हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अवसान ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अवसान ? ?

अवसान को जाते

सूरज का साक्षी हूँ मैं,

अनन्य रूप, अनन्य कांति,

उगने का नवागत बोध नहीं;

जी लेेने की लालिमा है,

अभिमानी प्रखरता नहीं;

कर्मपूर्ति की विनम्रता है,

चाँद को पदच्युत

करने का संघर्ष नहीं;

आलोक की फेरी

बाँटने का हर्ष है,

इस सदाशयता का प्रशंसक हूँ मैं,

डूबते सूरज का उपासक हूँ मैं..!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण का 51 दिन का प्रदीर्घ पारायण पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। 🕉️

💥 साधको! कल महाशिवरात्रि है। कल शुक्रवार दि. 8 मार्च से आरंभ होनेवाली 15 दिवसीय यह साधना शुक्रवार 22 मार्च तक चलेगी। इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा। साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे।💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ये असर है मेरे प्यार का… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “ये असर है मेरे प्यार का“)

✍ ये असर है मेरे प्यार का… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

प्यार मेरी ज़रूरत नहीं , आपकी भी जरूरत है ये

दिल लगाना नहीं खेल है, मेरे रब की इबादत है ये

 *

ये बढ़ावा सितमगर को है, ज़ुल्म पर  मौन बैठे रहो

ये शरीफ़ों को जायज़ नहीं, तेरी कैसे शराफत है ये

 *

ये असर है मेरे प्यार का, फल रही हर दुआ है मेरी

आइना तो ज़रा देखिये, क्या हसीं रुख पे रंगत है ये

 *

जिसकी मनमानियों से यहाँ, लोग अवसर की थे तांक में

हाथ मजबूत वो ही किये, यार कैसी बगावत है ये

 *

सिद्क़ दिल से दुआ तुम जो दो, सूखता पेड़ जाए सँवर

आदमी को अता उसने की, वो ही शफ़क़त की ताकत है ये

 *

ग़म कहें किससे परदेश में, दूसरे दर्ज़े के आदमी

हम मशीनें हैं इंसान से, अय वतन  करके हिज़रत है ये

 *

लत लगी जो खराबात की, दस तबाही करे सच कहा

टूटे नाते सभी घर मिटा, आज बस साथ ग़ुरबत है ये

 *

थूक लो सिर उठाकर मगर, दाग सूरज पे आता नहीं

पेश तुम क्यों सफाई करो, जानते लोग तुहमत है ये

 *

फेंक पश्चिम के चश्मे को जब, पांव माँ के दबाया हूँ मैं

ढूढिये आप जन्नत मगर , मिल गई मुझको जन्नत है ये

 *

ए अरुण हाथ को आग में, जानकर आप मत डालिये

आदमी को जला डालती, ऐसी कातिल मुहब्बत है ये

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 44 – कोई तो रास्ता होगा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – कोई तो रास्ता होगा।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 44 – कोई तो रास्ता होगा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

स्वर्ग में यह कहाँ मजा होगा 

जब न महबूब ही वहाँ होगा

*

कोई चाहत न आरजू कोई 

ऐसी दुनिया में क्या धरा होगा

*

दोस्ती खत्म यूँ नहीं होती 

कोई न कोई बेवफा होगा

*

आग नफरत की क्यों नहीं बुझती 

इसका कोई तो रास्ता होगा

*

दुश्मनी, बेवजह नहीं होती?

जख्म दिल पर, दिया गया होगा

*

झुक गई जो कमर जवानी में 

बोझ बेटी का भी, रहा होगा

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 120 – छल प्रपंच की आड़ ले… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण रचना  “छल प्रपंच की आड़ ले…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 120 – छल प्रपंच की आड़ ले…

करुणा जागृत कीजिये, निज मन में श्री मान ।

अहंकार की विरक्ति से, जग होता कल्यान ।।

 *

दूर छिटकने जब लगें, सारे अपने लोग ।

तब समझो है लग गया, अहंकार का रोग ।।

 *

मन ग्लानि से भर उठे, अपने छोड़ें साथ ।

काम न ऐसा कीजिये, झुक जायेे यह माथ।।

 *

मन अशांत हो जाय जब, मत घबरायें आप ।

विचलित कभी न होइयेे, करंे शांति का जाप ।।

 *

गिर कर उठते जो सदा, करते ना परवाह ।

पथ दुरूह फिर भी चलें, मिलती उनको राह ।।

 *

कष्टों में जीवन जिया, मानी कभी न हार ।

सफल वही होते सदा, जीत मिले उपहार ।।

 *

भूत सदा इतिहास है, वर्तमान ही सत्य ।

कौन भविष्यत जानता, काल चक्र का नृत्य ।।

 *

छल प्रपंच की आड़ ले, बना लिया जो गेह ।

पंछी यह उड़ जाएगा, पड़ी रहेगी देह ।।8

☆ 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – बंधन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – बंधन??

खुला आकाश,

रास्तों की आवाज़,

बहता समीर,

गाता कबीर,

सब कुछ मौजूद है

चलने के लिए..,

पर ठिठके पैर,

खुद से बैर,

निढाल तन,

ठहरा मन..,

हर बार साँकल,

पिंजरा या ़कैद

ज़रूरी नहीं होते

बांधे रखने के लिए..!

© संजय भारद्वाज  

(रात 11:57 बजे, 5.7.2019)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 179 – गीत – मैं दीपक था …. ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका एक अप्रतिम गीत – मैं दीपक था ।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 179 – मैं दीपक था …  ✍

मैं दीपक था किंतु जलाया

चिंगारी की  तरह    मुझे

 इतना बहकाया है तुमने 

छल लगती है सुबह मुझे ।

*

तुमने समझा हृदय खिलौना 

खेल समझ कर छोड़ दिया 

कभी देवता सा    पूजा  तो 

कभी स्वप्न-सा तोड़ दिया ।

*

जन्म मृत्यु की आंख मिचौनी

 और ना  अब  मुझसे  खेलो 

बहुत बहुत पीड़ा तन मन की 

कुछ मैं ले लूं , कुछ तुम   झेलो।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 180 – “कहीं लहरें थमी थीं किंचित…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  कहीं लहरें थमी थीं किंचित...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 180 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “कहीं लहरें थमी थीं किंचित...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

उसके हाथों में समय का

वह सुनहरा केक  था

सधा जिस पर जिन्दगी का

मुस्कराता डेक था

 *

बाजुओं में था प्रणय का

क्षीण सन्नाटा मगर

हथेली में चुभ गया

गम्भीर सा काँटा , जिधर –

 *

उजाले की फ्लड लाइट

में छिपा आक्रोश था

जो अकेला जिंदगी की

फिल्म का रीटेक था

 *

कहीं लहरें थमी थीं किंचित

मुखर दिव्यांग हो

आँख से बहती थी जिनके

नदी कोई ह्वांग हो

 *

ए.आई. के धुँधलके में

चित्र के विस्तार को

उद्धरण ही था मगर

पूरा का पूरा फेक था

 *

क्षुब्ध था मूल्यांकनो का

अनुगमन आभ्यांतर बस

क्षीण सा लगने लगा था

इस कथन का प्राक्कथन वस

 *

हमारे अभिप्राय का उन्नयन

ना हो कदाचित पर

किसी बहके समय का

यह सुलगता अतिरेक था

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

03-01-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – साक्षी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – साक्षी ? ?

कैद कर लिए मैंने

यात्रा के बहुत से दृश्य

अपनी आँख में,

दृश्य;

आदमी के आतंक के,

आदमियत के क़त्ल के,

आँख का पानी सुखाते दृश्य,

सूखी आँख को पानी टपकाने

पर विवश करते दृश्य,

पर अब;

इनसे टपकेगा पानी

केवल उन्हीं बीजों पर

जो उगा सकें

हरे पौधे और हरी घास,

अपनी आँख को

फिर किसी विनाश का

साक्षी नहीं बना सकता मैं!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ क्या यही युक्ति है स्त्री मुक्ति की… ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ कविता – क्या यही युक्ति है स्त्री मुक्ति की☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

कुछ कुछ हुआ

बहुत कुछ होना बाकी है।

दस प्रतिशत ने आसमाँ छुआ

क्या इतना काफी है !

किसी मुगालते में मत रहना

सतही आकर्षणों का चक्रव्यूह

भयावह है !

*

कुछ सेकेंड्स की अभद्र रील बनाना

बिकिनी को “माई लाइफ माई च्वाइस”के अंतर्गत ले आना

आधी रात में साथी महिलाओं के संग  सड़क पर

“मेरी रात मेरी सड़क”

नारा लगाना !

सार्वजनिक स्थानों पर शिशु को स्तनपान कराना

*

क्या यही युक्ति है

स्त्री मुक्ति की

या फिर जागरण के नाम पर सुषुप्ति है !

कठुआ ,हाथरस, उन्नाव ,हैद्राबाद—

कैसे भूल जाती हो

ग्रामीण सर्वहारा,परंपराओं के आतंक तले कराहती स्त्री

तुम्हारे नारों में

क्यों नहीं समा पाती ?

*

फिर ये

एच. डी मेकअप करके

हल्ला मचाना किसलिए ?

स्त्री परिवार समाज और कानून

परस्पर सापेक्ष हैं

*

एक की मुक्ति के लिये

सभी को मुक्त होना होगा ।

अन्यथा

महिला दिवस

महज बिजूका बनकर रह जायेगा।

💧🐣💧

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 168 ☆ # सुबह की सुहानी डगर # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# सुबह की सुहानी डगर  #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 168 ☆

☆ # सुबह की सुहानी डगर #

रात का बीत रहा है

आखिरी पहर

आज बादलों में

छुपी हुई है सहर

*

कितने अहंकार में डूबा है तम

कितने मजबूर हो गए है हम

कितने सांसों में अटका है दम

ना जाने कब

किस पर टूटेगा कहर?

रात का बीत रहा है

आखिरी पहर

आज बादलों में

छुपी हुई है सहर

*

चांद तारों तक

फैला उसका साम्राज्य है

बहती हवाओं पर भी

उसका राज है

हर मुंडेर पर उसके

सिखाए बाज़ है

रात को हुक्म है

और कुछ देर ठहर?

रात का बीत रहा है

आखिरी पहर

आज बादलों में

छुपी हुई सहर

*

तम से पीड़ित

हर नर और नारी है

अफीम के नशे में

ग़ाफ़िल दुनिया सारी है

आज तुम्हारी तो

कल मेरी बारी है

कब टूटेगा नशा

कब जाएगा दिलों से यह डर

रात का बीत रहा है आखिरी पहर

आज बादलों में छुपी हुई है सहर

*

क्षितिज पर देखो

रात ने जुल्फें संवारीं है

नभ के भाल पर

लाल बिंदिया कंवारी है

सब कुछ शांत है पर

अंदर कोई चिंगारी है

कौन रोक सका है

सुबह की सुहानी डगर ?

रात का बीत रहा है आखिरी पहर

आज बादलों में छुपी हुई है सहर //

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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