हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकाक्षी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

 ? संजय दृष्टि – एकाक्षी ??

एकाक्षी होना चाहता हूँ,

अर्थ यह नहीं कि

एक आँख बंद कर लूँ,

वांछित है; दोनों में

समत्व विकसित कर लूँ!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #144 ☆ भावना के दोहे…रक्षा बंधन ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे …रक्षा बंधन ।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 144 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे …रक्षा बंधन ☆

लगी द्वार पर टकटकी

देख रही हूँ राह।

राखी के अवसर की

है बहना को चाह।।

 

चौमासे की धूम है,

हर दिन है त्यौहार।

संग सखी, भाई बहन,

मिले पिया का प्यार।।

 

राखी के दिन भाई बहना

आया है शुभ दिन क्या कहना।

देते दुआएं भाई हमको

राखी तो भाई का गहना।।

 

रक्षा बंधन प्यार का,

   प्यारा सा त्योहार।

खुशियां भाई बहिन की,

   मना रहा संसार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #133 ☆ संतोष के दोहे… रक्षा बंधन ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे… रक्षा बंधन। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 133 ☆

☆ संतोष के दोहे… रक्षा बंधन ☆ श्री संतोष नेमा ☆

राखी पावन पर्व है, धागे का त्यौहार

सजी कलाई प्रेम से, मिला बहिन का प्यार

 

रक्षा का बंधन बंधे, होता जो अनमोल

बहिन सुरक्षित हो सदा, भाई के यह बोल

 

भाई को आशीष दे, करती बहिन पुकार

ईश्वर से यह कामना, सुखी रहे परिवार

 

खुशियाँ लेकर आ गया, राखी का यह पर्व

भाई पर करतीं बहिन, सबसे ज्यादा गर्व

 

सावन सुखद सुहावना, सजे सावनी गीत

रक्षाबंधन,कजलियाँ, बांट रहे हैं प्रीत

 

भाई की यह कामना, मिले बहिन का प्यार

बहिन हमेशा खुश रहे, ईश्वर से दरकार

 

दिखने में दो तन दिखें, बहे एक सा खून

पावन राखी पर्व पर, खुशियाँ होतीं दून

 

इंद्रधनुष सी राखियाँ, भरतीं मन उत्साह

प्रेम बढ़ाती परस्पर, रिश्तों की यह राह

 

दे शीतलता चाँद सी, भ्रात-भगिनि का प्यार

दिल में भी “संतोष”हो, बढ़े प्रेम व्यबहार

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 122☆ गीत – मानवता को प्यार करो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 122 ☆

☆ गीत – मानवता को प्यार करो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

मानव जीवन मूल्यवान है

सजग बनो, उपकार करो।

भारत की माटी से जुड़कर

मानवता को प्यार करो।।

 

देश के हित में सपने पालो

कर्तव्यों को सदा निभा लो

वाद्ययंत्र-सा जीवन होता,

देशभक्त  बन स्वयं बजा लो।।

 

स्वारथ से ऊपर उठ जाओ

जीवन में नव प्राण भरो।

भारत की माटी से जुड़कर

मानवता को प्यार करो।।

 

लोभ, कपट, आलस को त्यागो

धन के पीछे कभी न भागो

योग चक्र को धार बनाकर

बहुत सो लिए अब तो जागो।।

 

ममता, समता के सागर से

निश्छलता से पीर हरो।

भारत की माटी से जुड़कर

मानवता को प्यार करो।।

 

पावन दीप हृदय में जलता

द्वेष आदमी को है छलता

पुष्प कोमल – सा दिया प्रभु ने

समय उम्र को है नित्य ढलता।।

 

दुख – सुख का मेला है जीवन

जीते जी मत स्वयं मरो।

भारत की माटी से जुड़कर

मानवता को प्यार करो।।

 

तृष्णाओं में डूब न जाओ

धर्म, कर्म कर नाम कमाओ

पशु – पक्षी से उठकर सोचो

अपनी संस्कृति को चमकाओ।।

 

जैसे झरने झर – झर झरते

उसी तरह ही नित्य झरो।

भारत की माटी से जुड़कर

मानवता को प्यार करो।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#145 ☆ शेष कुशल मंगल है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय अप्रतिम रचना शेष कुशल मंगल है…”)

☆  तन्मय साहित्य # 145 ☆

☆ शेष कुशल मंगल है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

चिंतनमय शब्दों का

एक घना जंगल है

जंगल में दंगल है

शेष कुशल मंगल है।

 

अक्षरों से बुनें जाल

अपने से ही सवाल

खोजें अंतर्मन में

भ्रमण चले डाल डाल,

 

भावों के सम्मिश्रण से

निकले तब हल है

शेष कुशल मंगल है।

 

आलस को त्याग कर

रात रात जागकर

चले शब्द साधना

लय प्रवाह साध कर,

 

चीर कर अंधेरे को ही

खिलते कमल है

शेष कुशल मंगल है।

 

उपकारी सोच हो

संवेदन स्रोत हो

सत्य के सृजन में न

मन में संकोच हो,

 

फलीभूत लेखनी वही

जिसमें हलचल है

शेष कुशल मंगल है।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – बादल… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता  – बादल…।)

☆ कविता – बादल…! ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

सालों तक

गाँव में बादल नहीं बरसे

तो बादलों की तलाश में

घर से निकल गये पिता

माँ की आँखें हर साल बादल होती रहीं

पर न बादल बरसे, न पिता ही लौटे

और फिर एक साल बादल आया

ख़ूब घना बादल, ख़ूब बरसा भी

पर पिता बादल के साथ नहीं थे

न कोई संदेश आया बादल के हाथ

सालों बीत गए हैं

घर की चौखट माँ के आँसुओं से

हर समय गीली बनी रहती है

सुनते हैं, बादल हो गये थे पिता

तेज़ अंधड़ों के थपेडों की मार से

पिता भटक कर भूल गए घर का रास्ता

अब शायद वे बरस जाते होंगे हर उस गाँव में

जो उन्हें उनके गाँव की तरह प्यासा दिखता होगा ।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 45 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 45 – मनोज के दोहे

1 आरंभ

करें कार्य आरंभ शुभ, लेकर प्रभु का नाम।

मिले सफलता आपको, पूरण होते काम।।

2 प्रारब्ध

मिलता है सबको वही, लिखता प्रभु प्रारब्ध

अधिक न इससे पा सके,कितना हो उपलब्ध।।

3 आदि

आदि शक्ति दुर्गा बनीं, जग की तारण हार।

शत्रुदलन कलिमल हरण, रक्षक पालनहार।।

4 अंत

अंत भला तो सब भला, कहते गुणी सुजान।

कर्म करें नित नेक सब, मदद करें भगवान।।

5 मध्य

मध्य रात्रि शारद-निशा, खिला चाँद आकाश।

तारागण झिलमिल करें, बिखरा गए प्रकाश।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सैडिस्ट ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

 ? संजय दृष्टि – सैडिस्ट ??

रास्ते का वह जिन्न,

भीड़ की राह रोकता

परेशानी का सबब बनता,

शिकार पैर पटकता,

बाल नोंचता,

जिन्न को सुकून मिलता,

जिन्न हँसता..,

पुराने लोग कहते हैं-

साया जिस पर पड़ता है

लम्बा असर छोड़ता है..,

 

रास्ता अब वीरान हो चुका,

इंतज़ार करते-करते

जिन्न बौरा चुका,

पगला चुका,

सुना है-

अपने बाल नोंचता है,

सर पटकता है,

अब भीड़ को सकून मिलता है..,

झुंड अब हँसता है,

पुराने लोग सच कहते थे-

साया जिस पर पड़ता है

लम्बा असर छोड़ता है..।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 134 – कविता ☆ सोहल श्रृंगार कर… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी  श्रवण मास पर आधारित रचना “सोहल श्रृंगार कर…”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 134 ☆

☆ कविता  🌿 सोहल श्रृंगार कर… 🙏

–*–

कारी- कारी बदरा, घिर आए सजना।

सोहल श्रृंगार कर, आई तेरे अंगना ।।

–*–

नैनो में कजरा, बालों में गजरा,

मांग सिंदुरी, हाथों में कंगना,

बिजूरी बनकर, चमकी तेरे अंगना।।

–*–

अमुवा की डाली, कोयलिया काली,

झूम के गाती, राग मल्हारी,

बन कर पाहुन, आई तेरे अंगना ।।

–*–

वर्षा का पानी, रुत हैं सुहानी,

प्रेम दीवानी, बनती कहानी,

रिमझिम बरसी, बादल अंगना ।।

–*–

गरज – गरज कर, बादल बरसे,

पिया मिलन को, गोरी तरसे,

लेके नैनों में सपना, डोलू तेरे अंगना।।

–*–

पांवों की पायल, रुन झुन साजे,

धक धक जियरा, तन में बाजें,

प्रीत में भीगी, निहारु तेरे अंगना ।।

–*–

मांथे में बिंदिया, होटो पे लाली,

धानी चुनरियां, सर पे डाली,

मांग सिंदूरी, सजाऊं तेरे अंगना ।।

–*–

हाथों में गागर, छलका सागर,

प्रीत की डोरी, ढाई आखर,

बन के जोगनियां, बैठी तेरे अंगना ।।

–*–

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 100 – गीत – घरनी से घर लगता है… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – घरनी से घर लगता है…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 100 – गीत – घरनी से घर लगता है✍

घरनी से घर लगता है

वरना रैन बसेरा है।

 

पहली किरन उगे सूरज की

जग जाती है घरवाली।

हो जाता है स्नान ध्यान सब

सज जाती पूजा की थाली।

ऐसा सुखद सबेरा है।

 

करके झाड़ बुहारी सारी

करती लांघी चोटी है।

दाल उबलती बटलोई में

बनती जाती रोटी है।

चौका आंगन फेरा है ।

 

दफ्तर की भी जल्दी होती

सुई सरकती जाती है।

सबके खाने की चिंता में

कहां ठीक से खाती है।

लगता रहता टेरा।

 

राह देखता तुलसी चौरा

इंतजार में सँझवाती।

लौटा करती साँझ ढले वह

संग साथ सब्जी लाती।

सूर्यमुखी सँझबेरा  है ।

 

घरनी से घर लगता है

वरना रैन बसेरा है।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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