हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #26 – गीत – चलते रहिए… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीत चलते रहिए

? रचना संसार # 26 – गीत – चलते रहिए…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

पाना तुमको लक्ष्य अगर तो,

निशिवासर  चलते रहिए।

 दूर बहुत मंजिल  है तो क्या ,

 आगे ही बढ़ते रहिए।।

 **

उदित जगत में नव रवि होगा,

काली रजनी बीतेगी ।

प्रेम दीप फिर नए जलेंगें,

तम की गागर रीतेगी।।

जग कल्याण करो अब मानव,

घातों से बचते रहिए।

 *

पाना तुमको लक्ष्य अगर तो,

निशिवासर चलते रहिए।।

 **

चिंतन मनन करो निशदिन ही,

निज मंजिल की आस रखो।

व्यंग वाण से मत घबराओ ,

खुद  पर तुम विश्वास रखो।।

बिन संघर्ष नहीं कुछ हासिल

नवल सृजन रचते रहिए,

 *

पाना तुमको लक्ष्य अगर तो,

निशिवासर चलते रहिए।।

 **

करो भीष्म सी आज प्रतिज्ञा,

अर्जुन लक्ष्य करो धारण।

जीत मिलेगी निश्चित तुमको,

सत्य सुभग मन के कारण।।

शौर्य वीरता दिखलाकर के,

धर्म युद्ध लड़ते रहिए।

 *

पाना तुमको लक्ष्य अगर तो,

निशिवासर चलते रहिए।।

 **

तोड  चक्रव्यूहों को तुम अब,

विजय पताका लहराओ।

ऊँचा होगा नाम जगत में

तारे नभ से  ले आओ।।

संदल जैसे सुरभित हो कर,

सबके हिय म़े बसते रहिए।

 *

पाना तुमको लक्ष्य अगर तो,

निशिवासर चलते रहिए।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #254 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 254 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

(शब्दाधारित सृजन )

जीवंत

सोच रहे है आज हम, होगा दुख का अंत।

आशाओं के दीप को, रखना तुम जीवंत।।

सरोजिनी

सरोजिनी मन में खिले, हुआ प्यार गुंजार।

देख तुम्हें लगने लगा, खिलते फूल हज़ार।।

पहचान

खिली-खिली है आज तू, प्यारी है मुस्कान।

आज तुम्हें तो मिल रही, अपनी ही पहचान।।

अथाह

संग मुझे तेरा मिले, अपनी ऐसी चाह।

मिलने को तुम आ रहे, मिलती ख़ुशी अथाह।।

अपनत्व

दिखता नहीं अपनत्व तो, जीना है बेकार।

मुझको अपना जान लो, कर लो मुझसे प्यार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #235 ☆ संतोष के दोहे – तर्पण ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – संतोष के दोहे आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 235 ☆

☆ संतोष के दोहे – तर्पण  ☆ श्री संतोष नेमा ☆

जीते  जी  भी  चाहत  रखना

उनके  दिल  में  राहत रखना

*

तभी  मिलेगा  पुण्य  आपको

माँ बाप  से न अदावत रखना

*

कष्ट  दिया  गर  तुमने उनको

संघर्षों   की   ताकत   रखना

*

स्वर्ग  समान चरण  हैं  उनके

श्रद्धा   और   इबादत  रखना

*

तर्पण  होगा  सार्थक तब  ही

कभी न कोई शिकायत रखना

*

मिलेगा  “संतोष”  तुम्हे   जब

नेकी  और   शराफत   रखना

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गीत – करवा चौथ ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ गीत – करवा चौथ ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

करवा चौथ सुहाना व्रत है, जिसमें जीवन-नूर।

नग़मे गाता है सुहाग के, माथे का सिंदूर।

*

करवा चौथ पे भाव समर्पित, व्रत सुहाग की खातिर।

अंतर्मन में पावनता है, पातिव्रत जगजाहिर।।

चंदा देखे से व्रत पूरा, पति-कर जल-दस्तूर।

नग़मे गाता है सुहाग के, माथे का सिंदूर।।

*

जोड़ा लाल सुहाता कितना, बेंदी, टिकुली ख़ूब।

शोभा बढ़ जाती नारी की, हर इक कहता ख़ूब।।

गौरव-गरिमा है माथेकी, आकर्षण भरपूर।

नग़मे गाता है सुहाग के, माथे का सिंदूर।।

*

अभिसारों का जो है सूचक, तन-मन का है अर्पण।

लाल रंग माथे का लगता, अंतर्मन का दर्पण।।

सात जन्म का बंधन जिसमें, लगे सुहागन हूर।

नग़मे गाता है सुहाग के, माथे का सिंदूर।।

*

दो देहें जब एक रंग हों, मुस्काता है संगम।

मिलन आत्मा का होने से, बजती जीवन-सरगम।।

जज़्बातों की बगिया महके, कर देहर ग़म दूर।

नग़मे गाता है सुहाग के, माथे का सिंदूर।।

*

देव और सब सिद्ध शक्तियाँ, फलित करें जीवन को।

आशीषों का हाथ माथ पर, सावित्री से मन को।।

प्रीत-प्यार परवान चढ़े, मन रहेप्रेम में चूर।

नग़मे गाता है सुहाग के, माथे का सिंदूर।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – बीज ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – बीज ? ?

जलती सूखी ज़मीन,

ठूँठ से खड़े पेड़,

अंतिम संस्कार की

प्रतीक्षा करती पीली घास,

लू के गरम शरारे,

दरकती माटी की दरारें,

इन दरारों के बीच पड़ा

वो बीज…

मैं निराश नहीं हूँ,

ये बीज मेरी आशा का केंद्र है,

ये, जो अपने भीतर समाए है

विशाल संभावनाएँ-

वृक्ष होने की,

छाया देने की,

बरसात देने की,

फल देने की,

और हाँ,

फिर एक नया बीज देने की,

मैं निराश नहीं हूँ,

ये बीज मेरी आशा का केंद्र है…!

(लगभग 25 वर्ष पुरानी रचना। कवितासंग्रह ‘योंही’)

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 दीपावली निमित्त श्री लक्ष्मी-नारायण साधना,आश्विन पूर्णिमा (गुरुवार 17 अक्टूबर) को आरम्भ होकर धन त्रयोदशी (मंगलवार 29 अक्टूबर) तक चलेगी 💥

🕉️ इस साधना का मंत्र होगा- ॐ लक्ष्मी नारायण नम: 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 224 ☆ बाल कविता – मकड़ी रानी चली सैर को… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 224 ☆ 

बाल कविता – मकड़ी रानी चली सैर को ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

मकड़ी रानी चली सैर को,

दीवारों के ऊपर।

जिस कोने में मिली गंदगी

बुने जाल से है घर।

भूख लगी थी उसे जोर की

ढूँढे मक्खी , मच्छर।

हुई सुबह से शाम उसे पर,

नहीं मिला है अवसर।

 *

सोच रही वह लेटी- लेटी,

कैसे भूख मिटाऊँ।

पेट किलोलें करता मेरा

प्रभु से आस लगाऊँ।

 *

शिकार को निकली चुपके से

दिखीं चींटियाँ उसको।

पकड़ीं उसने कई चींटियाँ

लिए चली वह घर को।

 *

भूख मिटाई, तृप्त हुई वह

श्रम से मिलता खाना।

समझ गई जीने का ढंग वह

जीवन कटे सुहाना।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #251 – कविता – बाहर वे गा रहे, ज्ञानेश्वरी अभंग… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  बाहर वे गा रहे, ज्ञानेश्वरी अभंग…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #251 ☆

☆ बाहर वे गा रहे, ज्ञानेश्वरी अभंग… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

जीवन को जीने के

सुख-दुख को पीने के

सब के होते अपने अलग-अलग ढंग

जिये कोई बाहर, तो कोई अंतरंग।

नंगे भूखे रहकर भी कोई गा लेते

खुशियों को पा लेते

ऐशो-आराम जिन्हें

नहीं कोई काम जिन्हें

फिर भी बेचैन रहे

क्षण भर न चैन रहे

धेला-आना, पाई

रेत में खोजे रांई

जीवन पर्यंत लड़े, जीवन की जंग

जिए कोई बाहर, तो कोई अंतरंग।

ए.सी.कारों में बीमारों से, कर रहे भ्रमण

चालक इनके सरवण

बंद कांच सारे हैं

शंकित बेचारे हैं

ठाठ-बाट भारी है

फिर भी लाचारी है

है फरेब की फसलें

बिगड़ रही है नस्लें

बाहर वे गा रहे, ज्ञानेश्वरी अभंग

जिए कोई बाहर तो कोई अंतरंग।

भुनसारे उठकर जो, देर रात सोते हैं

सपनों को ढोते हैं

खुशमिजाज वे भी हैं

खाने को जो भी है

खा लेते चाव से

सहज हैं स्वभाव से

ज्यादा का लोभ नहीं

खोने का क्षोभ नहीं

चेहरों पर मस्ती का दिखे अलग रंग

जिये कोई बाहर तो कोई अंतरंग।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 75 ☆ राम ने है देह त्यागी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “राम ने है देह त्यागी…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 75 ☆ राम ने है देह त्यागी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

फिर नदी के शांत जल में

राम ने है देह त्यागी ।

 

अब नहीं होता कोई

ऋषि आहत क्रोंच्च बध से

नहीं लिखता चरित मानस

अब कोई तुलसी अबध से

 

भोगती वनवास जनता

नहीं सम्मोहन से जागी।

 

प्रतीक्षा में हैं पड़ीं

उद्धार को शापित शिलाएँ

हारता पुरुषार्थ पल-पल

टूटतीं बस प्रत्यंचाएँ

 

फिर किसी हलधर जनक का

हो गया है मन विरागी।

 

नाभि कुंडों में भरा है

हर किसी रावण के अमृत

और शक्ति के पुजारी

कर रहे उनको ही उपकृत

 

भूमिजा भू में समायी

अयोध्या फिर हुई अभागी।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अमृत ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अमृत ? ?

एक ओर

चखनी पड़ी

प्रशंसा की

गाढ़ी चाशनी,

दूसरी ओर

निगलना पड़ा

आलोचना का

नीम काढ़ा,

वह मीठा ज़हर

बाँटेगा या फिर

लपटें उगलेगा?

उसने कलम उठाई

मथने लगा आक्रोश,

बेतहाशा खींचने लगा

आड़ी-तिरछी रेखाएँ,

सृजन की आकृति

बनने, दिखने लगी,

अमृत की धार

बिछने, जमने लगी…!

© संजय भारद्वाज  

( प्रात: 4.40 बजे, 12 नवम्बर 2019)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 नवरात्रि साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही देंगे 💥🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 79 ☆ गैर मुमकिन है हार हो तेरी… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “गैर मुमकिन है हार हो तेरी“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 79 ☆

✍ गैर मुमकिन है हार हो तेरी… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

यूँ बसर हमने ज़िन्दगीं की है

हर नफ़स गम से दोस्ती की है

 *

मैं न काफ़िर हूँ फिर भी तुझसे मिल

इश्क़ में तेरी वन्दगी की है

 *

ग़म ख़ुशी जो भी दो कबूल मुझे

मैंने शिद्दत से आशिक़ी की है

 *

मिट गई जेहल की अमावस्या

इल्म की जबसे रोशनी की है

 *

जीत कैसे चुनाव में मिलती

तुमने सौगात में कमी की है

 *

गैर मुमकिन है हार हो तेरी

तूने दिल से अगर सई की है

 *

आप को क्यों बुरा लगा इतना

बात उसने बड़ी खरी की है

 *

यूँ न बेकार बैठते ए अरुण

तुमने तालीम कागज़ी की है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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