हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ‘स्वामी विवेकानंद-ज्योतिर्मय आदर्श’ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

‘स्वामी विवेकानंद-ज्योतिर्मय आदर्श’ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

नमस्कार पाठक गण!

यह लेख आपको नव वर्ष की शुभकामनाएँ देने के लिए तो है ही! लेकिन इस वर्ष के इस नये लेख के लिए मेरे आदर्श स्वामी विवेकानन्द के बारे में लिखने के अवसर के अलावा और कोई औचित्य नहीं हो सकता। जैसे ही हम ‘स्वामी’ नाम का उच्चारण करते हैं, एक गेरुआ वस्त्रधारी व्यक्तित्व हमारी आंखों के सामने खड़ा हो जाता है, जो किसी एकांत वन या गुफा में कठोर तपस्या कर रहा है! ऐसे विजनवास को जानबूझकर स्वीकार करने का कारण होता है, इस नश्वर संसार में माया के प्रलोभन से मुक्ति पाकर ईश्वर प्राप्ति करना!

लेकिन मित्रों, इसके एक अपवाद का स्मरण होता है, स्वामी विवेकानन्द, जो हिंदू धर्म की समृद्ध अवधारणा के महान सार्वभौमिक राजदूत थे! ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ अर्थात संपूर्ण वसुधा या विश्व एक परिवार की तरह है, यह मौलिक और अमूल्य संदेश दुनिया को देने वाले सच्चे विश्व नेता! मित्रों, आज के शुभ दिन यानि, १२  जनवरी को इस महान वैश्विक नेता की जयंती है। १८६३ में आज ही के दिन कोलकाता में जन्मे, ‘ ईश्वर में पूरी तरह से अविश्वासी’, बेहद जिज्ञासु नरेन्द्रनाथ दत्त (स्वामीजी का पूर्व नाम) कई विद्वानों और साधु-संतों से पूछा करते थे, “क्या आपने ईश्वर को देखा है?” लेकिन एकमात्र उत्तर स्वामी रामकृष्ण परमहंस, जो एक  दक्षिणेश्वर मंदिर में ‘काली माँ’ के प्रबल भक्त और महान संत,थे, से आया, “हाँ”, और फिर गुरु और शिष्य की सांसारिक और पारलौकिक रूप से एक ऐतिहासिक समानांतर यात्रा शुरू हुई। इसमें नरेंद्र को देवी माँ और अपने परम गुरु से शुभाशीष और मोक्ष की प्राप्ति हुई।

स्वामीजी महान भारतीय सन्यासी और दार्शनिक थे। १९ सितंबर १८९३ को शिकागो में विश्व धर्म संसद में, विवेकानंद के प्रसिद्ध भाषण ने स्पष्ट रूप से ‘हिंदू धर्म और अंतरधार्मिक संवाद के इतिहास में एक ऐतिहासिक और प्रभावशाली क्षण’ के रूप में रेखांकित किया। जिस समय अन्य सभी धार्मिक नेता बहुत औपचारिक तरीके से, ‘देवियों और सज्जनों!’ इस प्रकार दर्शकों को संबोधित कर रहे थे, उसी समय ब्रिटिश भारत के इस युवा और तेजस्वी प्रतिनिधि ने ७००० से अधिक प्रतिष्ठित दर्शकों के समक्ष खड़े होकर उन्हें ‘अमरीका के मेरे भाइयों और बहनों’ इस तरह अत्यंत प्रेम से संबोधित किया। धर्म, नस्ल, जाति और पंथ की सभी बंधनों के परे जाकर, अलौकिक बुद्धिमानी से स्वयंप्रकाशित इस युवक ने मानवता के एक समान सूत्र से सभागृह में उपस्थित हर एक व्यक्ति से अपने आप को जोड़ दिया। क्या यह कोई आश्चर्य की बात है कि, तीन मिनट से अधिक समय तक इन सम्पूर्ण रूप से अजनबियों ने तालियों की गड़गड़ाहट के साथ उसका अभिवादन किया? इसके फलस्वरूप इस प्रतिभाशाली युवक को भाषण के लिए पहले जो थोड़ा समय दिया गया था, उसे बड़ी प्रसन्नता से बढ़ा दिया गया। ये ‘४७३ ज्योतिर्मय शब्द’ आज भी शिकागो के कला संस्थान में इस प्रथम दिव्य वाणी के अनूठे प्रतीक के रूप में गर्व से प्रदर्शित किये जाते रहे हैं। इस एक भाषण से भारत के इस मेधावी सुपुत्र ने पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया और उसके पश्चात उन्हें दुनिया भर में कई जगहों पर बड़े सम्मान के साथ मार्गदर्शन वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया।

बड़े आश्चर्य की बात यह है कि, अपने पहले भाषण में स्वामीजी ने कहा, “भारत की प्राथमिकता धर्म नहीं, गरीबी है!” उनका मूल उद्देश्य अपने गरीब भारतीय भाई-बहनों का हर प्रकार से उत्थान करना था। इस सामाजिक उद्देश्य के लिए ‘रामकृष्ण मठ’ और ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की गई। मिशन दुनिया भर में २६५ केंद्रों के माध्यम से जरूरतमंद लोगों को सेवाएं प्रदान करता है (२०२२ के आंकड़ों के अनुसार भारत में ऐसे १९८ केंद्र हैं)। ये संगठन धार्मिक प्रवचनों के अलावा भी बहुत कुछ करते हैं। स्वामीजी के सपने को आगे बढ़ाने और निम्न से निम्न स्तर पर लोगों की सेवा करने के लिए यह मिशन हमेशा सबसे अग्रणी रहता है। विभिन्न भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं में स्वामीजी और उनके शिष्यों के साहित्य प्रकाशनों के माध्यम से इन उद्देश्यों को प्रचारित और प्रसारित किया जाता है। मिशन द्वारा संचालित धर्मार्थ अस्पताल, मोबाइल क्लिनिक और प्रसूति केंद्र पूरे भारत में फैले हुए हैं। मिशन द्वारा नर्सों के लिए प्रशिक्षण केंद्र, अनाथालय और वृद्धाश्रम भी चलाए जाते हैं। यह सामाजिक कार्य ग्रामीण एवं आदिवासी कल्याण कार्यों के साथ समन्वय साधते हुए निरंतर चलाया जा रहा है। स्कूलों में विद्यार्थियों को पढ़ाई के साथ-साथ स्कूल ड्रेस, अल्पाहार और पुस्तकें भी दी जाती हैं।

मानवता के मूर्तिमंत प्रतीक, एक निस्वार्थ सामाजिक नेता और हिंदू धर्म के कट्टर अनुयायी, स्वामीजी ने हर भारतीय में ईश्वर को देखा। उन्होंने पूरे देश की पैदल यात्रा की। जनता से करीबी रिश्ता बनाते हुए उन्होंने भारतीयों की समस्याओं को समझा, उन्हें आत्मसात किया और अपना पूरा जीवन इन समस्याओं की जटिलताओं को सुलझाने में लगा दिया। अपने दिव्य प्रतिभाशाली गुरु परमहंस की सलाह पर उन्होंने भारत की यह पूरी यात्रा की। परमहंस ने स्वामीजी को बहुमूल्य सलाह दी थी, “हिमालय की गुफाओं में ध्यान करने और केवल स्वयं की मुक्ति को तलाशने के बजाय भारत के समूचे गरीब लोगों की सेवा करो|” खराब स्वास्थ्य के चलते हुए भी अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए विवेकानन्दजी का यह सेवाव्रत जारी रहा। स्वामीजी ४ जुलाई १९०२ को मात्र ३९ साल की उम्र में बेलूर मठ, हावड़ा में महा-समाधि में चले गए।

प्रिय मित्रों, स्वामीजी के प्रेरक उद्धरण बार-बार दोहराए जाते रहे हैं। उनमें से मेरे कुछ प्रिय उद्धरण आप के साथ साझा कर रही हूँ:

*ईश्वर की संतान होने का आत्मविश्वास

“तुम सर्वशक्तिमान हो| तुम कुछ भी और सबकुछ कर सकते हो|”

*आत्मचिंतन

“दिनभर में कम से कम एक बार स्वयं से बातचीत कीजिये, वर्ना आप इस जग के एक बुद्धिमान व्यक्ति से मिलने का अवसर खो देंगे|”

*बाधाएँ और उन्नति

“जिस किसी दिन आप किसी भी समस्या का सामना नहीं करते, तब यह पक्का मान कर चलिए कि, आप गलत राह पर मार्गक्रमण कर रहे हैं|”

प्रिय पाठकों, आइए, इस विशेष दिन पर हम भारत के महान सुपुत्र, प्रभावशाली दार्शनिक, समाज सुधारक, सकल जग को वंदनीय तथा वेदांत के विश्व उपदेशक स्वामी विवेकानन्दजी को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करें और उनके प्रेरक दर्शन को आत्मसात करने का प्रयास करें!

धन्यवाद🙏🌹

©  डॉ. मीना श्रीवास्तव

दिनांक-१२ जानेवारी २०२४

ठाणे

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 249 ⇒ एकादशी का व्रत… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एकादशी का व्रत।)

?अभी अभी # 249 ⇒ एकादशी का व्रत… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मैं एकपत्नी व्रतधारी हूं, और एकादशी का व्रत भी करता हूं। एकपत्नी व्रत और एकादशी व्रत, यानी दो दो व्रत एक साथ ! इस तरह, एक और एक मिलकर, मुझे दो नहीं, ग्यारह व्रतों का पुण्य प्राप्त हो जाता है।

व्रत उपवास और पूजा पाठ वैसे तो महिलाओं के लिए ही बने हैं, क्योंकि एक पति की तुलना में पत्नी ही अधिक धार्मिक और संस्कारशील होती है। पति पत्नी का धर्म का गठबंधन होता है, कोई भी पुण्य करे, बांट लेंगे हम आधा आधा।।

जब छोटे थे, तो घर में मां और बहन को व्रत उपवास करते देखते थे। हमें वही दाल रोटी और उनके लिए गमागर्म राजगिरे का हलवा और साबूदाने की खिचड़ी। मुंह ललचाता देख, हमें भी चखने को मिल ही जाता था। लेकिन दिन भर भूखा रहना हमारी मर्कट वृत्ति से मेल नहीं खाता था। हर आधे घंटे में उछलकूद के बाद हमारा मुंह अक्सर चलता ही रहता था।

व्रत उपवास मन और जिह्वा पर संयम तो रखते ही हैं, कुछ पुण्य भी आखिर मिलता ही होगा। थोड़ा बड़े हुए, तो जन्माष्टमी जैसा उपवास दिन भर स्वादिष्ट फलाहार के आधार पर निकाल ही लेते थे। लेकिन दूसरे दिन तबीयत से पूरी कसर निकाल लेते थे।।

आश्चर्य होता है, लोग कैसे पूरा सप्ताह व्रत उपवास पर ही निकाल लेते हैं। आज सोमवार तो कल मंगलवार, इधर चतुर्थी का व्रत तो उधर प्रदोष। गुरुवार और शनिवार भी नहीं छोड़ते। कभी नमक छोड़ रहे हैं तो कभी चावल। कितना पुण्य संचित हो जाता होगा, स्वास्थ्य कितना उत्तम और चित्त कितना शुद्ध हो जाता होगा।

कभी कभी मुझ जैसे सेवा निवृत्त पति का भी व्रत उपवास से पाला पड़ ही जाता है। जब कोई सगा संबंधी नहीं रहता, तो पण्डित जी अति भावुक क्षणों में एकादशी का संकल्प करवा लेते हैं। व्रत उपवास का मामला धार्मिक है, केवल धर्मपत्नी ही इस धर्मसंकट में हमारी मदद कर सकती है।।

एक दिन पहले से आगाह कर दिया जाता है, कल एकादशी है। दफ्तर में टिफिन नहीं ले जाओगे, और लंच के वक्त, किसी के भी टिफिन में मुंह नहीं मारोगे। सुबह हमारी तासीर के अनुसार तगड़ा फलाहार उपलब्ध कराया जाता है, इस हिदायत के साथ, दफ्तर से सीधे घर आओगे, होटल के चाय कचोरी, समीसे, पोहे पर सख्त प्रतिबंध।

हमारे जीवन की वह पहली एकादशी पिताजी को समर्पित थी। बहुत ही संजीदा मामला था। दफ्तर में पूरा मन काम में लगाया। उस दिन लोग खाने पीने की बातें जरा ज्यादा ही करते हैं। लंच में भूख तो लगनी ही थी, याद से, चुपचाप अकेले बाहर जाकर ठेले पर ही, तीन केले सूतकर आ गए।।

अब हम निश्चिंत थे। हमारा जीवन का पहला एकादशी का व्रत सफल होने जा रहा था। खुशी खुशी दफ्तर का काम निपटा ही रहे थे, कि एक मित्र तशरीफ लाए। बहुत दिनों बाद मिले थे। पुरानी आदत अनुसार बोले, लाल बाल्टी वाली कचोरी नहीं खिलवाओगे आज ? ना तो हम ना कर सके, और ना ही हम यह याद रख सके कि आज हमारा एकादशी का व्रत है। बस आव देखा ना ताव, कचोरी की दुकान पर दो कचोरी ऑर्डर कर दी।

पहला ग्रास तोड़ा ही था, कि अचानक याद आया, हे भगवान, आज तो एकादशी थी। मुंह तो जूठा हो ही गया था, सोचा, इसमें कचोरी की क्या गलती है। लेकिन पश्चाताप के कारण मन बहुत उदास हो गया और हमने शेष कचोरी का निष्ठुरतापूर्वक त्याग कर दिया। सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया।।

हारे हुए अर्जुन की तरह मुंह लटकाए घर लौटे।

पत्नियों की छठी इन्द्री बहुत तेज होती है। वह समझ गई, जरूर दाल में काला है। वह काफी संयत रही, बोली आपको अपनी गलती का तुरंत अहसास हो गया, यही बहुत हैं। यह मानकर चलें कि आपका व्रत खंडित नहीं हुआ है। आपके लिए साबूदाने की खिचड़ी और रबड़ी तैयार है। प्रायश्चित स्वरूप एक एकादशी और कर लेना।

वह दिन है और आज का दिन है। बिना किसी संकल्प अथवा पुण्य प्राप्ति की आस के, हर एकादशी पर केवल फलाहार का ही सेवन होता है। धर्मपत्नी के लिए भले ही वह व्रत हो, मेरे लिए वह भोजन में सिर्फ एक तरह का चेंज है। लेकिन अब मन पर इतना वश तो है ही कि लाल बाल्टी वाली कचोरी हो अथवा छप्पन और सराफे की चाट, हम कोई विश्वामित्र नहीं जो कोई मेनका हमको अपने व्रत से आसानी से डिगा दे। क्योंकि अब हम एकपत्नी व्रतधारी भी हैं, और एकादशी व्रत धारी भी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  3

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 248 ⇒ नये साल का कैलेंडर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नये साल का कैलेंडर।)

?अभी अभी # 248 ⇒ नये साल का कैलेंडर… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस तरह हर रोज तारीख बदलती है, हर वर्ष कैलेंडर भी बदलता है। कैलेंडर वही जो तारीख भी बताए और तिथि भी ! जब घरों में टीवी, और लोगों के हाथ में मोबाइल नहीं था, तब हर घर में, दीवार पर, कम से कम एक अदद कैलेंडर जरूर टंगा रहता था। समय की पहचान तो घड़ी से हो जाती है, कैलेंडर तो तिथि, तारीख, वार और महीना सबकी जानकारी रखता है।

घर गृहस्थी के बहुत काम आता था कैलेंडर। दूध वाला कितना भी चालाक हो, एक कुशल गृहिणी दूध का पूरा हिसाब कैलेंडर पर लिखकर रखती थी। जिस तारीख को दूध वाला नहीं आया, उस तारीख के आसपास एक घेरा नजर आता था जिसे किसी अदालत में चैलेंज नहीं किया जा सकता था।।

सभी बड़े व्यवसायिक प्रतिष्ठान, सरकारी, अर्ध सरकारी विभाग और राष्ट्रीयकृत बैंकें अपने सम्मानित ग्राहकों को आज भी कैलेंडर और डायरियां भेंट करते हैं।

तब घरों में कीलें ठोंकी जाती थी और कपड़े हैंगर पर नहीं, खूंटी पर टांगे जाते थे। नया साल शुरू होते ही, महिलाएं, सौदे के साथ कैलेंडर की मांग भी करती थी। साड़ी की दुकान, किराने वाले की दुकान, दवाई वाला हो अथवा खानदानी ज्वेलर, एक कैलेंडर तो बनता ही था।।

अक्सर कैलेंडरों पर देवी देवताओं के ही चित्र होते थे। बड़े बड़े व्यावसायिक प्रतिष्ठान अधिकतर प्रकृति प्रेमी होते थे। शासकीय कैलेंडर पर सरकारी योजनाओं की तस्वीरें होती थी। अगर कीलें कम पड़ जाती तो और ठोंक दी जाती। वैसे भी घर और दीवारों की शोभा कैलेंडर से ही तो होती है।

हमारे देश में शिवकाशी, तमिल नाडु में केवल फटाके ही नहीं बनते, सस्ते, सुंदर और टिकाऊ कैलेंडर भी थोक में छापे जाते हैं। पूरा कैलेंडर वही रहता है, बस छापने वाले का नाम जोड़ दिया जाता है, ठीक छपे छपाए विवाह के निमंत्रण पत्र के फॉर्मेट की तरह।।

ऊंचे लोग, ऊंची पसंद ! कैलेंडर शराब की कंपनियां भी छापती थी। उनके कैलेंडर शरीफ घरों में नहीं टांगे जाते थे। फिर भी कैलेंडर अगर शौक है तो जरूरत भी। जो अधिक शरीफ और शालीन लोग होते थे, वे तो हर साल अस्पताल से ही कैलेंडर ले आते थे।

आपको तिथि और तारीख ही तो देखनी है, वार त्योहार, व्रत उपवास देखना है, तो घर में एक लाला रामस्वरूप का पंचांग वाला कैलेंडर ही काफी है। वैसे आपकी मर्जी, आपका घर है, जितना जी चाहें कैलेंडर टांगें, लेकिन अस्पताल वाले कैलेंडर तो बस, हम दो हमारे दो। क्योंकि वे कैलेंडर नहीं, आपके दिल के टुकड़े हैं।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 247 ⇒ चाॅंद और चाॅंद… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चाॅंद और चाॅंद।)

?अभी अभी # 247 ⇒ चाॅंद और चाॅंद… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

चाॅंद को देखो जी ! आपने बदली का चांद तो देखा ही होगा, घूंघट के चांद के अलावा कुछ लोग ईद के चांद भी होते हैं, लेकिन इसके पहले कि हम चौथे चांद का जिक्र करें, जरा अपने सर पर हाथ तो फेर लीजिए, कहीं यह चौथा चांद आपके सर पर ही तो नहीं।

हम जब छोटे थे, तो सबके सर पर बाल होते थे। लोग जब हमारे सर पर प्यार से हाथ फेरते, तो बड़ा अच्छा लगता था। हमारे बाल बड़े होते तो कटवा दिए जाते थे, और दीदी के बाल जब बड़े होते थे, तो उसकी चोटी बनाई जाती थी। हम उसको दो चोटी वाली कहकर चिढ़ाते थे। डांट भी पड़ती थी, मार भी खाते थे।।

बालों को अपनी खेती कहा गया है। हम जब गंजों को देखते थे, तो सोचा करते थे, इनके बाल कहां चले गए। इस मासूम से सवाल का तब भी एक ही जवाब होता था, उड़ गए। लेकिन तब भी हम कहां इतने मासूम थे। क्योंकि हमने तो सुन रखा था नया दौर का वह गाना, उड़े जब जब जुल्फें तेरी। यानी उनकी तो जुल्फ उड़े, और हमारे बाल। वाह रे यह कुदरत का कमाल। उधर सावन की घटा और इधर पूरा सफाचट मैदान।

कल चमन था, आज एक सहरा हुआ, देखते ही देखते ये क्या हुआ ! हम रोज सुबह जब आइना देखते हैं, तो अपने बाल भी देखते हैं। पुरुष काली घटाओं और रेशमी जुल्फों का दीवाना तो होता है, लेकिन खुद बाबा रामदेव की तरह लंबे बाल नहीं रखना चाहता। खुद तो देवानंद बनता फिरेगा और देवियों में साधना कट ढूंढता फिरेगा।।

चलिए, पुरुष तो शुरू से ही खुदगर्ज है, महिलाएं ही हमेशा आगे आई हैं और पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलते चलते बहुत आगे निकल गई हैं। उनके बाल छोटे लेकिन कद बहुत ऊंचा हो गया है। आज का सामाजिक दायित्व और बढ़ती चुनौतियां उससे यह कहती प्रतीत होती हैं ;

जुल्फें संवारने से

बनेगी ना कोई बात।

उठिए, किसी गरीब की

किस्मत संवारिये।।

ईश्वर इतना निष्ठुर भी नहीं !

अगर वह पुरुष के सर के बाल उड़ा रहा है तो क्षतिपूर्ति स्वरूप उसे दाढ़ी और मूंछ भी तो प्रदान कर रहा है। अक्सर पहलवान गंजे और मूंछ वाले होते हैं। और दाढ़ी की तो पूछिए ही मत, आजकल तो दाढ़ी ही मर्द की असली पहचान है। क्यों ऐश्वर्या और अनुष्का और कल की गुड्डी और आज की बूढ़ी जया जी, कि मैं झूठ बोलिया? अजी कोई ना।

कहने की आवश्यकता नहीं, लेकिन खुदा अगर गंजे को नाखून नहीं देता तो स्त्रियों को भी दाढ़ी मूंछ नहीं देता। बस अपने चांद से चेहरे पर लटों को उलझने दें। यह पहेली तो कोई भी सुलझा देगा।।

कहते हैं, अधिक सोचने से सर के बाल उड़ने शुरू हो जाते हैं। बात में दम तो है। सभी चिंतक, विचारक, दार्शनिक, वैज्ञानिक संत महात्मा इसके ज्वलंत प्रमाण हैं।

गंजे गरीब, भिखमंगे नहीं होते, पैसे वाले और तकदीर वाले होते हैं। जब किसी व्यक्ति का ललाट और खल्वाट एक हो जाता है, तो वहां प्रसिद्धि की फसल पैदा होने लगती है। तबला दिवस तो निकल गया, मेरा नाती फिर भी मेरी टक्कल पर तबला बजाता है। लगता है, मेरे भी दिन फिर रहे हैं। सर पर मुझे भी सफाचट मैदान नजर आने लगा है। मैं पत्नी को बुलाकर कहता हूं, तुम वाकई भागवान हो।

सर पर बाल रहे ना रहे, बस ईश्वर का हाथ सदा सर पर रहे।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 90 – शेर, बकरी और घास… ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  शेर, बकरी और घास

☆ आलेख # 90 –  शेर, बकरी और घास… ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

बचपन के स्कूली दौर में जब क्लास में शिक्षक कहानियों की पेकिंग में क्विज भी पूछ लेते थे तो जो भी छात्र सबसे पहले उसे हल कर पाने में समर्थ होता, वह उनका प्रिय मेधावी छात्र हो जाता था और क्लास का हीरो भी. यह नायकत्व तब तक बरकरार रहता था जब तक अगली क्विज कोई दूसरा छात्र सबसे पहले हल कर देता था. शेष छात्रों के लिये सहनायक का कोई पद सृजित नहीं हुआ करता था तो वो सब नेचरली खलनायक का रोल निभाते थे. उस समय शिक्षकों का रुतबा किसी महानायक से कम नहीं हुआ करता था और उनके ज्ञान को चुनौती देने या प्रतिप्रश्न पूछने की जुर्रत पचास पचास कोस दूर तक भी कोई छात्र सपने में भी नहीं सोच पाता था. उस दौर के शिक्षक गण होते भी बहुत कर्तव्यनिष्ठ और निष्पक्ष थे. उनकी बेंत या मुष्टि प्रहार अपने लक्ष्यों में भेदभाव नहीं करता था और इसके परिचालन में सुस्पष्टता, दृढ़ता, सबका साथ सबकी पीठ का विकास का सिद्धांत दृष्टिगोचर हुआ करता था. इस मामले में उनका निशाना भी अचूक हुआ करता था. मजाल है कि बगल में सटकर बैठे निरपराध छात्र को बेंत छू भी जाये. ये सारे शिक्षक श्रद्धापूर्वक इसलिए याद रहते हैं कि वे लोग मोबाइलों में नहीं खोये रहते थे. पर्याप्त और उपयुक्त वस्त्रों में समुचित सादगी उनके संस्कार थे जो धीरे धीरे अपरोक्ष रूप से छात्रों तक भी पहूँच जाते थे. वस्त्रहीनता के बारे में सोचना महापाप की श्रेणी में वर्गीकृत था. ये बात अलग है कि देश जनसंख्या वृद्धि की पायदानों में बिनाका गीत माला के लोकप्रिय गीतों की तरह कदम दरकदम बढ़ता जा रहा था. वो दौर और वो लोग न जाने कहाँ खो गये जिन्हें दिल आज भी ढूंढता है, याद करता है.

तो प्रिय पाठको, उस दौर की ही एक क्विज थी जिसके तीन मुख्य पात्र थे शेर, बकरी और घास. एक नौका थी जिसके काल्पनिक नाविक का शेर कुछ उखाड़ नहीं पाता था, नाविक परम शक्तिशाली था फिर भी बकरी, शेर की तरह उसका आहार नहीं थी. (जो इस मुगालते में रहते हैं कि नॉनवेज भोजन खाने वाले को हष्टपुष्ट बनाता है, वो भ्रमित होना चाहें तो हो सकते हैं क्योंकि यह उनका असवैंधानिक मौलिक अधिकार भी है. )खैर तो आदरणीय शिक्षक ने यह सवाल पूछा था कि नदी के इस पार पर मौजूद शेर, बकरी और घास को शतप्रतिशत सुरक्षित रूप से नदी के उस पार पहुंचाना है जबकि शेर बकरी का शिकार कर सकता है और बकरी भी घास खा सकती है, सिर्फ उस वक्त जब शिकारी और शिकार को अकेले रहने का मौका मिले. मान लो के नाम पर ऐसी स्थितियां सिर्फ शिक्षकगण ही क्रियेट कर सकते हैं और छात्रों की क्या मजाल कि इसे नकार कर या इसका विरोध कर क्लास में मुर्गा बनने की एक पीरियड की सज़ा से अभिशप्त हों. क्विज उस गुजरे हुये जमाने और उस दौर के पढ़ाकू और अन्य गुजरे हुये छात्रों के हिसाब से बहुत कठिन या असंभव थी क्योंकि शेर, बकरी को और बकरी घास को बहुत ललचायी नज़रों से ताक रहे थे. पशुओं का कोई लंचटाइम या डिनर टाईम निर्धारित नहीं हुआ करता है(इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि मनुष्य भी पशु बन जाते हैं जब उनके भी लंच या डिनर  का कोई टाईम नहीं हुआ करता. )मानवजाति को छोडकर अन्य जीव तो उनके निर्धारित और मेहनत से प्राप्त भोजन प्राप्त होने पर ही भोज मनाते हैं. खैर बहुत ज्यादा सोचना मष्तिष्क के स्टोर को खाली कर सकता है तो जब छात्रों से क्विज का हल नहीं आया तो फिर उन्होंने ही अपने शिष्यों को अब तक की सबसे मूर्ख क्लास की उपाधि देते हुये बतलाया कि इस समस्या को इस अदृश्य नाविक ने कैसे सुलझाया. वैसे शिक्षकगण हर साल अपनी हर क्लास को आज तक की सबसे मूर्ख क्लास कहा करते हैं पर ये अधिकार, उस दौर के छात्रों को नहीं हुआ करता था. हल तो सबको ज्ञात होगा ही फिर भी संक्षेप यही है कि पहले नाविक ने बकरी को उस पार पहुंचाया क्योंकि इस पार पर शेर है जो घास नहीं खाता. ये परम सत्य आज भी कायम है कि “शेर आज भी घास नहीं खाते”फिर नाव की अगली कुछ ट्रिप्स में ऐसी व्यवस्था की गई कि शेर और  बकरी या फिर बकरी और घास को एकांत न मिले अन्यथा किसी एक का काम तमाम होना सुनिश्चित था.

शेर बकरी और घास कथा: आज के संदर्भ में

अब जो शेर है वो तो सबसे शक्तिशाली है पर बकरी आज तक यह नहीं भूल पाई है कि आजादी के कई सालों तक वो शेर हुआ करती थी और जो आज शेर बन गये हैं, वो तो उस वक्त बकरी भी नहीं समझे जाते थे. पर इससे होना क्या है, वास्तविकता रूपी शक्ति सिर्फ वर्तमान के पास होती है और वर्तमान में जो है सो है, वही सच है, आंख बंद करना नादानी है. अब रहा भविष्य तो भविष्य का न तो कोई इतिहास होता है न ही उसके पास वर्तमान रूपी शक्ति. वह तो अमूर्त होता है, अनिश्चित होता है, काल्पनिक होता है. अतः वर्तमान तो शेर के ही पास है पर पता नहीं क्यों बकरी और घास को ये लगता है कि वे मिलकर शेर को सिंहासन से अपदस्थ कर देंगे. जो घास हैं वो अपने अपने क्षेत्र में शेर के समान लगने की कोशिश में हैं पर पुराने जमाने की वास्तविकता आज भी बरकरार है कि शेर बकरी को और बकरी घास को खा जाती है. बकरी और घास की दोस्ती भी मुश्किल है और अल्पकालीन भी क्योंकि घास को आज भी बकरी से डर लगता है. वो आज भी डरते हैं कि जब विगतकाल का शेर बकरी बन सकता है तो हमारा क्या होगा. 

कथा जारी रह सकती है पर इसके लिये भी शेर, बकरी और घास का सुरक्षित रूप से बचे रहना आवश्यक है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 246 ⇒ विचारों की फसल… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विचारों की फसल।)

?अभी अभी # 246 ⇒ विचारों की फसल… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

फसल खेत में उगती है, आसमान में नहीं। ईश्वर ने मनुष्य को सोचने समझने और विचार करने की शक्ति दी है, और सोचने के लिए दिमाग दिया है।

बिना मिट्टी के कोई देश नहीं बना, कोई इंसान नहीं बना। साहिर तो यहां तक कह गए हैं कि;

कुदरत ने बख्शी थी

हमें एक ही धरती।

हमने कहीं भारत

कहीं ईरान बनाया।।

जिन पांच तत्वों से यह संसार बना है, उन्हीं पांच तत्वों से हमारा शरीर भी बना है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश, ये ही पांच तत्व हमारे शरीर में भी मौजूद हैं। हम गलत नहीं कहते, जब किसी को देखकर यह कहते हैं, किस मिट्टी के बने हो यार।

सोचने विचारने का काम हमारा मस्तिष्क यानी दिमाग करता है, मिट्टी से बड़ा कोई उर्वरक पदार्थ इस पृथ्वी पर है ही नहीं, और यही पृथ्वी तत्व हमारे मस्तिष्क में भी है, और शायद इसीलिए इसमें हर पल विचार आते जाते रहते हैं। कितना स्टोरेज है ब्रेन का, कोई नहीं जानता। विचारों की कितनी फसल हम ले चुके है, और कितनी लेते रहेंगे, इसका कोई हिसाब नहीं। मस्तिष्क कब आराम करता है, और कब यह सोचना शुरू करता है, कहना मुश्किल है।।

नदी के प्रवाह की तरह विचारों का प्रवाह भी होता है, जो सतत प्रवाहित होता रहता है। नदी की तरह विचारों पर भी बांध बनते हैं, नहरें निकलती है, विचारों से भी बिजली निकलती है, ज्ञान के दीप जलते हैं। कभी कभी तो जब विचारों का बांध टूटता है, तो तबाही मच जाती है, समाज में अराजकता और अनैतिकता का तांडव शुरू हो जाता है।

एक समझदार किसान तो बंजर जमीन पर भी हल जोतकर, अच्छी हवा, पानी और बीज के सहारे उसे उपजाऊ बनाकर खेती कर लेता है, रात रात भर जाग जागकर उसकी जंगली जानवरों और चोरों से रखवाली करता है, तब उसे परिश्रम का फल मिलता है, उसकी फसल कटकर तैयार होती है। बस विचारों का भी ऐसा ही है।।

विचार भी तो बीज रूप में ही होते हैं। अगर उन्हें भी अच्छी मिट्टी, खाद, हवा, पानी और देखभाल मिल जाए, तो वे भी पल्लवित हो वाणी अथवा लेखनी द्वारा प्रकट होते हैं, कहीं कविता की निर्झरिणी प्रकट होती है, तो कहीं शाकुंतल और मेघदूतम् के रूप में कालिदास प्रकट होता है।

वनस्पति जगत की तरह ही है, यह पूरा विचारों का भी जगत। कहीं जंगल तो कहीं हरियाली, कहीं शालीमार और निशात जैसे बाग बागीचे, तो कहीं देवदार के तने हुए पेड़।

कथा, कहानी, उपन्यास, काव्य, महाकाव्य, श्रुति, स्मृति और पुराण का बड़ा ही रोचक और ज्ञानवर्धक है यह विचारों का जगत।।

सृजन ही जीवन है। फूलों की घाटी की तरह विचारों के इस उपवन में कई विचारों के फूल खिलते हैं, मुरझा जाते हैं। एक अच्छा लेखक यहां विचारों की खेती भी कर लेता है और रबी और खरीफ की फसल भी उठा लेता है। कहीं बड़े धैर्य और जतन से रचा उपन्यास नजर आता है, तो कहीं उपन्यासों की पूरी की पूरी अमराई।

एक अच्छा विचार अगर मानवता को जीने की राह दिखाता है तो एक खराब विचार पूरी नस्ल को बर्बाद भी कर सकता है। विचारों के इस देवासुर संग्राम में कहीं शुक्राचार्य बैठे हैं तो कहीं चाणक्य, महात्मा विदुर और उद्धव जैसे आचार्य। अन्न से हमारे मन को जोड़ा गया है। अच्छे विचारों का भी मन पर अच्छा ही प्रभाव पड़ता है। सांस को तो प्राणायाम द्वारा संयमित और शुद्ध किया जा सकता है, विचारों की शुद्धि तो आचरण की शुद्धि पर ही निर्भर होती है। इसके लिए मन, वचन और कर्म से एक होना जरूरी है।।

पूरी विचारों की फैक्ट्री आपके पास है। मिट्टी, हवा, पानी की कुछ कमी नहीं। चाहे तो प्रेम की बगिया लगाएं अथवा आस्था और विश्वास का पेड़। अगर आम बोएंगे तो आम ही पाएंगे और अगर बबूल बोया तो बबूल। कबीर यूं ही नहीं कह गए ;

जो तोकू कांटा बुए

ताहि बोय तू फूल। ‌

तोकू फूल के फूल है

बाको है त्रिशूल।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  3

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 65 – देश-परदेश – हिट एंड रन ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 65 ☆ देश-परदेश – हिट एंड रन ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आजकल उपरोक्त विषय को लेकर सब चर्चा कर रहें हैं। देश  के ट्रांसपोर्टर नए कानून के विरुद्ध चक्का जाम के लिए लाम बंद हैं। जब भी कोई परिवर्तन होता है, तो प्रभावित लोग उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं।

सामाजिक मंचों पर इस बात को लेकर राजनीति करना और पक्ष /विपक्ष में विचार परोसने की प्रतिस्पर्धा आरंभ हो जाती हैं। लोगों का काम है कहना, किसी ने नव वर्ष पर मदिरालयों पर लगने वाली की लाइनों की तुलना पेट्रोल पंप पर लगी मीलों लंबी लाइनों से कर दी हैं। किसी ने इसको राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा से जोड़ दिया हैं।

बचपन में भी हम सब हिट एंड रन खेलते थे। मोहल्ले के बच्चों की पिटाई कर घर में दुबक जाते थे। वो बात अलग है, जब बच्चों की मां आकर इस बात का उल्लाहना देती थी, तो हमारी डंडे से हुई पिटाई आज तक जहन में हैं। शिकायतकर्ता के घर में लगी द्वारघंटी बजा कर आंटी को कुछ दिन तक तंग अवश्य किया जाता था।

वर्तमान में यदि आप किसी बच्चे से उसके पेरेंट्स को शिकायत करते हैं, तो बच्चों की पिटाई /कुटाई की बात तो अब इतिहास की बात हो गई है। उल्टा परिजन झूट बोल कर कह देंगे की हमारा बच्चा तो घर से बाहर ही नहीं निकलता हैं। इस प्रकार के व्यवहार से बच्चे भविष्य में आतंकवादी की श्रेणियों में शामिल हो जातें हैं।

“हिट एंड रन” का सबसे प्रसिद्ध किस्सा जिसके नायक बॉलीवुड के चर्चित नाम सलमान खान थे। उनके इस कृत से लोग मुंबई में  फुटपाथ पर रात्रि में सोते समय लोग आज भी  सजग रहते हैं।

आज के हिट और रन के विरोधियों से तो एक ही बात समझ में आती है ” चोरी और ऊपर से सीनाजोरी”। 

.© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 219 ☆ चिंतन – “लकीर का सवाल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक चिंतनीय आलेख – “लकीर का सवाल”)

☆ चिंतन – “लकीर का सवाल☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

एक सवाल कुछ दिनों से मन में उमड़ घुमड़ रहा है कि सोशल मीडिया में इन दिनों व्यंग्य बहुत चर्चा में है, पर कुछ लोग अपनी बड़ी लकीर खींचकर सामने वाले को फकीर बनाने में विश्वास कर रहे हैं और कुछ विधा और शैली को लेकर खेमेबाजी में व्यस्त हैं ?

एक आलोचक कम व्यंग्यकार ने घुटना रगड़ते हुए जबाब दिया – व्यंग्य पहले हाशिये में था। कवि सम्मेलन में हास्य कवि बुलाये जाते थे फिर धीरे-धीरे हास्य के साथ व्यंग्यकार को भी बुलाया जाने लगा और मंच में इनको चूरन चटनी की तरह इस्तेमाल किया गया। धर्मयुग जैसी पत्रिकाएं भी हास्य – व्यंग्य छापतीं थीं। व्यंग्य धीरे-धीरे आया लेकिन व्यंग्य को मजबूत करने की बजाय कुछ लोग विधा और शैली के बहाने खेमेबाजी करने में लग गए, जबकि आज व्यंग्य का एक मानक बनाया जाना चाहिए। व्यंग्य के व्याकरण पर चर्चा होनी चाहिए, हास्य की तरह व्यंग्य को ग्यारहवां रस बनाने पर विचार होना चाहिए क्योंकि लय, गति और रस के बगैर कोई बात गले नहीं उतरती। व्यंग्य की लान में बहुत सी जंगली घास अनजाने में ऊगती है तो उसको निकालते रहना बेहद जरूरी है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 245 ⇒ मुॅंह पर तारीफ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुॅंह पर तारीफ…।)

?अभी अभी # 245 ⇒ मुॅंह पर तारीफ… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मुॅंह पर तारीफ, पीठ पीछे बुराई, इसे ही तो व्यवहार कुशलता कहते हैं मेरे भाई। औपचारिकता जितनी शालीन और संतुलित होती है, अनौपचारिकता और अंतरंगता उतनी ही विपरीत और खुला खेल फर्रूखाबादी।

सभ्यता और शालीनता ही तो हमारी सामाजिक पहचान है। निंदा स्तुति और राग द्वेष सज्जनों, विद्वानों और भद्र व्यक्तियों को शोभा नहीं देते। व्यक्ति जितना विनम्र और संस्कारी होगा, वह उतना ही एक फलों से लदे हुए वृक्ष की तरह सदा झुका हुआ, सदा मुस्कुराता हुआ, सबका अभिवादन स्वीकार करता हुआ नजर आएगा।।

यश, कीर्ति और सफलता हर व्यक्ति को व्यवहार कुशल बना ही देती है। क्षेत्र साहित्य का हो अथवा राजनीति का, सामाजिक हो अथवा धार्मिक, परस्पर प्रतिद्वंद्विता और गला काट स्पर्धा कहां नहीं। यहां अगर कुछ अगर अपने साथ चलते हैं तो कुछ विपरीत भी। सबको साथ लेकर चलने में ही समझदारी होती है, इसलिए सार सार को ग्रहण किया जाता है और थोथा उड़ा दिया जाता है।

दूर के ढोल कहां नहीं होते ! लेकिन जब उत्सव होता है, खुशी का मौका होता है, इन्हें पैसे देकर करीब बुलाया जाता है।

मजबूरी में तो साड़ू और फूफा को भी बुलाना पड़ता है। सभी नाचते हैं, नचाते हैं, खुशियां मनाते हैं। खेल खतम, पैसा हजम। दूर के ढोल सुहाने।।

हमें वैसे गले मिलते किसी से डर नहीं लगता, लेकिन पीठ पीछे बुराई करने वाले कहां बाज आते हैं, ऐसे मौके पर ! देखना संभलकर रहना, आस्तीन का सांप है। यह अलग बात है, कल वे स्वयं, उसकी ही बांहों में बाहें डालकर घूम रहे थे।

योग की तरह राजनीति में भी एक आसन है, जिसे विपरीतकरणी कहते हैं। वैसे भी राजनीति कोई बच्चों का खेल तो है नहीं।

यहां स्वार्थ के लिए अगर दोस्ती की जाती है तो स्वार्थ और मतलब के लिए दुश्मन भी पैदा किए जाते हैं। बाहरी धरातल पर सांप नेवले की तरह लड़ने वाले ये गिरगिट, कब रंग बदल लें, कहना मुश्किल है। घड़ियाली और मगरमच्छ के आंसू देखना हो, तो कभी भूलकर भी चिड़ियाघर मत चले जाना। राजनीति के अजायबघर में सभी जहरीले जंतु नजर आ जाएंगे। वैसे भी अगर बिच्छू सांप को काटेगा, तो एक तरह से जहर ही तो जहर को काटेगा।।

समझदार को कहते हैं, इशारा ही काफी होता है, साहित्य हो अथवा राजनीति, समझने वाले तो खैर इशारा समझ जाते हैं, फिर भी सच है दुनिया वालों, मुंह पर तारीफ को हम अनाड़ी तो सच ही मान लेते हैं।

ईश्वर हमें पीठ पीछे बुराई करने वालों से बचाए। हमारे लिए दूर के ढोल सुहाने ही हों। बदलते रहें गिरगिट अपना रंग, ठगते रहें हमें राजनीति के मन लुभावन नारे, बस हम किसी को ना ठगें। हमें तो हमेशा ठगा ही जाना है, क्योंकि माया महा ठगनी हम जानी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  3

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 222 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 222 धरातल ?

हम पति-पत्नी यात्रा पर हैं। दांपत्य की साझा यात्रा में अधिकांश भौगोलिक यात्राएँ भी साझा ही होती हैं। बस का स्लीपर कोच.., कोच के हर कंपार्टमेंट में वातानुकूलन का असर बनाए रखने के लिए स्लाइडिंग विंडो है। निजता की रक्षा और  धूप से बचाव के लिए पर्दे लगे हैं।

मानसपटल पर छुटपन में सेना की आवासीय कॉलोनी में खेला ‘घर-घर’ उभर रहा है। इस डिब्बेनुमा ही होता था वह घर। दो चारपाइयाँ साथ-खड़ी कर उनके बीच के स्थान को किसी चादर से ढककर बन जाता था घर। साथ की लड़कियाँ भोजन का ज़िम्मा उठाती और हम लड़के फ़ौजी शैली में ड्यूटी पर जाते। सारा कुछ नकली पर आनंद शत-प्रतिशत असली। कालांतर में हरेक का अपना असली घर बसा और तब  समझ में आया कि ‘दुनिया  जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है.., मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।’ यों भी बचपन में निदा फाज़ली कहाँ समझ आते हैं!

जीवन को समझने-समझाने की एक छोटी-सी घटना भी अभी घटी। रात्रि भोजन के पश्चात बस में चढ़ता हुए एक यात्री जैसे ही एक कंपार्टमेंट खोलने लगा, पीछे से आ रहे यात्री ने टोका, ‘ये हमारा है।’ पहला यात्री माफी मांगकर अगले कंपार्टमेंट में चला गया। अठारह-बीस घंटे के लिए बुक किये गए लगभग  6 x 3 के इस कक्ष से सुबह तक हर यात्री को उतरना है। बीती यात्रा में यह किसी और का था, आगामी यात्रा में किसी और का होगा। व्यवहारिकता का पक्ष छोड़ दें तो अचरज की बात है कि नश्वरता में भी ‘मैं’, ‘मेरा’ का भाव अपनी जगह बना लेता है। जगह ही नहीं बनाता अपितु इस भाव को ही स्थायी समझने लगता है।

निदा के शब्दों ने चिंतन को चेतना के मार्ग पर अग्रसर किया। सच देखें तो नश्वर जगत में शाश्वत तो मिट्टी ही है। देह को बनाती मिट्टी, देह को मिट्टी में मिलाती मिट्टी। मिट्टी धरातल है। वह व्यक्ति को बौराने नहीं देती पर सोना, कनक है।

‘कनक, कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय, या खाये बौराय जग, वा पाये बौराय।’

बिहारी द्वारा वर्णित कनक की उपरोक्त सर्वव्यापी मादकता के बीच धरती पकड़े रखना कठिन हो सकता है, असंभव नहीं। मिट्टी होने का नित्य भाव मनुष्य जीवन का आरंभ बिंदु है और उत्कर्ष बिंदु भी।

इति।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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