर दी जाती थी। सत्ता से अधिक लोगों में विपक्ष के लिए सम्मान था।
यूँ कहने को तो व्यंग्य और राजनीति का चोली दामन का साथ है, लेकिन दोनों की आपस में बोलचाल तक बंद है। व्यंग्य बंद कमरे में फलता-फूलता है, राजनीति सड़क पर उतर आती है। व्यंग्य पर कोई कीचड़ नहीं उछाल सकता, लेकिन अगर किसी व्यंग्यकार ने राजनीति पर कीचड़ उछाला, तो यह आपे में नहीं रहती। राजनीति को नहीं दोष परसाई।।
राजनीति में पार्टी होती है, हर पार्टी का झंडा होता है, नेता होता है, पार्टी का कोई नाम होता है। व्यंग्य इस बारे में बहुत कमजोर है। उसके पास कोई नाम नहीं, नेता नहीं, झंडा नहीं, कोई नारा नहीं। वह विघ्नसन्तोषी है ! नेता, नारे, पार्टी और झंडे किसी को वह नहीं बख्शता। अतः उसे समाज में वह सम्मान प्राप्त नहीं होता जो राजनीति को होता है।
जनता नेता की दीवानी होती है, किसी व्यंग्यकार की नहीं। हमारा व्यंग्यकार कैसा हो, परसाई जैसा हो, कोई नहीं कहता।
गुटबाजी और अवसरवाद राजनीति और व्यंग्य में समान रूप से हावी है। वंशवाद के बारे में व्यंग्यकार पूरा कबीर है। कमाल के पूत होते हैं उसके ! एक व्यंग्यकार का लड़का कितना भी बड़ा हो जाए, अपने पिता के जूते में पाँव डालना पसंद नहीं करता। राजनीति में तो पूत के पाँव पालने में ही नज़र आ जाते हैं।।
शेक्सपियर के शब्दों में राजनीति और व्यंग्य Strange bedfellows हैं। राजनीति का काम व्यंग्य के बिना आसानी से चल जाता है, लेकिन व्यंग्य को राजनीति की बैसाखी की ज़रूरत पड़ती है। लेकिन व्यंग्यकार जब उसी बैसाखी से राजनीति की पिटाई कर देता है, तो बात बिगड़ जाती है। मेरी बिल्ली मुझ पर म्याऊँ ! लेकिन बिल्ली बड़ी चालाक है। वह किसी के टुकड़ों पर नहीं पलती। जहाँ भी मलाई मिलती है, मुँह मार लेती है।
ज़िन्दगी में हास परिहास हो, व्यंग्य विनोद हो ! राजनीति में कटुता समाप्त हो। सहमति-असहमति का नाम ही पक्ष-विपक्ष है। घर घर में विवाद होते हैं, कहासुनी होती है, स्वभावगत विरोध भी होते हैं। लेकिन जब गृहस्थी की गाड़ी आसानी से चल सकती है, तो राजनीति की क्यों नहीं। सत्ता और विपक्ष लोकतंत्र के दो पहिये हैं। दोनों समान रूप से मज़बूत हों। राजनीति में जब व्यंग्य का समावेश होगा, तब ही यह संभव है। आईना साथ रखें। किसी को आइना दिखाने के पहले अपना मुँह देखें।।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेख – डीप फेक है यह दुनियां ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 242 ☆
आलेख – डीप फेक है यह दुनियां
शाश्वत सत्य तो यह है कि यह दुनियां ही डीप फेक है, ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या। पर अब आँखों देखी, कानों सुनी पर भरोसे का जमाना लद गया। नया जमाना डीप फेक एडिटिंग से आभासी दृश्य को यथार्थ के स्तर का बना कर पाठ, चित्र, ऑडियो और वीडियो उत्पन्न करने का है। साफ्टवेयर के खतरनाक अनुप्रयोगों में से एक डीप फेक है। सिंथेटिक मीडिया टेक्नीक का उपयोग किसी व्यक्ति के चेहरे या आवाज़ को दूसरे व्यक्ति से स्वैप कर बदलने का विज्ञान डीप फेक तकनीक है। असल और नकल में से अब असल का पता लगा पाना कठिन होता जा रहा है। साइबर अपराधी इस तरह के आडियो वीडीयो बनाने के लिये कृत्रिम बुद्धिमत्ता तकनीक का इस्तेमाल करते हैं। अब वीडीयो साक्ष्य बेमानी हो चले हैं। डीप फेक भरोसे की धज्जियां उड़ा रही तकनीक है। उतावलेपन, धन के लिये किसी भी स्तर तक अमर्यादित व्यवहार और इंटरनेट पर गुमशुदा पहचान की सुविधा के चलते असम्पादित वीडियो के दुष्प्रचार से व्हाट्सअप भरा पड़ा है। हर मोबाईल में जाने अनजाने टनो में ऐसा कूड़ा ओवर लोड है। जब तक किसी पर विश्वास करो उसका खण्डन आ जाता है, अविश्वसनीयता चरम पर है।
सबसे पहले 2017 में इस तरह के एक फर्जी अनाम उपयोगकर्त्ता ने खुद को “डीप फेक” लिख कर नेट पर प्रस्तुत किया था। उस अनाम इंटरनेट उपयोगकर्त्ता ने अश्लील वीडियो बनाने और पोस्ट करने के लिये गूगल की ओपन-सोर्स, डीप-लर्निंग तकनीक में हेरफेर किया था। तब से यह हेरा फेरी डीप फेक ही कही जाने लगी। घोटाले और झाँसे, सेलिब्रिटी पोर्नोग्राफी, चुनाव में हेर-फेर, सोशल इंजीनियरिंग, स्वचालित दुष्प्रचार के हमले, पहचान की चोरी और वित्तीय धोखाधड़ी आदि जैसे गलत उद्देश्यों के लिये डीप फेक का भरपूर दुरुपयोग अब बहुत आम हो चला है। डीप फेक तकनीक का उपयोग पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, डोनाल्ड ट्रंप, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आदि ख्यात लोगों तक के मीम वीडियो बनाने के लिये हो चुका है। डीप फेक से बनाई गई कितनी ही अभिनेत्रियों की अश्लील तस्वीरें और वीडियो से इंटरनेट भरा हुआ है।
डीप फेक के माध्यम से दुष्प्रचार के प्रसार को रोकने के लिये एक अद्यतन आचार संहिता अब जरूरी है। यदि विश्वसनीयता को जिंदा रखना है तो गूगल, मेटा, इंस्टा, ट्विटर सहित सोशल मीडीया तकनीकी प्लेटफॉर्म पर डीप फेक और फर्जी खाते का मुकाबला करने के सघन उपाय करने की आवश्यकता है। डीप फेक से जुड़े मुद्दों को हल करने के लिये समाज में मीडिया साक्षरता में जागरूखता लाने और निरंतर सुधार करते रहने की आवश्यकता है, क्योंकि डीप फेक तू डाल डाल मैं पात पात वाली तकनीक है। दुनियां भर में सबको इसके सकारात्मक उपयोग खोजने होंगे और नकारात्मक पहलुओ पर विराम लगाते रहना होगा। फैक्ट चैक रिसर्च अब एक नया व्यवसाय बन गया है।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “COVID Returns” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 59 ☆ देश-परदेश – COVID Returns ☆ श्री राकेश कुमार ☆
इससे पहले कि बॉलीवुड का कोई फिल्म निर्माता इस नाम से अपनी फिल्म का टाइटल रजिस्टर्ड करवाए, हम अपना लेख सुरक्षित कर लेना चाहते हैं।
हमारे देश में विगत तीन दिन से गूगल में कोविड के पुराने वायरल वीडियो सबसे अधिक डाउनलोड किए गए हैं। व्हाट्स ऐप/मुखग्रंथ और क्या ट्विटर ऐसे मैसेजों की सुनामी आ गई है।
राई का पहाड़ बनाने में हमारे देशवासियों का पूरे विश्व में कोई सानी नहीं है। शायद यूएनओ ने भी इसको मान लिया होगा।
हमने भी इस बाबत युद्ध स्तर पर तैयारी आरंभ करते हुए नाक/मुंह छिपाने वाले मास्क के पुराने स्टॉक की खोजबीन में पाया बहुत सारे मास्क तो जूते साफ करने में कार्यरत हैं, और कुछ एक दूसरे से जोड़कर कपड़े सुखाने की रस्सी का रोल निभा रहे हैं।
कमांडो कार्यवाही करते हुए रस्सी को खोलकर कुछ मास्क तो पुनः उपयोग लायक कर लिए गए हैं।
हैंड सैनिटाइजर नामक तरल पदार्थ की प्लास्टिक बॉटल में सरसों का तेल भरा हुआ मिला, जाड़े के मौसम में सीमित उपलब्ध साधनों से अधिकतम सदुपयोग करने में भी भारतीय नारी का कोई जवाब नहीं हैं।
काढ़ा बनाने में लगने वाला कच्चे मॉल के भावों में वृद्धि आसमान छू चुकी हैं। सब्जी मंडी से अदरक ऐसे गायब हो गई है, जैसे गधे के सिर से सींग चले गए थे।
बैंक से पेंशन लोन उठाकर तीन माह का अग्रिम राशन से भी घर भर दिया है,ताकि लॉक डाउन की स्थिति में भूखे ना रहना पड़ जाए।
घर के पास में एक छोटा सा नर्सिंग होम है, कोविड की प्रथम और द्वितीय लहर के समय उसने पास के एक और मकान को किराए पर लेकर एक्सटेंशन काउंटर खोल कर मोटी रकम हज़म कर ली थी।
नर्सिंग होम के मालिक ने पुनः उस मकान मालिक से किराए पर मकान ले लिया है। इसको अंग्रेजी में प्रोएक्टिव संज्ञा से नवाजा जाता है। कार्यालयों में भी प्रोएक्टिव कर्मचारियों की बड़ी मांग रहती है। किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए इस प्रकार की योग्यता का होना आवश्यक होता है, इसी के तहत अपने समूह के लिए कोविड वापसी की तैयारी का लेख प्रेषित कर रहा हूँ।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मंगती बिल्ली”।)
अभी अभी # 206 ⇒ मंगती बिल्ली… श्री प्रदीप शर्मा
बिल्ली यों तो कहने को शेर की मौसी है, लेकिन स्वभाव से बड़ी डरपोक होती है।
चोरी जरूर करती है, लेकिन कभी सीना जोरी नहीं करती। यहां वहां दुबक कर पड़े रहने वाले इस प्राणी की गिनती आवारा पशुओं में नहीं होती। कचरे में मुंह मारने की अपेक्षा यह दूध और मलाई में ही मुंह मारना पसंद करती है।
यह कुत्ते की तरह कभी भौंकती नहीं, तेरी मेरी सभी की बिल्ली, सिर्फ म्याऊॅं ही करती है। एक कुत्ते की तरह यह भी न तो घर की ही है, न किसी घाट की।
वैसे यह जंगली भी हो सकती है, और पालतू भी, लेकिन कुत्ते की तरह स्वामिभक्ति और वफादारी इसके खून में नहीं। यह शातिर भी हो सकती है और मौका आने पर खूंखार भी। फिर भी विदेशों में इसे बड़े शौक से पाला जाता है। ।
यह बड़ी सफाई पसंद होती है। दिन में इसे सिर्फ सड़कों पर लोगों का रास्ता काटते देखा जा सकता है, रात के अंधेरे में यह चूहों का शिकार करने के बहाने आपके घरों में घुसती है, और लगे हाथ दूध पर भी हाथ साफ कर देती है। यह कभी कुत्ते की मौत नहीं मरती। लेकिन निश्चिंत रहिए, हम आपको सोने की बिल्ली वाली कहानी नहीं सुनाने वाले।
बिल्ली एक रहस्यमयी प्राणी है। इसका उपयोग जादू टोने और रामसे ब्रदर्स के भुतहे बंगलों में बहुत हुआ है। लालटेन वाला चौकीदार, पुराने दरवाजे की चरचराहट की आवाज, रात के अंधेरे में चमगादड़, और काली बिल्ली की चमकती डरावनी आंखों के बीच फिल्म गुमनाम का गीत, गुमनाम है कोई, अनजान है कोई, और एक लाश, दर्शकों को डराने के लिए काफी होता था। ।
लेकिन फिर भी शहर में आज भी ऐसे कई मोहल्ले और बस्तियां हैं, जहां घरों में बिल्लियां आजादी से, बेखौफ घूमती हैं। पुराने घरों के जीर्ण शीर्ण कमरों और अनुपयोगी फर्नीचर और सामान के बीच वे ना केवल अपना आशियाना बना लेती हैं, अपितु अपने वंश वृद्धि के लिए भी इस जगह का उपयोग करती रहती हैं।
बड़े प्यारे होते हैं, कुत्ते बिल्ली के बच्चे। जब इंसान बच्चों के साथ बच्चा बन जाता है तो उसकी भेद बुद्धि खत्म हो जाती है। केवल एक नादान बच्चा ही निडर होकर शेर के मुंह में हाथ डाल सकता है। हर इंसान का बच्चा, शेर बच्चा होता है। आखिर शेर का बच्चा भी तो शेर बच्चा ही होता है। ।
एक बार अगर कोई बिल्ली म्याऊं-म्याऊं करती घर में प्रवेश कर गई, तो फिर वह घर की ही होकर रह जाती है। उसका अनुनय विनय अधिकार में परिवर्तित हो जाता है। वह भी घर के अन्य बच्चों की तरह दूध की मांग करने लग जाती है। जो अपने बच्चों से करे प्यार, वह बिल्ली को दूध देने से कैसे करे इंकार। बस इसी तरह एक बिल्ली पालतू बन जाती है, सबकी मुंहलगी बन जाती है।
क्या बिल्ली बेशर्म भी होती है। अभी हाल ही में, एक साधारण से होटल में जब सुबह सुबह हम पोहे लेने गए, तो होटल के बाहर ही एक बिल्ली ने हमारा म्याऊं म्याऊं कहकर स्वागत किया। हम उसे अनदेखा करते हुए अंदर होटल में जाकर बैठ गए। बिल्ली का म्याऊं म्याऊं का राग जारी था। कुछ ही समय में वह हमारे पास अंदर आ गई और शिकायत के अंदाज में म्याऊं करती रही। ।
मान न मान, मैं तेरा मेहमान। होटल का मालिक बैठा है, मांगना है तो उससे मांग। हम तो ग्राहक हैं। लेकिन तब तक तो बिल्ली की आवाज ने पूरी होटल सर पर उठा ली थी। मालिक ने बताया, आज अभी तक दूध नहीं आया है। पहले दूध वाला इसे बाहर दूध देता है, उसके बाद ही होटल में प्रवेश कर पाता है। क्या कहेंगे इसे आप, बेशर्मी, दादागिरी अथवा दैनिक हफ्ता वसूली।
जब तक दूध वाला नहीं आएगा, हर ग्राहक के पास जा जाकर हमारी शिकायत करती फिरेगी। सालों से हिली हुई है, न मार सकते, न भगा सकते। हमारे मुंह से भी निकल ही गया, अच्छी बेशर्म और मंगती बिल्ली पाल रखी है आपने। खैर, दूध वाला नहीं आया सो नहीं आया। हमने काउंटर पर पैसे दिए, और अपना रास्ता नापा। बिल्ली की हमसे शिकायत जारी थी। हमें जाते जाते भी उसकी म्याऊं म्याऊं सुनाई दे रही थी। बेचारी बेशर्म, मंगती बिल्ली !
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 216☆ साक्षात्कार
मुँह अंधेरे यात्रा पर निकलना है। निकलते समय घर की दीवार पर टँगे मंदिर में विराजे ठाकुर जी को माथा टेकने गया। दर्शन के लिए बिजली लगाई। बिजली लगाने भर की देर थी कि मानो ठाकुर जी हँस पड़े। मनुष्य को भी अपनी वैचारिक संकीर्णता पर स्वयं हँसी आ गई।
दिव्य प्रकाशपुंज को देखने के लिए 5-7 वॉट का बल्ब लगाना! सूरज को दीपक दिखाने का मुहावरा संभवत: ऐसी नादानियों की ही उपज है।
नादानी का चरम है, भीतर की ठाकुरबाड़ी में बसे ठाकुर जी के दर्शन से आजीवन वंचित रहना। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि मनुष्य आँखों को खुद ढककर अंधकार-अंधकार चिल्लाता है।
खुदको प्रकाश से वंचित रखनेवाले मनुष्यरूपी प्रकाश की कथा भी निराली है। अपनी लौ से अपरिचित ऐसा ही एक प्रकाश, संत के पास गया और प्रकाशप्राप्ति का मार्ग जानना चाहा। संत ने उसे पास के तालाब में रहनेवाली एक मछली के पास भेज दिया। मछली ने कहा, “अभी सोकर उठी हूँ, प्यास लगी है। कहीं से थोड़ा जल लाकर पिला दो तो शांति से तुम्हारा मार्गदर्शन कर सकूँगी।”
प्रकाश हतप्रभ रह गया। बोला, “जल में रहकर भी जल की खोज?”
मछली ने कहा, “यही तुम्हारी जिज्ञासा का समाधान है। खोज सके तो खोज।”
“खोजी होये तुरत मिल जाऊँ
एक पल की ही तलाश में।
कहत कबीर सुनो भाई साधो,
मैं तो हूँ विश्वास में।।
भीतर के ठाकुर जी के प्रकाश का साक्षात्कार कर लोगे तो बाहर की ठाकुरबाड़ी में स्वत: उजाला दिखने लगेगा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
🕉️ 💥 महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी से आपको शीघ्र ही अवगत कराएंगे। 💥 🕉️
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आसमान से गिरे”।)
अभी अभी # 205 ⇒ आसमान से गिरे… श्री प्रदीप शर्मा
अगर आपके पास पैराशूट नहीं है, और आप आसमान से जमीन पर गिरते हैं, तो आपका तो भगवान ही मालिक है। ऐसी स्थिति में अगर आप जमीन पर गिरने की जगह
खजूर में ही अटक जाएं, तो शायद आप भी खजूर को ही दोष दें, आसमान से गिरे, और खजूर में अटके।
बेचारा खजूर तो नेकी कर, दरिया में भी नहीं डाल सकता क्योंकि बद अच्छा बदनाम बुरा। और खजूर तो पहले से ही बदनाम है;
बड़ा हुआ तो क्या हुआ,
जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं
फल लागे अति दूर।।
इंसान को आसमान से गिरने की कोई चिंता नहीं, हो सकता है उसका जीवन बीमा हो। लेकिन अगर खजूर पर अटक गया तो कौन निकालेगा। कलयुग में खजूर से लंबा तो दशहरे पर रावण बनाया जाता है, आग लगने पर फायर ब्रिगेड बहुमंजिला भवनों से प्रभावित परिवारों को सफलतापूर्वक बचा लेता है, लेकिन बेचारा खजूर मानो कोई पनौती हो।
इसी खजूर के फल को अमीरों के घरों में कितना सम्मान मिलता है। अंग्रेजी में इसे डेट date अथवा date palm कहते हैं। सूखने पर यह सूखा मेवा ही खारक कहलाता है। अगर यही खजूर गरीबों के मेवे बोर की तरह झाड़ियों में उगता तो बकरी के साथ साथ, हर आम और खास के लिए भी आसानी से उपलब्ध हो जाता। वैसे भी अमीरों के फल तो आसमान में ही उगते हैं।।
प्रकृति की गोद में हर प्राणी का वास है। यह वत्सला एक चींटी से लेकर हाथी तक का पूरा खयाल रखती है। बस्ती, जंगल, बर्फ, पहाड़ और रेगिस्तान में भी जीवन व्याप्त है। केवल मनुष्य को छोड़कर किसी प्राणी को प्रकृति से कोई शिकायत नहीं। भले ही दास मलूका अजगर और पंछी को निकम्मा साबित कर दें, कोई अजगर और पंछी इंसान की भांति मंदिर में घंटियाँ बजा, उस दाता से कभी कुछ नहीं मांगता।
यह मनुष्य ही है, जो बंदर से भी दो कदम आगे बढ़ बागों के फूल भी तोड़ता है और फल भी खाता है और फिर कुल्हाड़ी लेकर गुलशन भी उजाड़ देता है।
अपने विशाल महल के खिड़की दरवाजों के लिए वह कितने पंछियों को बेघर करता है, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है और खजूर को दोष देता है, बड़ा हुआ तो क्या हुआ।।
लेकिन वह इतना मूढ़ मति भी नहीं ! उसका स्वार्थ देखिए, जब डूबता है तो तिनके का सहारा लेना भी नहीं भूलता। और जब कोई तिनका भी नसीब नहीं होता, तो पता है, क्या कहता है ;
हम तो डूबेंगे सनम
तुमको भी ले डूबेंगे ….
स्वार्थ और खुदगर्जी के इस पुतले से बचाने के लिए ही प्रकृति कुछ वस्तुएं उसकी पहुंच से दूर रखती है। रेगिस्तान में ऊंट को पीने को पानी और उसकी भूख मिटाने इंसान नहीं जाता।
हाथी का पेट एक इंसान नहीं भर सकता लेकिन एक जानवर कई इंसानों का पेट पालता है।
सुबह सुबह, खजूर खाते हुए मुझे कोई डर नहीं, कि कहीं मैं भी आसमान से गिरकर खजूर में न अटक जाऊं। इसके पहले कि कोई दूसरा आ जाए, क्यों न कुछ और खजूर उदरस्थ कर लिए जाएं।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पलटवार”।)
अभी अभी # 204 ⇒ पलटवार… श्री प्रदीप शर्मा
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यहां वार की पहल नहीं की गई है। पहले किसी और ने वार किया है। पलटवार को आप जवाबी हमला भी कह सकते हैं। यहां हम अहिंसक रहते हुए, केवल मौखिक हमलों की ही चर्चा करेंगे। जो नीति और रणनीति की बातें करते हैं उनकी बात अलग है, क्योंकि उनका ब्रह्म वाक्य ही यह होता है ;
Art of Defence
is to attack.
आपको आश्चर्य होगा, वार भी दो तरह के होते हैं। एक होता है अंग्रेज़ी का वॉर (war) जिसका अर्थ सिर्फ युद्ध होता है, फिर चाहे वह वर्ल्ड वॉर हो अथवा रूस यूक्रेन और इसराइल हमास वॉर।
लेकिन हमारी हिंदी का वार कभी खाली नहीं जाता। सप्ताह में अगर सात दिन होते हैं, तो सात ही वार होते हैं, कोई भी खाली वार हो तो बताइए। बस, एक रविवार की जरूर छुट्टी हो जाती है। भारतीय परिधान साड़ी कितने वार की होती है, गूगल कर लें।।
हमारी भारतीय सनातन संस्कृति में कभी युद्ध नहीं होता, सिर्फ धर्मयुद्ध होता है। जब भी धर्म की हानि होती है, मैं अवतार लेता हूं ;
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
जब तक हम पर युद्ध नहीं थौंपा जाता, हम कभी युद्ध नहीं करते। लेकिन अगर दुश्मन वार करेगा, तो हम उसे दूसरा गाल ऑफर करने से तो रहे। वो क्या कहते हैं उसे, शठे शाठ्यम् समाचरेत् ! यह हमारी नहीं, विदुर नीति है। वार का पलटवार तो कुश्ती में भी होता है, और शास्त्रार्थ में भी।
रामायण और महाभारत सीरियल में कैसे अस्त्र, दिव्यास्त्र और ब्रह्मास्त्र छोड़े जाते थे। इधर से वार तो उधर से पलटवार। बस एक ब्रह्मास्त्र ही लाजवाब था, जिसके आगे नतमस्तक होना पड़ता था। राजनीति तो छोड़िए जनाब, यहां तो हमने लोगों को नजरों के तीर भी कस कसकर मारते देखा है। वैदिक हिंसा की तरह ही इसे भी हिंसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहां तो तीर खाने वाला ही फरियाद करता नजर आता है ;
तीर आंखों से, जिगर के
पार कर दो यार तुम।
जान ले लो, या तो जां को
निसार कर दो यार तुम।।
बचपन में हमने भी बहुत वाकयुद्ध खेला है। बहुत वार और पलटवार किए हैं। उधर से पहला वार, तू चोर। देखिए हम कितने शरीफ, तू महाचोर से ही जवाब दे दिया। लेकिन जब उधर से प्रत्युत्तर में, तेरा बाप चोर, आया तो हमने भी कोई चूड़ियां नहीं पहन रखी थी। हमने भी पलटवार किया, तू गधा, तेरा बाप गधा, तेरा पूरा खानदान चोर। कभी हाथापाई भी होती और कभी बीच बचाव भी। लेकिन कुछ समय बाद, वही, एक दूसरे के गले में हाथ डाले घूम रहे हैं, चोर और महाचोर।
लेकिन अफसोस, इस आज की राजनीति ने तो हमारे बरसों की दोस्ती पर भी डाका डाल दिया है। फेसबुक पर दोस्त बनते हैं, राजनीतिक मतभेद के चलते, और स्वस्थ संवाद के अभाव में ब्लॉक और अनफ्रेंड करने की नौबत आ जाती है।।
रिश्तों में राजनीति, खेल में राजनीति, सामाजिक जीवन में राजनीति। वही वार और पलटवार। अच्छे भले भले मानुस, यानी जैन्टलमैन्स गेम क्रिकेट के मुकाबले को पहले तो धर्मयुद्ध बना दिया और उसके बाद सत्ता और विपक्ष का जो वार और पलटवार शुरू हुआ, वह बंद होने का नाम ही नहीं ले रहा। आप हम कौरव पांडव बने, शकुनि के पासों में उलझे हुए हैं।
हमें आजकल आरपार की लड़ाई का बहुत शौक है। जब तक वार चलता रहेगा, पलटवार भी चलता रहेगा। इनके बीच, आज कोई राजकपूर जैसा दीवाना नहीं, जो आकर कह दे ;
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अनुभव और निर्णय। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 207 ☆
☆ अनुभव और निर्णय ☆
अगर आप सही अनुभव नहीं करते, तो निश्चित् है कि आप ग़लत निर्णय लेंगे–हेज़लिट की यह उक्ति अपने भीतर गहन अर्थ समेटे है। अनुभव व निर्णय का अन्योन्याश्रित संबंध है। यदि विषम परिस्थितियों में हमारा अनुभव अच्छा नहीं है, तो हम उसे शाश्वत् सत्य स्वीकार उसी के अनुकूल निर्णय लेते रहेंगे। उस स्थिति में हमारे हृदय में एक ही भाव होता है कि हम आँखिन देखी पर विश्वास रखते हैं और यह हमारा व्यक्तिगत अनुभव है–सो! यह ग़लत कैसे हो सकता है? निर्णय लेते हुए न हम चिन्तन-मनन करना चाहते हैं; ना ही पुनरावलोकन, क्योंकि हम आत्मानुभव को नहीं नकार सकते हैं?
मानव मस्तिष्क ठीक एक पैराशूट की भांति है, जब तक खुला रहता है, कार्यशील रहता है–लार्ड डेवन का यह कथन मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर प्रकाश डालता है और उसके अधिकाधिक प्रयोग करने का संदेश देता है। कबीरदास जी भी ‘दान देत धन न घटै, कह गये भक्त कबीर’ संदेश प्रेषित करते हैं कि दान देते ने से धन घटता नहीं और विद्या रूपी धन बाँटने से सदैव बढ़ता है। महात्मा बुद्ध भी जो हम देते हैं; उसका कई गुणा लौटकर हमारे पास आता है–संदेश प्रेषित करते हैं। भगवान महाबीर भी त्याग करने का संदेश देते हैं और प्रकृति का भी यही चिरंतन व शाश्वत् सत्य है।
मनुष्य तभी तक सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम, सर्वगुण-सम्पन्न व सर्वपूज्य बना रहता है, जब तक वह दूसरों से याचना नहीं करता–ब्रह्मपुराण का भाव, कबीर की वाणी में इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है ‘मांगन मरण एक समान।’ मानव को उसके सम्मुख हाथ पसारने चाहिए, जो सृष्टि-नियंता व जगपालक है और दान देते हुए उसकी नज़रें सदैव झुकी रहनी चाहिए, क्योंकि देने वाला तो कोई और…वह तो केवल मात्र माध्यम है। संसार में अपना कुछ भी नहीं है। यह नश्वर मानव देह भी पंचतत्वों से निर्मित है और अंतकाल उसे उनमें विलीन हो जाना है। मेरी स्वरचित पंक्तियाँ उक्त भाव को व्यक्त करती हैं…’यह किराये का मकान है/ जाने कौन कब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा’ और ‘प्रभु नाम तू जप ले रे बंदे!/ वही तेरे साथ जाएगा’ यही है जीवन का शाश्वत् सत्य।
मानव अहंनिष्ठता के कारण निर्णय लेने से पूर्व औचित्य- अनौचित्य व लाभ-हानि पर सोच-विचार नहीं करता और उसके पश्चात् उसे पत्थर की लकीर मान बैठता है, जबकि उसके विभिन्न पहलुओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक होता है। अंततः यह उसके जीवन की त्रासदी बन जाती है। अक्सर निर्णय हमारी मन:स्थिति से प्रभावित होते है, क्योंकि प्रसन्नता में हमें ओस की बूंदें मोतियों सम भासती हैं और अवसाद में आँसुओं सम प्रतिभासित होती हैं। सौंदर्य वस्तु में नहीं, दृष्टा के नेत्रों में होता है। इसलिए कहा जाता है ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि।’ सो! चेहरे पर हमारे मनोभाव प्रकट होते हैं। इसलिए ‘तोरा मन दर्पण कहलाए’ गीत की पंक्तियाँ आज भी सार्थक हैं।
दोषारोपण करना मानव का स्वभाव है, क्योंकि हम स्वयं को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझते हैं। परिणामत: हम सत्यान्वेषण नहीं कर पाते। ‘बहुत कमियाँ निकालते हैं/ हम दूसरों में अक्सर/ आओ! एक मुलाकात/ ज़रा आईने से भी कर लें।’ परंतु मानव अपने अंतर्मन में झाँकना ही नहीं चाहता, क्योंकि वह आश्वस्त होता है कि वह गुणों की खान है और कोई ग़लती कर ही नहीं सकता। परंतु अपने ही अपने बनकर अपनों को प्रताड़ित करते हैं। इतना ही नहीं, ‘ज़िन्दगी कहाँ रुलाती है/ रुलाते तो वे लोग हैं/ जिन्हें हम अपनी ज़िन्दगी समझ बैठते हैं’ और हमारे सबसे प्रिय लोग ही सर्वाधिक कष्ट देते हैं। ढूंढो तो सुक़ून ख़ुद में है/ दूसरों में तो बस उलझनें मिलेंगी। आनंद तो हमारे मन में है। यदि वह मन में नहीं है, तो दुनिया में कहीं नहीं है, क्योंकि दूसरों से अपेक्षा करने से तो उलझनें प्राप्त होती हैं। सो! ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ बेवजह ही न किसी से ग़िला कीजिए’ स्वरचित गीत की पंक्तियाँ उलझनों को शीघ्र सुलझाने व शिक़ायत न करने की सीख देती हैं।
उत्तम काम के दो सूत्र हैं…जो मुझे आता है कर लूंगा/ जो मुझे नहीं आता सीख लूंगा। यह है स्वीकार्यता भाव, जो सत्य है और यथार्थ है उसे स्वीकार लेना। जो व्यक्ति अपनी ग़लती को स्वीकार लेता है, उसके जीवन पथ में कोई अवरोध नहीं आता और वह निरंतर सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता जाता है। ‘दो पल की है ज़िन्दगी/ इसे जीने के दो उसूल बनाओ/ महको तो फूलों की तरह/ बिखरो तो सुगंध की तरह ‘ मानव को सिद्धांतवादी होने के साथ-साथ हर स्थिति में खुशी से जीना बेहतर विकल्प व सर्वोत्तम उपाय है।
बहुत क़रीब से अंजान बनके निकला है/ जो कभी दूर से पहचान लिया करता था–गुलज़ार का यह कथन जीवन की त्रासदी को इंगित करता है। इस संसार म़े हर व्यक्ति स्वार्थी है और उसकी फ़ितरत को समझना अत्यंत कठिन है। ज़िन्दगी समझ में आ गयी तो अकेले में मेला/ न समझ में आयी तो भीड़ में अकेला…यही जीवन का शाश्वत् सत्य व सार है। हम अपनी मनस्थिति के अनुकूल ही व्यथित होते हैं और यथासमय भरपूर सुक़ून पाते हैं।
तराशिए ख़ुद को इस क़दर जहान में/ पाने वालों को नाज़ व खोने वाले को अफ़सोस रहे। वजूद ऐसा बनाएं कि कोई तुम्हें छोड़ तो सके, पर भुला न सके। परंतु यह तभी संभव है, जब आप इस तथ्य से अवगत हों कि रिश्ते एक-दूसरे का ख्याल रखने के लिए होते हैं, इस्तेमाल करने के लिए नहीं। हमें त्याग व समर्पण भाव से इनका निर्वहन करना चाहिए। सो! श्रेष्ठ वही है, जिसमें दृढ़ता हो; ज़िद्द नहीं, दया हो; कमज़ोरी नहीं, ज्ञान हो; अहंकार नहीं। जिसमें इन गुणों का समुच्चय होता है, सर्वश्रेष्ठ कहलाता है। समय और समझ दोनों एक साथ किस्मत वालों को मिलती है, क्योंकि अक्सर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर समय निकल जाता है। प्राय: जिनमें समझ होती है, वे अहंनिष्ठता के कारण दूसरों को हेय समझते हैं और उनके अस्तित्व को नकार देते हैं। उन्हें किसी का साथ ग़वारा नहीं होता और एक अंतराल के पश्चात् वे स्वयं को कटघरे में खड़ा पाते हैं। न कोई उनके साथ रहना पसंद करता है और न ही किसी को उनकी दरक़ार होती है।
वैसे दो तरह से चीज़ें नज़र आती हैं, एक दूर से; दूसरा ग़ुरूर से। ग़ुरूर से दूरियां बढ़ती जाती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। दुनिया में तीन प्रकार के लोग होते हैं–प्रथम दूसरों के अनुभव से सीखते हैं, द्वितीय अपने अनुभव से और तृतीय अपने ग़ुरूर के कारण सीखते ही नहीं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। बुद्धिमान लोगो में जन्मजात प्रतिभा होती है, कुछ लोग शास्त्राध्ययन से तथा अन्य अभ्यास अर्थात् अपने अनुभव से सीखते हैं। ‘करत- करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ कबीरदास जी भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि हमारा अनुभव ही हमारा निर्णय होता है। इनका चोली-दामन का साथ है और ये अन्योन्याश्रित है।