हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #181 ☆ “दर्द-ए-गम बेहिसाब लिखता हूँ…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण ग़ज़ल “दर्द-ए-गम बेहिसाब लिखता हूँ…. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 180 ☆

☆ “दर्द-ए-गम बेहिसाब लिखता हूँ…”  ☆ श्री संतोष नेमा ☆

जख्म लिखता हूँ ख्वाब लिखता हूँ

दर्द-ए-गम बेहिसाब लिखता हूँ

यक़ीं करता हूं जब भी किसी पर

खुद को अश्क़ बार ज़नाब लिखता हूँ

रहमतें जरूर हैं खुदा की मुझ पर

मुहब्बत की जब किताब लिखता हूँ

आइना देखता हूँ जब भी मैं

खुद को अक्सर खराब लिखता हूँ

मंज़िल से न भटक जाऊं मैं कभी

इसलिए अब मैं रुबाब लिखता हूँ

नफ़रत लिखना मिरी फितरत नहीं

खार को भी मैं गुलाब लिखता हूँ

“संतोष” अब किसी से डरना क्या

खुद को अब मैं शिहाब लिखता हूँ

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “हम कथा सुनाते राम भक्त हनुमान की…” ☆ सौ.विद्या पराडकर ☆

सौ.विद्या पराडकर

☆ “हम कथा सुनाते राम भक्त हनुमान की…”  ☆ सौ.विद्या पराडकर ☆

हम कथा सुनाते

राम भक्त हनुमान की

रामायण के अद्भुत नायक की

रामदूत हनुमान की 🍀

 

कानो मे सुंदर कुंडल

माथे पर तिलक लगाया

आये घूमकर सूर्य मंडल

त्रिभुवन का प्यार जताया 🍀

 

श्रीराम पर जब जब संकट आया 

संकट से निकलवाया  

किष्किंधा के सुग्रीव से ऐसे मिलवाया

सीता शोध मे कार्य करवाया 🍀

 

राम रावण युद्ध मे

लक्ष्मण को बाण लगा था

चारो और हाहाकार मचा था

तब तुमनेसंजीवनी बूटी लाया था 🍀

 

सीता शोध मे अग्रसर रहे तुम

जानकी माता को मिलकर खुश हुए तुम

अपने विराट अवतार से

लंका दहन किए तुम 🍀

 

पाताल युद्ध मे श्रीराम को

विजय प्राप्त कराए तुम   

मकरध्वज से पराजित होकर

पुत्र विजय पर हर्षित हुए तुम 🍀

 

हे संकटनाशक  हनुमान

अंजनी सुता जय भगवन

हे पवनसुत हनुमान

प्राणप्रिय हो तुम सबका जीवन 🍀

© सौ.विद्या पराडकर ‌

बी 6- 407, राहुल निसर्ग सोसाइटी, नियर  विनायक हॉस्पिटल, वारजे, पुणे मो 9225337330

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 172 ☆ बाल कविता – आम बने हरिआरे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 172 ☆

☆ बाल कविता – आम बने हरिआरे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

गुड़िया जी को आम हैं प्यारे।

    खा – खा लेतीं हैं चटकारे।

खातीं जल्दी – जल्दी इतना

    आम बन गए खुद हुरियारे ।।

 

आम मिले जब खाने को

   गुड़िया जी चहकीं मुस्काईं।

धोया – थोड़ा चेंप निकाला

     चुसम – चूसा लगी दुहाई।।

 

खूब दबाया ऐसा चूसा

    रँग गए कपड़े उनके सारे।

देख सभी मुस्काएँ भइया

    माँ की ममता उसे दुलारे।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #11 ☆ कविता – “हिम्मत…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 11 ☆

☆ कविता ☆ “हिम्मत…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

आज ऐसी उदास बैठी क्यों हो?

बहारों के मौसम में धाल पत्ते क्यों रहीं हों

ए मेरी जां क्या आज हारी हिम्मत हो

या गिरे हुए पत्तों से हिम्मत जुटा रहीं हो ।

 

मै भी हारता हूँ  हिम्मत कभी कभी

फिर सोचता हूँ क्या है कीमत उसकी

मगर अफसोस वह खरीद नहीं सकते

गिरे हुए पत्ते फिर चिपका नहीं सकते ।

 

फिर मैं समझा हिम्मत कभी आती नहीं हैं

ना ही कभी वो जुटाई जाती है

जब जब जीने की ख़्वाहिश पेड़ की बढ़ती है

हिम्मत उसकी पत्तों की तरह फिर से उगती है ।

 

बुझते हुए अंगारों से जैसे उठती अग्नि है

हिम्मत उसी तरह बुझते हुए दिल से उभरती है

उस आग को कभी बुझने नहीं देना

इच्छा की आहुति अंगारों में न देना ।

 

जब जब तुम्हारी पतझड़ होगी

तब मेरी ये कविता पढ़ लेना

मेरा प्यार मैंने उसमे फूंक दिया है

जिससे प्रज्वलित बुझते अग्नि को कर देना ।

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #195 – कविता – मैं भारत हूँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  मैं भारत हूँ… )

☆ तन्मय साहित्य  #195 ☆

मैं भारत हूँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

 देश भारत है, मेरा नाम

 यहाँ तीरथ हैं चारों धाम

 काशी की सुबह

 अवध की शाम

 विराजे राम और घनश्याम,

 सभी का करता, स्वागत हूँ

 देवों की यह पुण्य भूमि

 मैं पावन भारत हूँ।

 

छह ऋतुओं का धारक मैं,सब नियत समय पर आए

सर्दी, गर्मी, वर्षा, निष्ठा से निज कर्म निभाए

मौसम के अनुकूल, पर्व त्यौहार जुड़े सद्भावी

उर्वर भूमि यह, खनिज धन-धान्य सभी उपजाए।

संस्कृति है मौलिक आधार

करे सब इक दूजे से प्यार

बहे खुशियों की यहाँ बयार,

सुखद जीवन विस्तारक हूँ

देवों की यह पुण्य भूमि मैं पावन भारत हूँ।

 

समता ममता करुणा कृपा, दया पहचान हमारी

अनैकता में बसी एकता, यह विशेषता भारी

विध्वंशक दुष्प्रवृत्तियों ने, जब भी पैर पसारे 

है स्वर्णिम इतिहास, सदा ही वे हमसे है हारी।

राह में जब आए व्यवधान

सुझाए पथ गीता का ज्ञान

निर्जीवों में भी फूँके  प्राण

वंचितों का उद्धारक हूँ

देवों की यह पुण्य भूमि मैं पावन भारत हूँ।

 

कल-कल करती नदियाँ,यहाँ बहे मधुमय सुरलय में

पर्वत खड़े अडिग साधक से, जंगल-वन अनुनय में

सीमा पर जवान, खेतों में श्रमिक, किसान जुटे हैं

अजय-अभय,अर्वाचीन भारत निर्मल भाव हृदय में।

हो रहा है चहुँदिशी जय नाद

परस्पर प्रेम भाव अनुराग

रहे नहीं मन में कहीं विषाद

स्नेह की सुदृढ़ इमारत हूँ

देवों की यह पुण्य भूमि में पावन भारत हूँ।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 20 ☆ बन पाया न कबीर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “बन पाया न कबीर…” ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 20 ☆ बन पाया न कबीर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

 लाख जतन कर

 हार गया पर

 बन पाया न कबीर।

 

 रोज धुनकता रहा जिंदगी

 फिर भी तो उलझी

 रहा कातते रिश्ते- नाते

 गाँठ नही सुलझी

 तन की सूनी

 सी कुटिया में

 मन हो रहा अधीर।

 

 गड़ा ज्ञान की इक थूनी

 गढ़े सबद से गीत

 घर चूल्हे चक्की में पिसता

 लाँघ न पाया भीत

 अपने को ही

 रहा खोजता

 बनकर मूढ़ फकीर।

 

 झीनी चादर बुनी साखियाँ

 जान न पाया मोल

 समझोतों पर रहा काटता

 जीवन ये अनमोल

 पढ़ता रहा

 भरम की पोथी

 पढ़ी न जग की पीर।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – अटल स्मृति – कविता -☆ गीत नया गाता था, अब गीत नहीं गाऊँगा ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

(युगपुरुष कर्मयोगी श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की ही कविताओं से प्रेरित उन्हें श्रद्धा सुमन समर्पित।)

☆ गीत नया गाता था, अब गीत नहीं गाऊँगा ☆

स्वतन्त्रता दिवस पर

पहले ध्वज फहरा देना।

फिर बेशक अगले दिन

मेरे शोक में झुका देना।

नम नेत्रों से आसमान से यह सब देखूंगा।

गीत नया गाता था अब गीत नहीं गाऊँगा।

स्वकर्म पर भरोसा था

कर्मध्वज फहराया था।

संयुक्त राष्ट्र के पटल पर

हिन्दी का मान बढ़ाया था।

प्रण था स्वनाम नहीं राष्ट्र-नाम बढ़ाऊंगा।

गीत नया गाता था अब गीत नहीं गाऊँगा।

सिद्धान्तों की लड़ाई में

कई बार गिर पड़ता था।

समझौता नहीं किया

गिर कर उठ चलता था।

प्रण था हार जाऊंगा शीश नहीं झुकाऊंगा।

गीत नया गाता था अब गीत नहीं गाऊँगा।

ग्राम, सड़क, योजनाएँ

नाम नहीं मांगती हैं।

हर दिल में बसा रहूँ

चाह यही जागती है।

श्रद्धांजलि पर राजनीति कभी नहीं चाहूँगा।

गीत नया गाता था अब गीत नहीं गाऊँगा।

काल के कपाल पे

लिखता मिटाता था।

जी भर जिया मैंने

हार नहीं माना था।

कूच से नहीं डरा, लौट कर फिर आऊँगा।

गीत नया गाता था अब गीत नहीं गाऊँगा।

© हेमन्त  बावनकर

पुणे 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ आजकल लोग गुनहगार के है साथ खड़े… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “आजकल लोग गुनहगार के है साथ खड़े“)

✍ आजकल लोग गुनहगार के है साथ खड़े ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

याद पतझड़ में बहारों के जमाने आये

हिज़्र में ख्वाब मुझे तेरे सुहाने आये

 

नाम के जनता के सेवक है सिर्फ कहने  को

नौकरी में जो लगे धौंस दिखाने आये

 

अब सियासत भी बनी पेट को भरने जरिया

देश हित भूल सभी माल कमाने आये

 

झूठ के नाम पे हकलाती कभी तेरी ज़ुबाँ

किसकी संगत में तुझे इतने बहाने आये

 

आजकल लोग गुनहगार के है साथ खड़े

लोग वो और जो थे पहले बचाने आये

 

धर्म मेरा वो बताएं मैं उसका वंदा हूँ

मेरे घर लोग जो भी आग लगाने आये

 

ऐ अरुण उससे ग़ज़ल की ही ज़ुबानी कह दो

हाल रह जाएगा वरना जो सुनाने आये

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 16 – दे रहे शत्रु को दावत… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – दे रहे शत्रु को दावत।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 16 – दे रहे शत्रु को दावत… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

सीमा पर दिन-रात डटे

सैनिक कर रहे हिफाजत

उनसे बढ़कर नहीं हमारी

सेवा, भक्ति, इबादत

 

वे उपेक्षा के शिकार

हो रहे आज बलिदानी

जिनने हँसकर मातृ-भूमि पर

दी अपनी कुर्बानी

ऐसे खेल न खेलो

जिनसे होने लगे बगावत

 

विपदा में जो आर्तनाद

करते थे पड़े चरण में

अभयदान देकर तब

हमने रक्खा उन्हें शरण में

वे कृतघ्न अपने विरुद्ध

दे रहे शत्रु को दावत

 

इतना ओछापन चरित्र का

हुए स्वार्थ में अंधे

तस्कर जमाखोर करते हैं

सारे कुत्सित धंधे

जीवन रक्षक औषधियों में

करने लगे मिलावट

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 93 – सजल  – अपनी सुसंस्कृति को हमने… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “सजल  – अपनी सुसंस्कृति को हमने…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 93 – सजल  – अपनी सुसंस्कृति को हमने… ☆

अपनी सुसंस्कृति को हमने,

अपने हाथों तापा।

बुरे काम का बुरा नतीजा,

ईश्वर ने घर-नापा।।

 

ऊँचाई पर चढ़े शिखर में,

जिनको हमने देखा,

भटके राही उन बेटों के

हुए अकेले पापा।

 

बनी हवेली रही काँपती,

काम न कोई आया।

विकट घड़ी जब खड़ा सामने,

यम ने मारा लापा।

 

जोड़-तोड़ कर जिएँ सभी जन

यही जगत ने भाँपा।।

जीवन जीना सरल है भैया,

सबसे कठिन बुढ़ापा।

 

तन पर छाईं झुर्री देखो,

सिर में आई सफेदी ।

तन-मन हाँफ रहा है कबसे,

दिल ने खोया आपा।

 

जिन पर था विश्वास उन्हीं ने,

घात लगा धकियाया।

देख प्रगति की सीढ़ी चढ़ते,

अखबारों ने छापा।

 

समय बदलते देर लगे ना

देख रहे हैं कबसे

सच्चाई पर अगर चले तो

बँधे सिरों पर सापा।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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