हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 164 ⇒ मिलावट और कानून… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मिलावट और कानून”।)

?अभी अभी # 164 ⇒ मिलावट और कानून? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 हमारा देश कानून से चलता है। मिलावट के खिलाफ तो हमने सन् १९५४ में ही कानून पास कर दिया था, कोई छोटा मोटा कानून नहीं सख्त कानून। और तब से ही देश कानून से ही चल रहा है। कानून अपनी चाल चल रहा है, और मिलावट भी अपनी चाल से चल रही है।

ऐसा नहीं है, कि हमें कानून से डर नहीं है, अथवा हम कानून का सम्मान नहीं करते, लेकिन हमारे यहां मिलावट और कानून के बीच शतरंज का खेल चलता रहता है। दोनों अपनी अपनी चाल चलते रहते हैं। खेल के भी कुछ कायदे कानून होते हैं, आप यूं ही किसी का घोड़ा नहीं मार सकते और घोड़े को ढाई घर चलने से रोक भी नहीं सकते।।

कानून के हाथ जरूर लंबे होते हैं, लेकिन सुना है, वह अंधा भी होता है। मिलावट उसे कहते हैं, जो नजर नहीं आए। दूध में पानी मिलाना भी अपराध है, लेकिन अगर भैंस ही पतला दूध देती है, तो वहां कानून का डंडा काम नहीं करता।

होती है खाद्य पदार्थों और फल सब्जियों में मिलावट, तो आम आदमी क्या करे। अरे भाई उपभोक्ता फोरम भी है, शिकायत दर्ज करो, उनकी नानी याद आ जाएगी। सड़क के ठेले से आपने छः केले खरीदे, आपने उससे बिल भी नहीं लिया, पांच किलोमीटर चलकर घर आ गए। केले पूजा में रख दिए, प्रसाद बांट दिया। केले ऊपर से पीले नजर आ रहे थे, अंदर से पूरे कच्चे। केले कार्बाइड से भी पकाए जाते हैं, और प्राकृतिक तरीके से भी। बाजार में दोनों तरह के केले उपलब्ध हैं, सावधानी में ही समझदारी है।।

खाने का खुला सामान हमारे यहां खुले आम बिकता है, लोग उसे ताजा समझते हैं। नकली घी और नकली मावे से तो प्रशासन भी परेशान है। कहां कहां छापे मारे। अरे साहब भंडारे और पूजा के लिए तो कोई सा भी असली घी चलेगा। इतने सालों से वही तो चलता चला आ रहा है।

मिलावट का सीधा संबंध मुनाफे से होता है। यह मुनाफा कहां से कहां की यात्रा करता है, सब जानते हैं। नुकसान में सिर्फ कानून और उपभोक्ता, यानी आम आदमी रहता है।।

खाद्य पदार्थों में मिलावट और मानक अधिनियम के अंतर्गत लाखों का जुर्माना ही नहीं, मृत्यु दण्ड तक का प्रावधान है, लेकिन कानून आप अपने हाथ में नहीं ले सकते। आप शिकायत कीजिए, कानून अपना काम करेगा। हमारे देश में मिलावटी शराब और फूड पॉइजनिंग से जितनी मौतें हुई हैं, उनकी तुलना में मिलावटी कानून के तहत कितनों को मृत्यु दण्ड मिला है, शायद ही कोई आंकड़ा उपलब्ध हो।

जागो ग्राहक जागो, तो मेरे मॉर्निंग अलार्म की ट्यून ही है। सुबह उठते ही मेरा ग्राहक जाग जाता है, अब और कितना जागूं। उपभोक्ता वह भी नहीं, जो रात दिन मिलावट मिलावट ही भौंकता रहे। सबकी अपनी अपनी मजबूरियां हैं, दूध से धुला कोई नहीं।।

कल ही नेताजी का फोन आ गया गुप्ता जी के पास ! इस बार भंडारे में घी की सेवा का पुण्य आप कमाओगे। दस डब्बे शुद्ध घी भिजवा देना। गुप्ता जी और नेता जी, शतरंज के पुराने खिलाड़ी हैं। पाप पुण्य सब नेता जी के माथे, भिजवा देंगे कोई सस्ता सा ब्रांड, जो शुद्ध नजर आए। दान की बछिया ही तो है।

मिलावट की तरह ही एक बाजार डुप्लीकेट का भी है। ऑटो पार्ट्स हों अथवा अमूल घी, लक्स अंडरवियर और बनियान भी, जो चाहे मिलेगा, कहीं उसी भाव तो कहीं थोड़ा वाजबी, जहां कीमत में सौदेबाजी की जा सके।

हम भी तो कहां आदत से बाज आते हैं। बिल मत देना, कौन सा अचार डालना है बिल का।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #201 ☆ अहं, क्रोध, काम व लोभ ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अहं, क्रोध, काम व लोभ। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 201 ☆

☆ अहं, क्रोध, काम व लोभ 

‘अहं त्याग देने से मनुष्य सबका प्रिय हो जाता है; क्रोध छोड़ देने पर वह शोक रहित हो जाता है; काम का त्याग कर देने पर धनवान हो जाता है और लोभ छोड़ देने पर सुखी हो जाता है’– युधिष्ठिर की यह उक्ति विचारणीय है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है क्योंकि जब तक उसमें ‘मैं’ अथवा कर्त्ता का भाव रहेगा, तब तक उसके लिए उन्नति के सभी मार्ग बंद हो जाते हैं। जब तक उसमें यह भाव रहेगा कि मैंने ऐसा किया और इतने पुण्य कर्म किए हैं, तभी यह सब संभव हो सका है। ‘जब ‘मैं’ यानि अहंकार जाएगा, मानव स्वर्ग का अधिकारी बन पाएगा और उसे इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति हो सकेगी’– प्रख्यात देवाचार्य महेंद्रनाथ का यह कथन अत्यंत सार्थक है। अहंनिष्ठ व्यक्ति किसी का प्रिय नहीं हो सकता और कोई भी उससे बात तक करना पसंद नहीं करता। वह अपने द्वीप में कैद होकर रह जाता है, क्योंकि सर्वश्रेष्ठता का भाव उसे सबसे दूर रहने पर विवश कर देता है।

वैसे तो किसी से उम्मीद रखना कारग़र नहीं है। ‘परंतु यदि आप किसी से उम्मीद रखते हैं, तो एक न एक दिन आपको दर्द ज़रूर होगा, क्योंकि उम्मीद एक न एक दिन अवश्य टूटेगी और जब यह टूटती है, तो बहुत दर्द होता है’– विलियम शेक्सपियर यह कथन अनुकरणीय है। जब मानव की इच्छाएं पूर्ण होती है, तो वह दूसरों से सहयोग की उम्मीद करता है, क्योंकि सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं होती। उस स्थिति में जब हमें दूसरों से अपेक्षित सहयोग प्राप्त नहीं होता, तो मानव हैरान-परेशान हो जाता है और जब उम्मीद टूटती है तो बहुत दर्द होता है। सो! मानव को उम्मीद दूसरों से नहीं, ख़ुद से करनी चाहिए और अपने परिश्रम पर भरोसा रखना चाहिए… उसे सफलता अवश्य प्राप्त होती है। इसलिए मानव तो खुली आंखों से सपने देखने का संदेश दिया गया है और उसे तब तक चैन से नहीं बैठना चाहिए; जब तक वे साकार न हो जाएं–अब्दुल कलाम की यह सोच अत्यंत सार्थक है। यदि मानव दृढ़-प्रतिज्ञ व आत्म-विश्वासी है; कठिन परिश्रम करने में विश्वास करता है, तो वह भीषण पर्वतों से भी टकरा सकता है और अपनी मंज़िल पर पहुंच सकता है।

‘यदि तुम ख़ुद को कमज़ोर समझते हो, तो तुम कमज़ोर हो जाओगे; अगर ख़ुद को ताकतवर सोचते हो, तो तुम ताकतवर हो जाओगे’– विवेकानंद की यह उक्ति इस तथ्य पर प्रकाश डालती है कि मन में अलौकिक शक्तियाँ विद्यमान है। वह जैसा सोचता है, वैसा बन जाता है और वह सब कर सकता है, जिसकी कल्पना भी उसने कभी नहीं की होती। ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ दूसरे शब्दों में मानव स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। इसलिए कहा जाता है कि असंभव शब्द मूर्खों की शब्दकोश में होता है और बुद्धिमानों से उसका दूर का नाता भी नहीं होता। इसी संदर्भ में मैं इस तथ्य पर प्रकाश डालना चाहूंगी कि प्रतिभा जन्मजात होती है उसका जात-पात, धर्म आदि से कोई संबंध नहीं होता। वास्तव में प्रतिभा बहुत दुर्लभ होती है और प्रभु-प्रदत्त होती है। दूसरी और शास्त्र ज्ञान व अभ्यास इसके पूरक हो सकते हैं। ‘करत- करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’ अर्थात् अभ्यास करने पर मूर्ख व्यक्ति भी बुद्धिमान हो सकता है। जिस प्रकार पत्थर पर अत्यधिक पानी पड़ने से वे अपना रूपाकार खो देते हैं, उसी प्रकार शास्त्राध्ययन द्वारा मर्ख अर्थात् अल्पज्ञ व्यक्ति भी बुद्धिमान हो सकता है। स्वामी रामतीर्थ जी के मतानुसार ‘जब चित्त में दुविधा नहीं होती, तब समस्त पदार्थ ज्ञान विश्राम पाता है और दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है।’ सो! संशय की स्थिति मानव के लिए घातक होती है और ऐसा व्यक्ति सदैव ऊहापोह की स्थिति में रहने के कारण अपने मनचाहे लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता।

इसी संदर्भ में मुझे स्मरण हो रहा है हज़रत इब्राहिम का प्रसंग, जिन्होंने एक गुलाम खरीदा तथा उससे उसका नाम पूछा। गुलाम ने उत्तर दिया – ‘आप जिस नाम से पुकारें, वही मेरा नाम होगा मालिक।’ उन्होंने खाने व कपड़ों की पसंद पूछी, तो भी उसने उत्तर दिया ‘जो आप चाहें।’ राजा के उसके कार्य व इच्छा पूछने पर उसने उत्तर दिया–’गुलाम की कोई इच्छा नहीं होती।’ यह सुनते ही राजा ने अपने तख्त से उठ खड़ा हुआ और उसने कहा–’आज से तुम मेरे उस्ताद हो। तुमने मुझे सिखा दिया कि सेवक को कैसा होना चाहिए।’ सो! जो मनुष्य स्वयं को प्रभु के चरणों में समर्पित कर देता है, उसे ही दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है।

क्रोध छोड़ देने पर मनुष्य शोक रहित हो जाता है। क्रोध वह अग्नि है, जो कर्त्ता को जलाती है, उसके सुख-चैन में सेंध लगाती है और प्रतिपक्ष उससे तनिक भी प्रभावित नहीं होता। वैसे ही तुरंत प्रतिक्रिया देने से भी क्रोध द्विगुणित हो जाता है। इसलिए मानव को तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए, क्योंकि क्रोध एक अंतराल के पश्चात् शांत हो जाता है। वह तो दूध के उफ़ान की भांति होता है; जो पल भर में शांत हो जाता है। परंतु वह मानव के सुख, शांति व सुक़ून को मगर की भांति लील  जाता है। क्रोध का त्याग करने वाला व्यक्ति शांत रहता है और उसे कभी भी शोक अथवा दु:ख का सामना नहीं करना पड़ता। काम सभी बुराइयों की जड़ है। कामी व्यक्ति में सभी बुराइयां शराब, ड्रग्स, परस्त्री- गमन आदि बुराइयां स्वत: आ जाती हैं। उसका सारा धन परिवार के इतर इनमें नष्ट हो जाता है और वह अक्सर उपहास का पात्र बनता है। परंतु इन दुष्प्रवृत्तियों से मुक्त होने पर वह शरीर से हृष्ट-पुष्ट, मन से बलवान् व धनी हो जाता है। सब उससे प्रेम करने लगते हैं और वह सबकी श्रद्धा का पात्र बन जाता है।

आइए! हम चिन्तन करें– क्या लोभ का त्याग कर देने के पश्चात् मानव सुखी हो जाता है? वैसे तो प्रेम की भांति सुख बाज़ार से खरीदा ही नहीं  जा सकता। लोभी व्यक्ति आत्म-केंद्रित होता है और अपने इतर किसी के बारे में नहीं सोचता। वह हर इच्छित वस्तु को संचित कर लेना चाहता है, क्योंकि वह केवल लेने में विश्वास रखता है; देने में नहीं। उसकी आकांक्षाएं सुरसा के मुख की भांति बढ़ती चली जाती हैं, जिनका खरपतवार की भांति कोई अंत नहीं होता। वैसे भी आवश्यकताएं तो पूरी की जा सकती हैं; इच्छाएं नहीं। इसलिए उन पर अंकुश लगाना आवश्यक  है। लोभ व संचय की प्रवृत्ति का त्याग कर देने पर वह आत्म-संतोषी जीव हो जाता है। दूसरे शब्दों में वह प्रभु द्वारा प्रदत्त वस्तुओं से संतुष्ट रहता है।

अंत में मैं कहना चाहूंगी कि जो मनुष्य अहं, काम, क्रोध व लोभ पर विजय प्राप्त कर लेता है; वह सदैव सुखी रहता है। ज़माने भर की आपदाएं उसका रास्ता नहीं रोक सकतीं। वह सदैव प्रसन्न-चित्त रहता है। दु:ख, तनाव, चिंता, अवसाद आदि उसके निकट आने का साहस भी नहीं जुटा पाते। ख़लील ज़िब्रान के शब्दों में ‘प्यार के बिना जीवन फूल या फल के बिना पेड़ की तरह है।’ ‘प्यार बांटते चलो’ गीत भी इसी भाव को पुष्ट करता है। इसलिए जो कार्य- व्यवहार स्वयं को अच्छा न लगे; वैसा दूसरों के साथ न करना ही सर्वप्रिय मार्ग है–यह सिद्धांत चोर व सज्जन दोनों पर लागू होता है। महात्मा बुद्ध की भी यही सोच है। स्नेह, प्यार त्याग, समर्पण वे गुण हैं, जो मानव को सब का प्रिय बनाने की क्षमता रखते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चिंतन तो बनता है ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – चिंतन तो बनता है ? ?

बात चार वर्ष पुरानी है। सोमवार 16 सितम्बर 2019 को हिंदी पखवाड़ा के संदर्भ में केंद्रीय जल और विद्युत अनुसंधान संस्थान, खडकवासला, पुणे में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित था। कार्यक्रम के बाद सैकड़ों एकड़ में फैले इस संस्थान के कुछ मॉडेल देखे। केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों के लिए अनेक बाँधों की देखरेख और छोटे-छोटे चेकडैम बनवाने में  संस्थान महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह संस्थान चूँकि जल अनुसंधान पर काम करता है, भारत की नदियों पर बने पुल और पुल बनने के बाद जल के प्रवाह में आनेवाले परिवर्तन से उत्पन्न होनेवाले प्रभाव का यहाँ अध्ययन होता है। इसी संदर्भ में यमुना प्रोजेक्ट का मॉडेल देखा। दिल्ली में इस नदी पर कितने पुल हैं, हर पुल के बाद पानी की धारा और अविरलता में किस प्रकार का अंतर आया है, तटों के कटाव से बचने के लिए कौनसी तकनीक लागू की जाए,  यदि राज्य सरकार कोई नया पुल बनाने का निर्णय करती है तो उसकी संभावनाओं और आशंकाओं का अध्ययन कर समुचित सलाह दी जाती है। आंध्र और तेलंगाना के लिए बन रहे नए बाँध पर भी सलाहकार और मार्गदर्शक की भूमिका में यही संस्थान है। इस प्रकल्प में पानी से 900 मेगावॉट बिजली बनाने की योजना भी शामिल है।  देश भर में फैले ऐसे अनेक बाँधों और नदियों के जल और विद्युत अनुसंधान का दायित्व संस्थान उठा रहा है।

मन में प्रश्न उठा कि पुणे के नागरिक, विशेषकर विद्यार्थी, शहर और निकटवर्ती स्थानों पर स्थित ऐसे संस्थानों के बारे में कितना जानते हैं? शिक्षा जबसे व्यापार हुई और विद्यार्थी को विवश ग्राहक में बदल दिया गया, सारे मूल्य और भविष्य ही धुँधला गया है। अधिकांश निजी विद्यालय छोटी कक्षाओं के बच्चों को पिकनिक के नाम पर रिसॉर्ट ले जाते हैं। बड़ी कक्षाओं के छात्र-छात्राओं के लिए दूरदराज़ के ‘टूरिस्ट डेस्टिनेशन’ व्यापार का ज़रिया बनते हैं तो इंटरनेशनल स्कूलों की तो घुमक्कड़ी की हद और ज़द भी देश के बाहर से ही शुरू होती है।

किसीको स्वयं की संभावनाओं से अपरिचित रखना अक्षम्य अपराध है। हमारे नौनिहालों को अपने शहर के महत्वपूर्ण संस्थानों की जानकारी न देना क्या इसी श्रेणी में नहीं आता? हर शहर में उस स्थान की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक धरोहर से कटे लोग बड़ी संख्या में हैं। पुणे का ही संदर्भ लूँ तो अच्छी तादाद में ऐसे लोग मिलेंगे जिन्होंने शनिवारवाडा नहीं देखा है। रायगढ़, प्रतापगढ़ से अनभिज्ञ लोगों की कमी नहीं। सिंहगढ़ घूमने जानेवाले तो मिलेंगे पर इस गढ़ को प्राप्त करने के लिए छत्रपति शिवाजी महाराज के जिस ‘सिंह’ तानाजी मालसुरे ने प्राणोत्सर्ग किया था, उसका नाम आपके मुख से पहली बार सुननेवाले अभागे भी मिल जाएँगे।

लगभग पाँच वर्ष पूर्व मैंने महाराष्ट्र के तत्कालीन शालेय शिक्षामंत्री को एक पत्र लिखकर सभी विद्यालयों की रिसॉर्ट पिकनिक प्रतिबंधित करने का सुझाव दिया था। इसके स्थान पर ऐतिहासिक व सांस्कृतिक महत्व के स्थानीय स्मारकों, इमारतों, महत्वपूर्ण सरकारी संस्थानों  की सैर आयोजित करने के निर्देश देने का अनुरोध भी किया था।

धरती से कटे तो घास हो या वृक्ष, हरे कैसे रहेंगे? इस पर गंभीर मनन, चिंतन और समुचित क्रियान्वयन की आवश्यकता है।

© संजय भारद्वाज 

(प्रातः 6:47 बजे, 19.9.19)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्रीगणेश साधना, गणेश चतुर्थी मंगलवार दि. 19 सितंबर को आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार गुरुवार 28 सितंबर तक चलेगी। 💥

🕉️ इस साधना का मंत्र होगा- ॐ गं गणपतये नमः🕉️

💥 साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 163 ⇒ दम मारो दम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दम मारो दम”।)

?अभी अभी # 163 ⇒ दम मारो दम? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सन् १९७१ में सदाबहार अभिनेता देवानंद ने एक फिल्म बनाई थी, हरे रामा हरे कृष्णा, जो युवा पीढ़ी में व्याप्त नशे की बुरी लत पर आधारित थी। पश्चिम के अंधानुकरण को लेकर उधर भारत कुमार मनोज कुमार भी उपकार फिल्म की सफलता के बाद पूरब और पश्चिम जैसी देशभक्ति से युक्त फिल्म लेकर पहले ही बाजार में उतर चुके थे।

धर्म तो अपने आप में नशा है ही, लेकिन जब धर्म और नशा दोनों साथ साथ हों, तो यह गजब की कॉकटेल साबित होती है। अपनी खोई हुई बहन को ढूंढते ढूंढते नायक देवानंद काठमांडू पहुंच जाता है, जहां एक हिप्पियों के झुंड में उसे अपनी बहन, नशे की हालत में, दम मारो दम, गाती हुई मिल जाती है। कितना लोकप्रिय गीत था यह उषा उथप और आशा भोंसले की आवाज में ;

दम मारो दम

मिट जाए गम।

बोलो सुबहो शाम

हरे कृष्ण हरे राम।।

तब हमारे भी वे कॉलेज के ही दिन थे। सिगरेट, शराब, तो खैर आम थी, लेकिन गांजा, चरस, एलएसडी और मेंड्रेक्स की आदत भी युवा पीढ़ी में लग चुकी थी। उधर आचार्य रजनीश भगवान बनकर युवा पीढ़ी को पुणे में बैठकर समाधि लगवा रहे थे और इधर हमारे हीरो देवानंद अपनी फिल्म के माध्यम से युवा पीढ़ी से अपील कर रहे थे ;

देखो दीवानों, तुम ये काम ना करो

राम का नाम बदनाम ना करो।

आज अगर देवानंद होते तो राम भक्त उनसे जरूर पूछते, भैया, क्या राम का नाम भी कभी बदनाम हुआ है। क्या आपने सुना नहीं ;

सबसे निराली महिमा है भाई,

दो अक्षर के नाम की,

जय बोलो सियावर राम की। जय श्रीराम !

लेकिन फिल्म, फिल्म होती है, और दर्शक दर्शक ! यहां क्या कब बिक जाए, और कब किसका दीवाला निकल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। आज इन फिल्मों को बने आधी सदी गुजर गई, धर्म कितना फल फूल गया, हर तरफ आज राम का ही नाम है, अयोध्या में भी भव्य राम मंदिर का निर्माण कार्य चल ही रहा है, लेकिन क्या वाकई आज हमारा नशा हिरन हो गया है।

और भी नशे हैं गालिब, शराब के अलावा !

राम नाम और देशभक्ति का नशा तो कतई बुरा नहीं, लेकिन बाकी नशों की फेहरिस्त भी कम नहीं।

सरकार नशाबंदी कर सकती है, नशामुक्ति केंद्र स्थापित कर सकती है, सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान और मद्यपान प्रतिबंधित तो है ही। लेकिन शासकीय शराब की दुकानें तो अलग ही कहानी कहती नजर आती है। ऐसे में जन जागरण भी क्या कर लेगा।।

आज देश में इतनी समस्याएं हैं, इतनी चुनौतियां हैं, इस बीच यह नशे की समस्या इतनी बड़ी भी नहीं कि इसके लिए कोई आंदोलन खड़ा कर दिया जाए, खासकर उस परिस्थिति में जहां सबसे बड़ा नशा, सियासत का नशा ही सबसे बड़ी समस्या हो।

समस्या, समस्या होती है, और उसका हल, समय और परिस्थिति के अनुसार ही संभव होता है। आज सियासत का नशा देवासुर संग्राम का रूप ले चुका है, जो लोकतंत्र के लिए बहुत घातक है। नशे में चूर इस संग्राम में दुर्भाग्य से, हम आप भी शामिल हैं।।

नशे के बारे में जितना अच्छा नशे में बोला जाता है, उतना होश में नहीं। याद कीजिए १९६४ की फिल्म लीडर का यह यादगार गीत;

मुझे दुनिया वालों

शराबी ना समझो

मैं पीता नहीं हूं

पिलाई गई है।

नशे में हूं लेकिन

मुझे ये खबर है

कि इस जिंदगी में

सभी पी रहे हैं।।

आप पीयें ना पीयें

बोलें सुबहो शाम

हरे कृष्ण हरे राम ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 162 ⇒ ये रोटीवालियाँ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ये रोटीवालियाँ “।)

?अभी अभी # 162 ⇒ ये रोटीवालियाँ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

काम वाली बाइयों की कथा व्यथा और किस्से कहानियाॅं आजकल महानगरों की घर घर की कहानी हो चुकी है। कई लेखकों ने इनके दुखड़ों को बड़े संजीदा ढंग से अपनी मार्मिक कहानियों में चित्रित किया है। ऐसे में भला व्यंग्य क्यों पीछे रहे। संक्षेप में बड़ी काम वाली है यह काम वाली बाई, इसने सबका काम संभालकर पूरी दुनिया को काम पर लगा रखा है।

अब समय आ गया है, हम जरा आसपास भी नजर दौड़ाएँ ! काम वाली बाई की एक और श्रेणी होती है, जिसे बाई नहीं, सिर्फ रोटी वाली कहते हैं। इनका ओहदा और स्तर आम कामवालियों से बेहतर होता है, क्योंकि ये झाड़ू पोंछा और बर्तन नहीं मांजती, एक विशेषज्ञ की तरह, सिर्फ घर में आती है, और रोटी बनाकर चली जाती है। वैसे बनाती यह पूरा खाना ही है, लेकिन कहलाती रोटी वाली ही है। ।

एक समय था, जब घर का सारा कामकाज घर की महिलाएं ही मिल जुलकर कर लिया करती थी, झाड़ू पोंछा, बर्तन से लगाकर पूरा खाना तक उसमें शामिल था। छोटे मोटे काम तो हमें भी सीखने पड़ते थे।

माता बहनों के साथ गेहूं बीनने में हाथ बंटाना और बाद में चक्की पर आटा पिसाना और बाजार से छोटा मोटा सौदा लाने जैसा काम भी हमारे जिम्मे ही होता था।

समय बदलता चला गया।

परिवार छोटे और घर बड़े होते चले गए। नौकरी धंधों ने परिवार को तितर बितर कर दिया। पुरुष तो पुरुष, महिलाएं भी काम पर जाने लगी। चलो, इसी बहाने कामवालियों को भी काम मिलने लगा। आज हर घर में काम हो न हो, काम वाली जरूर मौजूद है। ।

दीवाना आदमी को बनाती है रोटियां। दीवाना नहीं, मजबूरी कहें ! सुबह बच्चों का स्कूल, मेम और साहब, दोनों का दफ्तर, आखिर घर का खाना कौन और कब बनाए। काम वाली के साथ रोटी वाली रखना भी आज की मजबूरी है। लेकिन रोटी वाली की बात कुछ निराली है।

उसका काम शुद्ध और साफ सफाई का है, इसलिए उसके रेट भी जरा ज्यादा हैं। वह, फुर्ती से सब्ज़ी, और दाल चावल रोटी तो बना देगी, लेकिन बर्तन मांजना उसका काम नहीं। जितने लोग, उतना पारिश्रमिक। खाना बना तो दिया जाएगा, लेकिन परोसा नहीं जाएगा। केवल एक ही घर नहीं है। और भी घरों में जाकर रोटी बनाना है। ।

कौन कितनी रोटी खाता है, उसके हिसाब से ही आटा लगाया जाता है। अगर मुफ्त की रोटियां तोड़ने मेहमान आ गए, तो आपकी बला से ! उनके पैसे अलग से देने पड़ेंगे। हम किसी को मुफ्त में रोटी बनाकर नहीं खिलाती।

कुछ लोग जरा ज्यादा ही नाक भौं सिकोड़ते हैं, उन्हें कामवाली से कोई शिकायत नहीं, लेकिन खाने में उनके बहुत नखरे होते हैं। उनके नखरे रोटी वालियाँ सहन नहीं कर सकती। बच्चे तो बच्चे, बाप रे बाप ! मजबूरी में उनके लिए अलग रोटी बनानी पड़ती है।।

जिनके लिए समय कीमती है, वे अपना कीमती वक्त इन चीजों में जाया नहीं करते। जब, वक्त पर जो मिल गया, खा लिया और काम पर चल दिए। देश जितना आज कामकाजी और परिश्रमी लोगों के बल पर चल रहा है, उतना ही इन कामवालियों और रोटी वालियों के कंधों पर भी।

वाकई भाग्यशाली हैं वे लोग, जिन्हें आज भी घर की रोटी नसीब हो रही है, फिर चाहे बनानेवाली घरवाली हो या रोटी वाली। समझदार आदमी ज्यादा मुंह नहीं खोलता, जो मिल जाए, चुपचाप खा लेता है। मजबूरी का नाम, कभी घरवाली तो कभी रोटी वाली।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #151 – आलेख – “बर्फ की आत्मकथा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक शिक्षाप्रद आलेख  बर्फ की आत्मकथा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 151 ☆

 ☆ आलेख – “बर्फ की आत्मकथा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

मैं पानी का ठोस रूप हूं. द्रव्य रूप में पानी बन कर रहता हूं. जब वातावरण का ताप शून्य तक पहुंच जाता है तो मैं जम जाता हूं. मेरे इसी रूप को बर्फ कहते हैं. मेरा रासायनिक सूत्र (H2O) है. यही पानी का सूत्र भी है. यानी मेरे अंदर हाइरड्रोजन के दो अणु और आक्सीजन के एक अणु मिले होते हैं.

जब पेड़ पौधे वातावरण से कार्बन गैस से कार्बन लेते हैं तब मेरे पानी से हाइड्रोजन ले कर शर्करा बनाते हैं. इसे ही पौधों की भोजन बनाने की प्रक्रिया कहते हैं. इसे हिंदी में प्रकाश संश्लेषण कहते हैं. इस क्रिया में मेरे अंदर की आक्सीजन वातावरण में मुक्त हो जाती है.

बर्फ अपनी आत्मकथा सुना रहा था. सामने बैठा हुआ बेक्टो ध्यान से सुन रहा था.

बर्फ ने कहना जारी रखा. ध्रुवों पर तापमान शून्य के करीब रहता है. इस कारण वहां का पानी जमा रहता है. इस जमे हुए पानी के पहाड़ को हिमनद कहते हैं. ये बर्फ के रूप में जमा होता है. यह सुन कर बेक्टो की आंखें फैल गई.

तुम सोच रहे हो कि सूर्य के प्रकाश से मेरा पानी पिघलता नहीं होगा ? बिलकुल नहीं. सूर्य का प्रकाश मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाता है. इस कारण जानते हो ?  नहीं ना. तो सुनो. सूर्य का जितना प्रकाश मेरे ऊपर पड़ता है उतना ही मैं वापस वातावरण में लौट देता हूँ. मैं सूर्य के प्रकाश को अपने पास नहीं रखता हूं. इसे वैसा ही वातावरण में लौटा देता हूं जैस यह मेरे पास आता है.

यही वजह है कि बर्फिली जगह लोगों को काला चश्मा लगाना पड़ता है. यहां पर प्रकाश बहुत तीव्र होता है. इस की चमक से आंखे खराब हो सकती है. इसलिए वे आंखों पर चश्मा लगाते हैं.

ओह ! बेक्टो की आंखे चमक गई. उस ने पूछा कि सूर्य का प्रकाश उसे पिघलाता नहीं है.

तब बर्फ ने कहा कि सूर्य का प्रकाश मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाता है. इस का कारण यह है कि मैं बर्फ की कोई ऊष्मा अपने अंदर ग्रहण नहीं करता हूं. मेरी मोटी मोटी पर्त भी पारदर्शी होती है. वे प्रकाश को आरपार पहूंचा देती है. या वातावरण में लौटा देती है. इसलिए मैं पिघलता नहीं है.

यदि मैं पिघल जाऊ तो जानते हो क्या होगा ? बर्फ के पूछने पर बेक्टो ने नहीं में गरदन हिला दी. तब बर्फ बोला कि यदि मेरी सभी बर्फ पिघल जाए तो इस से समुद्र के सतह पर 60 मीटर ऊंची दीवार बन जाएगी. इस पानी की दीवार में धरती की आधी आबादी डूब कर मर जाए.

यह सुन कर बेक्टो चकित रह गया.

बर्फ ने बोलना जारी रखा. मैं पिघलता नहीं हूं इसलिए हिमनद के रूप में जमा रहता हूं. यदि कभी मैं पिघलता हूं तो इस का कारण आसपास के वातावरण के तापमान बढ़ने से पिघलता हूं. वैसे जैसा रहता हूं वैसा जमा रहता हूं. यही मेरी कहानी है.

बेक्टो को बर्फ की कहानी अच्छी लगी. उस ने कहा कि आप तो सूर्य से भी नहीं डरते हैं.

इस पर बर्फ बोला कि सूर्य मेरा कुछ नहीं बिगाड़ता है. कारण यह है कि मैं ताप को ग्रहण नहीं करता हूं. इसलिए वातावरण से प्राप्त सूर्य के ताप को उसी के पास रहने देता हूँ. यदि तुम भी किसी की बुराई ग्रहण न करें तो तुम्हारी अंदर बुराई नहीं आ सकती है. तुम मेरी तरह अच्छाई ग्रहण करते रहो तो तुम भी मेरी तरह सरल और स्वच्छ बन सकते हो. यह कहते ही बर्फ चुप हो गया.

बेक्टो सोया हुआ था. उस की आंखे खुल गई. उस ने एक अच्छा सपना देखा था. इस सपने में वह बर्फ से आत्मकथा सुन रहा था. यह आत्मकथा बड़ी मज़ेदार थी इसलिए वह मुस्करा दिया.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

२३/०३/२०१९

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 161 ⇒ स्मृतिशेष काका हाथरसी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जश्न और त्रासदी “।)

(18 सितंबर 1906 – 1995)

?अभी अभी # 161 ⇒ स्मृतिशेष काका हाथरसी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस दिन पैदा हुए, उसी दिन इस संसार से विदा भी ले ली ! (18 सितंबर 1906 – 1995) हाथरस में पैदा हुए इसलिए प्रभुलाल गर्ग काका हाथरसी हो गए। इनके हाथ में हास्य रस की रेखाएं अवश्य होंगी, इसीलिए सदा सबको हंसाते रहे।

इनकी आस थी कि इनके निधन पर कोई आंसू ना बहाए। शोक सभा की जगह एक हास्य कवि सम्मेलन रखा जाए। चूंकि जन्म और मरण का एक ही दिन है, इसलिए प्रस्तुत है उनकी एक हास्य कविता।

? हास्य कविता – सुरा समर्थन – काका हाथरसी ?

भारतीय इतिहास का, कीजे अनुसंधान

देव-दनुज-किन्नर सभी, किया सोमरस पान

किया सोमरस पान, पियें कवि, लेखक, शायर

जो इससे बच जाये, उसे कहते हैं ‘कायर’

कहँ ‘काका’, कवि ‘बच्चन’ ने पीकर दो प्याला

दो घंटे में लिख डाली, पूरी ‘मधुशाला’

 

भेदभाव से मुक्त यह, क्या ऊँचा क्या नीच

अहिरावण पीता इसे, पीता था मारीच

पीता था मारीच, स्वर्ण- मृग रूप बनाया

पीकर के रावण सीता जी को हर लाया

कहँ ‘काका’ कविराय, सुरा की करो न निंदा

मधु पीकर के मेघनाद पहुँचा किष्किंधा

 

ठेला हो या जीप हो, अथवा मोटरकार

ठर्रा पीकर छोड़ दो, अस्सी की रफ़्तार

अस्सी की रफ़्तार, नशे में पुण्य कमाओ

जो आगे आ जाये, स्वर्ग उसको पहुँचाओ

पकड़ें यदि सार्जेंट, सिपाही ड्यूटी वाले

लुढ़का दो उनके भी मुँह में, दो चार पियाले

पूरी बोतल गटकिये, होय ब्रह्म का ज्ञान

नाली की बू, इत्र की खुशबू एक समान

खुशबू एक समान, लड़्खड़ाती जब जिह्वा

‘डिब्बा’ कहना चाहें, निकले मुँह से ‘दिब्बा’

कहँ ‘काका’ कविराय, अर्ध-उन्मीलित अँखियाँ

मुँह से बहती लार, भिनभिनाती हैं मखियाँ

 

प्रेम-वासना रोग में, सुरा रहे अनुकूल

सैंडिल-चप्पल-जूतियां, लगतीं जैसे फूल

लगतीं जैसे फूल, धूल झड़ जाये सिर की

बुद्धि शुद्ध हो जाये, खुले अक्कल की खिड़की

प्रजातंत्र में बिता रहे क्यों जीवन फ़ीका

बनो ‘पियक्कड़चंद’, स्वाद लो आज़ादी का

एक बार मद्रास में देखा जोश-ख़रोश

बीस पियक्कड़ मर गये, तीस हुये बेहोश

तीस हुये बेहोश, दवा दी जाने कैसी

वे भी सब मर गये, दवाई हो तो ऐसी

चीफ़ सिविल सर्जन ने केस कर दिया डिसमिस

पोस्ट मार्टम हुआ, पेट में निकली ‘वार्निश’ …..

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 84 – प्रमोशन… भाग –2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की एक नवीन शृंखला “प्रमोशन…“ की प्रथम कड़ी।

☆ आलेख # 84 – प्रमोशन… भाग –2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

हमारे बैंक के सामने जो बैंक था उसके लिये “प्रतिद्वंद्वी” शब्द का प्रयोग जरूर किया है पर हकीकत यही थी कि कोई दुर्भावना नहीं थी और उनके और हमारे बीच भाईचारा था, एक सी इंडस्ट्री में काम करने के कारण. जब हम लोग आते थे उसी समय वो लोग भी अपने बैंक आते थे. उनके कस्टमर उनके थे और हमारे कस्टमर हमारे. हां कुछ व्यापारी वर्ग ऐसा जरूर था जिसे दोनों बैंकों से मोहब्बत थी. यही मोहब्बत वहाँ नजर आती जब दोनों बैंक का स्टाफ चाय या पान की दुकान पर तरोताज़ा होने के लिये आता था.

वो गलाकाट मार्केटिंग के बदनुमा दौर से पहले वाला मोहब्बत और भाईचारे का दौर था. चालें और हुनर पूरी शिद्दत से आजमाये जाते थे पर सिर्फ शतरंज, कैरम के बोर्ड पर या टेबलटेनिस की टेबल पर. इन मैचों में सपोर्टबाजी भी होती थी और ह्यूमरस कमेंट्स भी पर सट्टेबाजी नहीं थी. चियरलीडर तो होते थे पर इसमें महिलाओं की एंट्री वर्जित थी. फ्रिज, स्कूटर, टीवी तब लोन लेकर ही खरीदे जाते थे पर पार्टियों के लिये खुद ही व्यवस्था करनी पड़ती थी. ये पार्टियां किस तरह की हों ये देने वालों की जेब और लेने वालों की जिद और कूबत पर निर्भर होता था.

हालांकि बैंकों ने उस वक्त मांबाप के समान कठोर नियंत्रक बनने में जरा सी भी कमी नहीं की थी. अपने स्टाफ को कभी इतना नहीं दिया कि वो शाहखर्ची करे और बिगड़ जाये. यद्यपि पीने वाले उस वक्त भी हुआ करते थे जो घर फूंक कर तमाशा देखा करते थे. सौ का नोट तो बड़ी बात थी जो हिम्मत देता था, पांच सौ के नोट का जन्म हुआ नहीं था और पुराने हजारी लाल याने एक हजार का किंगसाईज नोट “अनलिमिटेड ओवरटाइम” के काल में सैलरी और ओवरटाइम के भुगतान के समय खुद के मार्जिन मनी को मिलाकर पाया जा सकता था. ये कल्पना नहीं सच है और एक शाखा में हुआ भी था.

जो नगरसेठ हुआ करते थे वो कभी कभी खुशियों के लड्डुओं से स्टाफ का मुंह मीठा कराते रहते थे और ये शुभअवसर दीपावली, होली, नयासाल पर आता था या फिर उनके परिवार में नये सदस्य के आगमन पर. इस शुभागमन के लिये कभी सेठ जी जिम्मेदार होते तो कभी उनके पुत्र. मिठास की मधुरता, रिश्तों की मधुरता को सुदृढ़ करती थी जिसे शाखा के सारे लोग इंज्वॉय करते थे.

सहजता, सरलता, सादगी, ईमानदारी, मितव्ययिता, मितभाषी पर मिलनसार और शालीन होना बैंककर्मी की पहचान बन गई थी जिसे पाने की ललक, किरायेदार के रूप में मकान मालिक को और दामाद के रूप में अधिकांश कन्याओं के पिताओं को हुआ करती थी. बैंककर्मी की जेब भले ही हल्की हो पर समाज में सम्मान और विश्वसनीयता भारी हुआ करती थी.

प्रमोशन श्रंखला जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ हिन्दी के उन्नयन में महिलाओं की भूमिका ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ हिन्दी के उन्नयन में महिलाओं की भूमिका ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

भाषा, मानव ने ईजाद की, पशुओं ने नहीं। प्रकृति की ध्वनियों को आत्मसात कर उसने शब्द रचे। लिपि का अविष्कार कर विकास के कई सोपान पार किये।

सभ्यता और संस्कृति का संवहन भाषा ने किया और करती रहेगी। हिन्दी की बात करें तो वह शताधिक भाषा बोलियों का समूह है। विश्व में इंग्लिश और मैंडारिन के बाद सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा। जो अद्यावधि राजभाषा और संपर्क भाषा का स्थान पा गई, पर राष्ट्रभाषा का दर्जा उससे दूर है।

बेशक राष्ट्रभाषा का मुद्दा सरकार के अधीन है पर हिन्दी और तमाम बोलियों के सम्मान का मुद्दा तो हमारे वश में है। विशेषतः महिलाओं के।

जाहिर सी बात है 2–3 वर्ष का बच्चा तेजी से सीखना चाहता है। पाँच वर्ष की उम्र तक वह माँ के संस्कार और परिवेश से जो भी सीखता है, आजीवन नहीं भूल पाता।

कान्वेंट कल्चर के भीषण प्रसार के साथ, पिता ही नहीं मांएं भी “अंग्रेजी” को स्टेट्स सिंबल बनाकर पेश करती हैं। कामवाली बाई तक शान से बखानती है, कि उसका बच्चा हिन्दी नहीं इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ता है। नर्सरी से पी. जी. तक हिन्दी उपेक्षित है। कितने ही स्कूलों में हिन्दी बोलने पर सजा दी जाती है।

 हर भाषा बोली की एक संस्कृति होती है। जिसमें खान पान, परिधान, पूजा प्रणाली, साहित्य, संगीत, और अन्यान्य प्रथा परंपराओं का समावेश होता है।

अंग्रेजी पढ़नेवाले में उसी भाषा के संस्कार उपजेंगे ना। फिर खाली पीली टसुए बहाने से क्या फायदा कि हमारा बच्चा भारतीय आचार विचार, धर्म, व्यवहार, और नीतिगत बातें नहीं जानता।

“माँ बच्चे की प्रथम गुरु है। “मित्रमण्डल एवं गुरुजन, नाते रिश्तेदार, सभी बाद हें आते हैं।

माँ- वर्किंग वुमन हो या होम मैनेजर, कितनी ही आधुनिका क्यों न हो, यथा संभव समय निकालकर बच्चे के कोमल मन की गीली मिट्टी को सही आकार देने का प्रयत्न करे।

हिन्दी दिवस पर सोशल मीडिया में हिन्दी का इतना कसीदा पढ़ा गया कि बाढ़ आ गई। पर कुछ जायज शिकायतें भी मिलीं। हैरानी है कि हम ही बच्चों को हिन्दी से दूर करें और हम ही रोये गायें कि बच्चा हिन्दी की वर्णमाला, हिन्दी के अंक, पहाड़े, हिन्दी माह के नाम तक नहीं जानता।

“ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार” बुलाकर हम बच्चों को विश्व विजेता की मुद्रा में पेश करते हैं। ऐसे में बच्चों का क्या कसूर।

आज भी बाजार, मनोरंजन, धर्म, पर्यटन, और संपर्क की भाषा हिन्दी है। कारीगर श्रेणी के लोगों से जैसे कार्पेंटर, प्लंबर, इलेक्ट्रीशियन,   सिलेंडर लानेवाला, सफाईकर्मी सभी से व्यवहार की भाषा सिखाना माँओं का कर्तव्य है। ये  कि वे भी सम्मान के हकदार हैं।

अकादमिक शिक्षा के अलावा यह भी बहुत जरूरी है।

इन दिनों आदरसूचक संबोधन, परस्पर सहयोग, और नैतिकता का पर्याप्त अभाव पाया जा रहा है। इन गुणों का विकास बाल्यावस्था से शुरू होता है। बेशक बड़ों के पाँव न छुएं पर मित्रों की तरह” हाय हैलो” कहने की बजाय  “नमस्कार प्रणाम “तो हिन्दी में करें।

माताओं — आदरसूचक संबोधन तेजी से खो रहे हैं। ध्यान दीजिए।

सोशल मीडिया विशाल स्तर पर बच्चों को प्रभावित कर रहा है। यू ट्यूब पर 60% कंटेंट हिन्दी का है। सामान्य जीवन में हमेशा हिन्दी चलती है, इंग्लिश नहीं। भारत, भारत है ब्रिटेन नहीं।

किसी भी भाषा के प्रति प्रेम और सम्मान का उदय, बचपन से होता है। अगर महिलाएं बच्चे के मन में हिन्दी के प्रति हीनता- बोध और दोयम दर्जे को जन्म देंगी तो वह  आगे चलकर हिन्दी बोलनेवालों के प्रति सम्मान का भाव नहीं रख पायेगा। उन्हें कमतर समझेगा।

हिन्दी हमारी धरोहर है। वह उस स्थान पर प्रतिष्ठित नहीं है जिस स्थान पर होनी चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। भारत में गलत इंग्लिश बोलनेवाले वंदनीय हैं पर शुद्ध हिन्दी, मराठी, बांग्ला, पंजाबी, आदि भाषाएं बोलनेवाले नहीं। औपनिवेशिक दासत्व के अवशेष मुख्यधारा का सच बन गये हैं।

अगर दृष्टान्त ही चाहिए— तो चीन, जापान, जर्मनी, फ्रांस, ईरान, इराक, द कोरिया आदि कितने ही देश अपनी भाषायी अस्मिता का परचम लहरा रहे हैं, –उनसे लेना होगा। ।

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©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 160 ⇒ चिल्ला चोट… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चिल्ला चोट”।)

?अभी अभी # 160 ⇒ चिल्ला चोट? श्री प्रदीप शर्मा  ?

भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है। कुछ बोलचाल के शब्द शायद हमें शब्दकोश में नहीं मिलें, उपयोग में भी कम ही आते हों, लेकिन व्यवहार में यदा कदा उनसे पाला पड़ ही जाता है।

केवल बादल ही नहीं बरसते, बचपन में पिताजी भी ऐसे ही बरसते थे, मानो बिजली कड़क रही हो, और हम, डर के मारे पसीना पसीना हो, अपनी मां के आंचल में छुप जाते थे। लेकिन जब पिताजी द्वारा लाड़ प्यार की बारिश होती थी, तो हम भी, निर्भय, निश्चिंत हो, भीगकर तरबतर हो जाते थे। ।

दफ्तर में कभी कभी बरसते तो बॉस भी थे, बदले में हम घर जाकर बच्चों को जब डांट पिलाते थे, तो पत्नी की झिड़कियां भी सुननी पड़ती थी, न जाने किसका गुस्सा आकर बेचारे बच्चों पर उतार देते हैं। घर आते ही इन पर भूत सवार हो जाता है।

छोटेपन में, घर में जब हम मस्ती करते और शोर मचाते थे, तो यही सुनने को मिलता था, कैसी चिल्ल पो मचा रखी है, घर को मछली बाजार समझ रखा है।

शायद इसी चिल्ल पो से एक और और ऐसे शब्द की उत्पत्ति हुई है, जो चिल्लाने के साथ साथ चोट भी पहुंचाता है। ।

जी हां, लेकिन वह केवल शब्द की ही चोट होती है। आप चाहें तो उसे डबल मार कह सकते हैं। बड़ा बाजारू लेकिन बड़े काम का शब्द है यह चिल्ला चोट। लेकिन कुत्ते की तरह भौंकने से, चिल्ला चोट मचाना, कभी कभी ज्यादा कारगर सिद्ध होता है।

जो शांतिप्रिय और शरीफ लोग होते हैं, वे इस शब्द से बहुत चमकते हैं। सबके बस का भी नहीं होता, अनावश्यक चिल्ला चोट मचाना ! बिना किसी कारण, सिर्फ लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का ब्रह्मास्त्र है यह शब्द चिल्ला चोट, जिसमें केवल चिल्ला चिल्लाकर ही सामने वाले को चोट पहुंचाई जाती है। ।

इसके लिए नैतिक बल से अधिक दुस्साहस और समृद्ध शब्दावली की आवश्यकता होती है। जितनी कहावतें, मुहावरे और शायरी से आप इस अस्त्र का उपयोग करेंगे, उतने ही आप अपने मकसद में सफल होंगे।

वैसे चिल्ला चोट हमेशा बिना बात के ही की जाती है। सड़ी सी बात पर आप किसी दुकानदार से भिड़ सकते हो। ये दस का नोट दूसरा दीजिए, इसमें से बदबू आ रही है। जी, यह दूसरा ले लीजिए ! यह तो उससे भी घटिया है। आपके तो हाथ से ही बदबू आ रही है। नहाते धोते नहीं हो क्या। इतना काफी होता है, तमाशा करने के लिए। अगर वह समझदार होगा, तो आपके मुंह नहीं लगेगा और अगर गलती से पहलवान निकल गया, तो सीधा आपका मुंह ही तोड़ देगा, सब चिल्ला चोट धरी रह जाएगी। कई बार मन मसोसकर रह जाना पड़ता है, ऐसी चिल्ला चोट पर। ।

अक्सर कुछ लोग, बिना गाली गुप्ता के, कभी साधारण तो कभी आक्रामक चिल्ला चोट की सहायता से दफ्तरों में अपना काम जल्दी करवा लेते हैं, तब उनके चेहरे पर एक विजयी मुस्कान स्पष्ट देखी जा सकती है।

घरों में सौ दिन सास के अब लद गए। बिना बात के छोटी बहू इतनी चिल्ला चोट मचाती है, कि सबकी नाक में दम कर देती है।

समझदारी से गृहस्थी चलती है, बेटा तो बेटा, ससुर जी भी सास को ही समझाते हैं, वह तो घर तोड़ने के लिए उधार बैठी है, तुम ही गम खा लो, नहीं तो तलाक की नौबत आ जाएगी। ।

संसद हो या सड़क, घर हो या दफ्तर, अगर अपनी झांकी जमानी हो, सामने वाले को नीचा दिखाना हो, अपना गलत काम करवाना हो, तो एंटायर चिल्ला चोट में डिग्री अथवा डिप्लोमा प्राप्त करने के लिए लिखें या मिलें ;

निःशुल्क कोचिंग

चिल्ला चोट विशेषज्ञ !!

(नोट: हमारी कोई शाखा नहीं है।)

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© श्री प्रदीप शर्मा

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