हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भाषा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – भाषा ? ?

‘ब’ का ‘र’ से बैर है,

‘श’ की ‘त्र’ से शत्रुता,

‘द’ जाने क्या सोच

‘श’,‘म’ और ‘न’ से

दुश्मनी पाले है,

‘अ’ अनमना-सा

‘ब’ और ‘न’ से

अनबन ठाने है,

स्वर खुद पर रीझे हैं,

व्यंजन अपने मद में डूबे हैं,

‘मैं’ की मय में

सारे मतवाले हैं,

है तो हरेक वर्ण

पर वर्णमाला का भ्रम पाले है,

येन केन प्रकारेण

इस विनाशी भ्रम से

बाहर निकाल पाता हूँ,

शब्द और वाक्य बन कर

मैं भाषा की भूमिका निभाता हूँ!

© संजय भारद्वाज 

(रात्रि 11: 55 बजे, 16.12.18)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी से आपको शीघ्र ही अवगत कराएंगे। 💥 🕉️

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कहाँ आगाज़ सा अंजाम है इसका… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “कहाँ आगाज़ सा अंजाम है इसका“)

✍ कहाँ आगाज़ सा अंजाम है इसका… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

नई उम्मीद फिर उसने जगाई है

मुझे वो देख के जो मुस्कराई है

कहाँ आगाज़ सा अंजाम है इसका

मुहब्बत खूब मैंने आज़माई है

यहाँ इंसान ने तासीर जो बदली

मुसीबत खुद बुलाना अब भलाई है

न ढूढे से मिली दुनिया में अच्छाई

जहाँ देखो बुराई ही बुराई है

मरीज़ -ए -इश्क़ को केवल दुआ कीजे

कहाँ इस रोग की कोई दवाई है

ख़ुशी घर भाइयों के रोकती आना

ये जो दीवार आँगन में उठाई है

ये अंधे भक्त है रहबर के अब इनकी

बड़ी मुश्किल गुलामी से रिहाई है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 27 – कड़वे दिवस बिताये हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – कड़वे दिवस बिताये हैं।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 27 – कड़वे दिवस बिताये हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

जहाँ छद्म हो वहाँ

भला क्या सच्चाई दिखती 

 

उनसे पूछो जिनने 

कड़वे दिवस बिताये हैं 

मीठे फल चाहे थे 

खट्टे अनुभव पाये हैं 

धुंधले दरपन में

तस्वीरें साफ नहीं दिखती 

 

बरबस मुस्कानें चिपकाकर 

दुख सह लेती हैं 

निश्छल आँखें किन्तु हमारी 

सच कह देती हैं रोटी तो मिलती हैं

पर पहले अस्मत बिकती 

 

चलती है दरबारों में 

अब केवल लफ्फाजी 

जी हुजूर कहकर 

पुतले की सहते नाराजी 

बिकी कलम, कायरपन को तक

शौर्य रही लिखती

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 104 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 104 – मनोज के दोहे… ☆

1 नैवेद्य

ईश्वर को नैवेद्य से, खाना हो आरंभ।

यही समर्पण भाव हो, कभी न आता दम्भ।।

2 आचमन

सद्कर्मों का आचमन, करें सभी हरहाल।

कष्ट नहीं फिर घेरते, गुजरें अच्छे साल।।

3 नीराजन

पूजन नीराजन करें, भक्ति भाव से मंत्र।

सुधरेंगें हर काज तब, सफल रहेगा तंत्र।।

4 शंख

शंख-नाद कर आरती, करें भक्त गण रोज।

जयकारे हैं गूँजते, भरते मन में ओज।।

5 मंत्र

मंत्र-तंत्र की साधना, कठिन भक्ति का योग।

भवसागर से पार हों, फटकें कभी न रोग।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आहत ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – आहत ? ?

आहत हूँ

पर क्या करूँ,

जानता था

सारी आशंकाएँ मार्ग की,

सो समूह के आगे

चलता रहा,

डग भरने से चोटें

घिसटने से खरोंचेेंं,

पीछे चलनेवालों के घात,

पीछे खींचनेवालों के आघात,

रास्ता दिखाने वालों के पास

आहत होने के सिवा

कोई विकल्प भी तो

नहीं होता ना..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी से आपको शीघ्र ही अवगत कराएंगे। 💥 🕉️

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 163 – गीत – बिछल रही है चाँदनी… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत –बिछल रही है चाँदनी।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 163 – गीत – बिछल रही है चाँदनी…  ✍

लहर लहर में चाँद बिछलता, बिछल रही है चाँदनी।

मन की नाव लिये जाती है जहाँ कल्पना कामिनी।

 

मंद मंद स्वर सुन पड़ते हैं

मोहक मंदिर रसीले

रून झुन की धुन कर देती है

देहबन्ध भी ढीले

देहराग को ढाल आग में छेड़ रही है यामिनी

 

दाहक मारक रूप ज्वाल से

उठती ठंडी ज्वाला

आँखों आँखों पीने पर भी

थके न पीनेवाला।

उन्मन उन्मन मन करती है उन्मत् सी उन्मादिनी ।

 

चंदा कहाँ चाँदनी कैसी

सब है मन का मेला

मन मोती को खोज रहा है

सागर बीच अकेला।

नदी नाव संयोग हमारा सुनती हो सौदामिनी ।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 162 – “कुछ कुछ अच्छा ही होगा अब…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  “कुछ कुछ अच्छा ही होगा अब)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 162 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “कुछ कुछ अच्छा ही होगा अब” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

उसके घर अनाज आया

सब की उम्मीद जगी

अपनी पुस्तक मे लिखते हैं

पंकज रोहतगी

 

आगे लिखते, लगी झाँकने

छिप छिप आंगन में

सब कुछ छोड़ घरेलू बिल्ली

जो थी प्रवचन में

 

कुछ कुछ अच्छा ही होगा अब

घर के मौसम में

यह सारे बदलाव देखती

है घर की मुरगी

 

चिडियाँ मुदिता दिखीं

फूस के छप्पर में अटकीं

दीवारें खुश हुई जहाँ पर

छिपकलियाँ लटकी

 

लुकाछिपी करती किंवदन्ती

दरवाजे बाहर

देख नहीं पायी पेटों में

कैसी आग लगी

 

आज समूचे घर में उत्सव

सा माहौल बना

किसी पेड़ का पहले था

जैसे बेडौल तना

 

वही सुसज्जित , छायादार

वृक्ष में था बदला

जिसने घर की खुशियों में

जोड़ी है यह कलगी

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

 08-10-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दर्शन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – संजय  ? दर्शन ?

जब नहीं बचा रहूँगा मैं

और बची रहेगी सिर्फ देह,

उसने सोचा…,

सदा बचा रहूँगा मैं

और कभी-कभार नहीं रहेगी देह,

उसने दोबारा सोचा…,

पहले से दूसरे विचार तक

पड़ाव पहुँचा,

उसका जीवन बदल गया…,

दर्शन क्या बदला,

जो नश्वर था तब

ईश्वर हो गया अब…!

© संजय भारद्वाज 

(रात्रि 11: 53 बजे, 28.2 2020)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 213 ☆ “गांव में इन दिनों…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता गांव में इन दिनों…”।)

☆ कविता – “गांव में इन दिनों…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

रात के अंधेरे में

हर गांव में चुपके से

एक गाड़ी आती है

            इन दिनों…

 

गांव के रतजगे में

रामधुन के साथ

गांजा भांग चलता है

            इन दिनों…

 

अंधेरे में कोई

बुधिया के हाथों में

सौ दो सौ गांधी

दे जाता है

           इन दिनों…

 

कोई कुछ कहता है

फिर आंख दिखाता है

बहरा लाचार बुधिया 

समझ नहीं पाता है 

           इन दिनों….

 

रात मिले गांधी को

टटोलता है लंगड़ा बुद्धू

फिर माता के दरबार में

एक नारियल चढ़ाता है

             इन दिनों….

 

रात के अंधेरे में

प्रसाद के नाम पर

नशे की चीजें जैसी 

कोई कुछ दे जाता है

            इन दिनों….

 

रात को मिले गांधी से

गुड़ की जलेबी का

स्वाद लेती मुनिया

चुनाव की जय कह रही है

              इन दिनों….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 154 ☆ # उत्सव # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक घटना पर आधारित एक भावप्रवण कविता “# उत्सव  #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 154 ☆

☆ # उत्सव  #

जगतू फूला नहीं समा रहा है

उसके चेहरे पर चमक देख

चांद भी शरमा रहा है

उसके झोपड़पट्टी में

खूब रेल पेल है

नये नये रंग, खूशबू के

किस्म किस्म के

अलग-अलग परिधानों के

लोगों की ठेलमठेल है

बस्ती में चारों तरफ जगमगाहट है

खुशियों के आने की

छुपी हुई आहट है

बस्ती में नयी सड़क और

नाली बन रही है

पीपल पेड़ के नीचे

चबूतरे पर

कहीं चिलम का सूट्टा तो कहीं

भांग छन रही है

जगतू की पत्नी

रोज नयी साड़ी बदल रही है

बच्चों के हाथों में

कहीं फटाके तो कहीं

फुलझड़ी जल रही है

बस्ती के हर झोपड़ी में

अलग-अलग झंडे लगे हैं

इस बस्ती के वासियों के तो

शायद भाग जगे हैं 

रात के अंधेरे में

कहीं अंगूरी

तो कहीं मिठाई बटी है

बस्ती वालों की रात

मदहोशी में कटी है

बिचौलिए क्या क्या चाहिए

लिख रहे हैं 

कहीं कहीं ठंड से बचने

बांटतें कंबल दिख रहे हैं

सुबह-शाम

चाय नाश्ता मुफ्त मिल रहा है

कुछ पल के लिए

चिपका हुआ पेट

अर्ध नग्न शरीर

धँसी हुई आंखें

क्लांत चेहरा

खिल रहा है

कहीं कहीं स्वादिष्ट आहार है

तो कहीं  कहीं मांसाहार  है

लक्ष्मी जी की कृपा

हर परिवार पर हो रही है

कुछ दिनों के लिए ही सही

उनकी गरीबी

दूर हो रही है

 

मैंने जगतू से कहा – भाई !

तुम्हारे तो मज़े ही मज़े है

बस्ती के सभी परिवार 

सजे धजे है

जगतू बोला – साहेब !

यह उत्सव हम गरीबों के

जीवन में खुशियां

पांच साल में

एक बार ही लाता है

फिर अगले पांच साल तक

हमें देखनें या पूछनें

कोई नहीं आता है /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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