हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 37 ☆ पतंगों से दिन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “पतंगों से दिन…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 37 ☆ पतंगों से दिन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

खो गये हैं

नभ में उड़ते

पतंगों से दिन।

*

हाथों से

छूटी अचानक

डोर कच्ची सी

कब बड़ी

हो गई जाने

पीर बच्ची सी

*

भर रहे हैं

मन में दहशत

लफंगों से दिन।

*

रिश्ते-नाते

जैसे कोई

राह पथरीली

हो गये

संबंध थोथे

हवा जहरीली

*

भागते हैं

अपनेपन से

दबंगों से दिन।

*

आईनों से

पूछते हैं

अतीतों के रूप

चुभ रही है

आजकल की

चिलचिलाती धूप

*

चलो खोजें

जंगलों में

कुरंगों से दिन।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कृतघ्न ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – कृतघ्न ? ?

अनगिनत जुगनुओं को

चाँद ने मुहैया कराया

चमकने का अवसर,

पिद्दी रोशनी के इतराये

लांघ गए लक्ष्मणरेखा,

अब तपती धूप है,

सम्राट सूर्य

चक्रवती राज्य कर रहे हैं

और जुगनुओं के जीवाश्म

भूसा भरकर

संग्रहालय में रख दिये गए हैं!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ रूबरू आ गए और चल भी दिए… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “रूबरू आ गए और चल भी दिए“)

✍ रूबरू आ गए और चल भी दिए… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

दर्द के गांव में आना जाना रहा

नाता अश्कों से अपना पुराना रहा

भूख और प्यास ख़ामोश सहते रहे

ऐ गरीबी तेरा मू छिपाना रहा

रूबरू आ गए और चल भी दिए

पल में आना हुआ पल में जाना रहा

मीठी बातों से जज़्बों में गर्मी भरी

इस तरह अपना मकसद भुनाना रहा

एक दिन रो लिए एक दिन हँस लिए

ज़िंदगी का बस इतना फ़साना रहा

इक वफादार की बेवफ़ा कह दिया

बात कुछ भी न थी बस सताना रहा

सारी दुनिया है खानाबदोशों का घर

हर घड़ी इक बदलता ठिकाना रहा

अरुणिमा हर घड़ी दर्द सहती रही

एक नादाँ को रस्ते पे लाना रहा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ ‘ब्लैक होल…’ श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Blackhole…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of n

ational and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem “तुम लिखो कविता! .  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि –  ब्लैक होल ? ?

तुम फिर खींच दोगे

हमारे बीच के धागे को,

तुम फिर लौट जाओगे

पिछली या उससे पिछली

या उससे पिछली

या उससे भी पिछली,

अनगिनत पिछली बार की तरह..,

तुम्हारे लौट आने पर

मैं फिर मिलूँगा तुमसे

वैसे ही जैसे

कभी कुछ हुआ ही ना हो,

कभी सोचा,

हर बार का तुम्हारा पलायन

मेरे भीतर के ब्रह्मांड में

पैदा कर देता है एक शून्य,

अब,

ये सारे शून्य मिलाकर

भयावह ब्लैक होल बन चुका है,

जानते हो ना,

ब्लैक होल गड़प जाता है

ब्रह्मांड सारा का सारा,

सुनो,

हाँफ रहा हूँ, थक गया हूँ,

बार-बार गड़पे जाने से

कैसे उबरूँ मैं..?

तुम्हीं बताओ

और कितने ब्रह्मांड सिरजूँ मैं..?

© संजय भारद्वाज

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

? – Blackhole… ??

You will again draw.

the line between us,

You will again go away

like countless previous occasions,

When you return, I always

meet & greet you again as if

nothing has ever happened…

 

But, have you ever thought,

Every time you leave, it creates

a vacuum in my consciousness,

Now, all these voids have combined

to form a petrifying blackhole

Do you know. that the blackhole

swallows the entire universe..?

 

Now. Listen!

I am gaspingly asphyxiated

How do I recover from being

exhausted again and again?

You only tell me how many

more universes can I create..?

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 36 – यह कसक पुरानी है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – यह कसक पुरानी है।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 36 – यह कसक पुरानी है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

पीड़ाओं पर और अधिक, छा रही जवानी है 

सदा टीसती रहती है, यह कसक पुरानी है

गम मेरा सच्चा साथी है साथ नहीं छोड़ा 

मुझसे हर पल, खुशियों ने की, आना-कानी है

तेरी यादों की बगिया है अब तक हरी-भरी 

इसमें सींचा गया सदा, आँखों का पानी है

साथ तुम्हारे ही, बहार ने भी मुँह मोड़ लिया 

तुम रहते हो जहाँ, वहाँ की फिजा सुहानी है

जहर पचाना सीख गया मैं, धन्यवाद उनको 

मुझे मिटा देने की जिनने मन में ठानी है

कहीं प्रीति तो कहीं घृणा-नफरत ही पलती है 

यमुना की जलधार कहीं रावी का पानी है

केवल तुम ही नहीं दुखी आचार्य, और भी हैं 

झोपड़ियों की नहीं, ‘खुशी’ महलों की रानी है

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 112 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 112 – मनोज के दोहे… ☆

1 धुंध

धुंध बढ़ा है इस कदर, दिखे न सच्ची राह।

राजनीति में बढ़ रही, धन-लिप्सा की चाह।।

2 कुहासा

घोर कुहासा रात भर, पथ में सोते लोग।

मानवता को ढूँढ़ते, आश्रय का शुभ-योग।।

3 कोहरा 

मीलों छाया कोहरा, नहीं सूझती राह ।

प्रियतम-बाट निहारती, घर जाने की चाह।।

4 बर्फ

जमती रिश्तों में बर्फ, हटे बने जब बात।

रिश्तों में हो ताजगी, अच्छी गुजरे रात।।

5 शरद

शरद-काल मनमोहता, पंछी करें किलोल।

फूल-खिलें बगिया-हँसे, प्रकृति लगे अनमोल।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ब्लैक होल ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  ब्लैक होल ? ?

तुम फिर खींच दोगे

हमारे बीच के धागे को,

तुम फिर लौट जाओगे

पिछली या उससे पिछली

या उससे पिछली

या उससे भी पिछली,

अनगिनत पिछली बार की तरह..,

तुम्हारे लौट आने पर

मैं फिर मिलूँगा तुमसे

वैसे ही जैसे

कभी कुछ हुआ ही ना हो,

कभी सोचा,

हर बार का तुम्हारा पलायन

मेरे भीतर के ब्रह्मांड में

पैदा कर देता है एक शून्य,

अब,

ये सारे शून्य मिलाकर

भयावह ब्लैक होल बन चुका है,

जानते हो ना,

ब्लैक होल गड़प जाता है

ब्रह्मांड सारा का सारा,

सुनो,

हाँफ रहा हूँ, थक गया हूँ,

बार-बार गड़पे जाने से

कैसे उबरूँ मैं..?

तुम्हीं बताओ

और कितने ब्रह्मांड सिरजूँ मैं..?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

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English Literature – Poetry ☆ ‘तुम लिखो कविता! …’ श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘You Write a Poem…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of n

ational and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem “तुम लिखो कविता! .  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि – तुम लिखो कविता! ??

उन्होंने कविता और

कवित्व की हँसी उड़ाई,

मैंने कलम उनके हाथ थमाई

और कहा, अब तुम लिखो कविता!

 

उनकी हँसी अचकचाई,

दृष्टि सकुचाई,

मैंने कलम ली उनके हाथ से

लिखी पक्तियाँ उसी

अचकचाने-सकुचाने पर

और उन्हें ही प्रति थमाई।

 

सृजन यों ही नहीं जन्मता,

देखना, दृष्टि में यों ही नहीं बदलता,

कविताओं के छत्ते से

तुम भरपूर शहद

भले ही जुटा पाओगे,

स्मरण रहे,

मधुमक्खी तो तब भी नहीं हो पाओगे!

 

बाहरी जगत के विस्तार का

माइक्रोचिप बनाएगी कविता,

जब कभी भीतर देखना होगा

उन्हें रास्ता दिखायेगी कविता!

© संजय भारद्वाज

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

? – You Write a Poem… ??

They incessantly ridiculed

the poetry and poetics…
 

I handed over a pen

to them and said smiling,

“Now you write a poem!”

Their laughters ceased abruptly

Eyes got perplexly narrowed,

Countenance shrank embarassingly!
 

I took the pen, wrote intricately a

few poetic verses on their predicament

With some hesitation and bewilderment

They took the copy, with a coyish grin..!
 

Creation never gets born just like that,

Seeing never changes the sight just like that,

One may be able to gather plenty of

honey from the hive of poems,

But always remember, even then

you won’t be able to become a bee!
 

Poetry will create a microchip of the

expansion of the external world,

Whenever one has to look within,

poetry will show him the way forward..!

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 172 – गीत – जैसे नहीं मिली हो…. ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका एक अप्रतिम गीत – जैसे नहीं मिली हो।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 172 – गीत  –  जैसे नहीं मिली हो…  ✍

कहने को कुछ खास नहीं है

यही पुराने रस्ते

आते जाते देखा देखी

दो दो बार नमस्ते

खुशबू न्यौता देती रहती

लगती भली भली हो।

 

कभी अगर कुछ कहा सुना तो

वह भी केवल इतना

देखो सीखी नई बुनाई

कोर्स हुआ है इतना

पढ़ना चाहो मुझको पढ़ लो

पढ़ने कहाँ चली हो।

 

अक्सर होंठ फड़कते देखे

देखी आँख भटकती

सम्मन पाकर अँगड़ाई का

सारी नसें चटकती

गंध उम्र ने सौंपी लेकिन

अब तक नहीं खिली हो।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 170 – “रोपे थे जो कठिन समय में…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  रोपे थे जो कठिन समय में...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 170 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “रोपे थे जो कठिन समय में...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

सोच रहा फुटपाथ यहाँ पर

लैम्प पोस्ट नीचे ।

लोग चल रहे कैसे

अपनी ऑंखों को मीचे ॥

 

उजड़ी जहाँ वनस्पतियाँ हैं

उभय किनारों की ।

पगडंडियाँ कर रही निंदा

शुष्क विचारों की ।

 

विद्वानों ने सुखा दिये हैं

ज्ञान समन्वय के-

रोपे थे जो कठिन समय में

अभिनव बागीचे ॥

 

लोग जहाँ सन्दर्भ हीन

दिख रहे कहानी में ।

वहाँ खोजती सत्व

नायिका यथा जवानी में ।

 

वहीं इसी चौराहे पर

क्यों हुये इकट्ठे हैं –

आपस में मुट्ठियाँ तानते

हुये होंठ भींचे ॥

 

कैसे भूले लोग अद्यतन

जाती सुविधायें ।

जो सामाजिक संरचना की

होतीं समिधायें ।

 

जिनके पारगमन की चिन्ता

सड़कें करती हैं –

अपने हिरदय पर लक्षमण की

रेखा को खींचे ॥

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

02-11-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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