हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 173 ☆ सॉनेट – ज्ञान ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है सॉनेट – ज्ञान )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 173 ☆

☆ सॉनेट – ज्ञान ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

सुमति-कुमति हर हृदय बसी हैं।

सुमति ज्ञान की राह दिखाती।

कुमति सत्य-पथ से भटकाती।।

अपरा-परा न दूर रही हैं।।

परा मूल है, छाया अपरा।

पुरुष-प्रकृति सम हैं यह मानो।

अपरा नश्वर है सच मानो।।

अविनाशी अक्षरा है परा।।

उपज परा से मिले परा में।

जीव न जाने जा अपरा में।

मिले परात्पर आप परा में।।

अपरा राह साध्य यह जानो।

परा लक्ष्य अक्षर पहचानो।

भूलो भेद, ऐक्य अनुमानो।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

८-२-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सतर्क रहना ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – सतर्क रहना ? ?

मादा कौआ

सेती है

अपने अंडों के साथ

कोयल के अंडे,

माटी देती है

समान पोषण

आम और

बबूल के बीज को,

फिर

‘मायका’ घोेंसला छोड़कर

कोयल उड़ जाती है,

कौए से रिश्ता भी

रखना नहीं चाहती है,

उधर बबूल

घेरने लगता है

अपने चारों ओर

काँटों की बाड़,

अनुभूति से

स्पर्श तक लहुलुहान,

कोयल और बबूल

एक स्वर में

देने लगते हैं संदेश-

सतर्क रहना

कौओं की जाति

और उपजाऊ माटी से,

अंतर्मन को चीरकर निकली

व्यथा की बूँदें

आहत कौआ, दरकती माटी

फिर जुट जाते हैं

नये अंडे सेने

नये बबूल को जन्म देने,

‘मैं और मेरा’ के

दयनीय पैरोकारो!

तुम्हारी विवशता

सहानुभूति उपजाती,

अपने भ्रूण की रक्षा

और पोषण के लिए

तुम्हें हमेशा चाहिएँ

कौआ और माटी,

अपनी असमर्थता में

गर्क रहना, पर सुनो-

अपनी ही कृतघ्नता से

सतर्क रहना..!

© संजय भारद्वाज 

(दि.10 दिसंबर 2015, प्रातः 8:30 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

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नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #223 – 110 – “अब हमसे वो मिलने को कतराते हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल अब हमसे वो मिलने को कतराते हैं…” ।)

? ग़ज़ल # 109 – “अब हमसे वो मिलने को कतराते हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

हुस्न के दीदार की तैयारी ही कर लें,

पंखुड़ी गुलाब की चिंगारी ही कर लें।

*

मिला न अब तक हंसीं कोई मुझको,

मिले अगर दिलवर यारी ही कर लें।

*

अब हमसे वो मिलने को कतराते हैं,

वो  जफ़ा से  वफ़ादारी  ही कर लें।

*

लब सिले  हैं जहालत के ही डर से,

चुप रहने की समझदारी ही कर लें।

*

अब तलक तो नख बढ़ चुके ही होंगे, 

शबे वस्ल कुछ ज़ख़्मकारी ही कर लें।

*

दरे हुस्न  पर  मिले  उदु  के  जूते,

चलो ‘आतिश’ अब अय्यारी ही कर लें।

*

फ़िज़ा में  कुछ रंगत घुलने लगी है,

मुहब्बत  की  अदाकारी ही कर लें।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 99 ☆ गीत ☆ ।।मत होना मायूस कभी जीवन में कि सौगात बहुत है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 100 ☆

☆ गीत ☆ ।।मत होना मायूस कभी जीवन में कि सौगात बहुत है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

खुशी होकर जियो जिंदगी में जज्बात बहुत है।

मिलेगा बहुत कुछ  इसमें     सौगात बहुत है।।

पर वाणी में रखना      तुम मिठास    बहुत ही।

बात की चोट से यहाँ    पर आघात    बहुत  है।।

[2]

न गुम रहना अतीत में यादों की बारात बहुत है।

मत होना मायूस खुशियों की  अफरात बहुत है।।

बना कर रखना  तुम  अपने रिश्ते       नातों को।

अपनों के खोने पाने की भी   मुलाकात बहुत है।।

[3]

समय से चलना मिलके वक्त की रफ्तार बहुत है।

रखते मस्तिष्क को ठंडा उन्हें सत्कार बहुत है।।

क्रोध अहम    को त्यागना ही उत्तम है यहाँ पर।

व्यर्थ बातों की भी     जीवन में शुमार बहुत है।।

[4]

पैदा करनी शांति कि घृणा का रक्तपात   बहुत है।

करना नहीं विश्वास धोखे की खुराफात बहुत है।।

बढ़ाना है आदमी से ही आदमी का प्यार यहाँ पर।

जिंदगी में बिन वजहआंसुओं की बरसात बहुत है।।

[5]

मत तोड़ना विश्वास यहाँ घात   प्रतिघात बहुत है।

कोशिश करे आदमी तो   अच्छा हालात बहुत  है।।

जीत रखना जीवन में बहुत   ही संभाल कर तुम।

गर कभी मन हार गए     तो फिर   मात बहुत है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 163 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “अनुशासन…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “अनुशासन। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “अनुशासन” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 नीतिशास्त्र औ’ धर्म सभी को अनुशासन सिखलाते

किन्तु स्वार्थवश, जगह-जगह सब आपस में टकराते।

 *

इससे बढ़ती रहती अक्सर नाटक खींचातानी

करने लगते लोग निरर्थक मारपीट मनमानी।

 *

शिक्षा सबको यदि बचपन से अनुशासन समझाये।

तो अनुशासन का महत्त्व औ’ पालन सबको आये।

 *

सद् प्रवृत्तियाँ छटती दिखती आज मनुज-जीवन में

इसीलिये बढ़ती जाती हैं समस्याएँ हर दिन में।

 *

सही सीख औ’ आदत की आवश्यकता है जन जन को

मर्यादा का चलन देखने मिले अगर बचपन को

 *

तो अनुशासन हो समाज में संस्थाओं शासन में

वैचारिक मतभेद न बदले आपस की अनबन में।

 *

अनुशासन बिन बहुत कठिन गति का सुचारु संचालन

हरेक व्यक्ति को आवश्यक है नियमों का नित पालन।

 *

अनुशासन बिन हर समाज में होती अन्धा धुन्धी

अनुशासन ही सफलताओं की एकमात्र है कुंजी।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – दोहे – मेरा गाँव – ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ – दोहे – मेरा गाँव  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे 

गाँव बहुत नेहिल लगे, लगता नित अभिराम।

सब कुछ प्यारा है वहाँ, सृष्टि-चक्र अविराम।।

*

सुंदरता है गाँव में, फलता है मधुमास।

जी भर देखो जो इसे, तो हर ग़म का नाश।।

*

सुंदर हैं नदियाँ सभी, भाता पर्वतराज।

वन-उपवन मोहित करें, दिल खुश होता आज।।

*

हरियाली है गाँव में, गूँजें मंगलगान।

प्रकृति सदा ही कर रही, गाँवों का यशगान।।

*

खेतों में धन-धान्य है, लगते मस्त किसान।

हैं लहरातीं बालियाँ, करें सुरक्षित शान।।

*

कभी शीत, आतप कभी, पावस का है दौर।

नयन खोल देखो ज़रा, करो प्रकृति पर गौर।।

*

खग चहकें, दौड़ें हिरण, कूके कोयल, मोर।

प्रकृति-शिल्प मन-मोहता, किंचित भी ना शोर।।

*

जीवन हर्षाने लगा, पा मीठा अहसास।

प्रकृति-प्रांगण में सदा, स्वर्गिक सुख-आभास।।

*

जीवन को नित दे रही, प्रकृति सतत उल्लास।

हर पल ऐसा लग रहा, गाँव सदा ही ख़ास।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अपरिहार्य ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अपरिहार्य ? ?

राजा का मुकुट देख

विस्मित थे नगरवासी,

दुर्लभ रत्नों का

आभामंडल देख

चकित थे नगरवासी,

चकाचौंध में नहीं

देख पाए वे

मुकुट के भीतर के

तीक्ष्ण काँटे और

राजा का

लथपथ रक्ताभिषेक,

जय-जयकार,

हर्ष-उल्लास,

स्वार्थ-प्रमाद,

चाटुकारिता,

कलुष, विडंबना,

बनावटी अपनत्व,

मुकुट ढोने वालों के दुख की

मूक परिणति होती है;

सत्य जानते हुए

चुप रहना

राजा की नियति होती है,

फिर शनैः-शनैः

रीत जाता है सब कुछ,

पूरी कर अपनी पिपासा

मुकुट बंद कर देता है दरवाज़ा;

शासन-प्रशासन से

निर्वासित हो जाता है राजा,

नीति कहती है-

सुरक्षा, अनुशासन,

विकास, संगठन,

सीमाएँ, प्रसार,

उत्थान, खुशहाली के लिए

किसी न किसीको

होना पड़ता है राजा

और हाँ,

व्यवस्था के लिए

अनिवार्य होता है राजा..!

© संजय भारद्वाज 

(प्रातः 8:15 बजे, दि.10.12.2015)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #219 ☆ – ख्वाब – ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  आपकी  एक भावप्रवण रचना … ख्वाब)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 219 – साहित्य निकुंज ☆

☆ ख्वाब ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

ख्वाब आँखों से ऐसे न देखा करें

ख्वाब जन्नत ही ऐसी  दिखाते  फिरे ।

*

ख्वाब देखो न तुम दिखाओ कभी

ख्वाब जीवन से होते है कितने परे।

*

ख़्वाब देखे तो जीवन महकने लगा

ख्वाब में फूल ही फूल कितने झरे।

*

ख़्वाब जब देखा तो ये लगा टूटने

ख्वाब में अश्क तो कितने ही गिरे।

*

ख्वाब ने मुझको तो टूटने न दिया

ख्बाब में ख्वाब तो कितने ही धरे।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #200 ☆ आज  अवध  में  धूम मची है… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज भगवान श्री राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर प्रस्तुत है आज  अवध  में  धूम मची हैआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 200 ☆

☆ आज  अवध  में  धूम मची है.. ☆ श्री संतोष नेमा ☆

आज  अवध  में धूम  मची है

सरयू -सलिला  सजी-धजी है

आएंगे    प्रभु    राम    हमारे

ढोलक  घंटी  झाँझ  बजी  है

*

बरसों  से  थी  आस   हमारी

आज मिली हैँ  खुशियां सारी

सब मिल गाओ  गीत प्रेम  के

प्रभु मिलन की  आई  घड़ी है

*

प्रभु  का मन्दिर भव्य बना है

बिराजे  जिसमें राम लला  हैँ

केंद्र  बना  सबकी  आशा का

सबको अब आने  की पड़ी है

*

हर   घर  में  उत्सव   दीवाली

खूब  सजीं   पूजा  की  थाली

दिल की बातें कर लो  प्रभु से

आज  कृपा की   हवा चली है

*

सारे   जग  से   न्यारा   मंदिर

हम  सबका   है  प्यारा  मंदिर

आस   दरश “संतोष” लिए  है

बढ़ी   हृदय  में   उतावली   है

*

आज  अवध  में  धूम मची है

सरयू सलिला  सजी-धजी  है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जन्मांतर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – जन्मांतर ? ?

आदमी

जन्म से ही इकट्ठा

करने लगता है

दीवारें,

घर,

पेड़,

रिश्ते,

नाते,

संंबंध,

मित्र,

और बहुत कुछ..,

फिर जब

एक-एक कर

बिखरने लगते हैं

दीवारें,

घर,

पेड़,

रिश्ते,

नाते,

संबंध,

मित्र,

और बहुत कुछ..,

समझ लो

अगला जन्म

तुम्हारी प्रतीक्षा में है!

© संजय भारद्वाज 

(अपराह्न 12 बजे, 6.12. 2017)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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