(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – धर्म और धर्म ध्वज ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 254 ☆
आलेख – धर्म और धर्म ध्वज
वर्तमान समय वैश्विक सोच का है, क्या धर्म इस विस्तार को संकुचित करता है ? समान सांस्कृतिक परम्परा के मानने वालों का समूह एक धर्मावलंबी होता है। धर्म की अनुपालना मनुष्य को मनुष्यत्व सिखाती है।
धर्म की अवधारणा ज्यादा पुरानी नहीं है। यह 16वीं और 17वीं शताब्दी में बनाई गई थी। संस्कृत शब्द धर्म, का अर्थ कानून भी है। पूरे दक्षिण एशिया में, कानून के अध्ययन में धर्मपरायणता के साथ-साथ व्यावहारिक परंपराओं के माध्यम से तपस्या जैसी अवधारणाएं शामिल थीं। मध्यकालीन जापान में पहले शाही कानून और सार्वभौमिक या बुद्ध कानून के बीच एक समान संघ था, लेकिन बाद में ये सत्ता के स्वतंत्र स्रोत बन गए। परंपराएं, पवित्र ग्रंथ और प्रथाएं सदा मौजूद रही हैं। अधिकांश संस्कृतियां धर्म की पश्चिमी धारणाओं से अलग है। 18वीं और 19वीं शताब्दी में, बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म, ताओवाद, कन्फ्यूशीवाद और विश्व धर्म शब्द सबसे पहले अंग्रेजी भाषा में आए। अमेरिकी मूल-निवासियों के बारे में भी सोचा जाता था कि उनका कोई धर्म नहीं है और उनकी भाषाओं में धर्म के लिए कोई शब्द भी नहीं है। 1800 के दशक से पहले किसी ने स्वयं को हिंदू या बौद्ध या अन्य समान शब्दों के रूप में पहचाना नहीं था। “हिंदू” ऐतिहासिक रूप से भारतीय उपमहाद्वीप के स्वदेशी लोगों के लिए एक भौगोलिक, सांस्कृतिक और बाद में धार्मिक पहचान के रूप में इस्तेमाल किया गया है। अपने लंबे इतिहास के दौरान, जापान के पास धर्म की कोई अवधारणा नहीं थी।
19 वीं शताब्दी में भाषाशास्त्री मैक्स मुलर के अनुसार, अंग्रेजी शब्द धर्म की जड़, लैटिन धर्म, मूल रूप से केवल ईश्वर या देवताओं के प्रति श्रद्धा, दैवीय चीजों के बारे में सावधानीपूर्वक विचार करने के लिए इस्तेमाल किया गया था, धर्मपरायणता (जिसे सिसेरो ने आगे अर्थ के लिए व्युत्पन्न किया था) । मैक्स मुलर ने इतिहास में इस बिंदु पर एक समान शक्ति संरचना के रूप में मिस्र, फारस और भारत सहित दुनिया भर में कई अन्य संस्कृतियों की विशेषता बताई। जिसे आज प्राचीन धर्म कहा जाता है, उसे तब केवल सामाजिक व्यवस्था के रूप में समझा जाता था।
सामान्यतः ध्वज चौकोन होते हैं। पर हिंदू धर्म ध्वज त्रिकोणीय होते हैं। ध्वज के रंग, उस पर बने चित्र आदि संप्रदाय विशेष, एक मतावलंबियो, मठों, के अनुरूप विशिष्ट पहचान के रूप में, बिना किसी पंजीयन के ही मान्य रहे हैं। युद्ध में एक सेना एक ध्वज के तले नियंत्रित और उससे ऊर्जा प्राप्त करती थी। जय, विजय, लोल, विशाल, दीर्घ, वैजांतिक, भीम, चपल आदि ध्वजो के वर्णन महाभारत के युद्ध में मिलते हैं। अस्तु आज जब दुनिया भर में धर्म की व्याख्या को महत्व दिया जा रहा है, धर्म और उसके प्रतीक ध्वज को नई दृष्टि से देखा जा रहा है।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “प्रेम डोर सी सहज सुहाई…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 179 ☆ प्रेम डोर सी सहज सुहाई… ☆
भाव भक्ति के रंग में डूबे हुए आस्थावान लोग; सकारात्मक शक्ति के उपासक बन अपनी जीत का जश्न मना रहे हैं । लंबे संघर्ष के बाद जब न्याय मिलता है तो हर चेहरे पर खुशी की मुस्कान देखते ही बनती है । हर आँखों में श्रीराम लला के प्रति उमड़ता स्नेह व अपार श्रद्धा झलक रही है । वनवासी राम से मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनने का क्रम सारे समाज के लिए प्रेरणास्रोत है । सबको जोड़कर साथ रखना, वचन निभाना, सागर पर सेतु बनाकर लक्ष्य भेदना , मित्रता का धर्म निभाना इस सबके आदर्श प्रभु श्रीराम हैं ।
हम सब सौभाग्यशाली हैं जो इन पलों के साक्षी बन रहें हैं । हर घर में अक्षत के साथ राम मंदिर का आमंत्रण, घर- घर दीपोत्सव का आयोजन साथ ही अपने आसपास के परिवेश को स्वच्छ रखने का संदेश । सारे समाज को जोड़ने वाली कड़ी साबित होगा राम मंदिर ।
बाल सूर्य जब सप्त घोड़े पर सवार होकर नित्य प्रातः बेला को भगवामय करते तो पूरी प्रकृति ऊर्जान्वित होकर अपने कार्यों में जुट जाती है, तो सोचिए जब पूरा विश्व भगवामय होगा तो कैसा सुंदर नजारा होगा । हर घर में लहराता हुआ ध्वज मानो अभिनंदन गान गा रहा है । स्वागत में पलक पाँवड़े बिछाए हुए लोग समवेत स्वरों में मंगलकामना कर रहें हैं-
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गाय और गौ ग्रास…“।)
अभी अभी # 254 ⇒ गाय और गौ ग्रास… श्री प्रदीप शर्मा
(Cow and grass)
गाय को हम गौ माता मानते हैं, सिर्फ इसलिए नहीं कि वह हमें दूध देती है। हम गौ सेवा इसलिए भी करते हैं, कि वेदों के अनुसार गाय में ३३ कोटि देवताओं का वास होता है। इन ३३ प्रकार के देवताओं में १२ आदित्य, ८ वासु, ११ रुद्र और २ आदित्य कुमार हैं। केवल एक गाय की सेवा पूजा से अगर ३३ कोटि देवताओं का पूजन संपन्न हो जाता है, तो यह सौदा बुरा नहीं है।
अन्य चौपायों की तरह गाय भी पशुधन ही है और घास ही खाती है, कोई चाउमिन नहीं।
हमने बचपन में कहां वेद पढ़े थे। बस गाय पर निबंध ही तो पढ़ा था।
घरों में पहली रोटी गाय की बनती थी, और आज भी बनती चली आ रही है। एक रोटी से कहां गाय का पेट भरता है। पेट तो उसका भी घास से ही भरता है। उसके लिए हमारी रोटी, ऊंट के मुंह में जीरे के समान, एक ग्रास ही तो है। कई अवसरों पर भोजन के पहले गऊ ग्रास भी निकाला जाता है। लेकिन प्रश्न भाव और संतुष्टि का है।
इसे संयोग ही कहेंगे कि घास को अंग्रेजी में भी ग्रास ही कहते हैं। घास से भले ही गौ माता का पेट भरता हो, लेकिन मन तो उसका भी, उसके लिए एक ग्रास जितनी, एक रोटी से ही भरता है। आप गाय को अगर रोज घास नहीं खिला सकते, तो कम से कम गौ ग्रास तो खिला ही सकते हैं।।
बचपन में हमने कहां वेद पढ़े थे। हमारे मोहल्ले में पाठशाला थी, गुरुकुल नहीं। हर मकर सक्रांति को पिताजी के साथ जाते और नन्दलालपुरा से धडी भर नहीं, छोड़ के गट्ठर के गट्ठर, साइकिल के पीछे बांधकर ले आते। हमारे लिए तो छोड़ हमेशा ही आते थे, लेकिन ये छोड़ विशेष रूप से गाय के लिए आते थे।
हम तब भाग्यशाली थे, तब सड़कों पर वाहन से अधिक गाय नजर आती थी। हमारी बालबुद्धि समझ नहीं पाती। गाय को छोड़ खिलाना है, खिलाओ, लेकिन छोड़ के दाने तो निकाल लो। लेकिन हमारी मां हमें समझाती, ये छोड़ गाय के लिए हैं, तुम्हारे लिए अलग से रखे हैं।।
आज घर में मां नहीं है, मकर सक्रांति के दिन, छोड़ खिलाने के लिए आसपास गाय भी नहीं है। गौ शालाओं में गाय की अच्छी सेवा हो रही है और हम तिल गुड़ खाकर और मीठा मीठा बोलकर उत्सव मना रहे हैं।
स्मार्ट सिटी बनने जा रहे महानगर की बहुमंजिला इमारतों की खिड़कियों से जितना आसमान दिख जाए, देख लो, जितनी पतंगें लोग उड़ा सकते हैं, उड़ा ही रहे हैं। पतंग काटने का सुख, और कटने का दुख, दोनों कितने अच्छे लगते हैं। समय कहां रुकता है, जीवन चलने का ही तो नाम है। अच्छे दिन आज भी हैं, फिर भी किशोर कुमार का यह गीत गुनगुनाने का मन करता है ;
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “श्रद्धा, अश्रद्धा और अंध श्रद्धा…”।)
अभी अभी # 253 ⇒ श्रद्धा, अश्रद्धा और अंध श्रद्धा… श्री प्रदीप शर्मा
श्रद्धा चित्त का वह भाव है, जहां बहता पानी निर्मला है। जल में अशुद्धि, चित्त में अशुद्धि के समान है। अगर जल में अशुद्धि है, तो वह जल पीने योग्य नहीं है। उसके पीने से स्वास्थ्य खराब होने का खतरा बना रहता है। पानी पीयो छानकर और सोओ चादर तानकर।
जल की शुद्धि जितनी आसान है, चित्त की शुद्धि उतनी आसान नहीं। भरोसा, विश्वास और आस्था वे सात्विक गुण हैं, जो किसी भी वस्तु, पदार्थ अथवा व्यक्ति के प्रति हमारे मन में राग उत्पन्न कर सकते हैं। राग आसक्ति का प्रतीक है।
उपयोगी वस्तुओं के प्रति हमारा विशेष लगाव रहता है, और अनुपयोगी वस्तुओं से हम पल्ला झाड़ना चाहते हैं।।
जिस वस्तु अथवा व्यक्ति से हमारा प्रेम हो जाता है, उससे हमारा जाने अनजाने ही लगाव होना शुरू हो जाता है। बिना प्रेम, आस्था, भरोसे एवं विश्वास के श्रद्धा का जन्म ही नहीं हो सकता। एक भरोसा तेरा ही सच्ची श्रद्धा है।
आध्यात्मिक यात्रा में राग द्वेष और आसक्ति को भी व्यवधान माना गया है।
किसी के प्रति अश्रद्धा अगर मन में द्वेष उत्पन्न करती है तो आसक्ति भी आत्म कल्याण के लिए बाधक है। अक्सर जड़ भरत का उदाहरण इस संदर्भ में दिया जाता है।।
अगर भोजन की थाली में मक्खी गिर गई तो उसे निकाल फेंकना, भोजन का अपमान अथवा अश्रद्धा का द्योतक नहीं, जागरूकता और विवेक का प्रतीक है लेकिन जमीन पर गिरे हुए प्रसाद को श्रद्धापूर्वक उठाकर ग्रहण करना अंध श्रद्धा का प्रतीक भी नहीं।
श्रद्धा और अंध श्रद्धा अगर मुंहबोली बहनें हैं, तो अश्रद्धा उनकी सौतेली बहनें, जिनसे उनकी बिल्कुल नहीं बनती। श्रद्धा, अंध श्रद्धा एक दूसरे पर जान छिड़कती हैं, जब कि अश्रद्धा उन्हें फूटी आंखों नहीं सुहाती।।
जब आस्था पर गहरी चोट पहुंचती है तो अच्छे से अच्छे व्यक्ति के प्रति श्रद्धा, अश्रद्धा में परिवर्तित हो जाती है। श्रद्धा के टूटते ही व्यक्ति बिखर सा जाता है। अगर व्यक्ति विवेकवान हुआ तो ठीक, वर्ना उसका तो भगवान ही मालिक है।
श्रद्धा और अंध श्रद्धा में बड़ा महीन सा अंतर है। कब आपकी श्रद्धा, अंध श्रद्धा में बदल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। श्रद्धा शाश्वत होती है, जब कि अंध श्रद्धा की एक्सपायरी का कोई भरोसा नहीं। चल जाए तो सालों साल चल जाए, और अगर बिखर जाए, तो एक झटके में बिखर जाए। यह अंध श्रद्धा ही तो है, जो अज्ञान और अंध विश्वास को पाल पोसकर बड़ा करती है।।
आपको अपने तरीके से जीवन जीने का अधिकार है। आपकी अपनी पसंद नापसंद है, श्रद्धा अश्रद्धा है। अगर मैने मतलब के लिए किसी गधे को अपना बाप बना लिया, तो आपको क्या आपत्ति है। मैं धोती कुर्ता पहनना चाहता हूं और आप सफारी सूट, इससे अगर हमारी आपकी दोस्ती में अंतर नहीं आता, तो श्रद्धा और अंध श्रद्धा का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। आप किशोर कुमार के प्रशंसक तो हम मुकेश के।
अगर यह अंध श्रद्धा बीच में से हट जाए, तो शायद श्रद्धा और अश्रद्धा के बीच की खाई भी भर जाए। पसंद अपनी अपनी, खयाल अपना अपना। आप अपने रास्ते, हम अपने रास्ते ! जब भी रास्ते में मिलें, प्रेम से बोलें नमस्ते।।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका आलेख – श्रद्धा सुमन – रवि रतलामी :एक साथ ही हिंदी के तकनीकी कंप्यूटर दां, व्यंग्यकार और संपादक ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 254 ☆
श्रद्धा सुमन – रवि रतलामी :एक साथ ही हिंदी के तकनीकी कंप्यूटर दां, व्यंग्यकार और संपादक
स्व. रवि रतलामी
(जन्म ५ अगस्त १९५८, देहावसान ७ जनवरी २०२४)
वर्ष 2006 में ‘रवि रतलामी का हिन्दी ब्लॉग’ को माइक्रोसॉफ्ट भाषा इंडिया ने सर्वश्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉग के रूप में सम्मानित किया था। यह समाचार मैंने टी वी पर देखा था। यह समय था जब हिन्दी ब्लागिंग अपने शैशव काल में थी। मैं मण्डला जैसे छोटे स्थान से बी एस एन एल के नेटवन फोन कनेक्शन से रात रात भर हिन्दी ब्लाग लिखा करता था, रात में इसलिये क्योंकि तब इंटरनेट की स्पीड कुछ बेहतर होती थी। स्वाभाविक था कि मेरा ध्यान भोपाल के इस माइक्रो साफ्ट से सम्मानित ब्लागर की ओर गया। इंटरनेट के जरिये उनका फोन ढ़ूंढ़ना सरल था, मैंने उन्हें फोन किया और हम ऐसे मित्र बन गये मानो बरसों से परस्पर परिचित हों। मैं तब विद्युत मण्डल में कार्यपालन अभियंता था, और रवि जी विद्युत मण्डल से स्वैच्छिक सेवानिवृति लेकर इंटरनेट में हिन्दी के क्षेत्र में भोपाल से फ्री लांस कार्य कर रहे थे। सरस्वती के पुजारियों की यह खासियत होती है कि वे पल भर में एक दूसरे से आत्मीयता के रिश्ते बना लेते हैं। मैं रवि जी से व्यक्तिगत रूप से बहुत अधिक नहीं मिला हूं पर हिन्दी ब्लागिंग के चलते हम ई संपर्क में बने रहे हैं। रवि जी रचनाकार नामक हिन्दी ब्लाग चलाते थे, जिसमें बाल कथा, लघुकथा, व्यंग्य, हास्य, कविता, आलेख, गजलें, नाटक, संस्मरण, उपन्यास, लोककथा, समीक्षा, कहानी, चुटकुले, ई बुक्स, विज्ञान कथा आदि शामिल होते थे। मेरी कुछ किताबें, नाटक, व्यंग्य, कवितायें, लेख, संस्मरण आदि रचनाकार में प्रकाशित हैं। प्रारंभ में रचनाकार में रवि जी ने यह व्यवस्था रखी थी की एक रचना जो नेट पर कहीं एक बार छपे उसका लिंक ही अन्य जगह दिया जाये बनिस्पत इसके कि अनेक जगह वही रचना बार बार प्रकाशित की जाये। पर बाद में इस द्वंद में माथा पच्ची करना बंद कर दिया गया था। रचनाकार का ट्रेफिक बढ़ाने के लिये हमने व्यंग्य लेखन को लेकर कुछ प्रतियोगितायें भी आयोजित कीं। पुरस्कार स्वरूप मेरी, मेरे पिताजी प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव जी की तथा अन्य लेखको की किताबें विजेताओ को प्रदान की गईं।
रवि जी ने कहीं लिखा है “जन्म से छत्तीसगढ़िया, कर्म से रतलामी. बीस साल तक विद्युत मंडल में सरकारी टेक्नोक्रेट के रुप में विशाल ट्रांसफ़ॉर्मरों में असफल लोड बैलेंसिंग और क्षेत्र में सफल वृहत् लोड शेडिंग करते रहने के दौरान किसी पल छुद्र अनुभूति हुई कि कुछ असरकारी काम किया जाए तो अपने आप को एक दिन कम्प्यूटर टर्मिनल के सामने फ्रीलांस तकनीकी-सलाहकार-लेखक और अनुवादक के ट्रांसफ़ॉर्म्ड रूप में पाया. इस बीच कंप्यूटर मॉनीटर के सामने ऊंघते रहने के अलावा यूँ कोई खास काम मैंने किया हो यह भान तो नहीं लेकिन जब डिजिट पत्रिका में पढ़ा कि केडीई, गनोम, एक्सएफ़सीई इत्यादि समेत लिनक्स तंत्र के सैकड़ों कम्प्यूटर अनुप्रयोगों के हिन्दी अनुवाद मैंने किए हैं तो घोर आश्चर्य से सोचता हूँ कि जब मैंने ऊँधते हुए इतना कुछ कर डाला तो मैं जागता होता तो पता नहीं क्या-क्या कर सकता था?”। वे स्वयं इतने सिद्ध कम्प्यूटर टेक्नोक्रेट थे कि उनका विकी पीडिया पेज तो सहज में होना ही चाहिये था, पर आत्म प्रशंसा और स्व केंद्रित व्यक्तित्व नहीं था उनका। वे सहज, सरल, और उदार व्यक्तित्व के सुलभ इंटेलेक्चुल मनुष्य थे। वे अचानक चले गये हैं, उनके साथ ही उनके मन में चल रहे ढ़ेरों कार्यो का भ्रूण पतन हो गया है। उनके अनेकानेक तकनीकी लेख भारत की प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी पत्रिका आईटी तथा लिनक्स फॉर यू, नई दिल्ली, भारत (इंडिया) से प्रकाशित हो चुके हैं। हिंदी कविताएँ, ग़ज़ल, एवं व्यंग्य लेखन उनकी रुचि की विधायें थीं। उनकी रचनाएँ हिंदी पत्र-पत्रिकाओं दैनिक भास्कर, नई दुनिया, नवभारत, कादंबिनी, सरिता इत्यादि में प्रकाशित हो चुकी हैं। हिंदी दैनिक चेतना के पूर्व तकनीकी स्तंभ लेखक रह चुके हैं। वे अभिव्यक्ति पोर्टल के लिए विशेष रूप से ‘प्रौद्योगिकी’ स्तंभ लिखते रहे हैं। हिंदी की सर्वाधिक समृद्ध आनलाइन वर्गपहेली का सृजन भी उनका महत्वपूर्ण कार्य था।
आन लाइन सोशल मीडिया पर स्व संपादसित लेखन का सफर आरकुट, हिन्दी ब्लागिंग, फेसबुक, इंस्टाग्राम वगैरह वगैरह प्लेटफार्म से शिफ्ट होते हुये व्हाट्सअप तक आ पहुंचा है। पर बोलकर लिखने की सुविधा, यूनीकोड हिन्दी के अंतर्निहित तकनीकी पक्षो को जिन कुछ लोगों ने आकार दिया है उनमें रविशंकर श्रीवास्तव उर्फ रवि रतलामी का भी बड़ा योगदान रहा है। वे जितने योग्य तकनीकज्ञ थे उससे ज्यादा समर्थ संपादक भी थे, और कहीं ज्यादा बड़े व्यंग्यकार। रचनाकार में उन्होंने समकालीन अनेकानेक व्यंग्यकारो को समय समय पर प्रकाशित किया है। रचनाकार में प्रकाशित व्यंग्यकारो कि सूची में राकेश सोहम, हनुमान मुक्त, प्रदीप उपाध्याय, राम नरेश, अनीता यादव, राजीव पाण्डेय, सुरेश उरतृप्त, वीरेंद्र सरल, ओम वर्मा, विवेक रंजन श्रीवास्तव से लेकर नरेंद्र कोहली, यशवंत कोठारी, प्रेम जनमेजय तक कौन शामिल नहीं है। जहां तक रवि जी के व्यंग्य लेखन का प्रश्न है उन्होंने सक्षम व्यंग्यकार के रूप में अपनी छबि बनाई थी। उनकी किताब व्यंग्य की जुगलबंदी अमेजन किंडल पर उपलब्ध है। जिसमें शामिल कुछ व्यंग्य शीर्षक हैं ” आपका मोबाइल ही आपका परिचय है, बापू की लखटकिया लंगोटी, नोटबंदी, जीडीपी और आर्थिक विकास, बाबागिरी, तकनीक और हवापानी, असली अफवाह, गठबंधन की बाढ़, चीनी यात्री ट्रेनत्सांग की वर्ष 2000 की भारत यात्रा, जीएसटी बनाम, भारतीय खेती की असली कहानी, साहित्यिक खेती, टॉपरों से भयभीत, मानहानि के देश में, बिना शीर्षक, मेरा स्मार्टफोन कैसा हो? बिलकुल इसके जैसा हो…., कड़ी निंदा पर कुछ नोट शीट्स, लाल बत्ती में परकाया प्रवेश, ईवीएम में छेड़छाड़ के ये है पूरी आईटीयाना तरीके, लेखकीय और साहित्यकीय मूर्खता, आपने कभी गरमी खाई है ?, जम्बूद्वीप में सन् ३०५० के चुनाव के बाद, आधुनिक अभिव्यक्ति और एक व्यंग्य है “बुढ़ापे या बीमारी से नहीं मैं मरा अपनी शराफत से” सचमुच उनका दुखद देहावसान बुढ़ापे या बीमारी से नही अचानक हार्ट अरेस्ट से हो गया . रवि रतलामी जी के कार्यों का मूल्यांकन हिन्दी जगत को करना शेष ही रह गया और वे हमसे बिछड़ गये। उन्हें तकनीकी जगत, ब्लागिंग की दुनियां, व्यंग्य जगत और हिन्दी जगत के नमन।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 66 ☆ देश-परदेश – सेना दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆
आज पंद्रह जनवरी को प्रतिवर्षनुसार देश में सेना दिवस मनाया जाता हैं। आज के ही दिन 1949 को फील्ड मार्शल के एम करियप्पा ने जनरल फ्रांसिस बुचर से भारतीय सेना की कमान संभाली थी।
हमारे निकट परिवार के सदस्यों में से कोई भी सुरक्षा बलों की सेवा में तो नहीं है, परंतु बैंक सेवा के आरंभिक दशक में प्रतिदिन हमारे सैनिक भाइयों की सेवा का मौका अवश्य मिला। सेना की सभी यूनिट्स के खाते जबलपुर मुख्य शाखा में ही थे।
सैनिकों का भोलापन, कृतज्ञता की भावना उनके व्यवहार में झलकती है, इस सब को बहुत करीब से देखने और अनुभव करने का अवसर कुछ वर्षों तक रहा।
बैंक के बाहर भी जब कभी सेना का कोई सदस्य अचानक मिल जाता था, तो उतना ही आदर और सम्मान देता था, जितना वो बैंक में देता था। अनेक बार हम उनको सिविल ड्रेस में पहचान नहीं पाते थे, लेकिन वो आगे बढ़ कर हमेशा “जय हिंद” से अभिवादन करते थे। बैंक के साथियों के विवाह में आर्मी कैंटीन से ही वीआईपी सूटकेस और बिजली के पंखे क्रय कर साथियों को सामूहिक भेंट स्वरूप दी जाती थी।
कुछ दिन पूर्व फील्ड मार्शल मानेक शॉ की बायोपिक्स (फिल्म) देखी तो सेना के बारे में नई जानकारियां भी मिली।
ग्रामीण शाखा अंधेरी देवरी (ब्यावर) राजस्थान में पदस्थापना के समय शाखा में बैंक गार्ड श्री पुखराज के बारे में जानकारी प्राप्त हुई कि सेना में उन्होंने मानेक शॉ के निजी वाहन चालक के रूप में तीन वर्ष की सेवाएं देने के पश्चात प्रधान मंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी के लिए एंबेसडर कार कुछ वर्ष तक चलाई थी।
पुखराज जी से मानेक शॉ के बहुत सारे किस्से और जानकारियों का आनंद भी लिया। पुखराज जी के शब्दों में मानेक शॉ बहुत ही सरल और मिलनसार व्यक्ति थे। जब सैनिक मेस में भोजन कर रहे होते थे, और यदि वो भी भोजन के समय वहां आ जाते, तो किसी भी सैनिक को खड़े होकर सम्मान या भोजन के मध्य में जय हिंद कहने की भी मनाही थी। उनका सिद्धांत था, कि भोजन ग्रहण के समय सब बराबर होते हैं।
आज सेना दिवस पर देश के सभी सुरक्षा बलों को आदर सहित नमन और अभिवादन।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अपर, मिडिल, लोअर बर्थ…“।)
अभी अभी # 252 ⇒ अपर, मिडिल, लोअर बर्थ… श्री प्रदीप शर्मा
आजादी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, तिलक कह तो गए हैं, लेकिन क्या हमारा हमारे अपने जन्म पर भी अधिकार है। यह तो आपके संचित पुण्यों का फल है, जैसे संचित कर्म, वैसा बर्थ, यानी जन्म। अगर हम पैदा ही नहीं हुए होते, तो हमारा कैसा अधिकार और कैसा संचित पुण्य फल।
चलिए, अब तो पैदा हो भी गए, तो बर्थ कौन सी मिली ? यहां भी वही घिसा पिटा जवाब, कोई सुनवाई नहीं, कोई विकल्प नहीं।
जैसी बर्थ मिली, उसमें ही एडजस्ट कर लो। क्या किसी से बर्थ एक्सचेंज कर सकते हैं, बिल्कुल नहीं ! यह कोई रेलवे की बर्थ नहीं है, अगर लोअर है तो लोअर ही रहेगी और अगर मिडिल है तो मिडिल। अपर वाली तो लागों को बड़ी मुश्किल से मिलती है। बर्थ मिल गई नसीब से, ईश्वर का धन्यवाद करो, और जीवन यात्रा शुरू करो।।
ठीक है, दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा। एक बार येन केन प्रकारेण पैदा हो गए, बर्थ हासिल कर ली, अब हमारा पुरुषार्थ और जुगाड़ अपना काम करेगा। जोड़ तोड़ में हम किसी से कम नहीं।
क्या आपने सुना नहीं ! हिम्मते मर्दा, तो मददे खुदा। एक बाद जिंदगी की गाड़ी में बैठ गए, उसके बाद हम अपनी मर्जी अनुसार, कभी यात्रियों से मीठा बोलकर, अनुनय विनय और बनावटी आंसू के सहारे सीट हासिल कर सकते हैं तो कभी कभी टीसी से सेटिंग और मुट्ठी गर्म करके ही अपना उल्लू सीधा कर ही लेते हैं।।
हम यह भी जानते हैं कि यात्रा पूरी होते ही हमारी भी बर्थ खाली होनी है, लेकिन जब तक हम जिंदा हैं, अपनी बर्थ पर किसी को नहीं बैठने देंगे।
यह भी सच है कि जीवन चलने का नाम है। एक यात्रा पूरी होते ही इंसान फिर किसी दूसरे सफर पर निकल पड़ता है।
एक ही जीवन में कितनी यात्राएं कर ली हमने। कभी ट्रेन में अपर बर्थ मिली तो कभी लोअर। जब तक उम्र थी, सब पुरुषार्थ कर लिया, और एडजस्ट भी कर लिया।।
उम्र के इस पड़ाव में अच्छा भला इंसान भी शैलेंद्र बन बैठता है। जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां। जब उम्र ही काम नहीं कर रही तो कैसा सफर और कैसी बर्थ। सब अपर और मिडिल क्लास की हेकड़ी निकल जाती है। भैया, लोअर बर्थ हो, तो ही अब तो सफर करेंगे।
कायदे कानून छोड़ दो। जितना पैसा लगे, लगने दो, अगर लोअर बर्थ मिल गई तो कम से कम सफर तो आसानी से कट जाएगा। अगले जन्म में फिर से भगवान से अपर बर्थ मांग लेंगे। बहुत गौ सेवा की है, दान पुण्य किए हैं इस जनम में। बस लोअर बर्थ कन्फर्म होते ही ;
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 223☆ चक्षो सूर्यो जायत
वैदिक दर्शन सूर्य को ईश्वर का चक्षु निरूपित करता है। हमारे ग्रंथों में सूर्यदेव को जगत की आत्मा भी कहा गया है। विश्व की प्राचीन सभ्यताओं द्वारा सूर्योपासना के प्रमाण हैं। ज्ञानदा भारतीय संस्कृति में तो सूर्यदेव को अनन्य महत्व है। एतदर्थ भारत में अनेक प्राचीन और अर्वाचीन सूर्य मंदिर हैं।
भारतीय मीमांसा में प्रकाश, जाग्रत देवता है।प्रकाश आंतरिक हो या वाह्य, उसके बिना जीवन असंभव है। एक-दूसरे के सामने खड़ी गगनचुंबी अट्टालिकाओं के महानगरों में प्रकाश के अभाव में विटामिन डी की कमी विकराल समस्या हो चुकी है। केवल मनुष्य ही नहीं, सम्पूर्ण सजीव सृष्टि और वनस्पतियों के लिए प्राण का पर्यायवाची है सूर्य। वनस्पतियों में प्रकाश संश्लेषण या फोटो सिंथेसिस के लिए प्रकाश आवश्यक घटक है।
सूर्यचक्र के अनुसार ही हमारे पूर्वजों का जीवनचक्र भी चलता था। भोर को उठना, सूर्यास्त होते-होते भोजन कर सोने चले जाना। सूर्यकिरणें भोजन की पौष्टिकता बनाए रखने में उपयोगी होती हैं।
वस्तुतः जीवन की धुरी है सूर्य। सूर्य से ही दिन है, सूर्य से ही रात है। सूर्य है तो मिनट है, सेकंड है। सूर्य है तो उदय है, सूर्य है तो अस्त है। सूर्य ही है कि अस्त की आशंका में पुनः उदय का विश्वास है। सूर्य कालगणना का आधार है, सूर्य ऊर्जा का अपरिमित विस्तार है। सूर्यदेव तपते हैं ताकि जगत को प्रकाश मिल सके। तपना भी ऐसा प्रचंड कि लगभग 15 करोड़ किलोमीटर दूर होकर भी पृथ्वीवासियों को पसीना ला दे।
सूर्य सतत कर्मशीलता का अनन्य आयाम है, सूर्य नमस्कार अद्भुत व्यायाम है। शरीर को ऊर्जस्वित, जाग्रत और चैतन्य रखने का अनुष्ठान है सूर्य नमस्कार। ऊर्जा, जागृति और चैतन्य का अखंड समन्वय है सूर्य।
‘सविता वा देवानां प्रसविता’…सविता अर्थात सूर्य से ही सभी देवों का जन्म हुआ है। शतपथ ब्राह्मण का यह उद्घोष अन्यान्य शास्त्रों की विवेचनाओं के भी निकट है। गायत्री महामंत्र के अधिष्ठाता भी सूर्यदेव ही हैं।
सूर्यदेव अर्थात सृष्टि में अद्भुत, अनन्य का आँखों से दिखता प्रमाणित सत्य। सूर्यदेव का मकर राशि में प्रवेश अथवा मकर संक्रमण खगोलशास्त्र, भूगोल, अध्यात्म, दर्शन सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है।
इस दिव्य प्रकाश पुंज का उत्तर की ओर संचार करना उत्तरायण है। उत्तरायण अंधकार के आकुंचन और प्रकाश के प्रसरण का कालखंड है। स्वाभाविक है कि इस कालखंड में दिन बड़े और रातें छोटी होंगी।
दिन बड़े होने का अर्थ है प्रकाश के अधिक अवसर, अधिक चैतन्य, अधिक कर्मशीलता।
अधिक कर्मशीलता के संकल्प का प्रतिनिधि है तिल और गुड़ से बने पदार्थों का सेवन।
निहितार्थ है कि तिल की ऊर्जा और गुड़ की मिठास हमारे मनन, वचन और आचरण तीनों में देदीप्यमान रहे।
सभी पाठकों को मकर संक्रांति/ उत्तरायण/ भोगाली बिहू / माघी/ पोंगल/ खिचड़ी की अनंत शुभकामनाएँ।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख साधन नहीं साधना…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 214 ☆
☆ साधन नहीं साधना… ☆
‘आदमी साधन नहीं, साधना से श्रेष्ठ बनता है। आदमी उच्चारण से नहीं, उच्च-आचरण से अपनी पहचान बनाता है’… जिससे तात्पर्य है, मानव धन-दौलत व पद-प्रतिष्ठा से श्रेष्ठ नहीं बनता, क्योंकि साधन तो सुख-सुविधाएं प्रदान कर सकते हैं, श्रेष्ठता नहीं। सुख, शांति व संतोष तो मानव को साधना से प्राप्त होती है और तपस्या व आत्म-नियंत्रण इसके प्रमुख उपादान हैं। संसार में वही व्यक्ति श्रेष्ठ कहलाता है अथवा अमर हो जाता है, जिसने अपने मन की इच्छाओं पर अंकुश लगा लिया है। वास्तव में इच्छाएं ही हमारे दु:खों का कारण हैं। इसके साथ ही हमारी वाणी भी हमें सबकी नज़रों में गिरा कर तमाशा देखती है। इसलिए केवल बोल नहीं, उनके कहने का अंदाज़ भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। वास्तव में उच्चारण अर्थात् हमारे कहने का ढंग ही हमारे व्यक्तित्व का आईना होता है, जो हमारे आचरण को पल-भर में सबके समक्ष उजागर कर देता है। सो! व्यक्ति अपने आचरण व व्यवहार से पहचाना जाता है। इसलिए ही उसे विनम्र बनने की सलाह दी गई है, क्योंकि फूलों-फलों से लदा वृक्ष सदैव झुक कर रहता है; सबके आकर्षण का केंद्र बनता है और लोग उसका हृदय से सम्मान करते हैं।
‘इसलिए सिर्फ़ उतना विनम्र बनो; जितना ज़रूरी हो, क्योंकि बेवजह की विनम्रता दूसरों के अहं को बढ़ावा देती है।’ दूसरे शब्दों में उस स्थिति में लोग आपको अयोग्य व कायर समझ आपका उपयोग करना प्रारंभ कर देते हैं और दूसरों की नज़रों में आपको हीन दर्शाने हेतु निंदा करना; उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है अथवा आदत में शुमार हो जाता है। यह तो सर्वविदित है कि आवश्यकता से अधिक किसी वस्तु का सेवन मानव को सदैव हानि पहुंचाता है। इसलिए उतना झुको; जितना आवश्यक हो, ताकि आपका अस्तित्व कायम रह सके। ‘हां! सलाह हारे हुए की, तज़ुर्बा जीते हुए का और दिमाग़ ख़ुद का… इंसान को ज़िंदगी में कभी हारने नहीं देते।’ सो! दूसरों की सलाह तो मानिए, परंतु अपने मनोमस्तिष्क का प्रयोग अवश्य कीजिए और परिस्थितियों का बखूबी अवलोकन कीजिए। सो! ‘सुनिए सबकी, कीजिए मन की’ अर्थात् समय व अवसरानुकूलता का ध्यान रखते हुए निर्णय लीजिए। ग़लत समय पर लिया गया निर्णय आपको कटघरे में खड़ा कर सकता है; अर्श से फ़र्श पर लाकर पटक सकता है। वास्तव में सुलझा हुआ व्यक्ति अपने निर्णय स्वयं लेता है तथा उसके परिणाम के लिए दूसरों को कभी भी दोषी नहीं ठहराता। इसलिए जो भी करें, आत्म- विश्वास से करें…पूरे जोशो-ख़रोश से करें। बीच राह से कभी लौटें नहीं और अपनी मंज़िल पर पहुंचने के पश्चात् ही पीछे मुड़कर देखें, अन्यथा आप अपने लक्ष्य की प्राप्ति कभी भी नहीं कर पाएंगे।
‘इंतज़ार करने वालों को बस उतना ही मिलता है, जितना कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं।’ अब्दुल कलाम जी का यह संदेश मानव को निरंतर कर्मशील बने रहने का संदेश देता है। परंतु जो मनुष्य हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाता है; परिश्रम करना छोड़ देता है और प्रतीक्षा करने लग जाता है कि जो भाग्य में लिखा है अवश्य मिल कर रहेगा। सो! उन लोगों के हिस्से में वही आता है, जो कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं। दूसरे शब्दों में आप इसे जूठन की संज्ञा भी दे सकते हैं। ‘इसलिए जहां भी रहो, लोगों की ज़रूरत बन कर रहो, बोझ बन कर नहीं’ और ज़रूरत वही बन सकता है, जो सत्यवादी हो, शक्तिशाली हो, परोपकारी हो, क्योंकि स्वार्थी इंसान तो मात्र बोझ है, जो केवल अपने बारे में सोचता है। वह उचित-अनुचित को नकार, दूसरों की भावनाओं को रौंद कर उनके प्राण तक लेने में भी संकोच नहीं करता और सबसे अलग- थलग रहना पसंद करता है।
‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते और कभी हम समझा नहीं पाते।’ इसलिए सदैव उस सलाह पर काम कीजिए, जो आप दूसरों को देते हैं अर्थात् दूसरों से वैसा व्यवहार कीजिए, जिसकी आप दूसरों से अपेक्षा करते हैं। सो! अपनी सोच सदैव सकारात्मक रखिए, क्योंकि जैसी आपकी सोच होगी; वैसा ही आपका व्यवहार होगा। अनुभूति और अभिव्यक्ति एक सिक्के के दो पहलू हैं। सो! जैसा आप सोचेंगे अथवा चिंतन-मनन करेंगे, वैसी आपकी अभिव्यक्ति होगी, क्योंकि शब्द व सोच मन में संदेह व शंका को जन्म देकर दूरियों को बढ़ा देते हैं। ग़लतफ़हमी मानव मन में एक-दूसरे के प्रति कटुता को बढ़ाती है और संदेह व भ्रम हमेशा रिश्तों को बिखेरते हैं। प्रेम से तो अजनबी भी अपने बन जाते हैं। इसलिए तुलना के खेल में न उलझने की सीख दी गई है, क्योंकि यह कदापि उपयोगी व लाभकारी नहीं होती। जहां से तुलना की शुरुआत होती है, वहीं आनंद व अपनत्व अपना प्रभाव खो देते हैं। इसलिए स्पर्द्धा भाव रखना अधिक कारग़र है, क्योंकि छोटी लाइन को मिटाने से बेहतर है, लंबी लाइन को खींच देना… यह भाव मन में तनाव को नहीं पनपने देता; न ही यह फ़ासलों को बढ़ाता है।
परमात्मा ने सब को पूर्ण बनाया है तथा उसकी हर कृति अर्थात् जीव दूसरे से अलग है। सो! समानता व तुलना का प्रश्न ही कहां उठता है? तुलना भाव प्राणी-मात्र में ईर्ष्या जाग्रत कर द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न करता है, जो स्नेह, सौहार्द व अपनत्व को लील जाता है। प्रेम से तो अजनबी भी परस्पर बंधन में बंध जाते हैं। सो! जहां त्याग, समर्पण व एक-दूसरे के लिए मर-मिटने का भाव होता है, वहां आनंद का साम्राज्य होता है। संदेह व भ्रम अलगाव की स्थिति का जनक है। इसलिए शक़ को दोस्ती का दुश्मन स्वीकारा गया है। भ्रम की स्थिति में रिश्तों में बिखराव आ जाता है और उनकी असामयिक मृत्यु हो जाती है। इसलिए समय रहते चेत जाना मानव के लिए उपयोगी है, हितकारी है, क्योंकि अवसर व सूर्य में एक ही समानता है। देर करने वाले इन्हें हमेशा के लिए खो देते हैं। इसलिए ग़लतफ़हमियों को शीघ्रता से संवाद द्वारा मिटा देना चाहिए, ताकि ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं’ वाली भयावह स्थिति उत्पन्न न हो जाए।
‘ज़िंदगी में कुछ लोग दुआओं के रूप में आते हैं और कुछ आपको सीख देकर अथवा पाठ पढ़ा कर चले जाते हैं।’ मदर टेरेसा की यह उक्ति अत्यंत सार्थक व अनुकरणीय है। इसलिए अच्छे लोगों की संगति प्राप्त कर स्वयं को
सौभाग्यशाली समझें व उन्हें जीवन में दुआ के रूप में स्वीकारें। दुष्ट लोगों से घृणा मत करें, क्योंकि वे अपना अमूल्य समय नष्ट कर आपको सचेत कर अपने दायित्व का निर्वहन करते हैं, ताकि आपका जीवन सुचारु रुप से चल सके। यदि कोई आप से उम्मीद करता है, तो वह उसकी मजबूरी नहीं…आप के साथ लगाव व विश्वास है। अच्छे लोग स्नेहवश आपसे संबंध बनाने में विश्वास रखते हैं … इसमें उनका स्वार्थ व विवशता नहीं होती। इसलिए अहं रूपी चश्मे को उतार कर जहान को देखिए…सब अच्छा ही अच्छा नज़र आएगा, जो आपके लिए शुभ व मंगलमय होगा, क्योंकि दुआओं में दवाओं से अधिक प्रभाव-क्षमता होती है। सो! ‘किसी पर विश्वास इतना करो, कि वह तुमसे छल करते हुए भी ख़ुद को दोषी समझे और प्रेम इतना करो कि उसके मन में तुम्हें खोने का डर हमेशा बना रहे।’ यह है प्रेम की पराकाष्ठा व समर्पण का सर्वोत्तम रूप, जिसमें विश्वास की महत्ता को दर्शाते हुए उसे मुख्य उपादान स्वीकारा गया है।
अच्छे लोगों की पहचान बुरे वक्त में होती है, क्योंकि वक्त हमें आईना दिखाता है और हक़ीक़त बयान करता हैं। हम सदैव अपनों पर विश्वास करते हैं तथा उनके साथ रहना पसंद करते हैं। परंतु जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो बड़ी तक़लीफ होती है। परंतु उससे भी अधिक पीड़ा तब होती है, जब कोई अपना पास रहकर भी दूरियां बना लेता है… यही है आधुनिक मानव की त्रासदी। उस स्थिति में वह भीड़ में भी स्वयं को अकेला अनुभव करता है और एक छत के नीचे रहते हुए भी उसे अजनबीपन का एहसास होता है। पति-पत्नी और बच्चे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं और नितांत अकेलापन अनुभव करते- करते टूट जाते हैं। परंतु आजकल हर इंसान इस असामान्य स्थिति में रहने को विवश है, जिसका परिणाम हम वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या के रूप में स्पष्ट देख रहे हैं। पति-पत्नी में अलगाव की परिणति तलाक़ के रूप में पनप रही है; जो बच्चों के जीवन को नरक बना देती है। हर इंसान अपने-अपने द्वीप में क़ैद है। परंतु फिर भी वह धन-संपदा व पद-प्रतिष्ठा के उन्माद में पागल अथवा अत्यंत प्रसन्न रहता है, क्योंकि वह उसके अहं की पुष्टि करता है। अतिव्यस्तता के कारण वह सोच भी नहीं पाता कि उसके कदम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर हैं। उसे भौतिक सुख-सुविधाओं से असीम आनंद की प्राप्ति होती है। इन परिस्थितियों ने उसे जीवन क्षणभंगुर नहीं लगता, बल्कि माया के कारण सत्य भासता है और वह मृगतृष्णा में उलझा रहता है। और… और …और अर्थात् अधिक पाने के लोभ में वह अपना हीरे-सा अनमोल जीवन नष्ट कर देता है, परंतु वह सृष्टि-नियंता को आजीवन स्मरण नहीं करता, जिसने उसे जन्म दिया है। वह जप-तप व साधना में विश्वास नहीं करता… दूसरे शब्दों में वह ईश्वर की सत्ता को नकार, स्वयं को भाग्य- विधाता समझने लग जाता है।
वास्तव में जो मस्त है, उसके पास सर्वस्व है अर्थात् जो व्यक्ति अपने ‘अहं’ अथवा ‘मैं ‘ को मार लेता है और स्वयं को परम-सत्ता के सम्मुख समर्पित कर देता है…वह जीते-जी मुक्ति प्राप्त कर लेता है। दूसरे शब्दों में ‘सब के प्रति सम भाव रखना व सर्वस्व समर्पण कर देना साधना है; सच्ची तपस्या है…यही मानव जीवन का लक्ष्य है।’ इस स्थिति में उसे केवल ‘तू ही तू’ नज़र आता है और मैं का अस्तित्व शेष नहीं रहता। यही है तादात्मय व निरहंकार की मन:स्थिति …जिसमें स्व-पर व राग-द्वेष की भावना का लोप हो जाता है। इसके साथ ही धन को हाथ का मैल कहा गया है, जिसका त्याग कर देना ही श्रेयस्कर है।
जहां साधन के प्रति आकर्षण रहता है, वहां साधना दस्तक देने का साहस नहीं जुटा पाती। वास्तव में धन-संपदा हमें ग़लत दिशा की ओर ले जाती है…जो सभी बुराइयों की जड़ है और साधना हमें कैवल्य की स्थिति तक पहुंचाने का सहज मार्ग है, जहां मैं और तुम का भाव शेष नहीं रहता। अलौकिक आनंद की मन:स्थिति में कानों में अनहद-नाद के स्वर सुनाई पड़ते हैं, जिसे सुनकर मानव अपनी सुध-बुध खो बैठता है और इस क़दर तल्लीन हो जाता है कि उसे सृष्टि के कण-कण में परमात्मा की सूरत नज़र आने लगती है। ऐसी स्थिति में लोग आप को अहंनिष्ठ समझ आपसे ख़फा रहने लगते हैं और व्यर्थ के इल्ज़ाम लगाने लगते हैं। परंतु इससे आपको हताश-निराश नहीं, बल्कि आश्वस्त होना चाहिए कि आप ठीक दिशा की ओर अग्रसर हैं; सही कार्यों को अंजाम दे रहे हैं। इसलिए साधना को जीवन में उत्कृष्ट स्थान दें, क्योंकि यही वह सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम मार्ग है, जो आपको मोक्ष के द्वार तक ले जाता है।
सो! साधनों का त्याग कर, साधना को जीवन में अपनाएं, क्योंकि जीवन में लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है… ‘जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकारिए और दूसरों को संतुष्ट करने के लिए जीवन में समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चलते रहिए’ विवेकानंद जी की यह उक्ति बहुत कारग़र है। समय, सत्ता, धन व शरीर जीवन में हर समय काम नहीं आते, सहयोग नहीं देते… परंतु अच्छा स्वभाव, समझ, अध्यात्म व सच्ची भावना जीवन में सदा सहयोग देते हैं। सो! जीवन में तीन सूत्रों को जीवन में धारण कीजिए… शुक़्राना, मुस्कुराना व किसी का दिल न दु:खाना। हर वक्त ग़िले-शिक़वे करना ठीक नहीं… ‘कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्तियों को लहरों के सहारे/’ अर्थात् सहज भाव से जीवन जिएं, क्योंकि इज़्ज़त व तारीफ़ खरीदी नहीं जाती, कमाई जाती है। इसलिए प्रशंसा व निंदा में सम-भाव में रहने का संदेश दिया गया है। सो! प्रशंसा में गर्व मत करें व आलोचना में तनाव-ग्रस्त मत रहें… सदैव अच्छे कर्म करते रहें, क्योंकि ईश्वर की लाठी कभी आवाज़ नहीं करती। समय जब निर्णय करता है; ग़वाहों की दरक़ार नहीं होती। तुम्हारे कर्म ही तुम्हारा आईना होते हैं; जो तुम्हें हक़ीक़त से रू-ब-रू कराते हैं। इसलिए कभी भी किसी के प्रति ग़लत सोच मत रखिए, क्योंकि सकारात्मक सोच का परिणाम सदैव अच्छा ही होगा और प्राणी-मात्र के लिए मंगलमय होगा।
पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी जी की दो पंक्तियाँ याद आ रही है,
बनने चली विश्व भाषा अपने घर में दासी है
सिंहासन पर अंग्रेजी लख सारी दुनिया हासी है।
माना कि इन दो पंक्तियों में एक हलका व्यंग्य है, पर एक चुभती सच्चाई भी है। आज जब हम वैश्वीकरण, बाजारवाद के युग में जी रहे हैं, दूरियाँ मिट रही हैं और विश्व एक ग्राम बनता जा रहा है ऐसे में भाषा एक संवेदना का विषय भी बन गया है। अंग्रेजी का बोलबाला बढ़ गया है ऐसे में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं की स्थिति गति क्या है इस पर विचार होना आज के इस कार्यक्रम का एक प्रमुख पहलू है।
आज जब हम विश्व हिंदी दिवस मना रहे हैं तब हमें ये देखना होगा कि 10 जनवरी को ही क्यों विश्व हिंदी दिवस का आयोजन किया जाता है। जब कि भारत में 14 सितंबर को हिंदी दिवस का आयोजन तो पिछले लगभग 75 सालों से किया जा रहा है। इसके पीछे एक कारण तो यह है कि 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में आयोजित प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन की वर्षगाँठ मनाने के संदर्भ में पहली बार 10 जनवरी 2006 को यह दिन विश्व हिंदी दिवस के रूप में मनया गया। यह उस दिन को चिह्नित करता है जब 1949 में संयुक्त राष्ट्र महासभा (United Nations’ General Assembly) में पहली बार हिंदी बोली गई थी। यह विश्व के विभिन्न हिस्सों में स्थित भारतीय दूतावासों द्वारा भी मनाया जाता है। इस दिवस का उद्देश्य विदेशों में भारतीय भाषा के बारे में जागरूकता पैदा करना और इसे विश्व भर में वैश्विक भाषा के रूप में प्रचारित करना है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हिंदी के स्वरूप पर बात करने से पहले जब हिंदी की विकास यात्रा पर सोचा जाय तो यह सहजता से परिलक्षित होता है कि हिंदी भाषा ने न केवल देश में बल्कि विदेश में भी अपना लोहा बनाकर रखा है। यह तो सर्वविदित है कि आज सारे संसार में सबसे अधिक बोली जानेवाली भाषाओं में हिंदी दूसरे नंबर पर है। आज ईक्कीसवीं सदी के दो दशक बीत चूके हैं। आजादी मिलकर 77 साल बीत चुके हैं। तब यह प्रासंगिक है कि हम देश विदेश में हिंदी की स्थिति गति के बारे में विचार विमर्श करें। चूँकि हम विश्व हिंदी दिवस का समारोह कर रहे हैं तो मैं अपने आप को हिंदी के वैश्विक स्वरूप तक सीमित रखकर अपनी बात रखना चाहूँगी।
दरअसल विश्व हिंदी का स्वरूप निर्धारित करने से पहले हमे विश्व भर के हिंदी विद्वानों और प्रेमियों को दो वर्गों में विभाजित करना होगा ।
पहला वर्ग उन विदेशी विद्वानों का है जिन्होंने भाषा के रूप में हिंदी का अध्ययन किया और इसके प्रचार-प्रसार एवं लेखन में योगदान किया । दूसरा वर्ग प्रवासी भारतियों का है, जो काफी बड़ी संख्या में विदेशों में बसे हैं और हिंदी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में सहयोग प्रदान कर रहे हैं।
फादर कामिल बुल्के (बुल्गारिया) डॉ. ओदोलेन स्मेकल (चेकोस्लोवाकिया) डॉ. रूपर्ट स्नेल (इंग्लैंड), डॉ. तोमिया मिजोकामी, प्रो. दोई (जापान), अलेक्सेई पेत्रोविच वरान्निकोव, डॉ. चेलीसेव (रूस), डॉ. लोठार लुत्से (जर्मनी), डॉ. रोनाल्ड स्टुवर्ट मैकग्रेगर (न्यूजीलैंड), प्रो. मारिया बृस्की (पोलैंड), डॉ. कैथरिन जी. हैन्सन (कनाडा), डॉ. माईकल सी. शपीरो (अमेरिका), डॉ. कीम ओ जू, (दक्षिण कोरिया) जैसे कई विदेशी हिंदी विद्वान हैं, जिन्हें गिन पाना कठिन होगा। ये हिंदी के वे विद्वान हैं जो हिंदी भाषा के विभिन्न रूपों के ऊपर महत्वपूर्ण शोधपरक कार्य करके समूचे विश्व में कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैं। इन्हें विश्व हिंदी के भगीरथ के नाम से जाना जाता है।
दूसरे वर्ग में प्रवासी साहित्यकारों द्वारा रचित साहित्य आता है। आज प्रवासी भारतीयों द्वारा व्यापक साहित्य लिखा जा रहा है। प्रवासी भारतीयों ने अपने जीवन एवं प्रवासी देश के वर्णन के माध्यम से हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि की है ।
प्रवासी भारतीय सम्मेलन के तत्वाधान में हर वर्ष प्रवासी हिंदी सम्मेलन की सफलता प्रवासी हिंदी लेखकों और साहित्यकारों के दमदार अस्तित्व का प्रमाण है। यह दिवस 9 जनवरी को मनाया जाता है और इसकी शुरवात 2002 से हुई है। आज प्रवासी भारतियों के साथ उनकी साहित्य की भी चर्चा हो रही है। उन्हें विभिन्न भाषाई मंचों और सम्मेलनों के माध्यम से सम्मानित किया जा रहा है । यह कोई छोटी बात नहीं है। बदले हुए परिवेश में हिंदी भाषा और साहित्य के विकास की दृष्टि से यह बहुत बड़ी घटना है । इस संबंध में विदेश मंत्रालय के ICCR, साहित्य अकादमी और अक्षरम् जैसी गैरसरकारी संस्थाओं का योगदान उल्लेखनीय है ।
प्रवासी रचनाकारों में डॉ. सत्येंद्र श्रीवास्तव, डॉ. सुषमा बेदी, उषाराजे स्कसेना, उषा प्रियंवदा, दिव्या माथुर, पद्मेश गुप्त, सरन घई, सुब्रमणी, अभिमन्यु अनंत, अंजना संधीर, तेजेन्द्र शर्मा, अर्चना पैन्युली आदि ने हिंदी साहित्य बल्कि भाषा को भी गौरवान्वित किया है। प्रवासी भारतीयों ने ओजस्वी एवं गौरवपूर्ण भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्षों को संजो कर रखने में अहम भूमिका निभाई है। आज भारत की प्राचीन लोक संस्कृति के तमाम रूपों को प्रवासी भारतीयों के लोक जीवन में देखा पाया जा सकता है।
प्रवासी भारतीयों का हिंदी साहित्य प्रारंभ में वाचिक था। किंतु बाद में यह लिखित रूप में और मुख्यधारा में आ गया। चूंकि इनका प्रवासन कठिन परिस्थितियों में हुआ था और बहुत कठिन संघर्ष के पश्चात् उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा बनाई, अतः इनके साहित्य में करुण रस की प्रधानता है । 19 वीं सदी के उत्तरार्ध में फीजी, मारिशस, सुरीनाम, ट्रिनीडाड, गयाना, दक्षिण अफ्रीका देशों में भारतीयों का गिरमिटियों के रूप में प्रवासन अति दारुण रहा था। इन देशों में गाया जाने वाला विदेशिया नामक गीत सुनने वालों की आंखों में बरबस आंसू ले आता है ।
प्रवासी भारतीयों ने भारत के बाहर हिंदी को जो रूप प्रदान किया है, ऐसा लगता है उसमें भाषाई स्वातंत्र्य के लक्षण अधिक हैं। भारत में प्रयोग की जाने वाली हिंदी और इस हिंदी के स्वरूप में वैसा ही अंतर परिलक्षित होता है जैसा ब्रिटिश और अमरीकी अंग्रेजी में । वास्तव में अमरीकी में ब्रिटिश अंग्रेजी को व्याकरण और वर्तनी की सहायता से सरलीकृत करने का प्रयास किया गया है। वैसे ही वैश्विक हिंदी में भारतीय हिंदी को कुछ अधिक सीमा तक उनकी आवश्यकता के अनुसार सरल बना दिया गया है। इस हिंदी में बेशक शब्द बेतरतीव है किंतु व्याकरण के नियम लगभग वैसे ही लागू हैं जैसे भारतीय हिंदी में लागू होते हैं। इनकी भाषा में व्याकरण का भले ही अतिक्रमण हो गया हो पर भाषा की संप्रेषणीयता में कोई कमी नहीं आती। उदाहरण के लिए हिंद महासागर की गोद में बसे मारिशस, देश प्रशांत महासागर की गोद में बसे फीजी और आंध्र महासागर की गोद में बसे कैरेबियन और सूरीनाम तथा त्रिनीडाड-आदि देशों मेंलबोली जानेवाली हिंदी हो।
दक्षिण अफ्रीका में बोली जाने वाली हिंदी को नाताली के नाम से जाना जाता है। तो फीजी में बोली जानेवाली हिंदी को फीजि हिंदी कहा जाता है तो मॉरिशस में बोली जानेवाली हिंदी को क्रियोल हिंदी कहा जाता है। वहीं युके, अमेरिका आदि देशों में खडी बेली हिंदी का प्रयोग होता है पर वहाँ भी उनकी हिंदी पर उन प्रवासियों की मातृभाषा तथा अंग्रेजी का प्रभाव दिखाई देता है।
आज हिंदी जो वैश्विक आकार ग्रहण कर रही है उसमें रोजी-रोटी की तलाश में अपना वतन छोड़ कर गए गिरमिटिया मजूदरों के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता। गिरमिटिया मजदूर अपने साथ अपनी भाषा और संस्कृति भी लेकर गए, जो आज हिंदी को वैश्विक स्तर पर फैला रहे हैं। मसलन, एशिया के अधिकतर देशों चीन, श्रीलंका, कंबोडिया, लाओस, थाइलैंड, मलेशिया, जावा आदि में रामलीला के माध्यम से राम के चरित्र पर आधारित कथाओं का मंचन किया जाता है। वहां के स्कूली पाठ्यक्रम में रामलीला को शामिल किया गया है। हिंदी की रामकथाएं भारतीय सभ्यता और संस्कृति का संवाहक बन चुकी हैं।
हिंदी के वैश्विक स्वरूप में भारत के बाहर हिंदी का अध्ययन अध्यापन भी एक महत्वपूर्ण कडी के रूप में उभरता है। 1908 में जापान में हिंदी की पढ़ाई हिंदुस्तानी के रूप में प्रारंभ हुई, जिसे ज्यादातर व्यापार करने वाले लोग पढ़ाया करते थे, पर बाद में इसका पठन-पाठन विशेषज्ञ शिक्षकों द्वारा किया जाने लगा। जापान में हिंदी का पठन-पाठन फिल्मी गीतों के माध्यम से किया जा रहा है। अमेरिका में हिंदी फिल्मी गीतों के माध्यम से पढ़ाई जाती है और प्रवासी भारतवंशी हिंदी की अलख और संस्कृति को जगाए रखे हैं।
अमेरिका में हिंदी के विकास में अखिल भारतीय हिंदी समिति, हिंदी न्यास, अंतरराष्ट्रीय हिंदी समिति का योगदान प्रमुख हैं। अमेरिका की भाषा नीति में दस नई विदेशी भाषाओं को जोड़ा गया है, जिनमें हिंदी भी शामिल है।
हिंदी शिक्षा के लिए डरबन में हिंदी भवन का निर्माण किया गया है और एक कम्युनिटी रेडियो के माध्यम से हिंदी का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। वे सोलह घंटे सीधा प्रसारण हिंदी में देते हैं। इसके अलावा हिंदी के गाने बजाए जाते हैं। फीजी, त्रिनीडाड, मॉरीशस में हिंदी का वर्चस्व है तथा उनका संकल्प हिंदी को विश्व भाषा बनाने का है। इतना ही नहीं साउथ कोरिया, चीन, बुल्गारिया आदि देशों में विदेश मंत्रालय द्वारा हिंदी द्वारा हिंदी पीठ की स्थापना की गई है।
आज भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं बल्कि दक्षिण पूर्व एशिया, मॉरीशस, चीन, जापान, कोरिया, मध्य एशिया, खाडी देशों, अफ्रीका, यूरोप, कनाडा तथा अमेरिका तक हिंदी कार्यक्रम उपग्रह चैनलों के जरिए प्रसारित हो रहे हैं और भारी तादाद में उन्हें दर्शक भी मिल रहे हैं। रेडियो सीलोन और श्रीलंकाई सिनेमाघरों में चल रही हिंदी फिल्मों के माध्यम से हिंदी की उपस्थिति समझी जा सकती है। गत कुछ वर्षों में एफ.एम. रेडियो के विकास से हिंदी कार्यक्रमों का नया श्रोता वर्ग पैदा हो गया है। हिंदी अब नई प्रौद्योगिकी के रथ पर आरूढ होकर विश्वव्यापी बन रही है। उसे ई-मेल, ई-कॉमर्स, ई-बुक, इंटरनेट, एस.एम.एस. एवं वेब जगत में बडी सहजता से पाया जा सकता है। इंटरनेट जैसे वैश्विक माध्यम के कारण हिंदी के अखबार एवं पत्रिकाएँ दूसरे देशों में भी विविध साइट्स पर उपलब्ध हैं।
आज तक भारत की पहचान समाज, संस्कृति और अध्यात्म के परिप्रेक्ष्य में हो रही है पर अब समय ने करवट ली है और सारा विश्व भारत की ओर एक उभरती आर्थिक शक्ति की नज़रों से देख रहा है। भारत का यह उत्थान अखिल भारतीय स्तर पर निश्चित रूप से किसी विदेशी भाषा के माध्यम से नहीं होगा। आज यह स्थापित सत्य है कि अंग्रेजी के दबाव के बावजूद हिंदी बहुत ही तीव्र गति से विश्वमन के सुख-दु:ख, आशा-आकांक्षा की संवाहक बनने की दिशा में अग्रसर है। आज समय की माँग है कि हम सब मिलकर हिंदी के विकास की यात्रा में शामिल हों ताकि तमाम निकषों एवं प्रतिमानों पर कसे जाने के लिये हिंदी को सही मायने में विश्विक स्तर पर गरिमा प्रदान कर सकें।