(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 52 ☆ देश-परदेश – फुटबॉल ☆ श्री राकेश कुमार ☆
आज रात्रि एक पारिवारिक विवाह में सम्मिलित होना है, इसलिए सुबह सुबह बुआ जी को जियो के मुफ्त वाले फोन से जानकारी ली की आदरणीय फूफा जी कितने बजे जायेंगे, हम भी उनके साथ चलेंगे ताकि खातिरदारी बढ़िया हो जायेगी, वरना फूफा जी तो फूल जाते हैं।
बुआ लपक कर बोली तुम्हारे फूफा तो “फीफा” के दीवाने हो गए हैं, वो शादी में ना जायेंगे। हमने भी उनसे विनोद में कहा अब इस उम्र में फुटबॉल का शौक जब सिर के बॉल ही नहीं बचे, ये खेल तो बॉल काल में खेलना चाहिए। जब भी कोई बड़ा आयोजन/ व्यक्ति प्रसिद्ध होता है, दुनिया का हर व्यक्ति उससे स्वयं को जोड़ने का प्रयास करता हैं। अब पाकिस्तान जैसा देश भी ये कहते नहीं थक रहा है, कि फीफा की जिन बॉल से जो लोग खेल रहे हैं, वो तो उसके देश के सियालकोट शहर में बनी हुई बॉल हैं। पूरी दुनिया उनकी बालों से ही खेल रही हैं।
हमारा बॉलीवुड कहां पीछे रहने वाला है, वो कह रहे हैं, ये तो हमारी फिल्म का गीत ” बाला, ओ बाला” ( बॉल ला, बॉल ला) की थीम हैं। विवाह की तैयारी में हम भी केश कार्तनालय पहुंच कर नाई से बोले, अरे भाई भूरे बाल छोड़ कर सभी सफेद बाल कत्तर दो, विवाह में शामिल होना है। नाई भी कान में यंत्र लगा कर ” फीफा” की कमेंट्री सुन रहा था। भौंचक्का होकर बोला आप फीफा देखने के लिए कतार जा रहे है, क्या?पूरी दुनिया में नशा छाया हुआ फुटबॉल का, गज़ब की दीवानगी हैं। भले ही दैनिक जीवन में चार कदम भी बाइक से जाते है, लेकिन टीवी या रेडियो के माध्यम से अपने आप को फुलबॉल खेल प्रेमी सिद्ध करने में लगे रहते हैं।
विवाह स्थल को भी फुटबॉल स्टेडियम का रूप दिया हुआ था। नवविवाहित मैदान के मध्य में विराजमान थे। मैदान के दोनो अंतिम छोर पर गोल पोस्ट थी, जहां मिठाई की काउंटर थी। सजावट में भी फुटबॉल जैसे फानूस इत्यादि का उपयोग कर माहौल को समयानुसार बनाया हुआ था।
☆ “मानुष हौं तो वही रसखानि” – भाग – 2 ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆
कृष्णभक्त रसखान के सवैयों का काव्यानुभव (उत्तरार्ध)
प्रिय पाठकगण
सस्नेह वंदन!
जन्माष्टमी का पर्व हमने उत्साह सहित मनाया! उस पावन पर्व के अवसर पर हम कृष्णभक्त रसखान के ‘मानुष हौं तो वही रसखानि’ इस काव्य के अन्य सवैयों का काव्यानंद अनुभव करेंगे|
धुरि भरे अति सोहत स्याम जू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।
काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी॥
उपरोक्त सवैये में एक गोपी अपनी सखी से कृष्ण के सुंदर रूप का वर्णन करते हुए कहती है, “अरी सखी, देख तो, धूल में खेलते खेलते कृष्ण का पूरा शरीर धूल से धूमिल हो गया है, कितना सुंदर लग रहा है ना! और हाँ देख उसके घुंघराले बाल कितनी खूबसूरती से बंधे हैं, एक चोटी उसके सर पर कैसी सज रही है (भले ही द्वारका जाकर उसे सोने का मुकुट मिला हो, परन्तु, बचपन की यह चोटी सचमुच निराली ही थी!) आंगन में खेलते हुए खाना और खाते हुए खेलना, यह दृश्य तो हृदयंगम है| खाता क्या है तो माखन रोटी| इस प्रकार दौड़ते भागते और गिरते समय उसके पैरों के पैंजनियों की छन छन करती आवाज तो अति मधुर है| यह नादब्रह्म तो सप्तसुरों के परे है अर्थात आठवाँ सुर है| स्मरण करते रहें आठवें का (कृष्ण का) आठवाँ स्वर अर्थात उसके पैंजनियों की झनकार! (रुमझुम रुमझुम चाल तिहारी, काहे भयी मतवारी, हम तो बस बलिहारी, बलिहारी!!!) उसने पीत वर्ण की लंगोट पहन रखी है (बड़े होने पर पीतांबर, धन्य हो किसनकान्हा!)| इस कृष्ण के मनमोहक और मनभावन रूप ने हर किसी को पागल कर रखा है, यहां तक कि कामदेव और कलानिधि चंद्र भी उनकी सुंदरता के सामने अपने करोड़ों रूप न्योछावर कर रहे हैं। अरी सखी देख, उस मुए कौवे की किस्मत कैसी चमक उठी है, उसने सीधे सीधे कृष्ण के हाथ की माखन रोटी पर ही झपट्टा मारा और देख तो, उसे लेकर उड़ भी गया!”
कानन दै अँगुरी रहिहौं, जबही मुरली धुनि मंद बजै है।
माई री वा मुख की मुसकानि, सम्हारि न जैहै, न जैहै, न जैहै॥
उपरोक्त पंक्तियों में रसखान बताते हैं कि गोपियाँ कृष्ण के प्रेम में किस कदर पागल थीं। एक गोपी अपनी सखी से कह रही है, “ऐ मेरी सखी, सुन ले, जब जब कृष्ण की मंद मंद सुरीली बांसुरी बज रही हो, तब तब कोई मेरे कानों में अपनी उंगलियां डाल दे, अर्थात मैं उनकी बांसुरी बिल्कुल भी सुनना नहीं चाहती! वह मेरे घर की सबसे ऊपरी अटारीपर चढ़ आएगा और जानबूझकर गायों को चराने ले जाते समय चरवाहे गाते हैं न, वैसे ही गीत (गौचरण) गाते रहेगा, जो मेरे मन को मंत्रमुग्ध कर देंगे| लेकिन मैं सभी ब्रजवासियों को चिल्ला चिल्ला कर यहीं बताऊंगी कि, मुझे भले ही कोई भी कितना ही और कैसे भी लाख समझाने का प्रयत्न करो, परन्तु हे सखी, इस श्यामल तनु कृष्ण के चेहरे की वह मंद, मधुर मुस्कान मेरे मन पर कब्ज़ा कर रही है! मैं अपने मन को नियंत्रित नहीं कर पा रही हूँ| वह मेरे हृदयकमल के चारों ओर भ्रमर की भांति घूम घूम कर मुझसे प्रेमालाप करते हुए मधुर गुंजन कर रहा है! अर्थात् मैं कृष्ण के प्रेम में पूरी तरह डूब चुकी हूँ| मैं इतनी अधिक व्याकुल और उन्मत्त हो गई हूँ कि, क्या कहूँ और कैसे कहूँ! मैं सारी लज्जा छोड़कर श्रीकृष्ण की ओर दौड़ रही हूँ|”
मोर-पखा सिर ऊपर राखिहौं गुंज की माला गरे पहिरौंगी।
ओढि पितंबर लै लकुटी वन गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी॥
भाव तो वोहि मेरो रसखानि सो तेरे कहे सब स्वाँग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी॥
इस सवैये में कवि ने कृष्ण के प्रति गोपी के अनोखे प्रेम को प्रकट किया है। देखिए कैसे वह कृष्ण की चीजें पहनने के लिए किस कदर तैयार है। वह गोपी अपनी सखी से कहती है, “हे सखी, मैं ना अपने सिर पर (कृष्ण की तरह) मोर पंख का मुकुट पहनूंगी। मैं अपने गले में गुंजा की माला डालूंगी, यह भी संभव है कि, मैं पीत वस्त्र धारण करूँ और हाथ में एक छड़ी लेकर एक ग्वालिन बनकर गायों को जंगल में चराने के लिए भी ले जाऊँ और उनके पीछे चलते हुए उनकी अच्छी तरह से रखवाली कर लूं| कृष्ण तो मुझे इतना प्रिय है कि, मैं उसके लिए जो भी हो करुँगी, उसे पाने के लिए तुम जो कहोगी वहीं स्वांग रचूंगी| परन्तु एक बात याद रखना ऐ मेरी प्रिय सखी, कृष्ण की जो मुरली है न, जिसे वे अपने अधर में रखते हैं, उसे तो किसी भी हालत में, यानि कभी भी, अपने अधर में नहीं रखूंगी!” (सौत है न!)
मोरपखा मुरली बनमाल, लख्यौ हिय मै हियरा उमह्यो री।
ता दिन तें इन बैरिन कों, कहि कौन न बोलकुबोल सह्यो री॥
अब तौ रसखान सनेह लग्यौ, कौउ एक कह्यो कोउ लाख कह्यो री।
और सो रंग रह्यो न रह्यो, इक रंग रंगीले सो रंग रह्यो री।
गोपिकाएं कहती हैं, ‘सर पर मोर पंख, होठों पर मुरलिया और गले में वनमाला पहने कृष्ण को देखकर मन हवा में कमल का फूल जिस प्रकार से लहराता है, उसी तरह झूल रहा है| मेरी ऐसी प्रेममग्न स्थिति में, यदि कोई बैरन उल्टा सीधा बोल भी दे, तो भी उसे सहन किया जाता है! रसखान कहते हैं, जब लावण्य के मूर्तिमंत रूप कृष्ण से इतने स्नेह्बंधन बंध गए हैं कि, चाहे कोई एक बात कहे, चाहे कोई लाख बार टोके, चाहे कोई और रंग हो या न हो, उस साँवरे कृष्ण सखा के रंग में ही रंगते हुए रहना है! जाते जाते इसी अर्थ के निकट जाता हुआ प्रसिद्ध मराठी गायिका माणिक वर्माजी के गाने का स्मरण हुआ, ‘त्या सावळ्या तनुचे मज लागले पिसे ग, न कळे मनास आता त्या आवरू कसे ग!’ (अर्थात उस श्यामल तनुको देखते ही मैं उन्मना अवस्था में पहुंची हूँ, अब यह समझ नहीं पा रही हूँ कि, इस उन्मुक्त मन पर कैसे काबू रखूं|)
जिसके गले में वैजयंतीमाला शोभायमान होती है ऐसे कुंजबिहारी, गिरधरकृष्ण मुरारी, भगवन श्रीकृष्ण के चरणों में यह शब्द कुसुमांजली अर्पित करती हूँ!
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अच्छे विचारों का अकाल”।)
अभी अभी # 159 ⇒ अच्छे विचारों का अकाल… श्री प्रदीप शर्मा
आजकल मौलिक और अच्छे विचारों का इतना अभाव हो गया है, कि मेरा यह शीर्षक भी मौलिक नहीं है। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित पुस्तक “अच्छे विचारों का अकाल” इसका जीता जागता उदाहरण है, जिसके लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद श्री अनुपम मिश्र हैं। श्री मिश्र का इतना ही परिचय पर्याप्त है कि वे सुविख्यात कवि श्री भवानीप्रसाद मिश्र के सुपुत्र हैं।
मनुष्य ईश्वर की एक अनुपम कृति है। मनुष्य को इस जगत का सर्वश्रेष्ठ प्राणी यूं ही नहीं माना जाता। हमारी संभावनाओं का आकाश कितना विस्तृत और विशाल है, हम ही नहीं जानते। सीखने से ही तो जानना शुरू होता है। सतत अभ्यास, चिंतन मनन और अध्ययन का ही यह नतीजा है कि मनुष्य ने जितना खोजा है, उससे अधिक ही पाया है और विज्ञान इतने आविष्कार कर पाया है।।
शक्ति किसी की भी हो, होगा कोई अज्ञात अदृश्य नियंता, लेकिन यह मनुष्य ही हर जगह आगे बढ़ा है, कदम से कदम मिले हैं और उसने हर क्षेत्र में आशातीत सफलता पाई है, उसकी ही मेहनत और लगन का यह नतीजा है कि उसने एवरेस्ट पर और चांद पर भी विजय पताका फहराई है।
हम सब एक मिट्टी के ही तो बने हैं, फिर क्यों आज हमारी मौलिकता को जंग लग गया है। अचानक ऐसा क्या हो गया है कि हमने सोचना ही बंद कर दिया है। आजकल हमारे लिए कोई और ही सोचता है, और हम उसकी ही जबान बोलने लग गए हैं।।
याद आते हैं वे दिन, जब कैसे कैसे विचार अगड़ाई लेते थे, कभी दुनिया को बदल देने का ख्वाब आता था तो कभी उस दुनिया के रखवाले से जवाब तलब करने का मन होता था। एक आग थी, शायद वह अब बुझ गई है।
आज इस सोशल मीडिया के युग में हमारे लिए सोचने के लिए थिंक टैंक मौजूद है, फोटो शॉप के साथ साथ आईटी सेल भी हैं, और पूरी व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी है, जो हर पल आपको कथित ज्ञान फॉरवर्ड करती रहती है।
आप यंत्रवत, एक ऑपरेटर की तरह, किसी से ऑपरेट होते रहते हो।।
लगता है, हमारे विचारों को, हमारी मौलिकता को दीमक लग गई है। अगर अलमारी में रखी किताबों की देखभाल नहीं की जाए, तो इन्हें भी दीमक खा जाती है, हम कहां आजकल अपने दिमाग की खिड़की खुली रखते हैं।
बाहर के खुले विचारों की हवा का अंदर प्रवेश ही नहीं हो पाता। बस सोशल मीडिया ने जो आपको परोस दिया, उससे ही आपका पेट जो भर जाता है। यही तो है विचारों का जंक फूड, पास्ता, मैगी और बर्गर जो आपको ऑनलाइन स्टोर्स, भर भर कर, घर बैठे उपलब्ध करवा रहा है।
जब चिंतक और विचारक, राजनीतिक प्रचारक बन जाए तो समझिए, अच्छे और मौलिक विचारों का अकाल पड़ गया है। इस विकृति से बचने के लिए हमें वापस प्रकृति की गोद में ही जाना होगा। उन्मुक्त और स्वच्छंद विचार अभिव्यक्ति की प्राणवायु है। हमारे अंदर के प्रेम के झरने को फूटने दें, दिमाग के ओजोन परत की भी कुछ चिंता करें, जंक फूड ना खाएं, ना परोसें। आइए अच्छे विचारों की पैदावार बढ़ाएं।।
☆ “मानुष हौं तो वही रसखानि” – भाग – 1 ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆
कृष्णभक्त रसखान के सवैयों का काव्यानुभव (पूर्वार्ध)
प्रिय पाठकगण
सस्नेह वंदन!
प्रसिद्ध कृष्ण भक्त रसखान ब्रज भाषा के कवि हैं! वल्लभ सम्प्रदाय को संत वल्लभाचार्य ने प्रारम्भ किया| जब से गोकुल वल्लभ संप्रदाय का केंद्र बना, ब्रजभाषा में कृष्ण पर साहित्य लिखा जाने लगा। इस प्रभाव ने ब्रज (मथुरा गोकुल वृन्दावन की) की बोली भाषा को एक प्रतिष्ठित साहित्यिक भाषा बना दिया। सूरदास और रसखान की कृष्ण भक्ति से ओत-प्रोत मधुर ब्रजभाषा भाषा में रचित काव्य अत्यंत सुंदर भावानुभूति कराता है। उनके काव्य का मुख्य विषय ‘कृष्णलीला’ है। उसकी गहराई का अनुभव करना हो तो रसखान की कविताओं को पढ़ना ही एकमात्र उपाय है। इस लेख में, मैंने उनके प्रेम और भक्ति से परिपूर्ण कुछ ‘सवैये’ नामक प्रसिद्ध काव्य प्रकार का अंतर्भाव करते हुए उनका रसग्रहण करने का प्रयत्न किया है|
सैयद इब्राहिम खान उर्फ रसखान का जन्म काबुल (१५७८) में हुआ था और उनकी मृत्यु वृन्दावन (१६२८) में हुई थी। रसखान प्रसिद्ध भारतीय सूफ़ी कवि और कृष्ण के बहुत बड़े भक्त थे! कवि ने स्वयं कहा है कि वे बादशाही जाति के थे| उससे यह माना जाता है कि उनका बचपन अच्छी स्थिति में रहा होगा। भागवत का फ़ारसी अनुवाद पढ़कर उनके हृदय में भगवान कृष्ण के प्रति भक्ति जाग उठी। इस संबंध में कई किंवदंतियाँ प्रसिद्ध हैं। अंततः तात्पर्य यह है कि, वे कई प्रसंगों के कारण कृष्ण भक्ति की ओर आकर्षित हुए थे। वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ द्वारा कृष्ण भक्ति की दीक्षा प्राप्त करने के उपरांत, उन्होंने मुस्लिम होने के बावजूद एक वैष्णव भक्त का जीवन व्यतीत किया।
उन्होंने १६ वीं शताब्दी में प्रेमवाटिका काव्य की रचना की और वृन्दावन में बहुत प्रसिद्धी पाई। बावन दोहों की इस कविता में प्रेम के महत्व का वर्णन किया गया है। मात्र १२९ स्फुट पदों के इस संग्रह के नायक हैं ‘सुजान रसखान’ के प्रिय अपनी बाँसुरी से गोपियों को लुभाते श्रीकृष्ण! इनमें ‘कवित्तसवैया’ बहुत लोकप्रिय हैं। इस संदर्भ में ‘सुनाओ कोई रसखान’ अर्थात ‘कविता सुनाओ’ वाक्यांश का प्रयोग बहुत ही प्रचलित था। ऐसा देखा गया है कि ब्रजभाषा में काव्य रचना करने वाला यह कवि भागवत तथा अन्य संस्कृत ग्रंथों से भली-भांति परिचित था। रसखान ने अपने काव्य में इन पौराणिक सन्दर्भों का उल्लेख किया है। उनकी कविता में अरबी, फ़ारसी और अपभ्रंश भाषाओं के शब्द भी प्रचुर मात्रा में देखे गये हैं। उनकी भाषा सरल और सीधी होते हुए भी सुरुचिपूर्ण और समृद्ध है। उन्होंने दोहा, कवित्त, घनाक्षरी और सवैया छन्द (श्लोकों) का अधिकतर प्रयोग किया। रसखान का सबसे बड़ा परिचय एक कवि के रूप में है, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से कृष्ण के लड़कपन तथा उनकी विभिन्न लीलाओं का रोचक मानस रचा! कुछ विद्वानों के अनुसार रसखान की कविता इतनी ‘रसमय’ है कि वह उन्हें प्रसिद्ध कृष्ण भक्त कवि सूरदास की श्रेणी में लाकर खड़ा करती है|
सवैय्या
मित्रों, अब देखें कि सवैये का मतलब क्या है? सवैय्या एक छंद (वृत्त) है।चार पंक्तियों (प्रत्येक पंक्ति में २२-२६ शब्द) के संग्रह को पारंपरिक रूप से हिंदी में ‘सवैया’ कहा जाता है। रसखान के सवैये बहुत प्रसिद्ध हैं| निम्नलिखित कविता ‘मानुष हो तो वहीं रसखानि’ उनकी कृष्णभक्ति का सुंदर उदाहरण है। कवि अनेक प्रकार से कहता है कि मुझे कृष्ण के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहिए। कृष्णलीला ही उनकी समग्र कविताओं की आत्मा है। ‘आठ सिद्धियों और नौ निधियों का वैभव भी मैं कृष्ण की लाठी और कम्बल पर न्योछावर कर दूँ’ इन अलौकिक शब्दों में उन्होंने अपनी भक्ति व्यक्त की है| आइए अब इस प्रसिद्ध कविता का आनंद लेते हैं| उनमें से केवल कुछ एक सवैयों के अर्थ जानने का यत्न करें, क्योंकि कविता रसमय तो है, लेकिन साथ ही काफी लंबी भी है। मैंने इस रसग्रहण को करते हुए कवि की कृष्ण भक्ति को वैसी की वैसी प्रस्तुत करने का भरसक प्रयास किया है|
‘मानुष हौं तो वही रसखानि’
मानुष हौं तो वही रसखानि, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥
रसखान को ब्रजभूमि से इतना लगाव है कि वे वहां कृष्ण से जुड़ी हर चीज से जुड़ना चाहते हैं। कवि अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए कहता है, ‘हे भगवान, यदि तुम मनुष्य का जन्म देना चाहते हो तो गोकुल के किसी चरवाहे या ग्वाले का जनम देना| पशु योनि में जन्म देना चाहते हो तो गोकुल के नन्द बाबा के घर में पल बढ़ रही गाय या बछड़े के रूप में जन्म देना| नन्द बाबा के घर रहूँगा तो, गारंटी है कि कान्हा मुझे हर दिन वन में ले जाएंगे! हां, अगर पत्थर ही बनाना चाहते हो तो, जो कृष्ण ने जो गोवर्धन पर्वत उठाया था, बस उसी पर मुझे पडे रहने देना। उस गिरिधर ने एक बार उस पवित्र पर्वत के छत्र को अपनी करांगुली (छोटी उंगली) पर धारण कर के इंद्रदेव के प्रकोप से गोकुल के लोगों के प्राण बचाये थे! अरे पक्षी का भी जन्म दो तो कोई दिक्कत नहीं, लेकिन ऐसी व्यवस्था करो हे भगवन कि, मैं जन्म लूं ब्रज की धरती पर और घोंसला बनाऊं कालिंदी के किनारे कदम्ब के पेड़ की शाखा पर। ओह, एक समय की बात है, राधा और गोपाल कृष्ण इस कदम्ब के पेड़ की शाखाओं पर झूल रहे होंगे! यदि नहीं, तो वह किसन कान्हा इसी कदम्ब के पेड़ पर बैठकर बांसुरी बजाकर गोपियों को रिझाता होगा! डॉ. मीना श्रीवास्तवक्या मेरा ऐसा नसीब होगा कि, मैं भी वहीं जन्म लूंगा जहाँ कृष्ण और गोपियाँ निवास करते होंगे?’
या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराय बिसारौं॥
ए रसखानि जबै इन नैनन ते ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौ।
कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥
उपरोक्त सवैये में ऐसा प्रतीत होता है कि कवि रसखान कृष्ण के बचपन की चीजों से अत्यधिक मोहित हुए हैं। देखें कि वे उनके लिए क्या त्याग करने को तैयार हैं! वे कहते हैं ‘इस ग्वाले की लाठी और कम्बल मुझे अति प्रिय हैं, यदि मुझे त्रिलोक का राज्य भी मिल जाए तो भी मैं इनपर उसे न्योछावर कर दूँ| यदि कोई मुझे नंद बाबा की गायों को चराने ले जाने का अवसर देता है तो, आठ सिद्धियों (अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्त्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व) और नौ निधियों (पद्म निधि, महापद्म निधि, नील निधि, मुकुंद निधि, नंद निधि, मकर निधि, कच्चा निधि, शंख निधि और खर्व) के सुख का मैं त्याग कर सकता हूँ| जीवनभर ब्रजभूमि के वनों, उपवनों, उद्यानों और तड़ागों को अपनी आंखों से देखूंगा और उन्हें अपनी आंखों में संजोकर रखूंगा। मैं ब्रजभूमि की कंटीले वृक्ष लताओं के लिए करोडों स्वर्ण महल अर्पित करने को मैं खुशी खुशी तैयार हो जाऊँगा।‘
सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रहैं पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥
कवि उपरोक्त पंक्तियों में कहते हैं, ‘शेष (नाग), गणेश, महेश (शिव), दिनेश (सूर्य) और सुरेश (इंद्र) लगातार उनका (कृष्ण) ध्यान करते हैं, उसका आकलन न कर पाने वाले वेद उनकी स्तुति गाते हैं, ‘वह अनादी, अनंत, अखंड, अछेद (जिसमें कोई छेद न हो) आणि अभेद हैं।’ नारद मुनि, शुक मुनि, वेद व्यास जैसे महा बुद्धिमान ऋषि जिनके नाम का लगातार जाप करते रहते है, ऐसे परात्पर परब्रह्म गोकुल के बालकृष्ण को ये ग्वालिनें (अहीर या ग्वाले की छोरियां) छछिया (छाछ रखने का मिट्टी का एक छोटा बरतन) भर छाछ दिखाकर नचाती हैं, तो कभी पायल पहनती हैं तो कभी घाघरा चोली!’ ये हैं भगवान कृष्ण, जो दुनिया को नचाते हैं! उनकी लीला तो अपरम्पार है! इन ग्वालिनों के परम भाग जो इस जगदीश्वर को अपने मन माफिक नचाती रहती हैं| उनका बाल रूप इतना मनमोहक और सर्वज्ञ है, फिर भी वे निःसंदेह अज्ञ गोपियों के लिए ऐसी लीला करते हैं।
(ऐसा कहा जाता है कि देवगण और ऋषि मुनियों ने स्त्री रूप धारण कर भगवान विष्णु से एकरूप होने के लिए गोपिकाओं के रूप धारण किये थे। लेकिन गोपिकाएँ बनने के बाद, वे अपने मूल रूप को भूल गए और भोली भाली गोपिकाओं के रूप में इस प्रकार कृष्ण की संगति का आनंद लिया! क्या सही और क्या गलत! केवल पूर्ण ब्रह्म कृष्ण ही जानें! केवल एक ही सत्य, भगवान कृष्ण, जिन्होंने दुनिया को नचाया, गोपियों के लिए नृत्य करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे, केवल एक गोला मक्खन का और एक छछिया भर छाछ देना होता था!)
मित्रों, आज यहीं विराम देती हूँ! कल उत्तरार्ध प्रस्तुत करुँगी!
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 210☆ उड़ जाएगा हंस अकेला..!
आनंदलोक में विचरण कर रहा हूँ। पंडित कुमार गंधर्व का सारस्वत कंठ हो और दार्शनिक संत कबीर का शारदीय दर्शन तो इहलोक, आनंदलोक में परिवर्तित हो जाता है। बाबा कबीर के शब्द चैतन्य बनकर पंडित जी के स्वर में प्रवाहित हो रहे हैं,
उड़ जाएगा हंस अकेला
जग दर्शन का मेला…!
आनंद, चिंतन को पुकारता है। चिंतन की अंगुली पकड़कर विचार हौले-हौले चलने लगता है। यह यात्रा कहती है कि ‘मेल’ शब्द से बना है ‘मेला।’ मिलाप का साकार रूप है मेला। दर्शन जगत को मेला कहता है क्योंकि मेले में व्यक्ति थोड़े समय के लिए साथ आता है, मिलाप का आनंद ग्रहण करता है, फिर लौट जाता है अपने निवास। लौटना ही पड़ता है क्योंकि मेला किसीका निवास नहीं हो सकता। गंतव्य के अलावा कोई विकल्प नहीं।
विचार अब चलना सीख चुका। उसका यौवनकाल है। उसकी गति अमाप है। पलक झपकते जिज्ञासा के द्वार पर आ पहुँचा है। जिज्ञासा पूछती है कि महात्मा कबीर ने ‘हंस’ शब्द का ही उपयोग क्यों किया? वे किसी भी पखेरू के नाम का उपयोग कर सकते थे फिर हंस ही क्यों? चिंतन, मनन समयबद्ध प्रक्रिया नहीं हैं। मनीषी अविरत चिंतन में डूबे होते हैं। समष्टि के हित का भाव ऐसा, सात्विकता ऐसी कि वे मुमुक्षा से भी ऊपर उठ जाते हैं। फलत: जो कुछ वे कहते हैं, वही विचार बन जाता है। अपने शब्दों की बुनावट से उपरोक्त रचना में द्रष्टा कबीर एक अद्वितीय विचार दे जाते हैं।
विचार कीजिएगा कि हंस सामान्य पक्षियों में नहीं है। हंस श्वेत है, शांत वृत्ति का है। वह सुंदर काया का स्वामी है। आत्मा भी ऐसी ही है, सुंदर, श्वेत, शांत, निर्विकार। हंस गहरे पानी में तैरता है तो हज़ारों फीट ऊँची उड़ान भी भरता है। आकाशमार्ग की यात्रा हो अथवा वैतरणी पार करनी हो, उड़ना और तैरना दोनों में कुशलता वांछनीय है।
हंस पवित्रता का प्रतीक है। शास्त्रों में हंस की हत्या, पिता, गुरु या देवता की हत्या के तुल्य मानी गई है।
हंस विवेकी है। लोकमान्यता है कि दूध में जल मिलाकर हंस के सामने रखा जाए तो वह दूध और जल का पृथक्करण कर लेता है। संभवत: ‘दूध का दूध और पानी का पानी’ मुहावरा इसी संदर्भ में अस्तित्व में आया। हंस के नीर-क्षीर विवेक का भावार्थ है कि स्वार्थ, सुविधा या लाभ की दृष्टि से नहीं अपितु अपनी बुद्धि, मेधा, विचारशक्ति के माध्यम से उचित, अनुचित को समझना। मनुष्य जब भी कुछ अनुचित करना चाहता है तो उसे चेताने के लिए उसके भीतर से ही एक स्वर उठता है। यह स्वर नीर-क्षीर विवेक का है, यह स्वर हंस का है। हंस को माँ सरस्वती के वाहन के रूप में मिली मान्यता अकारण नहीं है।
कारणमीमांसा से उपजे अर्थ का कुछ और विस्तार करते हैं। दिखने में हंस और बगुला दोनों श्वेत हैं। मनुष्य योनि हंस होने की संभावना है। विडंबना है कि इस संभावना को हमने गौण कर दिया है। हम में से अधिकांश बगुला भगत बने जीवन बिता रहे हैं। जीवन के हर क्षेत्र में बगुला भगतों की भरमार है। हंस होने की संभावना रखते हुए भी भी बगुले जैसा जीना, जीवन की शोकांतिका है।
मनुष्य को बुद्धि का वरदान मिला है। इस वरदान के चलते ही वह नीर-क्षीर विवेक का स्वामी है। विवेक होते हुए भी अपनी सुविधा के चलते ढुलमुल मत रहो। स्पष्ट रहो। सत्य-असत्य के पृथक्करण का साहस रखो। यह साहस तुम्हें अपने भीतर पनपते बगुले से मुक्ति दिलाएगा, तुम्हारा हंसत्व निखरता जाएगा। जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य जी कहते हैं कि महर्षि वेदव्यास जब महाभारत का वर्णन करते हैं तो पांडवों का उदात्त चरित्र उभरता है। इसका अर्थ यह नहीं कि वे पांडवों के प्रवक्ता हैं। सनद रहे कि महर्षि वेदव्यास सत्य के प्रवक्ता हैं।
अपनी एक कविता स्मृति में कौंध रही है,
मेरे भीतर फुफकारता है
काला एक नाग,
चोरी छिपे जिसे रोज़ दूध पिलाता हूँ,
ओढ़कर चोला राजहंस का
फिर मैं सार्वजनिक हो जाता हूँ…!
दिखावटी चोले के लिए नहीं अपितु उजला जीवन जिओ अपने भीतर के हंस के लिए। स्मरण रहे, वह समय भी आएगा जब हंस को उड़ना होगा सदा-सर्वदा के लिए। इस जन्म की अंतिम उड़ान से पहले अपने हंस होने को सिद्ध कर सको तो जन्म सफल है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
माधव साधना सम्पन्न हुई। आपको अगली साधना की जानकारी शीघ्र दी जाएगी।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सुखासन”।)
अभी अभी # 158 ⇒ सुखासन… श्री प्रदीप शर्मा
जब घरों में सोफे कुर्सियां नहीं थीं, तब आगंतुक को सबसे पहले बैठने के लिए आसन दिया जाता था। अगर बैठक हो, तो बैठने की व्यवस्था होती थी, अगर किसी गरीब के घर में तखत चारपाई अथवा टूटी फूटी कुर्सी भी ना हो, तो जमीन पर ही आसन, दरी, अथवा चटाई बिछा दी जाती थी।
किसी भी आरामदायक स्थिति को आसन कहते हैं। नंगी जमीन पर बैठना अशुभ माना जाता है। यही आसन योगासन का भी एक प्रमुख अंग है। अष्टांग योग यम, नियम और आसन प्राणायाम से ही तो शुरू होता है, लेकिन सच तो यही है कि आसन प्राणायाम को ही लोग योग समझ बैठे हैं। वैसे प्राणायाम भी अतिशयोक्ति ही है, थोड़े हाथ पांव हिला लिए, और हो गया योगा।।
तो क्यों न हम भी आज सिर्फ आसन की ही बात करें। अगर आसन में ही सुख नहीं हो, तो काहे का आसन! हमारे महर्षि पातंजल इस बात को भली भांति जानते थे, इसलिए उन्होंने आसन की परिभाषा में ही लिख दिया, स्थिरसुख आसनम् ! यानी जिस स्थिति में आप सुखपूर्वक स्थिर हो बैठे रहें, वही आसन है। शुद्ध हिंदी में इसे any comfortable posture कहते हैं। कितनी आसान परिभाषा है आसन की।
योग की भाषा में आसन को पोश्चर यानी योगासन कहा जाने लगा है। कुछ आसन तो जीव गर्भ में ही कर लेता है, और एक नवजात शिशु की हर क्रिया भी आसन ही होती है। प्रकृति उसकी गुरु होती है। बड़े होते होते वह पांव का अंगूठा भी मुंह में ले लेता है, अगर हम बड़े लोग अगर यह करने जाएं, तो सिर्फ दांतों तले उंगलियां ही दबाते रह जाएं।।
इंसान योग करे ना करे, हर व्यक्ति के कुछ प्रिय आसन होते हैं। मेरा प्रिय आसन सुखासन है। यह मैं जमीन पर बैठकर भी कर सकता हूं, और कुर्सी पर बैठकर भी। इसे हमारी देसी भाषा में पालकी मारकर बैठना कहते हैं। वैसे रीढ़ की हड्डी सीधी रखते हुए आप स्वस्तिकासन और सिद्धासन भी कर सकते हैं और अभ्यासोपरान्त पद्मासन भी लगा सकते हैं। अजी, पद्मासन को तो आसनों का राजा कहा गया है।
अगर आप अपने घुटनों पर ही बैठ गए, तो यह वज्रासन हो गया। वज्रासन में एक खूबी और है, यह आप भर पेट भोजन करने के बाद भी कर सकते हैं। लोगों ने आजकल जमीन पर बैठना ही बंद कर दिया है। जिसका जमीन पर बैठना एक बार छूट गया फिर वह खाना भी टेबल पर ही खाएगा और पाखाने के लिए भी कमोड को ही अपनाएगा।।
खैर, हम तो सुख की बात कर रहे थे। मेरा एक और प्रिय आसन शवासन है।
मरना कहां हमारे हाथ में है, लेकिन शव जैसे पड़े रहने में क्या हर्ज है। मुर्दा कहां कुछ बोलता और सोचता है, बस बिना हाथ पांव हिलाए डुलाए, पड़ा रहता है। आप भी मुर्दे के समान कुछ मत सोचो, कुछ मत बोलो, मस्त शरीर को शिथिल छोड़कर पड़े रहो।
नहीं मरा, तो मरकर देख।
सांस तो फिर भी चल रही है। अहा, कितना सुख है, कितना आनंद है, जीते जी मरने में।
और अगर इसी में नींद लग गई तो ! अरे नेकी और पूछ पूछ, अजी आप कहां इतनी जल्दी मरने वाले हो। आप तो जिंदगी की झंझटों को भूल आराम से पड़े हो। अगर आपकी आंख लग गई, तो समझो यही योगनिद्रा हो गई। विचार शून्य होना तो ध्यान की अवस्था है। लो जी, पड़े पड़े ही ध्यान भी लग गया। बस, जब तंद्रा टूटे, आप उठ बैठो। आप एक बार मर भी गए, और समझो आपका पुनर्जन्म भी हो गया।।
बस इसी तरह रोज जीते, मरते रहें। रोज रात को करवटें बदलना भूल जाएंगे। घोड़े बेचकर सोने वाली, साउंड स्लीप, जो आपकी पूरे दिन भर की थकान दूर कर देगी और आप पुनः दिन भर के लिए तरो ताजा हो जाएंगे।
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख समय–सर्वश्रेष्ठ उपहार। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 200 ☆
☆ समय–सर्वश्रेष्ठ उपहार☆
आधुनिक युग में बढ़ रही प्रतिस्पर्द्धात्मकता की भावना ने बच्चों, परिवारजनों व समाज में आत्मकेंद्रिता के भाव को जहां पल्लवित व पोषित किया है; वहीं इसके भयावह परिणाम भी सबके समक्ष हैं। माता-पिता की अधिकाधिक धन कमाने की लिप्सा ने, जहां पति-पत्नी में अलगाव की स्थिति को जन्म दिया है; वहीं उनके हृदय में उपजे संशय, शंका, संदेह व अविश्वास के भाव अजनबीपन का भीषण-विकराल रूप धारण कर मानव-मन को आहत-उद्वेलित कर रहे हैं; जिसके परिणाम-स्वरूप ‘लिव-इन व सिंगल पेरेंट’ का प्रचलन निरंतर बढ़ रहा है… जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चे भुगतने को विवश हैं और वे निरंतर एकांत की त्रासदी से जूझ रहे हैं। भौतिकतावाद की बढ़ती प्रतिस्पर्द्धात्मक प्रवृत्ति ने तो बच्चों से उनका बचपन ही छीन लिया है, क्योंकि एक ओर तो उनके माता-पिता अपने कार्य-क्षेत्र में प्रतिभा-प्रदर्शन कर एक-दूसरे को पछाड़ आगे बढ़ जाना चाहते हैं, दूसरी ओर वे अपनी अतृप्त इच्छाओं व सपनों को अपने आत्मजों के माध्यम से साकार कर लेना चाहते हैं। इस कारण वे उनकी रूचि व रूझान की ओर तनिक भी ध्यान नहीं देते।
इस प्रकार माता-पिता भले ही धन-संपदा से सम्पन्न होते हैं और उनका जीवन भौतिक सुख-सुविधाओं व ऐश्वर्य से लबरेज़ होता है, परन्तु समयाभाव के कारण वे अपने आत्मजों के साथ चंद लम्हे गुज़ार कर उन्हें जीवन की छोटी-छोटी खुशियां भी नहीं दे सकते; जो उनके लिए अनमोल होती हैं, प्राणदायिनी होती हैं। यह कटु सत्य है कि आप पूरी दौलत खर्च करके भी न तो समय खरीद सकते हैं; न ही बच्चों का चिर-अपेक्षित मान-मनुहार और उस अभाव की पूर्ति तो आप लाख प्रयास करने पर भी नहीं कर सकते। सो! अत्यधिक व्यस्तता के कारण माता-पिता से अपने आत्मजों को सुसंस्कृत करने की आशा करना तो दूर के ढोल सुहावने जैसी बात है। वास्तव में यह कल्पनातीत है, बेमानी है।
चिन्तनीय विषय तो यह है कि आजकल न तो माता-पिता के पास समय है; न ही शिक्षण संस्थानों में अपनी संस्कृति के विभिन्न पहलुओं से अवगत कराया जाता है और न ही जीवन- मूल्यों की महत्ता, सार्थकता व उपादेयता का पाठ पढ़ाया जाता है। सो! उनसे नैतिकता व मर्यादा-पालन की शिक्षा देने की अपेक्षा करना तो व्यर्थ है। बच्चों का टी•वी• व मीडिया से जुड़ाव, मदिरा व ड्रग्स का आदी होना, क्लब व रेव-पार्टियों में उनकी सहभागिता-सक्रियता को देख हृदय आक्रोश से भर उठता है; जो उन मासूमों को अंधी गलियों में धकेल देता है। इसका मूल कारण है– पारस्परिक मनमुटाव के कारण अभिभावकों का बच्चों की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों में रुचि न लेना। दूसरा मुख्य कारण है–संयुक्त परिवार-व्यवस्था के स्थान पर एकल परिवार-व्यवस्था का प्रचलन। वैसे भी परिवार आजकल माता-पिता व बच्चों तक सिमट कर रह गए हैं… संबंधों की गरिमा तो बहुत दूर की बात है। रिश्तों की अहमियत भी अब तो रही नहीं… मानो उस पर कालिख़ पुत गयी है।
यह तो सर्वविदित है कि बच्चों को मां के स्नेह के साथ-साथ, पिता के सुरक्षा-दायरे की भी दरक़ार रहती है और दोनों के सान्निध्य के बिना उनका सर्वांगीण विकास हो पाना असम्भव है। इन विषम परिस्थितियों में पोषित बच्चे भविष्य में समाज के लिए घातक सिद्ध होते हैं। अक्सर अपने-अपने द्वीप में कैद माता-पिता बच्चों को धन, ऐश्वर्य व भौतिक सुख-सुविधाएं प्रदान कर अपने कर्त्तव्य-दायित्वों की इतिश्री समझ लेते हैं। इसलिए स्नेह व सुरक्षा का उनकी नज़रों में कोई अस्तित्व नहीं होता। ऐसे बच्चे सभ्यता-संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं– हैलो-हाय के वातावरण में पले-बढ़े बच्चे मान-सम्मान के संस्कारों से कोसों दूर हैं… भारतीय संस्कृति में उनकी तनिक भी आस्था नहीं है…. बड़े होकर वे अपने माता- पिता को उनकी ग़लतियों का आभास-अहसास कराते हैं और उन्हें अकेला छोड़ अपने परिवार में मस्त रहते हैं। इन अप्रत्याशित परिस्थितियों में उनके माता-पिता प्रायश्चित करने हेतु उनके साथ रहना चाहते हैं; जो उन्हें स्वीकार नहीं होता, क्योंकि उन्हें उनसे लेशमात्र भी स्नेह-सरोकार नहीं होता।
सच ही तो है ‘गया वक्त लौटकर कभी नहीं आता। सो! वक्त वह अनमोल तोहफ़ा है, जो आप किसी को देकर, उसे आपदाओं के भंवर से मुक्त करा सकते हैं। इसलिए बच्चों व बुज़ुर्गों को समय दें, क्योंकि उन्हें आपके धन की नहीं– समय की, साथ की, सान्निध्य व साहचर्य की ज़रूरत होती है… अपेक्षा रहती है। आप चंद लम्हें उनके साथ गुजारें…अपने सुख-दु:ख साझा करें, जिसकी उन्हें दरक़ार रहती है। वास्तव में यह एक ऐसा निवेश है, जिसका ब्याज आपको जीवन के अंतिम सांस तक ही प्राप्त नहीं होता रहता, बल्कि मरणोपरांत भी आप उनके ज़हन में स्मृतियों के रूप में ज़िन्दा रहते हैं। यही मानव जीवन की चरम-उपलब्धि है; सार्थकता है; जीने का मक़सद है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दिवा-स्वप्न (फैंटेसी) “।)
अभी अभी # 156 ⇒ दिवा-स्वप्न (फैंटेसी)… श्री प्रदीप शर्मा
मैं तो एक ख्वाब हूं, इस ख्वाब से तू प्यार ना कर ! गोपियों के तो मन दस बीस नहीं थे, लेकिन जब हम सो जाते हैं, तब भी स्वप्न में हमारा मन जागता रहता है, लेकिन क्योंकि हम सोये हुए रहते हैं, इसलिए यह मन अवचेतन मन कहलाता है। हमारे चेतन होते ही यह अवचेतन मन सो जाता है।
अब उनका क्या, जो उठते जागते भी सपने देखा करते हैं। आप इन्हें दिवा स्वप्न भी कह सकते हैं और खयाली पुलाव भी। मन की गति को कोई नाप नहीं पाया।
कल्पना लोक में विचरने के लिए यह स्वतंत्र है। जहां रवि की नहीं पहुंच, वहां पहले से ही मौजूद,पहुंचे हुए कवि। अगर आपको शुगर है तो खयाली पकवान में तबीयत से शकर डालें, आपका बाल भी बांका नहीं होगा।।
हमारा भारतीय दर्शन नैतिकता, आत्म संयम, अनुशासन, तितिक्षा,ब्रह्मचर्य, यम नियम और चिंतन, मनन, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान पर आधारित है जब कि पाश्चात्य संस्कृति फ्रायड के मनोविज्ञान को अधिक महत्व देती है। ओशो भारतीय दर्शन और फ्रायड का कॉकटेल है, जहां
काम, क्रोध के विकारों को दबाया नहीं जाता, उनका विरेचन (catharsis)किया जाता है। हमारी विश्व गुरु की छवि राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर,विवेकानंद से होती हुई, महर्षि रमण,ओशो, कृष्णमूर्ति,मार्केटिंग योग गुरु बाबा रामदेव, श्रीश्री रविशंकर और जग्गी वासुदेव के हाथों में आज भी सुरक्षित है।
बाल मन बड़ा कोमल होता है। कच्ची मिट्टी का एक ऐसा खिलौना होता है बचपन, जिसे जैसा चाहा स्वरूप दिया जा सकता है। गुड्डे गुड़िया का खेल ही तो होता है बचपन, जहां कल्पना लोक में परियों का संसार, घोड़े पर राजकुमार और एक सुंदर राजकुमारी भी होती है। एडवेंचर्स ऑफ रॉबिनहुड भी होते हैं और गुलिवर्स ट्रैवल भी। कल के सिंदबाद के जहाजी लुटेरे आज एंड्रॉयड की दुनिया के ब्ल्यू व्हेल जैसे खतरनाक खेल हो गए हैं। बच्चे तो बच्चे बड़े बूढ़े भी सेक्स टॉयज से खेलने लगे हैं। मन्नू भंडारी का आपका बंटी अब और वयस्क हो चला है।।
हिंसा, युद्ध और आधुनिक हथियार आज की युवा पीढ़ी को बहुत लुभा रहे हैं। बच्चों की पोगो की दुनिया ने आजकल एलियंस के सपने देखना शुरू कर दिए हैं। स्टार वॉर और स्टीफन हॉकिंग पर बच्चे बहस करते हैं। कल का शक्तिमान आज का स्टीफन रोबोट है, सूर्यवंशम है। कितने सपने देख रही है आज की बच्चों की दुनिया, कल इनका भविष्य कितना उज्ज्वल और यथार्थपरक होगा, हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
फैंटेसी में बिंब भी है, और प्रतीक भी। वहां प्रश्न है, जिज्ञासा है, शंका तो है, लेकिन समाधान नहीं। यह फैंटेसी हर युग में,हर उम्र में विद्यमान रही है,हमारे अंदर का देवासुर संग्राम है फैंटेसी। अच्छे बुरे सपने हैं फैंटेसी। किसी को कभी ना बताई गई बातें हैं फैंटेसी,अपने आप से छुपाई गई सच्चाई है फैंटेसी। आईने की तरह साफ है फैंटेसी, लेकिन आईने से मुंह छुपाना है फैंटेसी। ऐसी है फैंटेसी, कैसी कैसी है फैंटेसी।।
अगर दाग अच्छे हैं, तो फैंटेसी भी बुरी नहीं ! क्या है यह फैंटेसी, यथार्थ और कल्पना के बीच का एक पर्दा, जिसके आरपार देखा तो जा सकता है, लेकिन कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। तारे ही नहीं, फिल्मी सितारे भी जमीं पर। देवानंद और राजेश खन्ना में ऐसा क्या था, जो लड़कियां उनकी दीवानी थी। दक्षिण भारत में तो फिल्मी अभिनेताओं की तस्वीर लोग घरों में लगाते थे। युवा पीढ़ी के कमरों में, कहीं ब्रूस ली की तस्वीर तो कहीं जेम्स बॉन्ड की। क्या कहें इसे फैंटेसी अथवा पागलपन।
यह फैंटेसी समाज के लिए घातक और अभिशाप तब बन जाती है जब यह नैतिकता की वर्जनाओं को तोड़ती हुई अपराध जगत में प्रवेश कर जाती है। फैंटेसी बाल अपराध की जनक भी है और मानसिक विक्षिप्तता की भी। फैंटेसी मनोविज्ञान है, मनोरंजन,मनोविनोद ही बना रहे,भले ही मन में लड्डू फूटते रहें, लेकिन कभी अपराध मनोविज्ञान का हिस्सा ना बने।।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – हिंदी दिवस विशेष 🇮🇳 राष्ट्रभाषा : मनन-मंथन-मंतव्य – संजय भारद्वाज, अध्यक्ष, हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे
भाषा का प्रश्न समग्र है। भाषा अनुभूति को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर नहीं है। भाषा सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देनेवाली वाणी है। किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति नष्ट करनी हो तो उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। इस सूत्र को भारत पर शासन करने वाले विदेशियों ने भली भाँति समझा। आरंभिक आक्रमणकारियों ने संस्कृत जैसी समृद्ध और संस्कृतिवाणी को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएँ लादने की कोशिश की। बाद में सभ्यता की खाल ओढ़कर अंग्रेज आया। उसने दूरगामी नीति के तहत भारतीय भाषाओं की धज्जियाँ उड़ाकर अपनी भाषा और अपना हित लाद दिया। लद्दू खच्चर की तरह हिंदुस्तानी उसकी भाषा को ढोता रहा। अंकुश विदेशियों के हाथ में होने के कारण वह असहाय था।
यहाँ तक तो ठीक था। शासक विदेशी था, उसकी सोच और कृति में परिलक्षित स्वार्थ व धूर्तता उसकी कूटनीति और स्वार्थ के अनुरूप थीं। असली मुद्दा है स्वाधीनता के बाद का। अंग्रेजी और अंग्रेजियत को ढोते लद्दू खच्चरों की उम्मीदें जाग उठीं। जिन्हें वे अपना मानते थे, अंकुश उनके हाथ में आ चुका था किंतुु वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि अंतर केवल चमड़ी के रंग में हुआ था। देसी चमड़ी में अंकुश हाथ में लिए फिरंगी अब भी खच्चर पर लदा रहा। अलबत्ता आरंभ में पंद्रह बरस बाद बोझ उतारने का ‘लॉलीपॉप’ जरुर दिया गया। धीरे-धीरे ‘लॉलीपॉप’ भी बंद हो गया। खच्चर मरियल और मरियल होता गया।
राष्ट्रभाषा को स्थान दिये बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने की चौपटराजा प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं। इन परिणामों की तीव्रता विभिन्न क्षेत्रों में अनुभव की जा सकती है। इनमें से कुछ की चर्चा यहाँ की जा रही है।
राष्ट्रभाषा शब्द के तकनीकी उलझाव और आठवीं अनुसूची से लेकर अपभ्रंश बोलियों तक को राष्ट्रभाषा की चौखट में शामिल करने के शाब्दिक छलावे की चर्चा यहाँ अप्रासंगिक है। राष्ट्रभाषा से स्पष्ट तात्पर्य देश के सबसे बड़े भूभाग पर बोली-लिखी और समझी जाने वाली भाषा से है। भाषा जो उस भूभाग पर रहनेवाले लोगों की संस़्कृति के तत्वों को अंतर्निहित करने की क्षमता रखती हो, जिसमें प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों से शब्दों के आदान-प्रदान की उदारता निहित हो। हिंदी को उसका संविधान प्रदत्त पद व्यवहारिक रूप में प्रदान करने के लिए आम सहमति की बात करने वाले भूल जाते हैं कि राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत और राष्ट्रभाषा अनेक नहीं होते। हिंदी का विरोध करने वाले कल यदि राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत पर भी विरोध जताने लगें, अपने-अपने ध्वज फहराने लगें, गीत गाने लगें तो क्या कोई अनुसूची बनाकर उसमें कई ध्वज और अनेक गीत प्रतिष्ठित कर दिये जायेंगे? क्या तब भी यह कहा जायेगा कि अपेक्षित राष्ट्रगीत और राष्ट्रध्वज आम सहमति की प्रतीक्षा में हैं?
सांस्कृतिक अवमूल्यन का बड़ा कारण विदेशी भाषा में देसी साहित्य पढ़ाने की अधकचरी सोच है। एक अंग्रेजी विद्यालय ने पढ़ाया गया- ‘सीता वॉज़ स्वीटहार्ट ऑफ रामा।’ ठीक इसके विपरीत श्रीराम को सीताजी के कानन-कुण्डल मिलने पर पहचान के लिए लक्ष्मण जी को दिखाने का प्रसंग स्मरण कीजिए। लक्ष्मण जी का कहना कि मैने सदैव भाभी माँ के चरण निहारे, अतएव कानन-कुण्डल की पहचान मुझे कैसे होगी?- यह भाव संस्कृति की आत्मा है। कुसुमाग्रज की मराठी कविता में शादीशुदा बेटी का मायके में ‘चार भिंतीत नाचली’ ( शादीशुदा बेटी का मायके आने पर आनंद विभोर होना) का भाव तलाशने के लिए सारा यूरोपियन भाषाशास्त्र खंगाल डालिये। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।
कटु सत्य यह है कि भाषाई प्रतिबद्धता और सांस्कृतिक चेतना के धरातल पर वर्तमान में भयावह उदासीनता दिखाई देती है। समृद्ध परंपराओं के स्वर्णमहल खंडहर हो रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है, भारतीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम से बेदखल किया जाना। चूँकि भाषा संस्कृति की संवाहक है, अंग्रेजी माध्यम का अध्ययन यूरोपीय संस्कृति का आयात कर रहा है। एक भव्य धरोहर डकारी जा रही है और हम दर्शक-से खड़े हैं। शिक्षा के माध्यम को लेकर बनी शिक्षाशास्त्रियों की अधिकांश समितियों ने सदा प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने की सिफारिश की। यह सिफारिशें वर्षों कूड़े-दानों में पड़ी रहीं। नई शिक्षा नीति में भारत सरकार ने पहली बार प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने को प्रधानता दी है। यह सराहनीय है।
यूरोपीय भाषा समूह की अंग्रेजी के प्रयोग से ‘कॉन्वेंट एजुकेटेड’ पीढ़ी, भारतीय भाषा समूह के अनेक अक्षरों का उच्चारण नहीं कर पाती। ‘ड़’,‘ण’ अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। ‘पूर्ण’, पूर्न हो चला है, ‘ शर्म ’ और ‘श्रम’ में एकाकार हो चला है। हृस्व और दीर्घ मात्राओं के अंतर का निरंतर होता क्षय अर्थ का अनर्थ कर रहा है।‘लुटना’ और ‘लूटना’ एक ही हो गये हैं। विदेशियों द्वारा की गई ‘लूट’ को ‘लुटना’ मानकर हम अपनी लुटिया डुबोने में अभिभूत हो रहे हैं।
लिपि नये संकट से गुजर रही है। इंटरनेट पर खास तौर पर फेसबुक, गूगल प्लस, ट्विटर जैसी साइट्स पर देवनागरी को रोमन में लिखा जा रहा है। ‘बड़बड़’ के लिए barbar/ badbad (बर्बर या बारबर या बार-बार) लिखा जा रहा है। ‘करता’, ‘कराता’, ‘कर्ता’ में फर्क कर पाना भी संभव नहीं रहा है। जैसे-जैसे पीढ़ी पेपरलेस हो रही है, स्क्रिप्टलेस भी होती जा रही है। मृत्यु की अपरिहार्यता को लिपि पर लागू करनेवाले भूल जाते हैं कि मृत्यु प्राकृतिक हो तब भी प्राण बचाने की चेष्टा की जाती है। ऐसे लोगों को याद दिलाया जाना चाहिये कि यहाँ तो लिपि की सुनियोजित हत्या हो रही है और हत्या के लिए भारतीय दंडसंहिता की धारा 302 के अंतर्गत मृत्युदंड का प्रावधान है।
सारी विसंगतियों के बीच अपना प्रभामंडल बढ़ाती भारतीय भाषाओं विशेषकर हिंदी के विरुद्ध ‘फूट डालो और राज करो’ की कूटनीति निरंतर प्रयोग में लाई जा रही है। इन दिनों हिंदी की बोलियों को स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता दिलाने की गलाकाट प्रतियोगिता शुरु हो चुकी है। खास तौर पर गत जनगणना के समय इंटरनेट के जरिये इस बात का जोरदार प्रचार किया गया कि हम हिंदी की बजाय उसकी बोलियों को अपनी मातृभाषा के रूप में पंजीकृत करायें। संबंधित बोली को आठवीं अनुसूची में दर्ज कराने के सब्जबाग दिखाकर, हिंदी की व्यापकता को कागज़ों पर कम दिखाकर आंकड़ो के युद्ध में उसे परास्त करने के वीभत्स षड्यंत्र से क्या हम लोग अनजान हैं? राजनीतिक इच्छाओं की नाव पर सवार बोलियों को भाषा में बदलने के आंदोलनों के प्रणेताओं (!) को समझना होगा कि यह नाव उन्हें घातक भाषाई षड्यंत्र की सुनामी के केंद्र की ओर ले जा रही है। अपनी राजनीति चमकाने और अपनी रोटी सेंकनेवालों के हाथ फंसा नागरिक संभवतः समझ नहीं पा रहा है कि यह भाषाई बंदरबाँट है। रोटी किसीके हिस्से आने की बजाय बंदर के पेट में जायेगी। बेहतर होता कि मूलभाषा-हिंदी और उपभाषा के रूप में बोली की बात की जाती।
संसर्गजन्य संवेदनहीनता, थोथे दंभवाला कृत्रिम मनुष्य तैयार कर रही है। कृत्रिमता की ये पराकाष्ठा है कि मातृभाषा या हिंदी न बोल पाने पर व्यक्ति लज्जा अनुभव नहीं करता पर अंग्रेजी न जानने पर उसकी आँखें स्वयंमेव नीची हो जाती हैं। शर्म से गड़ी इन आँखों को देखकर मैकाले और उसके भारतीय वंशजों की आँखों में विजय के अभिमान का जो भाव उठता होगा, ग्यारह अक्षौहिणी सेना को परास्त कर वैसा भाव पांडवों की आँखों में भी न उठा होगा।
संस्कृत को पाठ्यक्रम से हटाना एक अक्षम्य भूल रही। त्रिभाषा सूत्र में हिंदी, प्रादेशिक भाषा एवं संस्कृत/अन्य क्षेत्रीय भाषा का प्रावधान किया जाता तो देश को ये दुर्दिन देखने को नहीं मिलते। अब तो हिंदी को पालतू पशु की तरह दोहन मात्र का साधन बना लिया गया है। जनता से हिंदी में मतों की याचना करनेवाले निर्वाचित होने के बाद अधिकार भाव से अंग्रेजी में शपथ उठाते हैं।
साहित्यकारों के साथ भी समस्या है। दुर्भाग्य से भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के बड़े वर्ग में भाषाई प्रतिबद्धता दिखाई नहीं देती। इनमें से अधिकांश ने भाषा को साधन बनाया, साध्य नहीं। यही स्थिति हिंदी की रोटी खानेवाले प्राध्यापकों, अधिकारियों और हिंदी फिल्म के कलाकारों की भी है। सिनेमा में हिंदी में संवाद बोलकर हिंदी की रोटी खानेवाले सार्वजनिक वक्तव्य अंग्रेजी में करते हैं। ऐसे सारे वर्गों के लिए वर्तमान दुर्दशा पर अनिवार्य आत्मपरीक्षण का समय आ चुका है।
भाषा के साथ-साथ भारतीयता के विनाश का जो षडयंत्र रचा गया, वह अब आकार ले चुका है। भारत में दी जा रही तथाकथित आधुनिक शिक्षा में रोल मॉडेल भी यूरोपीय चेहरे ही हैं। नया भारतीय अन्वेषण अपवादस्वरूप ही दिखता है। डूबते सूरज के भूखंड से आती हवाएँ, उगते सूरज की भूमि को उष्माहीन कर रही हैं।
छोटी-छोटी बात पर और प्रायः बेबात विवाद खड़ा करने वाले और अशोभनीय व्यवहार करने वाले छुटभैयों से लेकर कथित राष्ट्रीय नेताओं तक ने कभी राष्ट्रभाषा को मुद्दा नहीं बनाया। जब कभी किसीने इस पर आवाज़ उठाई तो बरगलाया गया कि भाषा संवेदनशील मुद्दा है। तो क्या देश को संवेदनहीन समाज अपेक्षित है? कतिपय बुद्धिजीवी भाषा को कोरी भावुकता मानते हैं। शायद वे भूल जाते हैं कि युद्ध भी कोरी भावुकता पर ही लड़ा जाता है। युद्धक्षेत्र में ‘हर-हर महादेव’ और ‘पीरबाबा सलामत रहें’ जैसे भावुक (!!!) नारे ही प्रेरक शक्ति का काम करते हैं। यदि भावुकता से राष्ट्र एक सूत्र में बंधता हो, व्यवस्था शासन की दासता से मुक्त होती हो, शासकों की संकीर्णता पर प्रतिबंध लगता हो, अनुशासित समाज जन्म लेता हो तो भावुकता देश की अनिवार्य आवश्यकता हो जाती है।
हिंदी पखवाड़े के किसी एक दिन हिंदी के नाम का तर्पण कर देने या सरकारी सहभोज में सम्म्मिलित हो जाने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो सकती। आवश्यक है कि नागरिक अपने भाषाई अधिकार के प्रति जागरुक हों। वे सूचना के अधिकार के तहत राष्ट्रभाषा को राष्ट्र भर में मुद्दा बनाएँ।
भारतीय भाषाओं के आंदोलन को आगे ले जाने के लिए छात्रों से अपेक्षित है कि वे अपनी भाषा में उच्च शिक्षा पाने के अधिकार को यथार्थ में बदलने के लिए पहल करें। स्वाधीनता के सत्तर वर्ष बाद भी न्यायव्यवस्था के निर्णय विदेशी भाषा में आते हों तो संविधान की पंक्ति-‘भारत एक सार्वभौम गणतंत्र है’ अपना अर्थ खोने लगती है।
भारतीय युवाओं से वांछित है कि दुनिया की हर तकनीक को भारतीय भाषाओं में उपलब्ध करा दें। आधुनिक तकनीक और संचार के अधुनातन साधनों से अपनी बात दुनिया तक पहुँचाना तुलनात्मक रूप से बेहद आसान हो गया है। भारतीय भाषाओं में अंतरजाल पर इतनी सामग्री अपलोड कर दें कि ज्ञान के इस महासागर में डुबकी लगाने के लिए अन्य भाषा भाषी भी हमारी भाषाएँ सीखने को विवश हो जाएँ।
सरकार से अपेक्षित है कि हिंदी प्रचार संस्थाओं के सहयोग से विदेशियों को हिंदी सिखाने के लिए क्रैश कोर्सेस शुरू करे। भारत आनेवाले सैलानियों के लिए ये कोर्सेस अनिवार्य हों। वीसा के लिए आवश्यक नियमावली में इसे समाविष्ट किया जा सकता है।
बढ़ते विदेशी पूँजीनिवेश के साथ भारतीय भाषाओं और भारतीयता का संघर्ष ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’की स्थिति में आ खड़ा हुआ है। समय की मांग है कि हिंदी और सभी भारतीय भाषाएँ एकसाथ आएँ। प्रादेशिक स्तर पर प्रादेशिक भाषा और राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के नारे को बुलंद करना होगा। ‘अंधाधुंध अंग्रेजी’के विरुद्ध ये एकता अनिवार्य है।
बीते सात दशकों में पहली बार भाषा नीति को लेकर वर्तमान केंद्र सरकार संवेदनशील और सक्रिय दिखाई दे रही है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता, भारत और भारतीयता के पक्ष में स्वयं प्रधानमंत्री ने पहल की है। मंत्री तो मंत्री रक्षा और विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता भी हिंदी में अपनी बात रख रहे हैं। नई शिक्षानीति भारतीय भाषाओं की उन्नति की दृष्टि से दूरगामी सिद्ध होगी। प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो या उच्चस्तर पर विशेषकर तकनीकी और रोजगारान्मुख पाठ्यक्रमों का भारतीय भाषाओं में अध्ययन, प्रदीर्घ रात्रि के बाद अरुणोदय हो रहा है। आशा है कि इन किरणों के आलोक में ‘इंडिया’की केंचुली उतारकर ‘भारत’ शीघ्रतिशीघ्र बाहर आएगा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
माधव साधना- 11 दिवसीय यह साधना बुधवार दि. 6 सितम्बर से शनिवार 16 सितम्बर तक चलेगी
इस साधना के लिए मंत्र होगा- ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “संन्यासियों का राजयोग”।)
अभी अभी # 155 ⇒ संन्यासियों का राजयोग… श्री प्रदीप शर्मा
संन्यास मनुष्य जीवन की वह श्रेष्ठतम अवस्था है, जहां ज्ञान, विवेक और वैराग्य अपनी चरम अवस्था में पहुंच जाते हैं।
एक संन्यासी का कोई अतीत नहीं होता, कोई रिश्तेदार नहीं होता, अस्मिता अहंकार से परे उसके लिए मोक्ष के द्वार सदा खुले रहते हैं।
चार वर्णों के आश्रम में संन्यास का स्थान अंतिम है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ के बाद की अवस्था है संन्यास। अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष की प्राप्ति को ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य माना गया है। अगर ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करते हुए संन्यास का भाव जागृत हो जाए तो अर्थ और काम से मुक्त हो साधक धर्म और मोक्ष का मार्ग भी अपना सकता है।।
इस जीव का क्या भरोसा ! इसमें कब कौन सा भाव जागृत हो जाए। मन को बैरागी होने में भी ज्यादा वक्त नहीं लगता और हमने तो बैरागियों को भी माया के इस संसार में उलझते देखा है। संसार छोड़ संन्यास लेना एक बार फिर भी आसान है, लेकिन राजनीति से कभी कोई संन्यास नहीं लेता।
कर्म का क्षेत्र संन्यास से बहुत बड़ा है, और शायद इसीलिए देवता भी इस धरती पर अवतरित होते हैं, अपनी लीला का विस्तार करते हैं और जगत के कल्याण के पश्चात् पुनः अपनी लीला समेट लेते हैं। सुख और दुख की तरह कर्म और वैराग्य जीवन के दो विपरीत छोर हैं, और दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं।।
संन्यास एक मन का एक ऐसा भाव है जिसमें विरक्ति और वैराग्य की प्रमुखता है। राजा जनक, महात्मा विदुर और उद्धव इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं। लेकिन विधिवत संन्यास ग्रहण किए एक संन्यासी की बात अलग है।
निष्काम कर्म का भाव, और संसार के कल्याण का संकल्प जब प्रबल हो जाता है, और संसारी जीवों के दुख दर्द से मन की करुणा जाग उठती है, तो इधर तो कोई राजकुमार सिद्धार्थ राजसी सुखों का त्याग कर बुद्ध बन जाता है तो उधर कोई रामकृष्ण परमहंस का शिष्य स्वामी विवेकानंद सोई हुई हिंदू संस्कृति को जगाने सात समुन्दर पार चला जाता है।।
जब भी धर्म और नैतिकता का ह्रास हुआ है, देश का साधु कभी चुप नहीं बैठा है। चाहे संत कबीर हो गुरु गोविंदसिंह हो या शिवाजी के समर्थ गुरु रामदास।
धर्म ध्वजा फहराने का काम आजकल धार्मिक चैनल कर रहे हैं। सत्संग, प्रवचन और कथा का निरंतर प्रसारण चल रहा है। कई बाबाओं और पूंजीपतियों ने इन चैनलों को खरीद लिया है। कौन बाबा है और कौन पूंजीपति, कुछ समझ में नहीं आता।
इसे कहते हैं संन्यासियों का राजयोग। संत महंत तो छोड़िए, साध्वियों का भी राजयोग जागा है। उनका राजयोग आज भी कितना प्रबल है, आप अपने आप से ही पूछकर देख लीजिए।।
विधि के विधान से बड़ा कोई संविधान नहीं होता। आचार्य पहले भी राजाओं के मंत्री और सलाहकार होते थे, आज लोकतंत्र में तो मंत्री ही राजा है। विज्ञान और धर्म संसार में साथ साथ चले हैं। जब भी धर्म का पलड़ा कमजोर हुआ है, अधर्म ने सर उठाया है, हमें कोई हिटलर नजर आया है।
मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं। एक लोकसेवक का जन्म केवल मानवता की सेवा के लिए होता है। संतों की कृपा और आशीर्वाद हमारे राजनेताओं को सद्बुद्धि प्रदान करे। विश्व का कल्याण तो बाद में, पहले देश के जन जन का कल्याण तो हो। राजनीति में महात्मा तो कई हैं, लेकिन किसी संत का आज भी अभाव ही है। ऐसे में साबरमती के संत की याद आना स्वाभाविक ही है।।