हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – बारिश ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – बारिश ? ?

देखी तो होगी

तुमने बारिश,

सारा गर्द झाड़-पोंछकर

प्रकृति का

मूल शृंगार लौटाती;

उसे हरा बनाती,

बस कुछ इसी तरह है

मेरी आँख का पानी

और उसका बरसना,

सारा गर्द धोकर

अपनों के दिए व्रण सुखाकर;

फिर भर देता है

पुतलियों में अनंत स्वप्न,

स्वप्न देखतेे रहने की

अविराम अभिप्सा

और यथार्थ कर सकने की

अदम्य जिजीविषा..!

चौकन्ना

 

सीने की ठक-ठक

के बीच

कभी-कभार

मुझे सुनाई देती है

मृत्यु की भी

खट-खट,  

ठक-ठक..

खट-खट..,

कान शायद अब

चौकन्ना हुए हैं

अन्यथा

ठक-ठक और

खट-खट तो

जन्म से ही

चल रही हैं साथ;

चल रही हैं अनवरत..,

आदमी अगर

निरंतर सुनता रहे

ठक-ठक

खट-खट

साथ-साथ;

बहुत संभव है

उसकी सोच निखर जाए,

खट-खट तक

पहुँचने से पहले

ठक-ठक

सँवर जाए..!

© संजय भारद्वाज  

(रात्रि 9 बजे, दि. 3.10.2015)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

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नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 298 ⇒ तलत की लत… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “तलत की लत।)

?अभी अभी # 298 ⇒ तलत की लत? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आदत तो खैर अच्छी बुरी हो सकती है लेकिन किसी चीज की लत अच्छी नहीं।

जुआ, शराब, गुटका और सिगरेट, बहुत बुरी है इनकी लत, लेकिन अगर किसी दीवाने को लग जाए तलत की लत, तो वह क्या करे। एक ओर बदनाम लत और दूसरी ओर मशहूर तलत ;

क्या करूं मैं क्या करूं

ऐ गमे दिल क्या करूं।

तलत एक ऐसा गायक है, जो दिल से गाता है, और दिल भी किसका, एक वतनपरस्त गरीब का ;

मैं गरीबों का दिल हूं

वतन की जुबां।

उसे जिंदगी की तलाश है ;

ऐ मेरी जिंदगी तुझे ढूंढूं कहां

न तो मिल के गए

न ही छोड़ा निशान।

पसंद अपनी अपनी, प्यार अपना अपना। दीवानों का क्या, जो सहगल के दीवाने थे, उनके गले कोई दूसरा गायक उतरता ही नहीं था। अपना अपना नशा है भाई, अपना अपना ब्रांड। सबको झूमने की छूट है, क्योंकि यह संगीत की दुनिया है और गायकी यहां का इल्म है।।

तलत का मुसाफिर अपनी ही धुन में रहता है ;

चले जा रहे हैं किनारे किनारे, मोहब्बत के मारे।

उसकी मजबूरी तो देखिए बेचारा ;

तस्वीर बनाता हूं,

तस्वीर नहीं बनती।

एक ख्वाब सा देखा है

ताबीर नहीं बनती।

कितनी शिकायत है उसे जिंदगी देने वाले से ;

जिंदगी देने वाले सुन

तेरी दुनिया से दिल भर गया

मैं यहां जीते जी मर गया।

एक सच्चे कलाकार की भी यही त्रासदी होती है। केवल जिसे कला की पहचान है, जो तलत का कद्रदान है, वही तलत के दर्द को समझ सकता है;

शामे गम की कसम

आज गमगीन हैं हम

आ भी जा, आ भी जा

आज मेरे सनम।

आप इसे भले ही फुटपाथ की शायरी कहें, लेकिन हर कलाकार की जिंदगी फुटपाथ से ही शुरू होती है। उसकी आवाज फुटपाथ और हर गरीब के झोपड़े तक में गूंजती है। तलत ने कभी महलों के ख्वाब देखे ही नहीं।

ऐ मेरे दिल कहीं और चल

गम की दुनिया से दिल भर गया

ढूंढ लें, चल कोई घर नया

लेकिन एक आम इंसान की तरह वह भी जानता है ;

जाएं तो जाएं कहां

समझेगा कौन यहां

दिल की जुबां …

अगर आपको भी गलती से तलत की लत लग गई है, तो इसे छोड़िए मत। देखिए वे क्या कहते हैं ;

हैं सबसे मधुर वो गीत

जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं।

जब हद से गुजर जाती है खुशी

आंसू भी छलकते आते हैं।।

उन्हें जब रफी साहब का साथ मिला तो वे भी आखिर गा ही उठे ;

गम की अंधेरी रात में

दिल को न बेकरार कर

सुबह जरूर आएगी

सुबह का इंतजार कर।

और देखिए ;

गया अंधेरा, हुआ उजाला

चमका चमका, सुबह का तारा।।

जो शौकीन लोग जुबां केसरी से दो कदम आगे बढ़ना चाहते हैं, उनके कानों के लिए पेशे खिदमत है, तलत की जुबां मखमली। लत हो तो तलत की।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 104 ☆ ग़ज़ल – कोई जो दे रहा है इंसानी पैगाम दुनिया को ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 104 ☆

☆ ग़ज़ल – कोई जो दे रहा है इंसानी पैगाम दुनिया को ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

हम रहें न रहें यह   सिलसिला चलता रहे।

कोई तोड़े नहीं फूल हर खिला चलता रहे।।

[2]

गर चल रहा है कुछ भी गलत  कंही पर।

रोकने को उसे यह जलजला चलता रहे।।

[3]

कोई जो दे रहा है इंसानी पैगाम दुनिया को।

फांसी बेखौफ कयामत तक भला चलता रहे।।

[4]

कोशिश आदमी की  भी   कभी  कम न हों।

अंदर उसके यह पुरजोर वलवला चलता रहे।।

[5]

यह सब बात ठीक हैं लेकिन ये भी है जरूरी।

बढ़े जिससे नफ़रत नहीं वह गिला चलता रहे।।

[6]

दर्द भी सबका ही सबको बराबर महसूस हो।

नहीं कोई ज़ख्म यूं  छिला खुला चलता रहे।।

[7]

कोई आग न लगाए बस्ती में रोटी सेंकने को।

गर जले तो भी हर इक घर जला चलता रहे।।

[8]

दुनिया जलाने वाले इस दिलजले को कह दो।

हो ये कोशिश नहीं कोई दिलजला चलता रहे।।

[9]

हंस ये दुनिया बन जाएगी जन्नत जमीं पर ही।

गर सबका बस दिल से दिल मिला चलता रहे।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 166 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “जमाना तुमको बुला रहा है…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “जमाना तुमको बुला रहा है..। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “जमाना तुमको बुला रहा है ” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

मुसीबतों से बचा वतन को जो अपने खुद को बचा न पाये

उन्हीं की दम पै हैं दिख रहे सब ये बाग औ’ घर सजे सजाये

तुम्हारे हाथों है अब ये गुलशन सब इसकी दौलत भरा खजाना

जिसे ए बच्चों बचा के रखना तुम्हें औ’ आगे इसे बढ़ाना ॥

बदलते मौसम में घिर रही हैं घने अंधेरों से सब दिशाएँ है

तेज बारिश कड़कती बिजली कँपाती बहती प्रबल हवाएँ है

भगदड़ हरेक दिशा में समाया मन में ये भारी डर है

न जाने कल क्या समय दिखाये, मुसीबतों से भरा सफर है।

 *

मगर न घबरा, कदम-कदम बढ़ निराश होके न बैठ जाना

बढ़ा के साहस, समझ के चालें, तुम्हें है ऐसे में पार पाना।

चुनौतियों को जिन्होंने जीता उन्हीं का रास्ता खुला रहा है

 बहादुरों, तुम बढ़ो निरन्तर, जमाना तुमको बुला रहा है।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जिजीविषा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – जिजीविषा ? ?

गहरी मुँदती आँखें;

थका तन;

छोड़ देता हूँ बिस्तर पर,

सुकून की नींद

देने लगती है दस्तक,

सोचता हूँ

क्या आख़िरी नींद भी

इतने ही सुकून से

सो पाऊँगा..?

नींद, जिसमें

सुबह किये जानेवाले

कामों की सूची नहीं होगी,

नहीं होगी भविष्य की ऊहापोह,

हाँ, कौतूहल ज़रूर होगा

कि भला कहाँ जाऊँगा..?

होगा उत्साह,

होगी उमंग भी

कि नया देखूँगा,

नया समझूँगा,

नया जानूँगा

और साधन

मिले न मिले,

तब भी

नया लिखूँगा..!

© संजय भारद्वाज  

(रात्रि 10:37 बजे, दि. 22.7.19)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #204 ☆ बाल गीत – मेरी माँ… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है बाल गीत – मेरी माँआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 204 ☆

☆ बाल गीत – मेरी माँ.. ☆ श्री संतोष नेमा ☆

लल्ला  कह कर मुझे बुलाती

लोरी  गा  कर  मुझे   सुलाती

देकर  छाँव स्वयं आँचल  की

मेरी   माँ   मुझको   सहलाती

*

गिरूं  जरा तो तुरत उठाती

हर  आहट  पर  दौड़ी  आती

भर भर देती दूध – मलाई

माँ  ममता  का  रस बरसाती

*

सीधी – सादी भोली -भाली

मेरी  माँ पूजा की थाली

नजर  लगे  ना मुझको  कोई

काला  टीका   मुझे   लगाती

*

बिना  कहे  माँ  खूब  समझती

सबकी  चिंता सिर  पर  धरती

अपने दुख को छिपा छिपा कर

घर  में  सुख – संतोष   बढ़ाती

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कालजयी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – कालजयी ? ?

जिन्हें तुम नोट कहते थे

एकाएक काग़ज़ हो गए,

अलबत्ता मुझे फ़र्क नहीं पड़ा;

मेरे लिए तो हमेशा ही काग़ज़ थे,

हर काग़ज़ की अपनी दुनिया है,

हर काग़ज़ की अपनी वज़ह है,

तुम उनके बिना जी नहीं सकते,

मैं उनके बिना लिख नहीं सकता,

एक बात गाँठ बाँंध लो मित्र!

लिखा हुआ ही टिकता है

अल्पकाल, दीर्घकाल,

या कभी-कभी

काल की सीमा के परे भी,

पर बिके हुए और

टिके हुए का मेल नहीं होता,

न दीर्घकाल, न अल्पकाल

और काल के परे तो अकल्पनीय!

© संजय भारद्वाज  

(रात्रि 9 बजे, 2.3.2017)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #36 ☆ कविता – “जाते हो तो…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 36 ☆

☆ कविता ☆ “जाते हो तो…☆ श्री आशिष मुळे ☆

जाते हो तो हँसते जाना

अगर हम है बस कांटे

मगर फिक्र न करना जानां

हम फूलों का दिल नहीं दुखाते

 

कांटे है कांटे ही रहेंगे

होंगे नहीं गमगीन

कहीं ख़ुद फूल ना बन जाएं

आपका ग़म जो है इतना हसीन

 

जायज़ है आप बने है उनके लिए

खिलना आपका हक है

बने है हम बस अपने लिए

सख्ती हमारा नक्श है

 

यह धूप है बड़ी मस्त मस्त

कांटो को सख़्त दिल बनाए

जाते जाते आंसू मत गिराना

कहीं कांटे फिर से ना खिल जाए

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 195 ☆ बाल कविता – जलवायु परिवर्तन के रूप ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 195 ☆

☆ बाल कविता – जलवायु परिवर्तन के रूप ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

पश्चिम में सूरज जी पहुँचे

स्वर्णिम हो गई धूप।

नारंगी से गोल – गोल हैं

लगता रूप अनूप।।

 

प्राची में चंदा जी झूलें

धवल दूधिया रूप।

खुला गगन वासंती ऋतु है

ईश्वर दिखें स्वरूप।।

 

जलवायु परिवर्तन होता

रोज बदलता मौसम।

मानव जैसे बीज बो रहा

नहीं कर्तव्य धरम।।

 

बढ़ा प्रदूषण जल,थल , नभ में

सहज नहीं अब जीवन।

सोचो अच्छा , कर लो अच्छा

सुमन बने तब मन।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #219 – कविता – ☆ तीन मुक्तक… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है “तीन मुक्तक…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #219 ☆

☆ तीन मुक्तक… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

[1]

हँसी गायब हुई है, अब बची मुस्कान फीकी सी

नहीं दिल में रही, पहले सरीखी चाह मीठी सी

सुहाती है नहीं, आदर्श की बातें तुम्हारी अब,

न जाने क्यूँ लगे मिश्री, हमें अब सुर्ख़ मिर्ची सी।

[2]

बुरा जो वक्त आया तो, किनारे हो गए सारे

उजाले छोड़ कर चलते बने अब संग अँधियारे

चुगाये थे जिन्हें दानें, उड़े अब दूर वे नभ में,

न दूजों से दुखी हम तो, हमारो से ही हैं हारे।

[3]

राह में पत्थर मिले तो, सीढ़िया उनको बना लें

मिले बाधाएँ, परीक्षा समझ उनका हल निकालें

उधारी के उजाले, निश्चित करेंगे दिग्भ्रमित ही

बिना श्रम बिन साधना के, सफलता के भ्रम न पालें।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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