हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #153 ☆ “प्रेम…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण रचना  “प्रेम। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 153 ☆

“प्रेम ☆ श्री संतोष नेमा ☆

प्रेम- पाठ  जिसको पढ़ना आ  गया,

जीवन की हर मुश्किल सुलझा गया

मानवता  की है   पहली    सीढ़ी,

प्रेम-ग्रंथ  हमको  यह सिखला  गया

प्रेम  हर  सवाल का  हल  है

वरना समझें सब निष्फल है

प्रेम  तोड़ता  हर  बंधन   को

प्रेम  हृदय  में  है  तो  कल है

प्रेम  इंसानियत  की  पहचान  है

नादां  हैं जो  प्रेम से अनजान  है

प्रेम  में  ही  बसते  हैं  सब  ईश्वर

प्रेम ही दुनिया में सबसे महान है

प्रेम दबा सकते नहीं नफरत की दीवारों से

प्रेम झुका सकते नहीं ईर्ष्या की तलवारों से

“संतोष” प्रेम झुका है प्रेम के आगे समझो

प्रेम डिगा सकते नहीं,तु म ऊंची ललकारो से

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मित्रता के दोहे ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ मित्रता के दोहे ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

मिले मित्रता निष्कलुष, मित्र निभाये साथ ।

 मित्र वही जो मित्र का, कभी न छोडे़ हाथ ।।

पथ दिखलाये सत्य का, आने नहिं दे आंच ।

रहता खुली किताब-सा, लो कितना भी बांच ।।

मित्र सदा रवि-सा लगे, बिखराता आलोक ।

हर पल रहकर साथ जो, जगमग करता लोक ।।

कभी न करने दे ग़लत, राहें ले जो रोक ।

सदा मित्र होता खरा, जो देता है टोक ।।

बुरे काम से दूर रख, जो देता गुणधर्म ।

मित्र नाम ईमान का, नैतिकता का मर्म ।।

नहीं मित्रता छल-कपट, ना ही कोई डाह ।

तत्पर करने को ‘शरद’, वाह-वाह बस वाह ।।

खुशबू का झोंका बने, मीठी झिरिया नीर।

मित्र रहे यदि संग तो, हो सकती ना पीर ।।

मित्र मिले सौभाग्य से, बिखराता जो हर्ष ।

मिले मित्र का साथ तो, जीतोगे संघर्ष ।।

भेदभाव को भूल जो, थामे रखता हाथ ।

कृष्ण-सुदामा सा ‘शरद’, बालसखा का साथ ।।

मित्र नहीं तो ज़िन्दगी, देने लगती दर्द ।

मित्र रोज़ ही झाड़ दे, भूलों की सब गर्द ।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – कुछ छोटी कविताएं – ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी – कुछ छोटी कविताएँ )

☆ कविता ☆  कुछ छोटी कविताएँ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

[1]

औरतों ने जादू के ज़ोर से

शैतान को इन्सान बनाना चाहा

कामयाब नहीं हुईं तो

जादू से ख़ुद को पत्थर कर लिया

पत्थर से इन्सान होने का जादू

उन्हें नहीं आता था।

 

[2]

मैं बनी बनाई दुनिया में

कुछ लोगों के साथ रह रहा था

मैंने कल्पना में एक और दुनिया बसाई

उस दुनिया में सिर्फ़ वही लोग रहते हैं

मैं जिनके साथ रहना चाहता आया था।

 

[3]

गौरैया के पास तिनकों के अलावा

कोई सम्पत्ति नहीं होती

उसे इससे अधिक चाहिए भी नहीं।

 

[4]

मर चुके रीति रिवाज़ों के शव सड़ांध मार रहे थे

और हम उन्हें कन्धों पर ढोए जा रहे थे

ये शव हमारी आत्मा पर काबिज़ हुए

और हम इन्सानों से प्रेत हो गए।

 

[5]

माँ अचानक नींद से जागती है

और चिल्लाती है – भागो, हमला आया

बदहवास सी वह सबको ग़ौर से देखती है

फिर कहती है -सो जाओ, सब ठीक है

विस्थापित माँ का हर सपना

दरअसल विस्थापन से शुरू होता है।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संस्कार ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

हम श्रावणपूर्व 15 दिवस की महादेव साधना करेंगे। महादेव साधना  शनिवार दि. 4 फरवरी से महाशिवरात्रि तदनुसार 18 फरवरी तक सम्पन्न होगी।

💥 इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – संस्कार ??

माप-जोखकर खींचता रहा

मानक रेखाएँ जीवन भर,

पर बात नहीं बनी,

निजी और सार्वजनिक

दोनों में पहचान नहीं मिली,

आक्रोश में उकेर दी

आड़ी-तिरछी, बेसिर-पैर की

निरुद्देश्य रेखाएँ,

यहाँ-वहाँ अकारण

बिना प्रयोजन..,

चमत्कार हो गया,

मेरा जय-जयकार हो गया!

आलोचक चकित थे,

आउट ऑफ बॉक्स थिंकिंग का

ऐसा शिल्प आज तक

देखने को नहीं था मिला,

मैं भ्रमित था,

रेखाएँ, फ्रेम, बॉक्स,

आउट ऑफ बॉक्स. ,

मैंने यह सब

कब सोचा था भला?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 145 ☆ बाल-कविता – तिल के लड्डू, गजक मूंगफली… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’… ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 145 ☆

☆ बाल-कविता  – तिल के लड्डू, गजक मूंगफली… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

तिल के लड्डू जाड़ों – जाड़ों

बंदर और बंदरिया खाते

साथ मूंगफली गजक रेवड़ी

खाकर जाड़ा दूर भगाते

 

मक्का और बाजरा रोटी

पत्तेदार साग सँग भाती

शक्ति बढ़ती प्रतिरोधात्मक

तन को यह मजबूत बनाती

 

पढ़ते लिखते बंदर मामा

नित्य योग , उछल कूद करते

सब बच्चों को रोज पढ़ाकर

जीवन में खुशियाँ हैं भरते

 

सूर्य मुद्रा करें साथ ही

उससे जाड़ा थर – थर काँपे

मोड़ अनामिका अंगुली अपनी

अँगूठे के नीचे दाबे

 

खाते – पीते खुश ही रहकर

जीवन में खुशियाँ हैं मिलतीं

शुभ कर्मों को करें सदा जो

विपदाएँ भी हाथ मसलतीं

 

लोहड़ी , पोंगल , मकरसंक्रांति

पर्व एक जो खुशियाँ लाएँ

खिचड़ी, तिल , फल , मेवा उत्तम

प्यार बढ़ेगा,  मिलकर खाएँ।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 53 ☆ स्वतंत्र कविता – पुनर्जन्म… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण स्वतंत्र कविता “पुनर्जन्म…”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 53 ✒️

?  स्वतंत्र कविता – पुनर्जन्म…  ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

रुकती हुई ,

सांसों के बीच

कल सुना था मैंने

कि तुम ने कर ली है

” आत्महत्या “

इस कटु सत्य का

हृदय नहीं कर पाता विश्वास !

” राजन्य “

तुम कब हुए हताश – निराश “

स्वेच्छा से बन गए काल ग्रास ।।

 

अंकित किया केवल एक प्रश्न ,

क्यों ? केवल क्यों ?

इतना बता सकते हो ,

तो बताओ ।

क्यों त्यागा ? रम्य जगत को ?

क्यों किया मृत्यु का वरण ?

अनंत – असीम जगती में क्या ?

कहीं भी ना मिलती तुम्हें शरण ?

 

अपनी वेदना तो कहते,

शून्य- शुष्क , रिक्त जीवन ,

की व्यथा ओढ़ लेती

तुम्हारी जननी ,

शित-शिथिल भावों को बांट लेते ,

भ्राता – भागीदार –

शैशवावस्था में तुम्हें

गीले से सूखे में लिटाती ,

शीर्ष चूमती रही बार-बार ,

रात्रि में जाग – जागकर,

बदलती रही वस्त्र ,

तब तुम बने रहे सुकुमार ,

वेदना की व्यथा ,

आंचल में समेट लेती ,

काश!जननी से कहते तो एक बार।।

 

” परन्तु “

तुम शिला के भांति रहे निर्विकार ,

स्वार्थी , समयाबादी और गद्दार ,

तभी वृद्ध – जर्जर हृदयों पर ,

कर प्रहार

सांझ ढले उन्हें छोड़ा मझदार ,

रिक्त जीवन दे ,

चल पड़े अज्ञात की ओर ,

बनाने नूतन विच्छन्न प्रवास ।।

 

क्यों कर आया किया

यह घृणित कार्य ,

क्या इतना सहज है ,

त्यागना संसार ,

काश ! तुम कर्मयोगी बनते

मां के संजोए हुए सपनों को बुनते ,

प्रमाद में विस्तृत कर ,

अपना इतिहास ,

केवल बनकर रह गए उपहास ।।

 

“आत्महत्या “

आवेश है एक क्षण का ,

पतीली पर से भाप की ,

शक्ति से ऊपर उठता हुआ ढक्कन ,

जो भाप के निकल जाने पर ,

पुनः अपने स्थान पर हो

जाता है स्थित ,

काश ! भाप सम तुम भी ,

निकाल देते उद्वेलित

हृदय का आवेश और फिर ,

ढक्कन की भांति अपना ,

स्थान बनाने का करते प्रयास ,

तब तुम आत्महत्या ना

कर पाते अनायास।।

 

तुमने सुना होता जननी

का करुण – क्रंदन ,

पिता का टूट कर बिखरना,

भ्राताओं की चीत्कार ,

दोस्तों की आंखों का सूनापन ,

आर्तनाद करते प्राकार ,

तब संभव था कि तुम फिर

व्याकुल हो उठते

पुनःजन्म लेने के लिए ,

पुनर्जन्म के लिए ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 67 – मनोज के दोहे – बसंत ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे –  बसंत। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 67 – मनोज के दोहे – बसंत ☆

शिशिर काल में ठंड ने, दिखलाया वह रूप।

नदी जलाशय जम गए, तृण हिमपात अनूप।।

 

स्वागत है ऋतुराज का, छाया मन में हर्ष।

पीली सरसों बिछ गई, बैठें-करें विमर्ष।।

 

माह-जनवरी, छब्बीस, बासंती गणतंत्र।

संविधान के मंत्र से, संचालन का यंत्र।।

 

आम्रकुंज बौरें दिखीं, करे प्रकृति शृंगार।

कूक रही कोयल मधुर, छाई मस्त बहार।।

 

वासंती मौसम हुआ, सुरभित बही बयार ।

मादक महुआ सा लगे, मधुमासी त्यौहार।।

 

ऋतु वसंत की धूम फिर, बाग हुए गुलजार।

रंग-बिरंगे फूल खिल, बाँट रहे हैं प्यार।।

 

टेसू ने बिखरा दिए, वन-उपवन में  रंग।

आँगन परछी में पिसे, सिल-लौढ़े से भंग।।

 

है बसंत द्वारे खड़ा, ले कर रंग गुलाल।

बैर बुराई भग रहीं, मन के हटें मलाल।।

 

मौसम में है छा गया, मादकता का जोर।

मन्मथ भू पर अवतरित, तन में उठे हिलोर।।

 

मौसम ने ली करवटें, दमके टेसू फूल।

स्वागत सबका कर रहे, ओढ़े खड़े दुकूल।।

 

परिवर्तन पर्यावरण, देता शुभ संदेश।

हरित क्रांति लाना हमें, तब बदले परिवेश।।

 

पलाश कान में कह उठा, खुशियाँ आईं द्वार ।

राधा खड़ी उदास है, कान्हा से तकरार ।।

 

हँस कर कान्हा ने कहा, चल राधा के द्वार ।

हँसी ठिठोली में रमें, अब मौसम गुलजार।।

 

गुवाल-बाल को सँग ले, कृष्ण चले मनुहार।।

होली-होली कह उठे, दी पिचकारी मार ।।

 

सारी चुनरी रँग गई, भींगा तन रँग लाल।

आँख लाज से झुक गईं, खड़े देख गोपाल।।

 

नव भारत निर्माण से, बिखरा नया उजास।

शत्रु पड़ोसी देख कर, मन से बड़ा उदास।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ संविधान गीत… ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है भारत के संविधान पर आधारित एक विचारणीय कविता ‘संविधान गीत …’।)

☆ संविधान गीत… ☆  श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

मेरा देश हिंदुस्तान,

मेरा बढ़िया संविधान

मेरी आन, मेरी शान,

इस पर जान भी कुर्बान।

 

संविधान से बना है भारत, संप्रभुता संपन्न।

संविधान ने दिया है हम को, प्रजातंत्र।

संविधान से मिला है हमको,

सर्व धर्म सम्भाव।

संविधान ने दिया है हमको,

समाजवाद का भाव।

 

संविधान ने दिए हैं,

तीन स्तंभ सरकार के,

विधायिका,

न्यायपालिका,

कार्यपालिका ,

ये हैं तीन स्तंभ सरकार के।

 

संविधान से मिलता,

इंसाफ,

सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक इंसाफ।

संविधान है देता आज़ादी, विचारों की,

धर्मों की, पूजा की,

त्योहारों की।

 

संविधान देता अवसर बराबरी के,

शिक्षा के, रोजगार के,

प्रगति के, व्यापार के।

ऊंच नीच का भेद न होगा,

गरीब अमीर का छेद न होगा,

कहीं किसी को खेद न होगा।

 

व्यक्ति का सम्मान होगा,

मूलभूत अधिकार होंगे।

 

समाज में भाईचारा होगा,

अनेकता में एकता से,

देश मेरा यह न्यारा होगा।

 

संसद कानून बनाएगी,

पर संविधान का मूल ढांचा,

संसद भी बदल न पाएगी।

सुप्रीम कोर्ट न्याय करेगा,

प्रशासन हुकम बजाएगा,

कानून से राज चलाएगा।

 

राज करेगी,

भारत की जनता ।

सरताज रहेगी,

भारत की जनता।

 

यही है  संदेश सबको

26 जनवरी का,

समझो और समझाओ मकसद,

26 जनवरी का।

 

संविधान है रूपरेखा,

हमारे आदर्शों की,

हमारे मूल्यों की,

हमारे सिद्धांतों की।

 

सुप्रीम कोर्ट प्रहरी

हमारे संविधान का,

हर नागरिक है रक्षक

इसकी आन बान का

 

मेरे देश का संविधान,

मेरे सपनों की उड़ान,

 

मंजिल बेशक दूर बड़ी है,

मुश्किल भी अगम खड़ी है

अभी तो बस दो कदम चले हैं,

अभी तो कदम कदम से मिले हैं।

 

रास्ता नहीं आसान,

फिर भी दिल में है अरमान

छूना चाहूं आसमान,

जब तक तन में है ये जान

देखूं सच्चा संविधान।

 

सही रास्ता दिखाया,

डॉक्टर अंबेडकर ने ,

बढ़िया संविधान बनाया,

डॉक्टर अंबेडकर ने ।

मेरे देश का संविधान,

मेरी आन, मेरी शान,

इस पर जान भी कुर्बान

जीवे मेरा संविधान

जीवे मेरा हिंदुस्तान।

जीवे मेरा संविधान

जीवे मेरा हिंदुस्तान।

 

भारत माता की जय।

The song संविधान गीत is based on the Preamble of the Constitution of India given below ☆

WE, THE PEOPLE OF INDIA, having solemnly resolved to constitute India into a SOVEREIGN, SOCIALIST, SECULAR DEMOCRATIC REPUBLIC and to secure to all its citizens:

JUSTICE, social, economic and political;

LIBERTY of thought, expression, belief, faith and worship;

EQUALITY of status and of opportunity; and to promote among them all

FRATERNITY assuring the dignity of the individual and the unity and integrity of the Nation.

IN OUR CONSTITUENT ASSEMBLY this twenty-sixth day of November 1949, do HEREBY ADOPT, ENACT AND GIVE TO OURSELVES THIS CONSTITUTION.

© श्री अजीत सिंह

26.01.2023.

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन हिसार।

मो : 9466647034

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संतृप्त ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 माँ सरस्वती साधना संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी से हम आपको शीघ्र ही अवगत कराएँगे। 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – संतृप्त ??

दुनिया को जितना देखोगे,

दुनिया को जितना समझोगे,

दुनिया को जितना जानोगे,

दुनिया को उतना पाओगे,

अशेष लिप्सा है दुनिया,

जितना कंठ तर करेगी,

तृष्णा उतनी ही बढ़ेगी,

मैं अपवाद रहा

या शायद असफल,

दुनिया को जितना देखा,

दुनिया को जितना समझा,

दुनिया में जितना उतरा,

तृष्णा का कद घटता गया,

भीतर ही भीतर एक

संतृप्त जगत बनता गया..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 123 – गीत – कहूँ योजना… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – कहूँ योजना।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 123 – गीत – कहूँ योजना…  ✍

नाम तुम्हारा क्या जानूँ मैं

मन कहता मैं कहूँ योजना।

 

गौरवर्ण छविछाया सुन्दर

अधरों पर मुस्कान मनोहर

हँसी कि जैसे निर्झरणी हो

मत प्रवाह की कमी थामना।

 

अंत: है इच्छा की गागर

आँखों में सपनों का सागर

मचल रहीं हैं लोल लहरियाँ

प्रकटित होती मनो कामना।

 

राधा रसका है आकर्षण

मनमोहन का पूर्ण समर्पण

सम्मोहन के गंधपाश में

कोई कैसे करे याचना।

 

अपलक देखा करें नयन, मन

मन रहता है उन्मन उन्मन

शब्दों के संवाद अधूरे

मन ही मन मैं करूँ चिन्तना।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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