हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #187 ☆ पितृ दिवस पर विशेष – पिता धरा आकाश हैं… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “पितृ दिवस पर विशेष – पिता धरा आकाश हैं।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 187 – साहित्य निकुंज ☆

☆ पितृ दिवस पर विशेष – पिता धरा आकाश हैं ☆

पापा मेरे साथ हैं, हूँ मैं बड़ी महान।

साहित्यिक आकाश में, मिली उन्हें पहचान।।

 

पापा मेरी प्रेरणा, पापा मेरी शान।

पापा से हम सीखते, जीवन का हर ज्ञान।।

 

पिता धरा आकाश हैं, पिता हमारी छाँव।

मुश्किल क्षण में पिता ने, पार लगाई नाव।।

 

पिता से जीवन मिलता, पिता खुशी का साज।

आए दौड़े  वो अभी, बच्चों की आवाज।।

 

सुमित्र हैं मेरे पिता, साहित्यिक वरदान।

लिखा आपने बहुत कुछ, किया बड़ा अवदान।।

 

दिए हमें ही आपने, बड़े ही संस्कार।

होली दिवाली साथ ही, मना रहे त्योहार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #173 ☆ “संतोष के दोहे…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “संतोष के दोहे”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 173 ☆

 ☆ “संतोष के दोहे…☆ श्री संतोष नेमा ☆

संकट में जिसने दिया, सदा हमारा साथ

करें प्रकट आभार हम, जिनका सिर पर हाथ

रहा निर्धनों का कभी, अन्न बाजरा ज्वार

किन्तु आज उनमे दिखें, न्यूट्रीशन- भरमार

बचपन से ही बन गये, बच्चे जब सुकुमार

संघर्षों से डरें तभी, हो जाते लाचार

दिल की पुलकन तब बढ़े, जब हो खुशी अपार

सुखद लगे आबोहवा, सुरभित चले बयार

चितवन मेरे श्याम की, मन हर लेती रोज

कहतीं राधा प्रेम से, आज करें हम खोज

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – निरपेक्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – निरपेक्ष ??

इसका सत्य

उसका सत्य,

मेरा सत्य

तेरा सत्य,

क्या सत्य सापेक्ष होता है?

अपनी सुविधा

अपनी परिभाषा,

अपनी समझ

अपना प्रमाण,

दृष्टि सापेक्ष होती है,

साधो! सत्य निरपेक्ष होता है!

© संजय भारद्वाज 

रात्रि 12:27बजे, 16.6.19

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #3 ☆ कविता – “कायनात…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #3 ☆

 ☆ कविता ☆ “कायनात…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

ये ज़ुल्फें ये बेलें

ये पत्ते ये कलियाँ

ये फल ये कायनात

है अदा की ये खैरात

 

ये हंसी ये लब  

ये पौधे ये पेड़

ये आंखे ये गुफ़ा

ये मिट्टी ये आसमां

 

है ये बस तुम्हारी कला

निरर्थक हैं ये उसके बिना

जैसे छांव है बिना मक़सद

सुलगते उस सूरज बिन

 

अगर वो रुक जाएं

तो क्या तुम हो

उस हवा बिन

फूलों की इक लाश हो

 

वो तुम्हारी जां है

तुम उसकी मौत ना बन जाओ

बजाये मल्हार वो बैराग जो गा जाये

और कहीं तुम बस मिट्टी बनके रह जाओ

 

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस – “दोहे – योग भगाये रोग…” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

 

☆ अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस – “दोहे – योग भगाये रोग☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

योग भगाता रोग है, रोज़ करे इंसान। 

यह कारज सबसे भला, है सबसे आसान।। (1)

योग करे काया प्रबल, ख़ूब बने वरदान। 

यह तो है वो चेतना, जो मारे अवसान।। (2)

योग दिव्य नित, तेज है, जिसमें है पैग़ाम। 

योग युगों से चल रहा, है खुशियों का धाम।। (3)

बढ़ती जातीं व्याधियाँ, नित बढ़ती है पीर। 

पर अपनाते योग जो,  वे बन जाते वीर।। (4)

सुबह करो सब योग को, तभी बनेगी बात। 

काया ताक़त से भरे, मन पाये सौगात।। (5)

योग एक औषधि बड़ी, जीवन देय सँवार। 

जो बंदे इसको करें, पायें वे उजियार।। (6)

योग हमारी खोज है, भारत सदा महान।

दुनिया ने माना इसे, यह भारत का मान।।(7)

योग आज की माँग है, बढ़ते हैं नित रोग। 

जहाँ योग है, नित वहाँ,  खुशियों का संयोग।। (8)

मधुर गीत बन योग तो, गूँजे देश-विदेश। 

मारे नित्य तनाव को,  मारे सब ही क्लेश।। (9)

मान योग को साधना, साधें सारे लोग। 

हर्ष मिले, मन-ताज़गी, संभव हर सुख भोग।। (10)

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 165 ☆ बाल कविता – पंख लगाओ पेड़ सखा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 165 ☆

☆ बाल कविता – पंख लगाओ पेड़ सखा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

पेड़ सखा तुम उड़ते वैसे

       जैसे बादल हैं उड़ते ।

डाल तुम्हारी बैठ-बैठ कर

      सैर मजे से हम करते।।

 

बादल राजा सैर कर रहे

         धरती और गगन में नित।

कहीं बरसते, कहीं सरसते

             सबका करते बादल हित।।

 

खुशबू फैलाते दुनिया में

        सुन्दर – सुंदर फूलों की।

सब बच्चों को फल खिलवाते

       पैंग बढ़ाते झूलों की।।

 

बातें करते हर पंछी से

        मिल-जुलकर ही हम सारे।

भोर सदा ही हम जग जाते

             गीत सुनाते नित न्यारे।।

 

खेल-कूद ,योगासन करना

        सबको रोज पढ़ाते हम।

हिंदी, इंग्लिश सब कुछ पढ़कर

        नया ज्ञान बढ़वाते हम ।।

 

कभी न लड़ते आपस में हम

         सदा प्रेम से ही रहते।

हर मुश्किल का समाधान कर

         नदियों जैसा ही बहते।।

 

सुख जैसे तुम सबको देते

       नहीं किसी से लड़ते हो।

धूप, ताप तुम सब सह जाते

       आगे-आगे बढ़ते हो ।।

 

वैसे ही हम बढ़े चलें नित

     कभी न हिम्मत हारेंगे।

सबके ही हितकारी बनकर

      सबको ही पुचकारेंगे।।

 

पंख लगाओ पेड़ सखा तुम

      सैर करें पूरे जग की।

हँसी-खुशी से जीवन जीना

     मूल्यवान पूँजी सबकी।।

  

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #187 – कविता – विक्रय हेतु रचा नहीं है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  “विक्रय हेतु रचा नहीं है)

☆  तन्मय साहित्य  #187 ☆

☆ विक्रय हेतु रचा नहीं है☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

मैंने अपनी रचनाओं को

विक्रय हेतु रचा नहीं है

फिर भी मोल लगाओगे क्या?

जरा सुनूँ तो!

 

गहन मनन-चिंतन से उपजी

बड़े जतन से इन्हें सँवारा

सत्यनिष्ठ ये सहनशील

निष्पक्ष, निर्दलीय समरस धारा

सुख अव्यक्त दे,

जब भावों को शब्द शब्द

साकार बुनूँ तो।

फिर भी मोल लगाओगे क्या?

जरा सुनूँ तो!

 

मेले-ठेले बाजारों में

नहीं प्रदर्शन की अभिलाषा

करे उजागर समय सत्य को

शिष्ट, विशिष्ट, लोकहित भाषा,

अन्तस् का तब ताप हरे

जब काव्य पथिक बन

इन्हें चुनूँ तो।

फिर भी मोल लगाओगे क्या?

जरा सुनूँ तो!

 

करुणा, दया, स्नेह ममता

शुचिता सद्भावों से वंचित हैं

कहो! काव्य के सौदागर

कितना झोली में धन संचित है

है अमूल्य यह सृजन धरोहर

पढ़ पढ़ इनको

और गुनूँ तो।

फिर भी मोल लगाओगे क्या?

जरा सुनूँ तो!

 

तुमने दिए प्रशस्तिपत्र नारियल,

उढ़ाये शाल-दुशाले

पर मन ही मन दाता होने के

गर्वित भ्रम, मन में पाले,

ऐसे सम्मानों के पीछे छिपे इरादे

जान, अगर मैं

शीष धुनूँ तो

फिर भी मोल लगाओगे क्या?

जरा सुनूँ तो!

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 12 ☆ सूखी  बगिया… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “सूखी  बगिया।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 12 ☆ सूखी  बगिया… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

अपनेपन से ख़ाली-ख़ाली

है अपनी बगिया

रिश्तों की जाने कब सूखी

भरी हुई नदिया।

 

नदिया के हर घाट

रेत के बने मरुस्थल

नहीं आँख में पानी

सूख गये हैं काजल

 

जगह-जगह से उधड़ी सारी

सपनों की बखिया।

 

उल्टी गिनती गिनें

आज हम संबंधों की

शेष बचा जो

पीड़ा भोगे प्रतिबंधों की

 

पीस रही है बैठ उमर को

सुख-दुख की चकिया।

 

स्वार्थ-सिद्धियाँ और

आदमी बना खिलौना

संवेदन को भूल

लोभ का लगा डिठौना

 

सत्य खड़ा चुपचाप, झूठ है

पंचायत मुखिया।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ उस चश्मे मय का तोड़ कहाँ है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “उस चश्मे मय का तोड़ कहाँ है “)

✍ कविता ☆ उस चश्मे मय का तोड़ कहाँ है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

बोली थी मुझसे करिये मेरा इंतज़ार वो

पर लौट के न आई है फिर से बहार वो

उस चश्मे मय का तोड़ कहाँ है किसी के पास

तारी है उंसके हुस्न का अब भी ख़ुमार वो

ग़म का पहाड़ कैसे अकेले मैं लूँ उठा

मुझसे हुआ है दूर मेरा ग़म गुसार वो

होती ग़ज़ल न तुमसे जुदा होके क्या करें

सूखा पड़ा अहसास का है आबशार वो

दुनिया पे ऐतबार करे मुझको छोड़कर

मेरी अना को करता बहुत  शर्मसार वो

पतझड़ सा नौच लेता महाजन पकी फसल

नंगा खड़ा है खेत में लो काश्तकार वो

अपनी तरह मैं जिसपे यकीं कर सकूँ अरुण

अब तक नहीं मिला है मुझे राज़दार वो

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 71 – पानीपत… भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की पहली कड़ी।)   

☆ आलेख # 71 – पानीपत – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

एक थी मुख्य शाखा और एक थे मुख्य प्रबंधक. शाखा अभी भी है, हालांकि, अब तो अपने स्थान से दूसरी जगह स्थानांतरित हो गई है. इसे बहुत साल पहले हिंदी में पानीपत और अंग्रेजी में वाटरलू कहा जाता था. वाटरलू वह स्थान है जहाँ नेपोलियन बोनापार्ट ने शिकस्त को टेस्ट किया था याने वरमाला का नहीं पर विजयरथ पर लगाम लगाने वाली “हार”का सामना किया था. इस शाखा के बारे भी यही किवदंती थी कि यहाँ के मुख्य नायक या तो अपना कार्यकाल पूरा करते हुये सहायक महाप्रबंधक के पथ पर अग्रसर होते हैं या फिर नेतृत्व के लायक मनोबल का अभाव महसूस करते हुये स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति की ओर अग्रसर होते हैं. “भैया, हमसे ना हो पायेगा” का ही इंग्लिश रूपांतरण वीआरएस है और “यार जब आपसे संभलती नहीं तो फिर ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों’ वाला गाना गाते हुये रुखसती क्यों नहीं लेते. ये या फिर ऐसा इनके सभी शुभचिंतकों और अशुभचिंतकों का सोचना रहता है. इस शाखा का तालघाट से या किसी भी ताल, तलैया, घाट, गढ़, पुर, गाँव, नगर से कोई संबंध नहीं है. कृपया ढूंढने में समय जाया न कर इस व्यंग्य का आनंद लेने की गुजारिश की जाती है. ऐसी चुनिंदा शाखा और आगे वर्णित मुख्य प्रबंधक से हम सभी का सर्विस के दौरान वास्ता पड़ा होगा या फिर दूर से देखा और सुना भी होगा. कुछ ने मन ही मन कहा भी होगा कि “अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे”या फिर इन तीसमारखाँ के तीस टुकड़े हो जाने हैं यहाँ पर, हमने तो पहले ही समझाया था भाई कि प्रमोशन वहीं तक लेना सही है जहाँ नौकरी सुरक्षित रहे. अब ये तो न पहले समझे न बाद में. वही “हाथ पैर में दम नहीं और हम किसी से कम नहीं”अब जब वास्ता पड़ेगा तो समझ में आ जायेगा कि कभी कभी दुश्मन भी सही और हितकारी सलाह दे देता है. आखिर उसे भी तो अदावत भंजाने के लिये विरोधी के होने की जरूरत पड़ती रहती है. अब नये नये विरोधी आये दिन तो मिलते नहीं.

अब बात इन” काल्पनिक रिपीट काल्पनिक “पात्र की जो अपने कैडर की प्रमोशन पाने की निर्धारित रफ्तार से बहुत आगे चल रहे थे और इस मुगालते में थे कि हर कुरुक्षेत्र में हर अर्जुन को कोई न कोई श्रीकृष्ण मिल ही जाता है और अगर कहीं न भी मिल पाये तो सामने कौरव, भीष्म पितामह, कर्ण और द्रोणाचार्य जैसे परमवीर नही मिलते. “खुदी को कर बुलंद इतना कि खुदा बंदे से खुद पूछे कि भाई तेरी रज़ा क्या है. ऐसे आत्मविश्वास की बुलंदियों पर आसमां को छूने की कोशिश इसलिए भी कर पाने की सोच बन गई कि प्रायः नंबर दो, तीन, चार पर काम करते हुये ये धारणा पाल बैठे कि मेहनत तो हम ही करते हैं और हमारी मेहनत और ज्ञान के दम पर जब नंबर वन क्रेडिट भी लेते रहे और ऐश भी करते रहे तो अब जब हमको यही सुअवसर मिला है तो हम भी इसका फायदा क्यों न उठायें और फिर झंडे गाड़कर ये साबित कर दें कि भाई हमारा कोई कैडर नहीं पर ऊपरवाला याने ईश्वर योग्यता और बुद्धि देते समय ये सब नहीं देखता. उसका न्याय सटीक और सर्वश्रेष्ठ होता है।

तो इस बुलंद आत्मविश्वास के साथ वो पहुंच गये राजा के सिंहासन पर बैठकर हुकूमत चलाने. चूंकि जिस स्थान से पदोन्नत हुये थे वो बहुत दुर्गम और खतरनाक था इसलिए यह भी एहसास बना रहा कि टाईमबाउंड स्टे के बाद जो कि इन्होंने स्वयं ही निर्धारित कर लिया था, वापस उस स्थान पर एक कर्तव्यनिष्ठ और बलिदानी सेनापति के समान वापस चले जायेंगे जहाँ परिवार विराजमान था, भार्या भी बैंकिंग की भाषा में अभ्यस्त थी. ये डबल इंजन की सरकार थी जो परिवार रूपी गाड़ी चला रही थी तो स्वाभाविक था कि हर सुविधा, होमडेकोरेशन की हर लक्जरी याने हर बेशकीमती वस्तु सबसे पहले इनके दरवाजे पर ही दस्तक देती थी. डबल इंजन की सरकार पद और लक्जरी के समानुपात को नहीं मानती इसलिए इनकी सौम्यता, विनम्रता और सज्जनता के बावजूद इनके उच्चाधिकारियों के रश्क का टॉरगेट, यही हुआ करते. जब वहाँ से ये पदोन्नति पाकर स्थानांतरित हुये तो परिवार स्थानांतरित नहीं हुआ पर फिर भी गृहणियों की तुलनाबाजी से परेशान पड़ोसियों ने राहत की सांस ली कि अब तो कम से कम एक इंजन का परिचालन खर्च भी बढ़ेगा.

पानीपत का युद्ध भी चलता रहेगा, तालघाट की तरह.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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