हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कर्मण्येवाधिकारस्ते ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – कर्मण्येवाधिकारस्ते ? ?

भीड़ का जुड़ना,

भीड़ का छिटकना,

इनकी आलोचनाएँ,

उनकी कुंठाएँ,

विचलित नहीं करतीं

तुम्हें पथिक..?

पथगमन मेरा कर्म,

पथक्रमण मेरा धर्म,

प्रशंसा निंदा से

अलिप्त रहता हूँ,

अखंडित यात्रा पर

मंत्रमुग्ध रहता हूँ,

पथिक को दिखते हैं

केवल रास्ते,

इसलिए प्रतिपल

कर्मण्येवाधिकारस्ते!

?

© संजय भारद्वाज  

11:07 बजे , 3.2.2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 15 मार्च से आपदां अपहर्तारं साधना आरम्भ हो चुकी है 💥  

🕉️ प्रतिदिन श्रीरामरक्षास्तोत्रम्, श्रीराम स्तुति, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना कर साधना सम्पन्न करें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 101 ☆ सादगी बेहिस हुई है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “सादगी बेहिस हुई है “)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 101 ☆

✍ सादगी बेहिस हुई है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

सबको अपनी ही पड़ी है शहर में

हाय दिल की मुफ़लिसी है शहर में

*

रात पूनम सी कही पर तीरगी

किस तरह की रोशनी है शहर में

*

बिल्डिंगों के साथ फैलीं झोपडीं

साथ दौलत के कमी है शहर में

*

शानो-शौक़त का दिखावा बढ़ गया

सादगी बेहिस हुई है शहर में

*

हर गली में एक मयखाना खुला

मयकशी ही मयकशी है शहर में

*

जुत रहा दिन रात औसत आदमी

यूँ मशीनी ज़िंदगी है शहर में

*

नाम पर तालीम के सब लुट रहे

फीस आफ़त हो रही है शहर में

*

सभ्य वासी बन रहे पर सच यही

नाम की कब आज़ज़ी है शहर में

*

है अरुण सुविधा मयस्सर सब मगर

कब फ़ज़ा इक गाँव सी है शहर में

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ वो बेवफ़ा था चला गया… ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – वो बेवफ़ा था चला गया।)

✍ वो बेवफ़ा था चला गया… ☆ श्री हेमंत तारे  

जब जानते हो ग़लत है तो फिर करते क्यों हो

शिकस्त के ग़म में दिन – रात झुलसते क्यों हो

*

गर पाना है खोया प्यार तो ऐलान ऐ जंग करो

ज़माने  से लढो,  यलगार भरो,  डरते क्यों हो

*

वो बेवफ़ा था चला गया, राब्ते में न रहा

तुम बेदार रहो, उसे पाने को तडपते क्यों हो

*

मय का कारोबारी मयखोर हो जरूरी तो नही

वो बाहोश रहता है,  उसे रिंद समझते क्यों हो

*

दौलत- शोहरत का नशा तारी हो उससे पेशतर

कुछ ज़र्फ़ तो पैदा करो, यूं अकडते क्यों हो

*

उसकी फितरत है वो तो गलत बयानी ही करेगा

तुम तो दानिशवर हो,  बहकावे मे आते क्यों हो

*

तमन्ना है ‘हेमंत’, के वो छम्म से आ जाये अभी

आ जाये तो बता देना तुम संजीदा रहते क्यों हो

(एहतिमाम = व्यवस्था, सिम्त = तरफ, सुकूँ = शांति, एज़ाज़ = सम्मान , शै = वस्तु, सुर्खियां = headlines, आश्ना = मित्र, मसरूफियत = व्यस्तता)

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सदाहरी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – सदाहरी ? ?

तपता मरुस्थल,

निर्वसन धरती,

सूखा कंठ,

झुलसा चेहरा,

चिपचिपा बदन,

जलते कदम,

दूर-दूर तक

शुष्क और

बंजर वातावरण..,

अकस्मात

मेरी बिटिया हँस पड़ी,

अब, लबालब

पहाड़ी झरने हैं,

आकंठ तृप्ति है,

कस्तूरी-सा तन है

तलवों में मखमल है,

उर्वरा हर रजकण है,

धरा पर श्रावण है..!

 ?

© संजय भारद्वाज  

11:07 बजे , 3.2.2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 168 –सजल – मानवता से बड़ा न कुछ भी… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “सजल – मानवता से बड़ा न कुछ भी…” । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 168 – सजल- मानवता से बड़ा न कुछ भी… ☆

(समांत – अनापदांत – है, मात्रा भार – 16)

स्वाभिमान अब बहुत घना है।

भारत उन्नत देश बना है।।

माना सदियों रही गुलामी।

शोषण से हर हाथ सना है।।

 *

सद्भावों के पंख उगाकर।

दिया बसेरा बड़ा तना है।।

 *

आक्रांताओं ने भी लूटा।

इतिहासों का यह कहना है।।

 *

झूठ-फरेबी बहसें चलतीं।

कहना सुनना नहीं मना है।।

 *

रहें सुर्खियों में हम ही हम।

समाचार शीर्षक बनना है।।

 *

मानवता से बड़ा न कुछ भी।

इसी मार्ग पर ही चलना है।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

25/3/25

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 230 – बुन्देली कविता – ऐसें न हेरो… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपकी भावप्रवण बुन्देली कविता – ऐसें न हेरो।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 230 – ऐसें न हेरो… ✍

(बढ़त जात उजयारो – (बुन्देली काव्य संकलन) से) 

ऐसें न हेरो

ऐंसें न हेरौ । हेरौ जी हेरो । ऐसें न हेरौ ।

 

धारदार नजर यार

भीतर लों करै मार

लम्बो है घेरो । ऐंसें न हेरौ ।

 

पलकन के पाल डाल

नैंनन की नाव चाल

लगा लओ फेरो । ऐसें न हेरौ ।

 

ऊँसई तो प्रान जात

बचन मँगें पाँच सात

घानी न पेरो । ऐसें न हेरौ ।

 

सुरभीले फूलपात

हिरनीले नैन, गात

देखे सो चेरो। ऐसें न हेरौ ।

© डॉ. राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ ग़ज़ल # 230 – “हमारी रोशनी  इंसानियत से रौशन थी…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक बेहतरीन ग़ज़ल “हमारी रोशनी  इंसानियत से रौशन थी...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 230 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “हमारी रोशनी  इंसानियत से रौशन थी...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

तुम्हें लगा कि मैं शायद कहीं बुखार में था

सच कहूँ तो मैं किसी दार्शनिक विचार में था

 *

हमारी रोशनी  इंसानियत से रौशन थी

ये सोचने का नजरिया मेरे किरदार मे था

 *

अब तुम्हें मैं शुक्रिया भी कहूँ तो कैसे कहूँ

जब कि मेरा आचारण तो गुप्तसे आभार में था

 *

 सामने दीवार पर था वह तुम्हारा  पोस्टर

मैं खोये व्यक्ति की तलाश में अखवार में था

 *

अब चला ही जा रहा जब मैं बियाबाँ की तरफ तो

जब मै खो जाऊँ तो कहना कि इंतजार में था

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

25-12-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – वर्णमाला ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – वर्णमाला ? ?

बहुत पीड़ा है

तुम्हारे स्वर में,

घनीभूत वेदना है

तुम्हारे स्वर में,

पर साथ ही

सुनाई देती है

आशावाद की ठनक,

कैसे कर लेते हो ये…?

मैं हारे हुए लोगों की

आवाज़ है,

हम वेदना पीते हैं

पर उम्मीद पर जीते हैं,

यद्यपि देवनागरी में

उच्चारण का लोप नहीं होता

पर मेरी वर्णमाला

‘हारे हुए’ को निगलती है,

और ‘लोगों की आवाज़’

बनकर उभरती है..!

?

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 8:43, 16.7.19

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ बुन्देली कविता – “देखौ कदम बढ़ाने….” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपकी एक बुन्देली कविता  देखौ कदम बढ़ाने…” ।)

☆ बुन्देली कविता ☆ “देखौ कदम बढ़ाने…” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

देखौ कदम बढ़ाने अब तुम

बहुतई सोच बिचार कें ।

गओ जमानो बचपन को जो,

रंग और रूप संवार कें ।

 

इतै-उतै हर कदम पै मिलहें,

तुमखों रूप पुजारी ।

चंद्रमुखी कोई तुमखों कहहे,

कौनऊं सीरी प्यारी ।

तो उनकी ओर न हेरन लगियो,

लाज और सरम उतार कें ।

देखौ कदम….

 

रूप-रंग रसपान के रसिया,

आसपास मंडरें हें ।

कहें इसारे कर करकें,

हम तुम पै जान लुटै हें ।

तो इनके झांसन में न फंसियो,

सुध – बुध मान बिसार कें।

देखौ कदम….

 

प्रेम समरपन, प्रेम हे पूजा,

प्रेम हे जीवन नैया ।

प्रेम हे मीरा, प्रेम हे राधा,

प्रेम हे किसन कन्हैया ।

ऐंसो प्रेम मिलै नै जब लौ,

तन – मन रखौ सांभर कें ।

देखौ कदम….

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 212 ☆ # “कहीं देर ना हो जाए…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता कहीं देर ना हो जाए…” ।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 212 ☆

☆ # “कहीं देर ना हो जाए…” # ☆

ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे हैं हम

किस सोच में पड़े हैं हम

कहीं यह पल निकल ना जाये

कहीं देर ना हो जाए

 

बारुद अंदर धधक रही है

आग हर पल भभक रही है

कहीं आशियाना जल ना जाये

कहीं देर ना हो जाए

 

भरोसा हर दिन टूट  रहा है

सब्र धीरे धीरे छूट रहा है

धैर्य कहीं छल ना जाये

कहीं देर ना हो जाए

 

सपने टूट रहे हैं

घरौंदे लुट रहे हैं

समय कालिख ना मल जाये

कहीं देर ना हो जाए

 

दिन गर्मी से तप रहा है

तम अंधेरे में छुप रहा है

कहीं मौसम बदल ना जाये

कहीं देर ना हो जाए

 

रिश्ते पल पल छल रहे हैं

मां-बाप हाथ मल रहे हैं

कहीं रिश्ते स्वार्थ मे ना जल जाए

कहीं देर ना हो जाए

 

प्रेम, स्नेह, अपनापन

अब नजर नहीं आता है

कहीं यह कड़वाहट इन्सान को निगल ना जाये

कहीं देर ना हो जाए

 

तिरस्कार कहीं घर ना कर जाए

आंखों का पानी मर ना जाए

फिर मानवता को खल ना जाये

कहीं देर ना हो जाए

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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