हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #36 ☆ कविता – “जाते हो तो…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 36 ☆

☆ कविता ☆ “जाते हो तो…☆ श्री आशिष मुळे ☆

जाते हो तो हँसते जाना

अगर हम है बस कांटे

मगर फिक्र न करना जानां

हम फूलों का दिल नहीं दुखाते

 

कांटे है कांटे ही रहेंगे

होंगे नहीं गमगीन

कहीं ख़ुद फूल ना बन जाएं

आपका ग़म जो है इतना हसीन

 

जायज़ है आप बने है उनके लिए

खिलना आपका हक है

बने है हम बस अपने लिए

सख्ती हमारा नक्श है

 

यह धूप है बड़ी मस्त मस्त

कांटो को सख़्त दिल बनाए

जाते जाते आंसू मत गिराना

कहीं कांटे फिर से ना खिल जाए

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 195 ☆ बाल कविता – जलवायु परिवर्तन के रूप ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 195 ☆

☆ बाल कविता – जलवायु परिवर्तन के रूप ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

पश्चिम में सूरज जी पहुँचे

स्वर्णिम हो गई धूप।

नारंगी से गोल – गोल हैं

लगता रूप अनूप।।

 

प्राची में चंदा जी झूलें

धवल दूधिया रूप।

खुला गगन वासंती ऋतु है

ईश्वर दिखें स्वरूप।।

 

जलवायु परिवर्तन होता

रोज बदलता मौसम।

मानव जैसे बीज बो रहा

नहीं कर्तव्य धरम।।

 

बढ़ा प्रदूषण जल,थल , नभ में

सहज नहीं अब जीवन।

सोचो अच्छा , कर लो अच्छा

सुमन बने तब मन।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #219 – कविता – ☆ तीन मुक्तक… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है “तीन मुक्तक…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #219 ☆

☆ तीन मुक्तक… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

[1]

हँसी गायब हुई है, अब बची मुस्कान फीकी सी

नहीं दिल में रही, पहले सरीखी चाह मीठी सी

सुहाती है नहीं, आदर्श की बातें तुम्हारी अब,

न जाने क्यूँ लगे मिश्री, हमें अब सुर्ख़ मिर्ची सी।

[2]

बुरा जो वक्त आया तो, किनारे हो गए सारे

उजाले छोड़ कर चलते बने अब संग अँधियारे

चुगाये थे जिन्हें दानें, उड़े अब दूर वे नभ में,

न दूजों से दुखी हम तो, हमारो से ही हैं हारे।

[3]

राह में पत्थर मिले तो, सीढ़िया उनको बना लें

मिले बाधाएँ, परीक्षा समझ उनका हल निकालें

उधारी के उजाले, निश्चित करेंगे दिग्भ्रमित ही

बिना श्रम बिन साधना के, सफलता के भ्रम न पालें।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 43 ☆ खिलखिलाती अमराइयाँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “खिलखिलाती अमराइयाँ…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 43 ☆ खिलखिलाती अमराइयाँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

हवा कुछ ऐसी चली है

खिलखिलाने लगीं हैं अमराइयाँ।

माघ की ख़ुशबू

सोंधापन लिए है

चटकती सी धूप

सर्दी भंग पिए है

रात छोटी हो गई है

नापने दिन लगे हैं गहराइयाँ।

नदी की सिकुड़न

ठंडे पाँव लेकर

लग गई हैं घाट

सारी नाव चलकर

रेत पर मेले लगे हैं

बड़ी होने लगीं हैं परछाइयाँ।

खेत पीले मन

सरसों हँस रही है

और अलसी,बीच

गेंहूँ फँस रही है

खेत बासंती हुए हैं

बज रहीं हैं गाँव में शहनाइयाँ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि ? ?

बौराये बैठे हैं;

मेरे अजेय

अस्तित्व से

पगलाये बैठे हैं,

मतिशून्य हैं;

नहीं समझते

सत्य, आत्मा

का प्रतिरूप है,

हताश होता है;

परास्त नहीं होता,

आदि-अनादि

कभी समाप्त नहीं होता,

योगेश्वर ने

यों ही नहीं कहा-

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि

नैनं दहति पावक:।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो

न शोषयति मारुत:॥

© संजय भारद्वाज  

(सुबह 7:31 बजे, 14.4.2017)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ जिया जो उम्र भर दामन बचाकर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “जिया जो उम्र भर दामन बचाकर“)

✍ जिया जो उम्र भर दामन बचाकर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

ये आदम जात की फ़ितरत तो देखो

बिकाऊ हो गई उलफ़त तो देखो

*

रहा जो उम्र भर बस रोनकों में

ये कब्रिस्तान की खलबत तो देखो

*

शरीफों की नहीं अब पूछ कोई

गुनहगारों की है इज्ज़त तो देखो

*

हुए शैतान के वंदे ख़ुदा के

परस्पर कर रहे नफ़रत तो देखो

*

जिया जो उम्र भर दामन बचाकर

उसी से हो गई गफ़लत तो देखो

*

पिता के सामने बेटा चला है

ये कैसी हो रही रुख़सत तो देखो

*

करेगी राज रानी बनके बेटी

किसी मुफ़लिस की ये हसरत तो देखो

*

कलम अखबार टी व्ही हाथ जोड़े

अरुण सरकार की दहशत तो देखो

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 42 – जिसने देखा तेरा जलवा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – जिसने देखा तेरा जलवा।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 42 – जिसने देखा तेरा जलवा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

जितना चाहा, तुम्हें भुलाना, ध्यान तुम्हीं पर जाता है

मेरा यह शीशा दिल, जाने क्यों पत्थर पर जाता है

*

सहरा में जाकर के, कितनी नदियाँ सूख गईं 

उसकी प्यास बुझाने वाला, खुद प्यासा मर जाता है

*

जिसने देखा एक बार, हो गया तुम्हारा दीवाना 

इस ही कातिल एक अदा पर, हर कोई मर जाता है

*

जिसने देखा तेरा जलवा, उसको होश नहीं रहता 

तू तो परदे में रहकर भी, यह जादू कर जाता है

*

तेरी शोहरत का दीवाना, एक अकेला मैं हूँ क्या 

हर कोई लेकर मुराद, तेरे ही दर पर जाता है

*

यमुना तट की रेत सुबह मिलती है मेरी मुट्ठी में 

तेरी यादों में, वृन्दावन जैसा, घर हो जाता है

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 118 – मंथन करते रहे उम्र भर… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण रचना “मंथन करते रहे उम्र भर…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 118 – मंथन करते रहे उम्र भर… ☆

मंथन करते रहे उम्र भर,

निष्कर्षों से है पाया।

धुन के रहे सदा ही पक्के,

जो ठाना कर दिखलाया।

पले अभावों के आँगन में,

पैरों पर जब खड़े हुए।

मिला सहारा गैरों से भी,

सीढ़ी चढ़ने अपनाया।

गिरे हुओं की पढ़ी इबारत,

मंजिल पर बढ़ना सीखा।

रिद्धि-सिद्धि की रही चाहना,

धीरज धर कर सुलझाया।

चले निरंतर पथ में अपने,

मात-पिता का साथ मिला।

जीवन में सहयोग रहा पर,

बिछुड़ा हमसे हर साया।।

दृढ़ संकल्प अगर हो मन में,

मिले सफलता कदम कदम।

निश्छल भाव रहे जीवन में,

सदा मिले प्रभु की छाया।

देख रहा अब विश्व हमारा,

अंतरिक्ष में सूर्योदय।

विश्व गुरु की अवधारणा पर,

सबने फिर शीश झुकाया।

हिन्दी को जो भी कहते थे,

यह अनपढ़ की भाषा है।

आज वही भाषा ने देखो,

अपना परचम फहराया।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अपनी-अपनी आँख ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अपनी-अपनी आँख ? ?

अश्लील-सी कुछ 

उपमाएँ चुनें;

कामुकता का

प्रत्यक्ष या परोक्ष

उपयोग करें,

‘मादा’ देह में

नग्नता का

बघार लगाकर

रचें एवरग्रीन कविता,

लंबे समय

चर्चा में रहेगी

ऐसी कविता;

शोध का विषय

बनेगी यह कविता,

प्रगतिशील और

नवोन्मेषवादी

कहलाएगी

यह कविता,

हो सकता है

ऐसा होता हो;

कोई कह रहा था

ऐसा ही होता है,

पर ये सब लागू है

उन पर

जिनके लिए

कमॉडिटी है कविता,

खरीद-फ़रोख़्त;

चर्चित होने की

रेमेडी है कविता,

अलबत्ता-

मैं ऐसा हरगिज़

नहीं कर सकता,

पयपान को विषाक्त

नहीं कर सकता,

मेरे लिए

निष्पाप, अबोध

अनुभूति है कविता;

पवित्र संवेदना की

अभिव्यक्ति है कविता,

मेरी आराधना है कविता,

मेरी साधना है कविता,

मेरी आह है कविता,

मेरी माँ है कविता…!

© संजय भारद्वाज  

(रात्रि 1:45 बजे, 4.12.2015)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 178 – गीत – मैं तुमसे नाराज नहीं…. ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका एक अप्रतिम गीत – मैं तुमसे नाराज नहीं।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 178 – गीत  – मैं तुमसे नाराज नहीं…  ✍

सच कहता हूँ बोलूँगा,

मैं तुमसे नाराज नहीं।

खामोशी का शाल ओढ़कर, तुम बैठी हो कोने में

बाँच रही हो सुधि की पाती, कितना पाया खोने में।

बिखरे बिखरे केश तुम्हारे मुख पर ऐसे झूम रहे

जैसे चंदा के दरवाजे, आवारा घन घूम रहे।

और तुम्हारी सौंधी अँगुली कुछ लिखती है धूल में।

शब्द होंठ में ऐसे बन्दी जैसे भँवरा फूल में।

बिछल गया माथे से आँचल किस दुनिया में खोई हो

लगता है तुम आज रातभर चुपके चुपके रोई हो।

रोना तो है सिर्फ शिकायत, इसकी उम्रदराज नहीं

टूट टूट कर जो न बजा हो, ऐसा कोई साज नहीं।

ओ पगली, नाराज कहीं करता है कोई अपनों को

दुनिया कितना चाहा करती सुबह सुबह के सपनों को

 *

जो शब्दों में प्रकट हुआ वह पाप भले हो प्यार नहीं

मेरा प्यार पाप बन जाये, यह मुझको स्वीकार नहीं।

शबनम की शहजादी का भी प्यार नहीं सरनाम हुआ

जिस बादल ने आँसू गाये, सिर्फ वही घनश्याम हुआ।

तुझे चाहता हूँ मैं कितना, पूछ न अब मेरे मन से

कोई कितनी प्रीति करेगा, खुद ही अपने जीवन से।

मेरे मन के शीश महल सा वह यमुना का ताज नहीं

शाहजहाँ से मैं ज्यादा हूँ, तू बढ़कर मुमताज कहीं।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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