English Literature – Poetry ☆ ‘सार्थक’ श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Contemplation…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poetry “सार्थक.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय उवाच – सार्थक ? ?

एक बात और, यदि जीवन में कभी भी, किसी भी पड़ाव पर मृत्यु आ सकती है तो किसी भी पड़ाव पर जीवन आरंभ क्यों नहीं हो सकता? इसीलिए कहा है,

कदम उठे,

यात्रा बनी,

साँसें खर्च हुईं

अनुभव संचित हुआ,

कुछ दिया, कुछ पाया

अर्द्धचक्र पूर्ण हुआ,

भूमिकाएँ बदलीं-

शेष साँसों को

पाथेय कर सको

तो संचय सार्थक है

अन्यथा

श्वासोच्छवास व्यर्थ है..!

ध्यान रहे, जीवन में वर्ष तो हरेक जोड़ता है पर वर्षों में जीवन बिरला ही फूँकता है। आपका बिरलापन प्रस्फुटन के लिए प्रतीक्षारत है।

© संजय भारद्वाज  

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

?~ Contemplation ~??
Just a contemplation,

If death can come

at any stage of life,

then why can’t life

begin at any stage?

 

Steps were taken,

The journey was made,

Breaths were consumed,

Experience was accumulated,

Something was given,

Something was received…

 

The semi-circle got completed,

Roles got reversed

If you can make the

remaining breaths

worth journeying,

Then only,

accumulation is worthwhile,

Else,

Breathing is futile..!

 

Remember,

Everyone adds years to life,

but only a few

breathe life into years.

Your rarity

is waiting to blossom…!

??

~ Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 134 ☆ मुक्तक – ।। विजयदशमी पर्व ।। भीतर का भी रावण मारें ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 134 ☆

☆ मुक्तक ।। विजयदशमी पर्व ।। भीतर का भी रावण मारें ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

समाज का  सुधार भी  करें और  खुद  को   भी  सुधारें।

दूसरों की ही  गलती    नहीं अंतःकरण को भी   निहारें।।

विजयदशमी  का  यह   पर्व है  बुराई  पर  जीत   का।

बस पुतला दहन  ही काफी नहीं  भीतर का रावण  मारें।।

[2]

हमारे भीतर  छिपा  दशानन उसको भी हमें  हराना   है।

काट-काट कर दस शीश हमें नामो   निशान  मिटाना है।।

यही होगा  विजयदशमी पर्व का  सच्चा  हर्ष  उल्ल्हास।

अपने भीतर के रावण  पर भी हमें विजय को पाना है।।

।। विजयदशमी पर्व की अनन्त असीम शुभकामनाओं सहित।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 198 ☆ हे सिंहवाहिनी, शक्तिशालिनी, कष्टहारिणी माँ दुर्गे… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “हे सिंहवाहिनी, शक्तिशालिनी, कष्टहारिणी माँ दुर्गे। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 198 ☆ हे सिंहवाहिनी, शक्तिशालिनी, कष्टहारिणी माँ दुर्गे☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

हे सिंहवाहिनी, शक्तिशालिनी, कष्टहारिणी माँ दुर्गे 

महिषासुर मर्दिनि, भव भय भंजनि, शक्तिदायिनी माँ दुर्गे 

*

तुम निर्बल की रक्षक, भक्तों का बल विश्वास बढ़ाती हो 

दुष्टो पर बल से विजय प्राप्त करने का पाठ पढ़ाती हो 

हे जगजननी, रणचण्डी, रण में शत्रुनाशिनी माँ दुर्गे 

*

जग के कण कण में महाशक्ति की व्याप्त अमर तुम चिनगारी 

दृढ़ निश्चय  की निर्भय प्रतिमा, जिससे डरते अत्याचारी 

हे शक्ति स्वरूपा, विश्ववन्द्य, कालिका, मानिनि माँ दुर्गे 

*

तुम परब्रम्ह की परम ज्योति, दुष्टो से जग की त्राता हो 

पर भावुक भक्तो की कल्याणी परंवत्सला माता हो 

निशिचर विदारिणी, जग विहारिणि, स्नेहदायिनी माँ दुर्गे . 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #25 – गीत – जीवन है अनमोल… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीत जीवन है अनमोल

स्वाभिमान मंच पंजाब द्वारा प्रस्तुत एवं सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ जी के गीतों पर आधारित कार्यक्रम “चलो माँ के दर्शन को…🙏” 

? रचना संसार # 25 – गीत – जीवन है अनमोल…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

भटक रहा ये मनवा क्यों है,

दूर करो अँधियार।

ध्यान करोगे प्रभु का जब तुम,

तब होगा उजियार।।

 *

डोरी कच्ची है जीवन की,

कर लो अच्छे काम।

राग द्वेष को छोड़ जपो तुम

निशदिन प्रभु का नाम।।

अंतस के दर्पण में प्राणी,

रख लो श्रेष्ठ विचार।।

 *

धरती से नभ तक है सत्ता,

महिमा प्रभु की जान,

जीव जीव में प्रभु बसते हैं,

सत्य यही पहचान,

सबके पाप पुण्य का लेखा ,

रखते हैं करतार।।

 *

मानवता की ज्योत जलाकर,

कर सबसे अनुराग।

साथ नहीं जाती धन दौलत

अहंकार को त्याग,

खोल झरोखे बुद्धि ज्ञान के,

आत्मशक्ति स्वीकार।।

 *

सदा धर्म की राह चलो हम

जीवन है अनमोल       

दीन दुखी की कर लें सेवा

मीठी वाणी बोल।।

शीलवंत गुणवंत बनें हम

तब होगा उद्धार।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #253 ☆ भावना के दोहे – अम्बे माँ ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – अम्बे माँ )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 253 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे –  अम्बे माँ  ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

माँ तुम जननी जगत की, करती जग उद्धार।

कृपा आपकी बरसती, मिलता प्यार अपार।।

*

दीप ज्ञान का जल रहा, लगता माँ में ध्यान।

 राह कठिन है माँ करो, मेरा तुम कल्याण।।

*

ब्रह्मचारिणी  मातु को, करते सभी प्रणाम।

नौ देवी की नवरात्रि, द्वितीय तेरे नाम।।

*

तप करती  तपश्चारिणी, निर्जल निरहार।

हाथ जोड़कर पूजते, हो देवी अवतार।।

*

करना अंबे तुम दया, रखना मेरी लाज।

भक्तों के तुम कर रही, माता पूरे काज।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #234 ☆ संतोष के दोहे – श्री राजेश पाठक प्रवीण ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – संतोष के दोहे आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 235 ☆

☆ संतोष के दोहे – श्री राजेश पाठक प्रवीण ☆ श्री संतोष नेमा ☆

(संस्कारधानी जबलपुर के सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं सामाजिक जगत के दैदीप्यमान नक्षत्र हमारे अनुज श्री राजेश पाठक प्रवीण पर कुछ दोहे)

हर दिल में बसते सदा, सबके प्रिय राजेश

बिन बोले ही समझते, भाव सभी भावेश

*

संकट में भी साथ दें, दिल है बहुत उदार

रख मन में संवेदना, सुनते करुण पुकार

*

मित्रों के भी मित्र हैं, और बड़े सालार

जब जो भी इनसे मिला, माने वो आभार

*

एक बार जो भी मिले, इनका ही हो जाय

राधा, मीरा सी बने, प्रेम न हृदय समाय

*

तुमसे मिल बजने लगे, कानों में संगीत

प्रीत पनपती हृदय में, लगते सबके मीत

*

एक बार सौभाग्य से, साथ गए बैंकॉक

हिंदी भाषा की वहां, खूब जमाई धाक

*

मित्र नहीं राजेश सा, अपना यह अहसास

चलते उनके साथ जब, बन जाते हैं खास

*

गिरते को जो थाम ले, ऐसे सच्चे मित्र

सबको ही संतोष हो, ऐसा सुखद चरित्र

*

करती हैं माँ शारदे, जिन पर कृपा सदैव

जब जैसा वह चाहते, होता वही तथैव

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अंकुर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अंकुर ? ?

छिन्न-भिन्न

कर दिया

अस्तित्व तुम्हारा,

फिर भी

तुम्हारी हिम्मत

टूटती क्यों नहीं,

आस मिटती

क्यों नहीं..?

झल्लाकर पूछा

कुटिल स्थितियों ने..,

 

मैं निहारता रहा

ध्वस्त कर दी गई

इमारत के मलबे से

फूटते अंकुर को अपलक,

कुटिलता मुरझा गई,

स्थितियाँ खिसिया गईं..!

© संजय भारद्वाज  

दोपहर 4:33 बजे, 17.11.2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 3 अक्टूबर 2024 से नवरात्रि साधना आरम्भ हो गई है 💥

🕉️ इस साधना के लिए मंत्र इस प्रकार है-

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 223 ☆ बाल गीत – मुझे सुनाओ नई कहानी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 223 ☆ 

बाल गीत – मुझे सुनाओ नई कहानी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

मीठा-मीठा बोलो नानी।

मुझे सुनाओ नई कहानी।

चीख-चीख कर कभी न बोलो।

वाणी में मिश्री-सी घोलो।

मैं बच्चा करता नादानी।

मुझे सुनाओ नई कहानी।

 *

मम्मी डाँटें , तुम भी डांटो।

मेरा प्यार कभी मत बाँटो।

चलो पार्क में हवा सुहानी।

मुझे सुनाओ नई कहानी।

 *

नाना कभी-कभी हैं आते।

लेकिन मेरे मन को भाते।

कभी न करते वे मनमानी।

मुझे सुनाओ नई कहानी।

 *

मूड रखें सब हरदम अच्छा।

सभी बड़ों से सीखे बच्चा।

नाना घूँट-घूँट पीते हैं पानी।

मुझे सुनाओ नई कहानी।

 *

मम्मा , नानी संग न खेलें।

नाना के संग चलती रेलें।

नाना – सा ना कोई सानी।

मुझे सुनाओ नई कहानी।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 74 ☆ आदमी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “आदमी…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 74 ☆ आदमी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

एक मिट्टी का

घड़ा है आदमी

छलकते अहसास से रीता।

 

मुँह कसी है

डोर साँसों की

ज़िंदगी अंधे कुँए का जल,

खींचती है

उम्र पनहारिन

आँख में भ्रम का लगा काजल

 

झूठ रिश्तों पर

खड़ा है आदमी

व्यर्थ ही विश्वास को जीता।

 

दर्द से

अनवरत समझौता

मन कोई

उजड़ा हुआ नगर

धर्म केवल

ध्वजा के अवशेष

डालते बस

कफ़न लाशों पर

 

बड़प्पन ढोता

है अदना आदमी

बाँचता है कर्म की गीता।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 78 ☆ जहां में जो भी आया है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “जहां में जो भी आया है “)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 78 ☆

✍ जहां में जो भी आया है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

मदद को मुफ़लिसों की हाथों को उठते नहीं देखा

किसी भी शख़्स को इंसान अब बनते नहीं देखा

 *

हवेली को लगी है आह जाने किन गरीबों की

खड़ी वीरान है इंसां कोई  रहते नहीं देखा

 *

हमारे रहनुमा की हैसियत नज़रों में जनता की

कभी किरदार मैंने इतना भी गिरते नहीं देखा

 *

किसी की आह लेकर ज़र जमीं कब्ज़े में मत लेना

गलत दौलत से मैंने घर कोई हँसते नहीं देखा

 *

परिंदों की चहक शीतल पवन  पूरब दिशा स्वर्णिम

वो क्या जानें जिन्होंने सूर्य को उगते नहीं देखा

 *

तो फिर किस बात पर हंगामा आरायी जहां भर में

इबादतगाह जब तुमने कोई ढहते नहीं देखा

 *

जहां में जो भी आया है हों चाहे ईश पैग़ंबर

समय की मार से उनको यहाँ बचते नहीं देखा

 *

बनेगा वो कभी क्या अश्वरोही एक नम्बर का

जिसे गिरकर दुबारा अस्प पे चढ़ते नहीं देखा

 *

पड़ेगें कीड़े पड़ जाते है जैसे गंदे पानी में

विचारों को जमा पानी सा जो बहते नहीं देखा

 *

बड़े बरगद की  छाया से अरुण कर लो किनारा तुम

कि इसके नीचे रहने वाले को बढ़ते नहीं देखा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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