हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 83 ☆ लिखे हुए नारे देखे… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “लिखे हुए नारे देखे…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 83 ☆ लिखे हुए नारे देखे… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

हमने तो दीवारों पर

लिखे हुए नारे देखे

लिपटे हुए लँगोटी में

तन भूखे बेचारे देखे ।

 

सूरज उगता

मंदिर की

सीढ़ी पर गिरती धूप नई

दिन तपता

दिखलाता

झुलसाते मन के रूप कई

 

झोपड़ियों में

आज तलक

बस धुँधलाते तारे देखे ।

 

लाचारी में

उफनाते

महंगाई के ज़हरीले नाग

रेंग रहे

उन्माद भरे

उत्पीड़न त्रासद खेलें फाग

 

तिरस्कार के

फूत्कार से

डँसते अँधियारे देखे ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 87 ☆ काम दौलत न आया था रुतवा… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “काम दौलत न आया था रुतवा“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 87 ☆

✍ काम दौलत न आया था रुतवा… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

आपकी मुझको रहनुमाई थी

ज़िन्दगी में बहार आई थी

 *

मोड़ तुमने लिया था रुख अपना

आशिक़ी खूब क्या निभाई थी

 *

झूठ ने सच का दम था घौट दिया

आपने की न लबकुशाई थी

 *

जो भी थी खानदान की इज़्ज़त

नस्ले नौ ने सभी मिटाई थी

 *

थामते लोग पहले गिरते को

आज ठोकर मगर लगाई थी

 *

काम दौलत न आया था रुतवा

मौत जब मुझको लेने आई थी

 *

मैंने चाही थी जो मिली मन्ज़िल

राह वो माँ मुझे दिखाई थी

 *

गोपियाँ तोड़ के चली बन्धन

कृष्ण ने वंशी जब बजाई थी

 *

आप दिल में जगह नहीं देते

बात करने में क्या बुराई थी

 *

खाया बिल्डर न राज्य है सुनता

उम्र भर की रही कमाई थी

 *

है अरुण मुद्दतों से अफ़सुर्दा

प्यार ने नज़्र की जुदाई थी

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 2 ☆ कविता – युवा दोहे… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपके  – “युवा दोहे“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 2 ☆

✍ युवा दोहे… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह 

पुत्र कहे पितृ से, तुम राखौ अपनों देश,

 टैक्स टक्का तीस, बदले  मिले क्लेश।

*

रात दिन एक करि, पाई शिक्षा व व्यापार,

जैसे जैसे आय बढे,  टैक्स बढे आकार।

*

अरु टैक्स के बदले, मोहिं मिले कछु नांय,

गड्ढे पड़े सड़क में, टायर घिस घिस जांय।

*

मेरी टैक्स रकम ते, सड़क बने चहुँ ओर,

और मोहिऐ देनौ पड़े टोलटैक्स घनघोर।

*

जादा कमानौ या देश में बन गयौ अपराध,

बिन किए कुछ लोग चुपड़ी खात अघाय।

*

और अपनी कमाई पै जो टैक्स देनौ चूकौ ,

अपयश मिले जहां में इल्जाम लगे चोरी कौ।

*

और, टैक्स कैसे बढे, नित नित होत विचार,

टैक्सपेयर की सुविधा पै करै न कोइ विचार।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : पुणे महाराष्ट्र 

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 83 – प्रेम, रिमझिम जुलाई जैसा है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – प्रेम, रिमझिम जुलाई जैसा है।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 83 – प्रेम, रिमझिम जुलाई जैसा है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

 दूध में, वह खटाई जैसा है 

दुष्ट, निर्मम कसाई जैसा है

 *

राम मुँह में, बगल में चाकू है 

हिन्द के चीन भाई जैसा है

 *

क्रोध उद्दंड जून के जैसा 

प्रेम, रिमझिम जुलाई जैसा है

 *

कोई शिकवा-गिला करूँ कैसे 

उसका चेहरा, सफाई जैसा है

 *

लगता नमकीन, रूठ जाने पर 

हँसना, बस रसमलाई जैसा है

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संपदा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – संपदा ? ?

उनके लिए

धन ही संपदा थी,

उसके लिए

सम्बंध ही संपदा थे,

वे सम्बंधों से भी

धन कमाते रहे,

उसे जिनसे कमाना था

उनसे भी रिश्ते बनाते रहा,

समय का लेखा-जोखा

प्रमाणित करता है-

सम्बंध कमाने वाले

आत्मीयता से

आजीवन सिंचित रहे,

केवल अकूत सम्पत्ति भर

जुटा सकने वाले पर

सच्ची संपदा से सदा वंचित रहे..!

?

© संजय भारद्वाज  

रात्रि 11:02 बजे, 11 मई 2019

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना आपको शीघ्र दी जावेगी। 💥 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 156 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपके  “मनोज के दोहे”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 156 – मनोज के दोहे

चिंतन करना है हमें, सभी काम हों नेक।

कर्म करें जो भी सदा, जाग्रत रखें विवेक।।

 *

शुभ कार्यों में शीघ्रता,करें न देर-सबेर।

यही बात सबने कही,जीवन का वह शेर।।

 *

समय फिसलता रेत सा,पकड़ न पाते हाथ।

गिनती की साँसें मिलीं, नेक-नियत हो साथ।।

 *

चरण वंदना राम की, हनुमत जैसे वीर।

दोनों की अनुपम कृपा, करें धीर गंभीर।।

 *

चाह अगर दिल में रहे, मिल ही जाती राह

आशा कभी न छोड़ना, निश्चय होगी वाह।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 320 ☆ कविता – “सरप्लस…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 320 ☆

?  कविता – सरप्लस…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

बड़ी सी चमचमाती शोफर वाली

कार तो है

पर बैठने वाला शख्स एक ही है

हाल नुमा ड्राइंग रूम भी है

पर आने वाले नदारद हैं

लॉन है, झूला है, फूल भी खिलते हैं, पर नहीं है फुरसत, खुली हवा में गहरी सांस लेनें की

छत है बड़ी सी, पर सीढ़ियां चढ़ने की ताकत नहीं बची।

बालकनी भी है

किन्तु समय ही नहीं है

वहां धूप तापने की

टी वी खरीद रखा है

सबसे बड़ा,

पर क्रेज ही नहीं बचा देखने का

तरह तरह के कपड़ों से भरी हैं अलमारियां

गहने हैं खूब से, पर बंद हैं लॉकर में

सुबह नाश्ते में प्लेट तो सजती है

कई, लेकिन चंद टुकड़े पपीते के और दलिया ही लेते हैं वे तथा

रात खाने में खिचड़ी,

रंग बिरंगी दवाओं के संग

एक मोबाइल लिए

पहने लोवर और श्रृग

किंग साइज बेड का

कोना भर रह गई है

जिंदगी ।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 552 ⇒ कविता – झुक गया आसमान ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता – “झुक गया आसमान ।)

?अभी अभी # 552 ⇒ झुक गया आसमान ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आसमान, तू क्यूं भरा बैठा है !

सूरज का रास्ता रोके

किस आंदोलन का है

प्रोग्राम ?

तेरे इरादे नेक नहीं लगते !

क्या तू जानता नहीं,

सूरज की रोशनी को रोकना

अपराध है !

बादलों से सूरज का घेराव

अलोकतांत्रिक है ।

गरीब का चूल्हा,

किसान की फसल,

धरती के सब प्राणी सुबह

सुबह ठंड में सूरज की

रोशनी में नहाकर दिन

का आरंभ करते हैं ।।

तूने बादलों को भेजा

सूरज के काम में

दखलंदाजी की !

कभी बारिश तो कभी

ओलावृष्टि की ।

कभी ओला,कभी कोहरा

तो कभी बारिश !

अरे ! यह कैसी साजिश ?

आसमान ! तुम खुदा तो नहीं

अपने पांव जमीन पर रखो

थोड़ी समझदारी रखो ।

सूरज से यह छेड़छाड़

बहुत महंगी पड़ेगी ।

अभी आएगा कोई दुष्यंत !

तबीयत से करेगा एक सूराख

और तुम्हारा गुरूर

हो जाएगा ख़ाक ।।

ये धरती सूरज के बिना

रह नहीं सकती ।

सूरज की किरणें कर रहीं

जबर्दस्त कोशिश !

अराजक कोहरे को

हटाने की ।

अब तुम्हारी खैर नहीं

एक बार कोहरा हटा नहीं

साफ हो जाएंगे तुम्हारे

मुगालते ऐ आसमान !

फिर धुंध छंटेगी

सूरज चमकेगा,

किरण मुस्काएगी

आसमान तू झुकेगा

और करेगा

उगते सूरज का

इस्तकबाल ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #266 ☆ वय झाडाचे लावणी… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 265 ?

☆ वय झाडाचे लावणी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

वय झाडाचं झालं सोळा

पक्षी भवती झालेत गोळा

डोम कावळाही बघतोय काळा

हिरवंगार झाड आलंय भरून

आणि इथं, मालक मरतोय झुरून

*

कुणीही मारतंय खडा झाडाला

मजबुती आली या खोडाला

कैऱ्याही आल्या व्हत्या पाडाला

झाकू कसं, झाड हे सांगा वरून

*

पानाखालती पिवळा आंबा

केसरी होऊद्या थोडं थांबा

पहात होता दुरून सांबा

मोहळ हे, छानक्षच दिसतंय दुरून

*

काल अचानक वादळ आलं

झाड भयाणं वाकून गेलं

आणि लुटारू मालामाल झालं

किती, किती, ध्यान ठेवावं घरून

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ उ स्ता द ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक  

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

🙏🌹 उ स्ता द ! 🌹🙏 श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

बोलविता धनी तबल्याचा 

आज मैफिलितूनी उठला 

ऐकून ही दुःखद बातमी 

रसिकांचा ठोका चुकला

*

केस कुरळे शिरावरती 

बोलके डोळे जोडीला 

सुहास्य गोड मुखावरचे 

दिसत होते शोभून त्याला

*

मृदू मुलायम बोलण्याची 

होती त्याची गोड शैली 

जाता जाता करून विनोद 

हळूच मारी कोणा टपली 

*

आज झाला तबला मुका 

तो होता अल्लाला प्यारा 

करती कुर्निंसात दरबारी   

येता उस्ताद त्यांच्या दारा 

© प्रमोद वामन वर्तक

संपर्क – दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.) 400610 

मो – 9892561086 ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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