हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 218 – कविता – नये साल का गीत… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक कविता नये साल का गीत)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 218 ☆

☆ कविता – नये साल का गीत… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

कुछ ऐसा हो साल नया,

जैसा अब तक नहीं हुआ.

अमराई में मैना संग

झूमे-गाये फाग सुआ…

*

बम्बुलिया की छेड़े तान.

रात-रातभर जाग किसान.

कोई खेत न उजड़ा हो-

सूना मिले न कोई मचान.

प्यासा खुसरो रहे नहीं

गैल-गैल में मिले कुआ…

*

पनघट पर पैंजनी बजे,

बीर दिखे, भौजाई लजे.

चौपालों पर झाँझ बजा-

दास कबीरा राम भजे.

तजें सियासत राम-रहीम

देख न देखें कोई खुआ…

स्वर्ग करे भू का गुणगान.

मनुज देव से अधिक महान.

रसनिधि पा रसलीन सलिल

हो अपना यह हिंदुस्तान.

हर दिल हो रसखान रहे

हरेक हाथ में मालपुआ…

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२७.१२.२०२४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/स्व.जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “आप बुलाओ तो सही… दिल  से !” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कविता – आप बुलाओ तो सही… दिल  से ! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

इतना खाली भी

नहीं हूं दोस्तो

कि जब पुकारा चला आया

इतना व्यस्त भी नहीं

कि आपकी आवाज को

अनसुनी कर दूं !

बस ! आप बुलाओ तो सही

दिल  से !

बेरुखी बर्दाश्त नहीं

और प्यार की अनदेखी नहीं

इतनी सी बात है

और कुछ भी नहीं !

,,,,,,,,

इतना बड़ा भी नहीं

कि किसी के आगे झुक न सकूं

इतना छोटा भी नहीं

कि हर कोई मुझे झुका ले !

बस !

आपके प्यार के आगे

नतमस्तक हूं

और किसी के भी

अहंकार के आगे डटा हूं !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कहाँ थे पहले? ☆ डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक ☆

डॉ जसप्रीत कौर फ़लक

☆ कविता ☆ कहाँ थे पहले? ☆ डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक 

खिड़की के हिलते पर्दों के पास

तुम्हारी  परछाईं  नज़र आती है

काश !

 तुम होते –

ख़यालों में, कल्पनाओं में

कितने रंग उभरते हैं

दूर कहीं अतीत की

 झील में डूब जाते हैं

कभी लगता है, स्वप्न देख रही हूँ

कभी लगता है जाग रही हूँ

 

यह बोझिल सन्नाटा, यादों का तूफ़ान,

तुम्हारे ख़यालों की चुभती लहरें,

मेरे भीतर कहीं टूटती, बिखरती,

एक अनकही पीड़ा में सिमटती

अनजान    सी    चुभन  उतरती

मैं थक चुकी हूँ इस अंतहीन दर्द से,

अदृश्य स्पर्श, जो छूटता ही नहीं।

हर साँस में, तुम बसते हो,

जहरीली हवा की तरह घुलते हो।

क्यों हर साँस में, मैं तुम्हें सहूँ?

क्यों इस विष को पीती रहूँ?

 

यह कैसी विडंबना,यह कैसा भाग्य का खेल

दो किनारों का कभी हो नहीं पाता मेल

एक उलझा बेबसी का  जाल,

 यह अनसुलझा सवाल

यह  तड़प यह जलती हुई आग, जो बुझ न सके,

फिर भी, मैं तुमसे प्रेम करूँ।

 

तुम कहाँ थे पहले?

जब   हर  रुत   बहार  थी  मेरी

जब हर शाम बे – क़रार थी मेरी

दूर कहीं एक खोया तारा,

एक बुझती हुई रशिम…

 मैं कहाँ थी पहले?

एक बीज, जो मिट्टी में दबा था कहीं

उमंगों का प्रवाह, जो  रुका  था  कहीं

कैसे जिया होगा मेरा मन,

बिना तुम्हारे स्पर्श के ?

एक अकेला चुम्बन, खोई हुई आत्मा

भटका हुआ एक निराधार सपना।

 

जब तुम आए,

 मेरी राह प्रकाशित हुई

मेरी दिशा निर्धारित हुई

जब तुम आये

मेरी साँसों में मधुरिम संगीत घुला

मेरी  करूणा  से   प्रेम  गीत  बना

हमारी राह हमारी मंज़िल एक हुई

हे अदृश्य प्रेम,

तेरा स्पर्श पा कर

मन  में  भरा  स्वर्णिम  अहसास

तुम  लगे बहुत पास…बहुत  पास

आज मुझे लगा

अब मैं उलझी पहेली नहीं

तुम हो मेरी कल्पना में

अब  मैं  अकेली  नहीं।

 डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक

संपर्क – मकान न.-11 सैक्टर 1-A गुरू ग्यान विहार, डुगरी, लुधियाना, पंजाब – 141003 फोन नं – 9646863733 ई मेल – [email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कालचक्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – कालचक्र ? ?

उम्र की दहलीज पर

सिकुड़ी बैठी वह देह

निरंतर बुदबुदाती रहती है,

दहलीज की परिधि के भीतर

बसे लोग अनपढ़ हैं,

बड़बड़ाहट और बुदबुदाहट में

फर्क नहीं समझते!

मोतियाबिंद और ग्लूकोमा के

चश्मे लगाये बुदबुदाती आँखें

पढ़ नहीं पातीं वर्तमान

फलत: दोहराती रहती हैं अतीत!

मानस में बसे पुराने चित्र

रोक देते हैं आँखों को

वहीं का वहीं,

परिधि के भीतर के लोग

सिकुड़ी देह को धकिया कर

खुद को घोषित

कर देते हैं वर्तमान,

अनुभवी अतीत

खिसियानी हँसी हँसता है,

भविष्य, बिल्ली-सा पंजों को साधे

धीरे-2 वर्तमान को निगलता है,

मेरी आँखें ‘संजय’ हो जाती हैं…,

देखती हैं चित्र दहलीज किनारे

बैठे हुओं को परिधि पार कर

बाहर जाते और

स्वयंभू वर्तमान को शनै:-शनै:

दहलीज के करीब आते,

मेरी आँखें ‘संजय’ हो जाती हैं…!

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना आपको शीघ्र दी जावेगी। 💥 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 141 ☆ मुक्तक – ।नूतन नवीन वर्ष संदेश देता कुछ नया करने का। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 141 ☆

☆ मुक्तक – ।नूतन नवीन वर्ष संदेश देता कुछ नया करने का। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

=1=

किसी की हार   किसी की  जीत है।

कुछ दोस्तों की  जगह  नए मीत है।।

नई बात नया अंदाज  नए  साल में।

भरो मन प्रेम से जो रहा बिन प्रीत है।।

=2=

नववर्ष खत्म न हो ये  जीवन गीत है।

प्रेम की धुन ही तो   जीवन संगीत है।।

नव संकल्प आगाज  हो नए साल में।

चलना साथ समय के ही सही रीत है।।

=3=

अतीत नहीं भविष्य दर्पण  नया साल।

नए विचारों नव उत्साह  सा विशाल ।।

जीवन दिया एकऔर मौका नए साल सा।

नव वर्ष में सोचना है कुछ नए ख्याल।।

=4=

उम्र का वर्ष कम  नहीं  अनुभव बढ़ा है।

उत्साह का  पैमाना और  ऊपर चढ़ा है।।

नया साल पैगाम देता कुछ नया करने का।

वो जीता मुश्किलों सामने रहता खड़ा है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 207 ☆ कविता – क्यों है ?… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “कविता  – क्यों है । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 207 ☆ कविता – क्यों है ? ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

जब जानते हैं, सब यह है चार दिन का जीवन

तब साथ-संग रहते भी द्वेष भाव क्यों है ?

 *

हिलमिल के साथ रहने में सबको मिलती खुशियाँ

तो रिश्तेदारों से भी मन में दुराव क्यों है ?

 *

सद्‌भाव ही हवा में खिलते हैं फूल मन के

तब दूरियाँ बढाते  मन‌ मुटाव क्यों है?

 *

खुद अपना मन जलाते औरों को भी दुखाते

अनुचित तथा अकारण टकराव भाव क्यों है?

 *

दुनियाँ समझ न आती बाहर दिखाव होते भी

नाखुरा बने रहने का कुछ का स्वभाव क्यों है

 *

जब अपने अपने  घर में, खुशहाल हैं सभी तब

 मन में खिंचाव क्यों है अनुचित तनाव क्यों है?

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मतलबी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –   ? ?

? संजय दृष्टि – मतलबी  ??

शहर के शहर,

लिख देगा मेरे नाम;

जानता हूँ…

मतलबी है,

संभाले रखेगा गाँव तमाम;

जानता हूँ…!

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना आपको शीघ्र दी जावेगी। 💥 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #34 – गीत – कैसे पारावार लिखूँ… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतगीत – कैसे पारावार लिखूँ

? रचना संसार # 34 – गीत – कैसे पारावार लिखूँ…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

 भावों की सूखी निर्झरिणी।

कैसे पारावार लिखूँ।

रंग बदलती इस दुनिया का,

कैसे जीवन सार लिखूँ।।

अवसर वादी मनुज हुआ है,

कलुषित विचार धारा है।

भेदभाव की कुटिल चाल से ,

प्रेम -भाव भी हारा है।।

मानवता पीड़ित घातों से,

भूले प्रभु उपकार लिखूँ।

*

भावों की सूखी निर्झरणी,

कैसे पारावार लिखूँ।।

 **

शोषित दैन्य दशा दीनों की,

है निराश तरुणाई भी।

पश्चिम की इस चकाचौंध में,

रोती है अरुणाई भी।।

व्याकुल है ये कवि मन मेरा,

क्या विरही शृंगार लिखूँ।

 *

भावों की सूखी निर्झरणी,

कैसे पारावार लिखूँ।।

 **

साये में बन्दूकों के अब

देख जिन्दगी पलती है।

खंडित प्रीति विकल मन विचलित

अँगड़ाई भी खलती है।

पथराई आँखे जन जन की ,

जलते हैं अंगार लिखूँ।

 *

भावों की सूखी निर्झरणी,

कैसे पारावार लिखूँ।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #261 ☆ भावना के दोहे – नववर्ष ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – नववर्ष )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 261 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – नववर्ष ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

कहते हैं हम अलविदा, जाने वाला साल।

मीठी यादें हैं बहुत, रखना इसे सम्भाल।।

*

अंतर कुछ भी है नहीं, मन में यही सवाल।

दिवस-रात चलते रहें, तभी बदलता साल।।

*

चन्दा-सूरज हैं वही, नहीं बदलती चाल।

दिवस-महीने बोलते, सज्जित होता साल।।

*

 कैलेंडर बदलाव से, कहाँ बदलते हाल।

बदलो अपनी सोच को, रहता यही सवाल।।

*

खुशियों की है पोटली, लेकर आया वर्ष।

बाँट रहा मुस्कान यों, दिल में छाया हर्ष।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #243 ☆ अब शहर में अखबार बहुत हैं… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी रचना  अब शहर में अखबार बहुत हैं आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 243 ☆

☆ कविता – अब शहर में अखबार बहुत हैं… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

खबरों   के   कारोबार   बहुत  हैं

अब  शहर में  अखबार  बहुत  हैं

होता है पढ़ कर मन भी विचलित

हिंसा , लूट,  बलात्कार   बहुत  हैं

*

खबरी   चैनलों   की   भरमार   है

खबरें   कैद    होती   बेशुमार   हैं

पर दिखती वह हैं जिन पर उनको

मिलता जिनसे माफिक इश्तहार है

*

रद्दी    चौकी    का   चौराहा

जो भी निकला वही  कराहा

बाएं मोड़ भी  गायब दिखते

चलते तब जिसने जब चाहा

*

लाल    बत्ती   ताकती   रहती

नियम यह कितनों ने निभाया

कुछ  केमरे  देख  कर  चलते

जिसने चालान  घर  पहुंचाया

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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