मराठी साहित्य – कविता ☆ ‘डर’ श्री संजय भरद्वाज (मूल हिन्दी रचना) – ‘भीती’ (भावानुवाद) ☆ सुश्री आसावरी काकडे ☆

सुश्री आसावरी काकडे
आज प्रस्तुत है श्री संजय भरद्वाज जी की हिंदी कविता “डर” का मराठी की वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री आसावरी काकडे जी द्वारा मराठी अनुवाद।)
श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि –  डर ??

मनुष्य जाति में

होता है

एकल प्रसव,

कभी-कभार जुड़वाँ,

और दुर्लभ से दुर्लभतम

तीन या चार,

डरता हूँ,

ये निरंतर

प्रसूत होती लेखनी

और जन्मती रचनाएँ,

मुझे, जाति बहिष्कृत

न करा दें….!

© संजय भारद्वाज 

(शुक्र. 4 दिस. 2015 रात्रि 9:56 बजे)

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

सुश्री आसावरी काकडे जी द्वारा मराठी भावानुवाद   

? भीती ??

मनुष्य प्रजातीत

एक प्रसूती एक जन्म…

कधी कधी जुळं जन्माला येतं

तीन-चार तर दुर्लभच …

भीती वाटतेय

निरंतर प्रसूत होणारी ही लेखणी,

तिचे अविरत सृजन

मला जातीबाहेर तर नाही करणार…?

© सुश्री आसावरी काकडे

संपर्क –  ‘सेतू’ , डी-१/३, स्टेट बँक नगर, कर्वेनगर, पुणे – ४११ ०५२. मोबाईल : +९१- ९७६२२०९०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 59 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे… । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 59 – मनोज के दोहे… 

1 अवसर

प्रभु देता अवसर सदा, रखिए इसका  ध्यान।

चूक गए तो फिर नहीं, मिल पाता सम्मान।।

2 अनुग्रह

हुआ अनुग्रह राम का, पूर्ण हुए सब काज।

विश्व पटल पर छा गया, भारतवंशी राज।।

3 आपदा

करें प्रबंधन आपदा, संकट से हो मुक्ति।

बड़े बुजुर्गों से सदा, मिली हमें यह युक्ति।।

4 प्रशस्ति

सद्कर्मों का मान हो, स्वागत मिले प्रशस्ति

बदले मानव आचरण, यही देश की शक्ति।।

5 प्रतिष्ठा

बढ़े प्रतिष्ठा देश की, मिलकर करें प्रयास।

मतभेदों को भूलकर, फसल उगाएँ खास।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ ‘डर’… श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Fear…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem “डर.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि –  डर ??

मनुष्य जाति में

होता है

एकल प्रसव,

कभी-कभार जुड़वाँ,

और दुर्लभ से दुर्लभतम

तीन या चार,

डरता हूँ,

ये निरंतर

प्रसूत होती लेखनी

और जन्मती रचनाएँ,

मुझे, जाति बहिष्कृत

न करा दें….!

© संजय भारद्वाज 

(शुक्र. 4 दिस. 2015 रात्रि 9:56 बजे)

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

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English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

? ~ Fear ~ ??

Occurs in the human race

a single child birth,

Occasionally even twins,

In the rarest of the rare cases

may be three or four…

I’m afraid that my pen

constantly delivering

newer creations everyday,

May render me outcaste

from the race..!

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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सिंधी साहित्य – कविता ☆ ‘डर’ श्री संजय भरद्वाज (मूल हिन्दी रचना) – ‘डरू’ (भावानुवाद) ☆ प्रा लछमन हर्दवाणी ☆

प्रा लछमन हर्दवाणी

(ई-अभिव्यक्ति में प्रा लछमन हर्दवाणी जी का हार्दिक स्वागत है। 3 मई 1942 को जन्मे प्रा लछमन हर्दवाणी जी ने अल्पायु में विभाजन की विभीषिका और उससे जुड़ी पीड़ा को अनुभव किया है। आपका समाज में एक बहुआयामी एवं ओजस्वी व्यक्तित्व के रूप में सम्माननीय स्थान है। सिंधी साहित्य में आपका महत्वपूर्ण योगदान है। मराठी साहित्य के ज्ञाता होने के साथ ही आप एक बहुभाषी अनुवादक भी हैं। आपके मराठी, हिन्दी एवं सिंधी भाषा में अनुवादित साहित्य का अपना विशिष्ट  स्थान है। हाल ही में आपकी 100वीं पुस्तक प्रकाशित हुई है।

आज प्रस्तुत है श्री संजय भरद्वाज जी की हिंदी कविता “डर” का प्रा लछमन हर्दवाणी जी द्वारा सिंधी भावानुवाद।)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि –  डर ??

मनुष्य जाति में

होता है

एकल प्रसव,

कभी-कभार जुड़वाँ,

और दुर्लभ से दुर्लभतम

तीन या चार,

डरता हूँ,

ये निरंतर

प्रसूत होती लेखनी

और जन्मती रचनाएँ,

मुझे, जाति बहिष्कृत

न करा दें….!

© संजय भारद्वाज 

(शुक्र. 4 दिस. 2015 रात्रि 9:56 बजे)

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

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प्रा लछमन हर्दवाणी जी द्वारा सिंधी भावानुवाद   

? डरू ??

मनुष्य जातीअ में

हूंदी आ जम, हिक भेरे हिक,

कडहिं कडहिं जाड़ा बार,

ऐं विरले कडहिं

टिनि या चइनि जो जमणु.

डकां थो

सदाईं वियामिजंड़ मुंहिंजी लेखणी

ऐं जमंदड़ रचनाऊं

मूंखे कढा न छडिनी जातीअ मां…!

© प्रा लछमन हर्दवाणी

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बालदिवस विशेष – बचपन ☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆

सुश्री रुचिता तुषार नीमा

☆ कविता ☆ बालदिवस विशेष – बचपन ☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆

काश की बचपन लौट के आये,

तो एक मौका है अब भी

कि मैं अपना बचपन, खुल के जी लूँ

सब डर, चिंता,तनाव को भूलकर वही मासूमियत को फिर से पी लूँ।

 

माँ, पापा का लाड़ दुलार

शिक्षकों की फ़टकार

दोस्तों के संग मस्ती की फुहार

और दादी, नानी की कहानियों की भरमार

 

न किसी बात की चिंता, न भविष्य की कोई फिकर

बस गुड्डे, गुड़ियों के खेल और रेत के महल

 

काश, की कोई चमत्कार हो जाये

तो एक मौका है अब भी कि मैं अपना बचपन फिर से जी लूँ

 

© सुश्री रुचिता तुषार नीमा

14-11-2022

इंदौर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ आयुर्वेद दोहे ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे, संपादिका ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

☆ कविता ☆ आयुर्वेद दोहे ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे, संपादिका ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

पानी में गुड डालिए, बीत जाए जब रात!

सुबह छानकर पीजिए, अच्छे हों हालात!!

 

ऊर्जा मिलती है बहुत, पिएं गुनगुना नीर!

कब्ज खतम हो पेट की, मिट जाए हर पीर!!

 

प्रातः काल पानी पिएं, घूंट-घूंट कर आप!

बस दो-तीन गिलास है, हर औषधि का बाप!!

 

ठंडा पानी पियो मत, करता क्रूर प्रहार!

करे हाजमे का सदा, ये तो बंटाढार!!

 

भोजन करें धरती पर, अल्थी पल्थी मार!

चबा-चबा कर खाइए, वैद्य न झांकें द्वार!!

 

प्रातः काल फल रस लो, दुपहर लस्सी-छांस!

सदा रात में दूध पी, सभी रोग का नाश!!

 

प्रातः- दोपहर लीजिये, जब नियमित आहार!

तीस मिनट की नींद लो, रोग न आवें द्वार!!

 

भोजन करके रात में, घूमें कदम हजार!

डाक्टर, ओझा, वैद्य का , लुट जाए व्यापार !!

 

घूट-घूट पानी पियो, रह तनाव से दूर!

एसिडिटी, या मोटापा, होवें चकनाचूर!!

 

अर्थराइज या हार्निया, अपेंडिक्स का त्रास!

पानी पीजै बैठकर, कभी न आवें पास!!

 

रक्तचाप बढने लगे, तब मत सोचो भाय!

सौगंध राम की खाइ के, तुरत छोड दो चाय!!

 

सुबह खाइये कुवंर-सा, दुपहर यथा नरेश!

भोजन लीजै रात में, जैसे रंक सुजीत!!

 

देर रात तक जागना, रोगों का जंजाल!

अपच,आंख के रोग सँग, तन भी रहे निढाल!!

 

दर्द, घाव, फोडा, चुभन, सूजन, चोट पिराइ!

बीस मिनट चुंबक धरौ, पिरवा जाइ हेराइ!!

 

सत्तर रोगों कोे करे, चूना हमसे दूर!

दूर करे ये बाझपन, सुस्ती अपच हुजूर!!

 

भोजन करके जोहिए, केवल घंटा डेढ!

पानी इसके बाद पी, ये औषधि का पेड!!

 

अलसी, तिल, नारियल, घी सरसों का तेल!

यही खाइए नहीं तो, हार्ट समझिए फेल!

 

पहला स्थान सेंधा नमक, पहाड़ी नमक सु जान!

श्वेत नमक है सागरी, ये है जहर समान!!

 

अल्यूमिन के पात्र का, करता है जो उपयोग!

आमंत्रित करता सदा, वह अडतालीस रोग!!

 

फल या मीठा खाइके, तुरत न पीजै नीर!

ये सब छोटी आंत में, बनते विषधर तीर!!

 

चोकर खाने से सदा, बढती तन की शक्ति!

गेहूँ मोटा पीसिए, दिल में बढे विरक्ति!!

 

रोज मुलहठी चूसिए, कफ बाहर आ जाय!

बने सुरीला कंठ भी, सबको लगत सुहाय!!

 

भोजन करके खाइए, सौंफ, गुड, अजवान!

पत्थर भी पच जायगा, जानै सकल जहान!!

 

लौकी का रस पीजिए, चोकर युक्त पिसान!

तुलसी, गुड, सेंधा नमक, हृदय रोग निदान!

 

चैत्र माह में नीम की, पत्ती हर दिन खावे !

ज्वर, डेंगू या मलेरिया, बारह मील भगावे !!

 

सौ वर्षों तक वह जिए, लेते नाक से सांस!

अल्पकाल जीवें, करें, मुंह से श्वासोच्छ्वास!!

 

सितम, गर्म जल से कभी, करिये मत स्नान!

घट जाता है आत्मबल, नैनन को नुकसान!!

 

हृदय रोग से आपको, बचना है श्रीमान!

सुरा, चाय या कोल्ड्रिंक, का मत करिए पान!!

 

अगर नहावें गरम जल, तन-मन हो कमजोर!

नयन ज्योति कमजोर हो, शक्ति घटे चहुंओर!!

 

तुलसी का पत्ता करें, यदि हरदम उपयोग!

मिट जाते हर उम्र में,तन में सारे रोग।

मूलहठी = ज्येष्ठमध
चोकर युक्त पिसान = चोकर युक्त आटा 

साभार – निरामय जगत गुजरात (चिकित्सकीय  सलाह आवश्यक ) 

संग्राहिका : मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 114 – गीत – एक लहर कह रही है कूल से ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – एक लहर कह रही है कूल से।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 114 – गीत – एक लहर कह रही है कूल से ✍

एक लहर कह रही है कूल से

बँधे हुए हो क्यों दुकूल से।

 

एक किरन आ मन के द्वारे

अभिलाषा की अलक सँवारे

संभव कहां अब अपरिचित रहना

बार-बार जब नाम पुकारे।

 

सोच रहा हूं केवल इतना,

क्या मन मिलता कभी भूल से।

 

इसी तरह के वचन तुम्हारे

अर्थ खोजते खोजन हारे

मौन मुग्ध सा अवश हुआ मैं

शब्दवेध की शक्ति बिसारे

 

सोच रहा हूँ केवल इतना,

प्रश्न किया क्या कभी भूल से

भ्रमर बँधे हैं क्यों दुकूल से।

 

एक लहर कह रही है कूल से

बँधे हुए हो क्यों दुकूल से।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अनुत्तरित ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज का साधना मंत्र  – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – अनुत्तरित ??

सृष्टि,

प्रलय,

पुनर्निर्माण..,

जन्म,

मृत्यु,

पुनर्जन्म..,

सब कुछ

देखता रहा,

देखनेवाला

वह है या

उसकी दृष्टि?

अथवा

यह कोई और है?

वह नहीं,

उसकी दृष्टि नहीं,

फिर काल की गति निहारता

यह कालजयी कौन है?

© संजय भारद्वाज 

संध्या 5:11 बजे, 12 नवम्बर 2022

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 116 – “पक्ष में होंगी…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “पक्ष में होंगी।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 116 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “पक्ष में होंगी” || ☆

इस समूचे दिवस

का आलेख-

ज्यों रहा है लिख ।

समय का मंतिख ।

 

घूप कैसी हो

व कैसी छाँव ।

गली महतो की

रुकें ओराँव ।

 

साधते हों सगुन

देहरी पर ।

तो दिखे पोती

हुई कालिख ।

 

एक ही ओजस्व

का दाता ।

जिसे सारा विश्व

है ध्याता ।

 

शाक पर है वही

निर्भर देवता ।

तुम जिसे समझा

किये सामिख ।

 

इस लगन पर

सब नखत एकत्र ।

करेंगे प्रारंभ

अनुपम सत्र ।

 

पक्ष में होंगी

सभी तिथियाँ |

यही देंगे वर

शुभंकर रिख ।

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

मंतिख = भविष्य वक्ता,

सामिख= सामिष

लगन= लग्न

नखत= नक्षत्र

रिख= ऋषि

04-11-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 105 ☆ # मैंने अपनी कलम तोड़ दिया है… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है दीप पर्व पर आपकी एक भावप्रवण कविता “#मैंने अपनी कलम तोड़ दिया है…#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 105 ☆

☆ # मैंने अपनी कलम तोड़ दिया है… # ☆ 

जब मैंने कलम उठाई

तो सोचा

बस सच ही लिखूंगा

चारण और भाटों सा नहीं बिकूंगा

कुछ अलग होगी छवि मेरी

सिद्धांतों से कभी नहीं डिगूंगा

 

मेरे शब्द जब उनको चुभने लगे

अपने अहंकार में जब वो डूबने लगे

खतरे में पड़ा जब उनका अस्तित्व

वो हर गली चौराहे पर मुझे ढूंढने लगे

 

मेरे कलम का बहिष्कार कर दिया

मेरे खिलाफ दिलों में नफ़रत भर दिया

जो उसे पढ़ेगा वो विद्रोही कहलायेगा

मुझे कवि मानने से ही इनकार कर दिया

 

मेरे साथ आज कोई खड़ा नहीं है

मेरे हक के लिए कोई लड़ा नहीं है

गुमनाम सा जी रहा हूं अपने ही शहर में

मेरा वजूद जिंदा है, अभी मरा नहीं है

 

ऐसे समाज में मैं लिख के क्या करूं?

किसके लिए जीऊँ, किसके लिए मरूं

पत्थर से हो गये हैं जीते जी यहां

किस किसके सीने में जान फूंकता फिरूँ

 

आज मैंने अपनी कलम तोड़ दिया है

आज से मैंने लिखना छोड़ दिया है

अंधों, गूँगों, बहरों की नगरी में

पत्थरों पर सर फोड़ना छोड़ दिया है /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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