हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 115 – देश-परदेश – समय और साधन तो बदल गए लेकिन हम नहीं बदले ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 115 ☆ देश-परदेश – समय और साधन तो बदल गए लेकिन हम नहीं बदले ☆ श्री राकेश कुमार ☆

दो दशक पूर्व अजमेर से जयपुर बस द्वारा यात्रा करते हुए एक ग्रामीण को बीड़ी पीने से मना करने वाली सूचना की तरफ ध्यानाकर्षण किया था। उसने लपक कर कहा था, हम तो पहले भी बीड़ी पीते थे, अब भी पियेंगे। तू बड़ा आदमी है, तो अपनी माचिस की डिबिया (मारुति कार) में यात्रा किया कर, हम तो बस में बीड़ी पीते ही रहेंगे।

विगत सप्ताह जयपुर की मेट्रो ट्रेन में यात्रा करते हुए पढ़े लिखे प्रतीत हो रहे दो युवा तेज आवाज़ में मोबाइल पर राजनीतिक बहस के मजे ले रहे थे। मेट्रो में तेज आवाज़ के साथ मोबाइल उपयोग निषेध सूचना भी अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषा में बताई जाती है।

अब बीड़ी का चलन बदलकर गुटखे का हो चुका हैं। नियम तोड़ने के लिए नए साधन मोबाइल ही सहारा रह गया हैं। रेल यात्रा में देर रात्रि तक वीडियो सुने और देखे जाते हैं। पुराने समय में कुछ यात्री ट्रांजिस्टर लेकर चलते थे, लेकिन चलती ट्रेन में उसकी कनेक्टिविटी नहीं मिल पाती थी।

हवाई यात्रा जहां सब के बैठने का स्थान निश्चित होता है, लेकिन जैसे ही बोर्डिंग की सूचना मिलती है, पहले हम पहले हम के धक्के लगने लग जाते हैं। अंतरराष्ट्रीय यात्रा में सीट नंबर के अनुसार प्रवेश मिलता है, तो कुछ स्थिति नियंत्रण में रहती हैं।

हवाई यात्रा की समाप्ति पर अधिकतर यात्री गंतव्य स्थान से बहुत पहले उठ कर केबिन से अपना सामान निकालने लग जाते हैं। उतरने की इतनी जल्दी होती है, मानो जहाज में आग लग गई हो। बाहर निकल कर सबका लगेज तो बेल्ट में एक साथ ही आता है। हम सब बेचैन प्राणी हो चुके हैं। सब को जल्दी रहती है, पर कारण कुछ विशेष नहीं होता है। इतनी शिक्षा और विगत कुछ वर्षों से तो व्हाट्स ऐप का भरपूर ज्ञान भी खूब मिला है, हम सबको, लेकिन हम नहीं बदलेंगे। यदि आज अवकाश है, फिर भी आप सब तो जल्दी जल्दी इस लेख को पढ़ रहें हैं, ना ?

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 569 ⇒ मेरे हिस्से की धूप ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेरे हिस्से की धूप।)

?अभी अभी # 569 ⇒ मेरे हिस्से की धूप ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मैं नत-मस्तक हूँ, उस सर्व-शक्तिमान के प्रति, जिसने मुझे मेरे नसीब की रोटी, और मेरे हिस्से की धूप आसानी से उपलब्ध कराई। रोटी के लिए भले ही मुझे पुरुषार्थ करना पड़ा हो, लेकिन धूप तो अनायास ही मेरे द्वारे आ गई।

इंसान ने जंगलों को काट डाला, पहाड़ समतल कर डाले, नदियों को प्रदूषित कर दिया, यहाँ तक कि ग़रीब की रोटी तक उसकी गिद्ध दृष्टि चली गई, लेकिन पृथ्वी के हर प्राणी के हिस्से में आने वाली धूप को वह नहीं रोक सका।।

धूप का ठंड में धरती पर सीधा प्रसारण होता है। किसी उपकरण, टॉवर अथवा बैलेंस के बिना चींटी से लेकर हाथी, और मुकेश अम्बानी से लेकर झाबुआ के आदिवासी की झोपड़ी तक इस धूप की पहुँच है। धूप धरती पर फैल जाती है, एक जाजम की तरह, जिस पर सभी भू-लोकवासी कुनकुनी गर्माहट का आनंद लेते हैं।

आखिर सूर्य का ही अंश है यह पृथ्वी ! वह कैसे इस वसुंधरा का खयाल नहीं रखेगा। इस धरा को हरी-भरी, धन-धान्य से सम्पन्न रखना उसका भी तो कर्तव्य है। सूर्य का केवल कर्ण ही पुत्र नहीं, हर जीव में उस सूर्य का अंश है। वह कभी अस्त नहीं होता ! हमारी सुविधा के लिए अस्ताचल में चला जाता है, ताकि हम दिन भर के थके, विश्राम कर सकें। नई ऊर्जा के साथ वह फिर हमें एक नई सुबह प्रदान करता है।।

हर किसान, मज़दूर और एक गरीब की झोपड़ी तक सूर्य नारायण की पहुँच है। वे अपने विशाल पात्र में धूप लेकर आते हैं, जिससे ठंड में ठिठुरते बच्चे, महिला, पुरुष स्नान करते हैं। प्रकृति बारिश में जल से, और ठंड में धूप से हम धरती वासियों का अभिषेक करती है। लेकिन शहरों की धूप बड़ी बड़ी अट्टालिकाएं, बहु-मंजिला इमारतें, और शॉपिंग मॉल्स रोक लेते हैं।

जब तक भगवान आदित्य पूरब दिशा में उदित नहीं होते, कोई स्कूल-दफ़्तर नहीं खुलता ! शहरों की मल्टीज़ से सुबह स्कूल जाते बच्चे धूप में अपनी स्कूल बस का इंतज़ार करते हैं, बसें आती हैं, और उन्हें धूप से जुदा कर देती हैं। लेकिन धूप है कि उनके साथ-साथ ही चलती है। धूप में प्रार्थना हो या व्यायाम, सब सूर्य नमस्कार ही तो है। कौन कृतज्ञ नहीं इस ठिठुरती ठंड में धूप का।।

मेरे हिस्से की धूप मुझे आज भी मिल रही है, भरपूर मिल रही है। गर्मी में जब जल-संकट होता है, पानी के टैंकर बुलाने पड़ते हैं, आज तक कभी हमने धूप का टैंकर नहीं बुलाया।

धूप पर कोई कर नहीं, कोई जीएसटी नहीं ! सिकंदर का एक किस्सा मशहूर है। एक फकीर के सामने अपनी महानता का प्रदर्शन करने लगा। तुम फ़क़ीर हो और मैं सिकन्दर महान ! मांगो जो माँगना है। फ़क़ीर ने उसकी तरफ देखे बिना कहा – तुम मेरी धूप रोके खड़े हो, बस वही छोड़ दो।।

अपने हिस्से की धूप हम सबको नसीब होती रहे। सूर्य के बारह नामों सहित सूर्य नमस्कार करें, ना करें, जब धूप का स्पर्श तन और मन से होता है, मन कह उठता है, ॐ सूर्याय नमः।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 272 – स्थितप्रज्ञ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 272 ☆ स्थितप्रज्ञ… ?

एक ऑटो रिक्शा ड्राइवर हमारी सोसायटी के पास ही रहा करते थे। सज्जन व्यक्ति थे।अकस्मात मृत्यु हो गई। एक दिन लगभग उसी जगह एक रिक्शा खड़ा देखा तो वे सज्जन याद आए। विचार उठा कि आदमी के जाने के बाद कोई उसे कितने दिन याद रखता है? चिता को अग्नि देने के बाद परिजनों के पास थोड़ी देर  रुकने का समय भी नहीं होता।

एक घटना स्मरण हो आई। एक करीबी परिचित परिवार में शोक प्रसंग था। अंतिम संस्कार के समय, मैं श्मशान में उपस्थित था। सारी प्रक्रिया चल रही थी। लकड़ियाँ लगाई जा रही थीं। साथ के दाहकुंड में कुछ युवा एक अधेड़ की देह लेकर आए थे। उन्होंने नाममात्र लकड़ियाँ लेकर अधिकांश उपलों का उपयोग किया। श्मशान का कर्मचारी समझाता रह गया, पर केवल उपलों के उपयोग से से देह के शीघ्र फुँक जाने का गणित समझा कर अग्नि देने के तुरंत बाद  वे सब चलते बने।

हमें सारी तैयारी में समय लगा। दाह दिया गया। तभी साथ वाले कुंड पर दृष्टि गई तो जो दृश्य दिखा, उससे भीतर तक मन हिल गया। मानो वीभत्स और विदारक एक साथ सामने हों। उस देह का एक पाँव अधजली अवस्था में लगभग पचास अंश में ऊपर की ओर उठ गया था। अधिकांश उपलों के जल जाने के कारण देह के कुछ अन्य भाग भी दिखाई दे रहे थे। 

 श्मशान के कर्मचारी से सम्पर्क करने पर उसने बताया कि हर दिन ऐसे एक-दो मामले तो होते ही हैं, जिनमें परिजन तुरंत चले जाते हैं। बाद में फोन करने पर भी नहीं आते। अंतत:  मृत देह का समुचित संस्कार श्मशान के कर्मचारी ही करते हैं।

लोकमान्यता है कि जिसका कोई नहीं होता, उसका भी कोई न कोई होता है। अपनी कविता ‘स्थितप्रज्ञ’ याद हो आई-

शव को / जलाते हैं / दफनाते हैं,

शोक, विलाप / रुदन, प्रलाप,

अस्थियाँ, माँस, / लकड़ियाँ, बाँस,

बंद मुट्‌ठी लिए / आदमी का आना,

मुट्‌ठी भर होकर / आदमी का जाना,

सब देखते हैं /सब समझते हैं,

निष्ठा से / अपना काम करते हैं,

श्मशान के ये कर्मचारी

परायों की भीड़ में /अपनों से लगते हैं,

घर लौटकर /रोज़ाना की सारी भूमिकाएँ

आनंद से निभाते हैं / विवाह, उत्सव

पर्व, त्यौहार /सभी मनाते हैं

खाते हैं, पीते हैं / नाचते हैं, गाते हैं,

स्थितप्रज्ञता को भगवान,

मोक्षद्वार घोषित करते हैं,

संभवत: / ऐसे ही लोगों को,

स्थितप्रज्ञ कहते हैं..!

विश्वास हो गया कि जिसका कोई नहीं होता, उसका भी कोई न कोई होता है। इस स्थितप्रज्ञता को प्रणाम !

?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जावेगी। 💥 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 568 ⇒ एक प्याला सुख ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक प्याला सुख।)

?अभी अभी # 568 ⇒ एक प्याला सुख ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब संसार क्षणभंगुर है, तो सुख भी क्षणभंगुर होता है, यह कोई कहने की बात नहीं है, लेकिन इस क्षणिक सुख का आनंद ही जीवन का वास्तविक आनंद है।

जो इस एक क्षण को जी लिया, वो ज़िन्दगी जी लिया। वो देखो ! साहिर चले आए। जो भी है, बस यही एक पल।

संसार में सुख की तलाश किसे नहीं। अगर घर बैठे गंगा आ जाए तो क्या बुरा ! एक चाय के प्याले में अगर सुख-सागर प्राप्त हो जाए तो क्यों स्वर्ग और वैकुण्ठ की बात की जाए।।

जो चाय नहीं पीते, या पीना नहीं जानते, उनसे स्वर्ग और वैकुण्ठ की बात करना एक नास्तिक को भागवत सुनाने जैसा है। जो नर्क को ही ज़न्नत समझ बैठा हो, उसे क्या ज्ञान दिया जाए।

सुबह-सुबह कड़कती ठण्ड में कड़क चाय का प्याला हाथ में आ जाए तो ऐसा महसूस होता है मानो साक्षात नारायण वैकुण्ठ से प्याले में उतर आए हों। प्याले से उठती हुई भाप और खुशबू फिर किसी शायर की याद दिला देती है।

वो पहली चाय की खुशबू,  

तेरे प्याले से शायद आ रही है।।

चाय पीना भी एक कला है। आंतरिक सुख का प्रदर्शन नहीं किया जा सकता। एक-एक घूँट शराब की तरह चाय पीना शराब जितना ही नशा देता है। चुस्की और सुड़क चस्के के दो विपरीत स्वरुप हैं। तीसरी कसम के ज़माने में चाय लौटे में पी जाती थी। तब वह चाय नहीं चाह थी। जिसे आज हम कप-प्लेट कहते हैं, वह बचपन में कप-बशी थी। आज भी पुरानी स्टाइल से चाय पीने वाले चाय बशी में ही डालकर पीते हैं। उनकी एक सुड़क के साथ कितना सुख भीतर जाता होगा, बस या तो वह जानते हैं, या उनका ईश्वर।

स्वर्ग वाले देवता बड़े चालाक निकले। कामधेनु, कल्पवृक्ष, पारस पत्थर सब अंटी कर लिया पर आदमी भी कम चालाक नहीं। उसने भगवान् से बदले में चाय का एक प्याला माँग लिया। धरती वालों ने स्वर्ग का सुख एक चाय के प्याले में ढूँढ लिया। सोचो साथ क्या जाएगा, का मतलब यही है कि स्वर्ग जाओ या वैकुण्ठ,  वहाँ आपको चाय नसीब नहीं होने वाली।।

इसलिए हे मूर्ख प्राणी ! देर ना कर। अमर घर चल। एक प्याला चाय बना। उसे अपने मुँह से लगा। स्वर्ग का सुख अगर कहीं है, तो इस चाय के प्याले में ही है। इस चाय के प्याले में ही है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 567 ⇒ बात अभी अधूरी है ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बात अभी अधूरी है।)

?अभी अभी # 567 ⇒ बात अभी अधूरी है ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बीमारियां कई तरह की होती हैं, कुछ का इलाज किया जा सकता है, कुछ लाइलाज होती हैं। हम यहां वात रोग की नहीं, बात रोग की ही बात कर रहे हैं, जो बिना बात के शुरू होता है, और सारी बातें हो जाने के बाद भी, बात अधूरी ही रह जाती है।

बाल मनोविज्ञान यह कहता है कि बोलने की कला बच्चा, सुन सुनकर ही सीखता है। बच्चों से बात करने में बड़ा मजा आता है, खास कर, जब वे चार छः महीने के हों। उनकी आंखें एक जगह टिकनी शुरू हो जाती हैं, और वे हर आवाज को बड़े गौर से सुनते हैं।

एक झुनझुने की आवाज से वे रोना भूल जाते हैं, लोरी सुनाओ तो सो जाते हैं, और मचलते बालक को गाय अथवा तू तू किंवा माऊ, यानी बिल्ली दिखाओ तो बहल जाते हैं।।

उनकी स्मरण शक्ति बहुत तेज होती है। एक एक शब्द को वे ध्यान से सुनते ही नहीं, हमारे हाव भाव को भी नोटिस करते हैं। हमारी अनावश्यक लाड़ भरी बातें सुनकर भी वे आनंदित होते हैं, किलकारी मारते हैं। लेकिन हम नहीं जानते, वे हमारे बिना बताए ही कितना सीख जाते हैं।

फिर शुरू होता है उनके बोलने का अध्याय। लड़कों को अपेक्षा लड़कियां अधिक जल्दी बोलना और चलना सीख लेती हैं, क्योंकि उन्हें जीवन में शायद अधिक बोलना चालना पड़ता है। अपनी सीमित वाक् क्षमता में छोटे छोटे वाक्य बनाना उनकी खूबी होता है। वे वही बोलते हैं जो वे सीखते हैं, बस उनका बोलने का अंदाज अपना अलग ही होता है।।

बस यहीं से बोलने की जो शुरुआत होती है तो फिर बोलना कभी नहीं थमता। जो बालक अंतर्मुखी होते हैं, वे सोचते अधिक हैं, बोलते कम हैं। और कालांतर में यही उनका स्वभाव बन जाता है।

हर घर में हां, हूं की यह बीमारी आजकल आम है। महिलाओं का स्वर तो स्पष्ट सुनाई दे जाता है़, पुरुष की आवाज सुनने के लिए कानों पर जोर देना पड़ता है। अजी सुनते हो, शब्द कितने पुरुषों के कानों तक पहुंचता है, कोई नहीं जानता। घर में पत्नी को अगर बोलने की बीमारी है तो पति को भूलने की। कितनी बातें याद दिलानी पड़ती हैं, पर्स, रूमाल, चाबी, चश्मा, हद है।।

सुबह सोते बच्चों को उठाना इतना आसान भी नहीं होता। पच्चीस आवाज लगाओ, सबके चाय नाश्ते, टिफिन की तैयारी करो, बोल बोलकर थक जाते हैं, लेकिन किसी के कान में जूं नहीं रेंगती। काम वाली बाई की अलग किचकिच।

दोपहर में थोड़ा आराम मिला तो अड़ोस पड़ोस में मन बहला लिया, फोन पर एक दो घंटे बात कर ली, तो मन हल्का हो जाता है। जो आराम बातों से मिलता है, उसका जवाब नहीं। बातों की कोई कमी नहीं, बस शिकायत यही है कि आजकल कोई बात करने वाला ही नहीं मिलता। अकेले में क्या दीवारों से सर फोड़े। आदमी का टाइम तो यार दोस्तों में कट जाता है, हमारी किटी पार्टी इनको अखरती है।।

यह घर घर की बात है। जिसके पास कुछ बोलने का है, वही बोलेगा। जिसने मुंह में दही जमा रखा है, वह क्या बोलेगा। हमें घर गृहस्थी की, बाल बच्चों की फिक्र है, चिंता है, इसलिए बोलना ही पड़ता है।

गलत बात हम बोलते नहीं, किसी की गलत बात सुनते नहीं। साफ बोलना सुखी रहना। मन में किसी बात को दबाकर रखना परेशानी का कारण बन जाता है। बोलने से इंसान हल्का हो जाता है। समय इतना कम है, बहुत सा काम बाकी है। बाकी बातें, बाद में। असली बात अभी अधूरी है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #261 ☆ क्या प्रॉब्लम है? ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख क्या प्रॉब्लम है?। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 261 ☆

☆ क्या प्रॉब्लम है? ☆

‘क्या प्रॉब्लम है’… जी हां! यह वह शाश्वत् प्रश्न है, जो अक्सर पूछा जाता है छोटों से; बराबर वालों से– परंतु आजकल तो ज़माना बदल गया है। अक्सर हर उम्र के लोग इन प्रश्नों के दायरे में आते हैं और हमारे बुज़ुर्ग माता-पिता तथा अन्य परिवारजन– सभी को स्पष्टीकरण देना पड़ता है। सोचिए! यदि रिश्ते में आपसे बहुत छोटी महिला यह प्रश्न पूछे, तो क्या आप सकते में नहीं आ जाएंगे? क्या होगी आपकी मन:स्थिति… जिसकी अपेक्षा आप उससे कर ही नहीं सकते। वह अनकही दास्तान आपकी तब समझ में तुरंत आ जाती है, जब चंद लम्हों बाद आपका अहं/ अस्तित्व पलभर में कांच के आईने की भांति चकनाचूर हो जाता है और उसके असंख्य टुकड़े आपको मुंह चिढ़ाते-से नज़र आते हैं। दूसरे शब्दों में आपको हक़ीक़त समझ में आ जाती है और आप तत्क्षण अचंभित रह जाते हैं यह जानकर कि कितनी कड़वाहट भरी हुई है सोमा के मन में– जब आपको मुजरिम की भांति कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है और इल्ज़ामों की एक लंबी फेहरिस्त आपके हाथों में थमा दी जाती है। वह सोमा, जो आपको मान-सम्मान देती थी; सदैव आपकी तारीफ़ करती थी; जिसने इतने वर्ष एक छत के नीचे गुज़ारने के पश्चात् भी पलट कर कभी जवाब नहीं दिया था। वह तो सदैव परमात्मा का शुक्र अदा करती थी कि उसने उन्हें पुत्रवधु नहीं, बड़ी शालीन बेटी दी थी। परंतु जब विश्वास टूटता है; रिश्ते सहसा दरक़ते हैं तो बहुत तकलीफ़ होती है। हृदय कुलबुला उठता है, जैसे अनगिनत कीड़े उसके शरीर पर रेंग रहे हों और वह प्रश्नों के भंवर से चाह कर भी ख़ुद को मुक्त नहीं कर पाती।

‘आपको क्या प्रॉब्लम है?’ यदि बच्चे अपने मम्मी-पापा के साथ एकांत में समय गुज़ारना चाहते हैं; खाने के लिए नीचे नहीं आते तो…परंतु हम सबके लिए यह बंधन क्यों? वह वर्षों से अपने कौन-से दायित्व का वहन नहीं कर रही? आपके मेहमानों के आने पर क्या वह उनकी आवभगत में वह कमी रखती है, जबकि वे कितने-कितने दिन तक यहाँ डेरा डाले रहते हैं? क्या उसने कभी आपका तिरस्कार किया है? आखिर आप लोग चाहते क्या हैं? क्या वह इस घर से चली जाए अपने बच्चों को लेकर और आपका बेटा वह सब अनचाहा करता रहे? हैरान हूं यह देखकर कि उसे दूध का धुला समझ उसके बारे में अब भी अनेक कसीदे गढ़े जाते हैं।

वह अपराधिनी-सम करबद्ध प्रार्थना करती रही थी कि उसने ग़लती की है और वह मुजरिम है, क्योंकि उसने बच्चों को खाने के लिए नीचे आने को कहा है। वह सौगंध लेती है कि  भविष्य में वह उसके बच्चों से न कोई संबंध रखेगी; न ही किसी से कोई अपेक्षा रखेगी। तुम मस्त रहो अपनी दुनिया में… तुम्हारा घर है। हमारा क्या है, चंद दिन के मेहमान हैं। वह क्षमा-याचना कर रही थी और सोमा एक पुलिस अफसर की भांति उस पर प्रश्नों की बौछार कर रही थी।

जब जिह्वा साथ नहीं देती, वाणी मूक हो जाती है तो अजस्र आंसुओं का सैलाब बह निकलता है और इंसान किंकर्त्तव्य- विमूढ़ स्थिति में कोई भी निर्णय नहीं ले पाता। उस स्थिति में उसके मन में केवल एक ही इच्छा होती है कि ‘आ! बसा लें अपना अलग आशियां… जहां स्वतंत्रता हो; मानसिक प्रदूषण न हो; ‘क्या और क्यों’ के प्रश्न उन पर न दाग़े जाएं और वे उन्मुक्त भाव से सुक़ून से अपनी ज़िंदगी बसर कर सकें। इन परिस्थितियों में इंसान सीधा आकाश से अर्श से फ़र्श पर आन पड़ता है; जब उसे मालूम होता है कि इस करिश्में की सूत्रधार हैं कामवाली बाईएं–जो बहुत चतुर, चालाक व चालबाज़ होती हैं। वे मालिक-मालकिन को बख़ूबी रिझाना जानती हैं और बच्चों को वे मीठी-मीठी बातों से खूब बहलाती हैं। परंतु घर के बुज़ुर्गों व अन्य लोगों से लट्ठमार अंदाज़ से बात करती हैं, जैसे वे मुजरिम हों। इस संदर्भ में दो प्रश्न उठते हैं मन में कि वे उन्हें घर से निकालना चाहती हैं या घर की मालकिन उनके कंधे पर रखकर बंदूक चलाना चाहती है? छुरी हमेशा खरबूज़े पर ही पड़ती है, चाहे किसी ओर से पड़े और बलि का बकरा भी सदैव घर के बुज़ुर्गों को ही बनना पड़ता है।

वैसे आजकल तो बाईएं ऐसे घरों में काम करने को तैयार भी नहीं होती, जहां परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त अन्य लोग भी रहते हों। परिवार की परिभाषा वे अच्छी तरह से जानती हैं… हम दो और हमारे दो, क्योंकि आजकल पति-पत्नी दोनों अक्सर नौकरी करते हैं। उनके घर से जाने के पश्चात् वे दिनभर अलग-अलग पोशाकों में सज-संवर कर स्वयं को आईने में निहारती हैं। यदि बच्चे छोटे हों, तो सोने पर सुहागा… उन्हें डाँट-डपट कर या नशीली दवा देकर सुला दिया जाता है और वे स्वतंत्र होती हैं मनचाहा करने के लिए। फिर वे क्यों चाहेंगी कि कोई कबाब में हड्डी बन कर वहां रहे और उनकी दिनचर्या में हस्तक्षेप करे? इस प्रकार उनकी आज़ादी में खलल पड़ता है। इसलिए भी वे बड़े बुज़ुर्गों से खफ़ा रहती हैं। इतना ही नहीं, वे उनसे दुर्व्यवहार भी करती हैं, जैसे मालिक नौकर के साथ करता है। जब उन्हें इससे भी उन्हें संतोष नहीं होता; वे अकारण इल्ज़ाम लगाकर उन्हें कटघरे में खड़ा कर देती है और घर की मालकिन को तो हर कीमत पर उनकी दरक़ार रहती है, क्योंकि बाई के न रहने पर घर में मातम-सा पसर जाता है। उस दारुण स्थिति में घर की मालकिन भूखी शेरनी की भांति घर के बुज़ुर्गों पर झपट पड़ती है, जो अपनी अस्मत को ताक़ पर रख कर वहां रहते हैं। एक छत के नीचे रहते हुए भी अजनबीपन का एहसास उन्हें नासूर-सम हर पल सालता रहता है। उस घर का हर प्राणी नदी के द्वीप की भांति अपना-अपना जीवन ढोता है। वे अपने आत्मजों के साथ नदी के दो किनारों की भांति कभी मिल नहीं सकते। वे उनकी जली-कटी सहन करने को बाध्य होते हैं और सब कुछ देखकर आंखें मूँदना उनकी नियति बन जाती है। वे हर पल व्यंग्य-बाणों के प्रहार सहते हुए अपने दिन काटने को विवश होते हैं। उनकी यातना अंतहीन होती है, क्योंकि वहाँ पसरा सन्नाटा उनके अंतर्मन को झिंझोड़ता व कचोटता है। दिनभर उनसे बतियाने वाला कोई नहीं होता। वे बंद दरवाज़े व शून्य छतों को निहारते रहते हैं। बच्चे भी उन अभागों की ओर रुख नहीं करते और वे अपने माता-पिता से अधिक स्नेह नैनी व कामवाली बाई से करते हैं। 

‘हाँ! प्रॉब्लम क्या है’ ये शब्द बार-बार उनके मनोमस्तिष्क पर हथौड़े की भांति का प्रहार करते हैं और वे हर पल स्वयं को अपराधी की भांति दयनीय दशा में पाते हैं। परंतु वे आजीवन इस तथ्य से अवगत नहीं हो पाते कि उन्हें किस जुर्म की सज़ा दी जा रही है? उनकी दशा तो उस नारी की भांति होती है, जिसे उस अपराध के लिए दोषी ठहराया जाता है; जो उसने किया ही नहीं। उन्हें तो अपना पक्ष रखने का अवसर भी प्रदान ही नहीं किया जाता। कई बार ‘क्यों का मतलब’ शब्द उन्हें हांट करते हैं अर्थात् बाई का ऐसा उत्तर देना…क्या कहेंगे आप? सो! उनकी मन:स्थिति का अनुमान आप स्वयं लगा सकते हैं। सो! चिंतन-मनन कीजिए कि आगामी पीढ़ी का भविष्य क्या होगा?

वैसे इंसान को अपने कृत-कर्मों का फल अवश्य भुगतना पड़ता है, क्योंकि जैसा वह करता है, वही लौटकर उसके पास आता है। लोग चिंतित रहते हैं अपने बच्चों के भविष्य के बारे में और यह सोचकर वे हैरान-परेशान रहते हैं। आइए! यह समझने का प्रयास करें कि प्रॉब्लम क्या है और क्यों है? शायद! प्रॉब्लम आप स्वयं हैं और आपके लिए उस स्थान को त्याग देना ही उस भीषण समस्या का समाधान है। सो! मोह-ममता को त्याग कर अपनी राह पर चल दीजिए और उनके सुक़ून में ख़लल मत डालिए। ‘जीओ और जीने दो’, की अवधारणा पर विश्वास रखते हुए दूसरों को भी अमनोचैन की ज़िंदगी बसर करने का अवसर प्रदान कीजिए। उस स्थिति में आप निश्चिंत होकर जी सकेंगे और ‘क्या-क्यों’ की चिंता स्वत: समाप्त हो जाएगी। फलत: इस दिशा में न चिंता होगी; न ही चिंतन की आवश्यकता होगी। 

●●●●

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 566 ⇒ काव्य शास्त्र विनोदेन.. ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “काव्य शास्त्र विनोदेन।)

?अभी अभी # 566 ⇒ काव्य शास्त्र विनोदेन.. ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बचपन में काहे का काव्य और काहे का शास्त्र ! हाँ, विनोद और प्रमोद मेरे दो दोस्त ज़रूर थे। विनोद बड़ा पढ़ाकू और गंभीर किस्म का छात्र था। उसकी माँ ने शायद उसे कभी उसके नाम का अर्थ नहीं बतलाया होगा। प्रमोद बड़ा प्रमादी किस्म का लड़का था। स्कूल में सिर्फ सोने आता था।

बचपन में लोगों की याददाश्त बड़ी अच्छी होती है। भले ही पढ़ाई का सबक कभी याद न हुआ हो, लेकिन आज तक यह याद है कि हिस्ट्री जॉग्रफी बड़ी बेवफ़ा, रात को रटो, दिन में सफा !सितोलिया, अण्टा-पेली, खो-खो, लंगड़ी और गिल्ली-डंडा के अलावा संस्कृत की अभिनवा: पाठावलि के कुछ सुभाषित आज तक याद हैं।।

खेलते-खेलते अथवा नहाते वक्त अगर कुछ गुनगुनाते रहो तो वह अवचेतन में बैठ जाता है। फिर चाहे वह फिल्मी गाना हो, या संस्कृत का कोई सुभाषित ! ऐसा ही एक सुभाषित था –

काव्यशास्त्रविनोदन कालोगच्छति घीमताम् !

व्यसनेन तू मूर्खाणां निद्रये कलहेन वा।।

यह काव्यशास्त्र का विनोद क्या है, अब इस उम्र में जाकर समझ में आया। मूर्ख लोग व्यसन और कलह में उलझे रहते हैं, वह तो आज की राजनीति से साबित हो ही गया है, काव्यशास्त्र की चर्चा कर स्वयं को विद्वान साबित करने की कोशिश में लोग आपको बुद्धिजीवी समझने की भूल भी कर सकते हैं। मालूम है न आज की बुद्धिजीवी की परिभाषा ! इसलिए काव्यशास्त्र से भी तौबा। हम तो मूर्ख ही भले।

कैसे होते हैं ये काव्यशास्त्र के विद्वान, एक बानगी देखिये !

अच्छी फर्राटेदार अंग्रेज़ी में एक दो श्लोक संस्कृत के घुसेड़ दीजिये, संदर्भ और अर्थ तो श्रोता निकालता बैठेगा। जिसका अंग्रेज़ी और संस्कृत पर समान अधिकार हो, वह आपको हर एंगल से विद्वान ही नज़र आएगा।।

एक और तरीका है, विद्वानीयत झाड़ने का ! फलां फलां की क्लिष्ट और अभिजात्य हिंदी में शेक्सपियर और कीट्स के साथ-साथ सामवेद के कुछ श्लोकों का तड़का, और नागार्जुन/धूमिल का मात्र स्मरण ही काफी है। फिलहाल उर्दू से परहेज़ करें।

साहिर और गुलज़ार तक तो ठीक है, लेकिन किसी और को कभी भूलकर भी quote न करें ! बड़ा सेक्युलर बना फिरता है।

बुद्धू बक्से को तिलांजलि दे दें। केवल ट्विटर और फेसबुक पर ही ध्यान दें। विद्वानों की विशेष रात-पाली चलती है यहाँ। रात को एक बजे गुड मॉर्निंग पोस्ट कर, तानकर सो जाते हैं और सुबह 9 बजे की चाय के साथ आपका अभिवादन स्वीकार करते हैं।।

आजकल के विद्वान उल्लू की तरह रात-भर जागते हैं, और दिन में अमेज़ॉन पर अपनी पुस्तकें बेचते हैं। समझदार इंसान कोउल्लू, कुत्ते, चौकीदार और एक विद्वान में फर्क करते आना चाहिए। वैसे आज के युग में एक विद्वान के अलावा सभी अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभा रहे हैं। आपने सुना नहीं ! काव्यशास्त्र केवल विनोद और पुरस्कार के लिए होता है …!!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 565 ⇒ आज का दिन ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आज का दिन।)

?अभी अभी # 565 ⇒ आज का दिन ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज का दिन सभी उगा नहीं, लेकिन कल, चला गया। रात अभी बाकी है, लेकिन एक नई सुबह हो ही गई। क्या एक रात में वक्त बदल जाता है, तारीख बदल जाती है, बरस बदल जाता है। अगर नहीं बदलता, तो बस इंसान नहीं बदलता।

आज के दिवाकर के उदय होने के पूर्व ही, कल सोशल मीडिया पर दिनकर चले, और खूब चले ! दिनकर चले गए, उनकी कविता चलती रही। विचार एक धारा है, विचार में धार होती है, चाकू में धार होती है, तलवार में धार होती है। चाकू से सब्ज़ी काटी जाती है, तलवार से इंसानों को भी गाजर मूली की तरह काटा जाता था। इसलिए बंदर के हाथ में आजकल तलवार नहीं दी जाती, उसे एक विचारधारा पकड़ा दी जाती है। वह जीवन भर उसकी ही धार तेज करता रहता है।।

यह आज तो मेरा है, पर यह बरस मेरा नहीं ! केवल दिनकर का ही नहीं, कइयों का नया वर्ष, चैत्र वर्ष प्रतिपदा, २१ जनवरी से २१ फरवरी के बीच हिन्दू कैलेंडर के अनुसार, गुड़ी पड़वा से शुरू होता है। हम हर जगह तेरा मेरा तो कर सकते हैं, अपनी मान्यता अनुसार नया वर्ष भी निर्धारित कर सकते हैं लेकिन वक्त को नहीं बदल सकते।

पुरुषार्थ क्या नहीं कर सकता। क्या आपने देखा नहीं, पहले कैसा वक्त था और हमने वक्त के पहिए बदल दिए, वक्त की चाल बदल दी, जंग लगी तलवार बदल दी, ढाल बदल दी। बस नहीं बदल पाए तो दुनिया की तकदीर नहीं बदल पाए। कोरोना काल की कसैली यादें आज भी दिल को झकझोर देती हैं। वक्त सहमा सहमा सा गुजरता रहा। कारवां अभी गुजरा नहीं, गुबार के बीच केवल वक्त गुजरा है।।

शुभ दिन का इंतज़ार नहीं किया करते। अगर बहारें मुहूर्त देखती तो चौघड़िए आड़े आ जाते। फूल को रोज खिलना है। कुदरत का हर पल, हर लम्हा, एक मुहूर्त है। प्रकृति भी अपने उत्सव मनाती है। उसके लिए पतझड़ भी एक उत्सव है। उसे आप कायाकल्प भी कह सकते हैं।

हमें भी बहारों का इंतज़ार है।

हमारा भी कायाकल्प होना है। क्यों न आज ही वह शुभ घड़ी साबित हो। शुभ संकल्प के लिए मुहूर्त नहीं तलाशे जाते, सिर्फ कृत – संकल्प होने से ही काम चल जाता है। मत मानें दिनकर की तरह आप भी इस आज के दिन को वर्ष का पहला दिन, लेकिन एक अच्छा दिन तो मान ही सकते हैं। सूरज अभी उगा नहीं,

अगर हमारे इरादें नेक हैं तो उम्मीद का सूरज भी आज ही निकलेगा जो कल से बेहतर होगा। आज का आपका दिन शुभ हो। वर्ष २०२५ मानवता के लिए मंगलमय हो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 564 ⇒ विचारों की गति ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विचारों की गति।)

?अभी अभी # 564 ⇒ विचारों की गति ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि, जिसने भी कहा हो, सोच समझकर ही कहा होगा। सभी जानते हैं, रॉकेट की तरह कवि भी हवा में ही उड़ते हैं। वैज्ञानिकों ने प्रकाश और ध्वनि की गति को तो आसानी से जान लिया है, किसी ने शायद विचारों की गति को भी नाप लिया हो।

इस ब्रह्माण्ड की खगोलीय गणना इतनी आसान नहीं। प्रकाश और ध्वनि को इंच टैप से नापने से तो रहे। सूर्य के प्रकाश को हम तक पहुंचने में अगर 8.40 आठ मिनिट और चालीस सेकंड लगते हैं तो चंद्रमा का प्रकाश हमारी पृथ्वी तक मात्र 1.30 सेकंड में ही पहुंच जाता है।।

विचारों का क्या है ! सितारों के आगे जहान और भी है। आओ हुजूर तुमको सितारों में ले चलूं !

कितने प्रकाश वर्ष लगेंगे, किस उड़न खटोले अथवा पुष्पक विमान में बैठकर जाओगे, कुछ पता नहीं। अगर ऐसे विचार ही हमारे मन में नहीं आते, तो क्या हम इस तरह हवा में बातें कर रहे होते।

एक सुर होता है, जिसकी साधना परमेश्वर की साधना होती है। उसके बारे में एक सुर साधक भी सिर्फ यही कह पाया है ;

सुर की गति मैं क्या जानूं।

एक भजन करना जानूं।।

सुर में शब्द है, ध्वनि है। प्रकाश में अगर किरणें हैं तो ध्वनि में तरंगें हैं। जब रसोईघर में कोई बर्तन अचानक फर्श पर गिर जाता है, तो उसकी आवाज इतनी आसानी से शांत नहीं होती। क्या ध्वनि की तरंगों के साथ आवाज (साउंड) भी शांत हो जाती है। सुर की तरह ही मंत्र की भी साधना है।

शब्द अक्षरों का समूह है।

अक्षर को परम ब्रह्म माना गया है। जिसका कभी क्षरण अर्थात् क्षय ना हो वही तो अक्षर है। शब्द भी कहां मरता है। मंदिर में जब एक घण्टा बजता है तो उसकी ध्वनि को शांत होने में समय लगता है।।

किसी गीत की जब धुन बनाई जाती है, जब एकांत में बैठकर कोई गीत अथवा रचना का सृजन होता है, तब सबसे पहले हमारा मन एकाग्र होता है। मन का एकाग्र होना ही धारणा है, जो ध्यान का पहला चरण है। हमें कभी लगता है, कुछ हमारे अंदर से आ रहा है और कुछ कुछ ऊपर से भी उतर रहा है। यह उतरना ही वास्तविक सृजन है, ध्यान धारणा और समाधि है।

मतलब हमने यूं ही हवा में ही नहीं कहा था, सितारों के आगे जहान और भी है। मत मानिये आप शनि की साढ़े साती को, राहु और केतु के दुष्प्रभाव को, अपने विचारों के दुष्प्रभाव को तो मानिये। हमारी बुद्धि भ्रष्ट क्यों होती है। क्यों कभी कभी हमारी अक्ल घास चरने जाती है। और क्यों कभी हमारा मन किसी अच्छी फिल्मी धुन पर नाच उठता है।।

एक और हमारे विचारों की गति है और दूसरी ओर मन की गति। मन संकल्प विकल्प करता रहता है।

मन में भेद बुद्धि होती है। अगर भेद बुद्धि ना हो तो हम अच्छे बुरे, लाभ हानि और अपने पराए में भेद ही नहीं कर पाएं। हमारी ज्ञानेंद्रियां ही तो यह तय करती हैं, हम क्या देखें, क्या सुनें, क्या बोलें और क्या खाएं।

एक हमारी मति भी होती है, जिसे आप बुद्धि भी कह सकते हैं। जब बुद्धि भ्रष्ट होती है तो रावण की भी मति मारी जाती है। हमारी मति ही हमारे विचारों को सही दिशा देती है। अगर विचारों को सही दिशा और गति मिल जाए तो वे आसमान छू लें।।

हमारे विचारों को सही दिशा और गति देने के लिए ही तो अन्य लोकों की रचना हुई है। गंधर्व लोक के कारण सुर, स्वर और संगीत कायम है, जिन्हें स्वर्ग नहीं जाना उनके लिए वैकुंठ लोक भी है। गोलोक और पितृलोक का भी ऑप्शन है। विचारों का मामला है। खिचड़ी अपनी ही है जितना चाहें घी डाल लें। बस इतना जरूर जान लें, समय और विचारों का सदुपयोग कर लें, क्योंकि ये जिन्दगी ना मिलेगी दोबारा ;

चलो दिलदार चलो

चांद के पार चलो

हम हैं तैयार चलो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 563 ⇒ प्रतिभा और पलायन ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्रतिभा और पलायन।)

?अभी अभी # 563 ⇒ प्रतिभा और पलायन ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

BRAIN DRAIN

यह समस्या आज की नहीं है, आज से ६० वर्ष पुरानी है, जब शिक्षाविद् और देश के प्रबुद्ध चिंतक विचारक युवा प्रतिभाओं की ब्रेन ड्रेन समस्या से अत्यधिक चिंतित थे, और उनकी सारी चिंता वह हम कॉलेज के फुर्सती छात्रों पर छोड़ दिया करते थे। निबंध और वाद विवाद प्रतियोगिताओं में एक ही विषय, “प्रतिभाओं का पलायन, यानी ब्रेन ड्रेन”।

हम लोगों में तब इतना ब्रेन तो था कि हम ड्रेन का मतलब आसानी से समझ सकें। तब हमने स्वच्छ भारत का सपना नहीं देखा था, क्योंकि हमारा वास्ता शहर की खुली नालियों से अक्सर पड़ा करता था, जिसे आम भाषा में गटर कहते थे। हमारे देश की प्रतिभाओं का दोहन विदेशों में हो और हम देखते रहें।।

परिसंवाद में इस विषय पर पक्ष और विपक्ष दोनों अपने अपने विचार रखते और निर्णायक महोदय बाद में अपने अमूल्य विचार रखते हुए किसी वक्ता को विजयी घोषित करते। सबको समस्या की जड़ में भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, नौकरशाही और राजनीति ही नजर आती।

तब वैसे भी विदेश जाता ही कौन था, सिर्फ डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक और उद्योगपति। मुझे अच्छी तरह याद है, इक्के दुक्के हमारे अंग्रेजी के प्रोफेसर चंदेल सर जैसे शिक्षाविद् जब रोटरी क्लब के सौजन्य से विदेश जाते थे, तो उनकी तस्वीर अखबारों में छपती थी।

नईदुनिया में आसानी से यह शीर्षक देखा जा सकता था, विदेश और उस व्यक्ति की तस्वीर सहित जानकारी। आप उच्च शिक्षा के लिए विदेश प्रस्थान कर रहे हैं।।

लेकिन हमें तो आज कहीं भी प्रतिभा के पलायन अथवा ब्रेन ड्रेन जैसी परिस्थिति नजर नहीं आती। क्योंकि हमारा आधा देश तो विदेश में ही बसा हुआ हैं। जिस पुराने दोस्त को देखो, उसके बच्चे विदेश में, और हमारे अधिकांश मित्र भी आजकल विदेशों में ही रहते हैं और कभी कभी अपने घरबार और संपत्ति की देखरेख करने चले आते हैं। बच्चे भी जब आते हैं, शहर के आसपास कुछ इन्वेस्ट करके ही जाते हैं। हम इसे ब्रेन ड्रेन नहीं मानते, यह तो अपनी प्रतिभा का सदुपयोग कर विदेशी मुद्रा भारत में लाने का एक सराहनीय प्रयास ही है न।

प्रतिभा के पलायन जैसे शब्द से हम घोर असहमति प्रकट करते हैं। स्वामी विवेकानंद जैसी कई प्रतिभाएं समय समय पर विदेश गई और संपूर्ण विश्व को हमारे भारत का लोहा मनवा कर ही वापिस आई। ओशो और कृष्णमूर्ति ने तो पूरी दुनिया में ही अपना डंका बजाया। आज भारतीय प्रतिभा के बिना दुनिया का पत्ता नहीं हिल सकता। क्या माइक्रोसॉफ्ट और क्या गूगल। विदेशी कंपनियां हमारे आयआयटी के प्रतिभाशाली छात्रों को करोड़ों के पैकेज पर उठाकर ले जाती हैं, यह हमारे देश के लिए गर्व की बात है।।

भारत विश्व गुरु, फिर भी चिंता तो है ही भाई। धर्म और अध्यात्म की दूकान भी तो विदेशों में ही अधिक अच्छी चलती है। और इधर हम जैसे कुछ वोकल फॉर लोकल के लिए प्रयासरत हैं।

अमेज़न और बिग बास्केट वाले आज हमारे घर घर चक्कर लगा रहे हैं। यानी देखा जाए तो गंगा उल्टी ही बह रही है। प्रतिभा का क्या है, वह तो जहां है, वहां दूध ही नहीं, घी मक्खन भी देगी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares