॥ मानस के मोती॥
☆ ॥ मानस में सूक्तियां – भाग – 3 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
अरण्यकाण्ड
मैं अरु मोर, तोर तैं माया जेहि बस कीन्हे जीव निकाया।
गौ गोचर जहं लगि मन जाई, सो सब माया जानेऊ भाई।
परहित बस जिन्ह के मन मांही, तिन्ह कहुं जग दुर्लभ कछु नाहीं।
सुनहु उमा ते लोग अभागी, हरि तजि होहिं विषय अनुरागी।
सुन्दरकाण्ड
बसनहीन नहि सोहिं सुरारी, सब भूषण भूषित वर नारी।
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं बरषि गये पुनि तबहि सुखाहीं।
दीन दयालु विरद संभारी, हरहु नाथ मम संकट भारी।
सचिव वेद गुरु तीनि जो प्रिय बोलहिं भय आस।
राज, धर्म, तन तीनि कर होई बेगि ही नास।
सुमति कुमति सबके उर रहहीं, नाथ पुरान निगम अस कहहीं।
जहां सुमति तहँ संपत्ति नाना, जहां कुमति तहँ विपति निदाना।
उमा संत की इहै बड़ाई मंद करत जो करई भलाई।
बस भल बास नरक के ताता, दुष्ट संग जनि देहि विधाता।
तब लगि कुसल न जीव कहं सपनेहु मन विश्राम।
जब लगि भजन न राम कहं सोक करम तजि काम॥
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#139 ☆ तन्मय दोहे – मायावी षड्यंत्र…1 ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय “तन्मय दोहे – मायावी षड्यंत्र…1”।)
☆ तन्मय साहित्य # 138 ☆
☆ तन्मय दोहे – मायावी षड्यंत्र…1 ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
अभिलाषाएँ अनगिनत, सपने कई हजार।
भ्रमित मनुज भूला हुआ, कालचक्र की मार।।
नकली जीवन जी रहे, सुविधा भोगी लोग।
स्वांग संत का दिवस में, रैन अनेकों भोग।।
पानी पीते छानकर, जब हों बीच समाज।
सुरा पान एकान्त में, बड़े – बड़ों के राज।।
साधे जो जन स्वयं में, योगसिद्ध गुरु ज्ञान
दायित्वों के साथ में, चढ़े प्रगति सौपान ।।
मंचों पर वह राम का अभिनय करता खास।
मात – पिता को दे दिया, उसने ही वनवास।।
सभी मुसाफिर है यहाँ, बँधे एक ही डोर।
मंत्री – संत्री, अर्दली, साहूकार या चोर।।
© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
अलीगढ़/भोपाल
मो. 9893266014
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में सूक्तियां – भाग – 2॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
॥ मानस के मोती॥
☆ ॥ मानस में सूक्तियां – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
अयोध्याकाण्ड
जो गुरु चरण रेनु सिर धरहीं ते जनु सकल विभव बस करहीं।
चारि पदारथ कर तल ताके, प्रिय पितु-मात प्राण सम जाके।
काह न पावक जारि सके, का न समुद्र समाय।
का न करे अबला प्रबल, केहि जग काल न खाय।
गुरु पितु मातु बंधु सुर साई, सेवअहिं सकल प्राण की नाई।
काहु न कोऊ सुख-दुखकर दाता, निज कृत करम भोग सब भ्राता।
धरमु न दूसर सत्य समाना, आगम निगम पुरान बखाना।
बिनु रघुपति पद पदुमपरागा, मोहि केऊ सपनेहु सुखद न लागा।
रामहि केवल प्रेम पियारा, जान लेऊ जो जाननि हारा।
अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहऊ निरबान।
जनम-जनम रति रामपद यह बरदानु न आन॥
मुखिया मुख सो चाहिये, खानपान महुं एक।
पालई पोषइ सकल अंग, तुलसी सहित विवेक॥
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 40 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆
श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 40 – मनोज के दोहे ☆
संविधान से झाँकती, मानवता की बात।
दलगत की मजबूरियाँ, कर जातीं आघात।।
शांति और सौहार्द से, आच्छादित वेदांत।
धर्म ध्वजा की शान यह, सदा रहा सिद्धांत।।
आभा बिखरी क्षितिज में,खुशियों की सौगात।
नव विहान अब आ गया, बीती तम की रात।।
मन ओजस्वी जब रहे, कहते तभी मनोज।
सरवर के अंतस उगें, मोहक लगें सरोज।।
देवों की आराधना, करते हैं सब लोग।
कृपा रहे उनकी सदा, भगें व्याधि अरु रोग।।
दिल से बने अमीर सब, कब धन आया काम।
नहीं साथ ले जा सकें, होती है जब शाम।।
महल अटारी हों खड़ीं, दिल का छोटा द्वार।
स्वार्थ करे अठखेलियाँ, बिछुड़ें पालनहार।।
छोटा घर पर दिल बड़ा, हँसी खुशी कल्लोल ।
जीवन सुखमय से कटे, जीवन है अनमोल ।।
माँ की ममता ढूँढ़ती, वापस मिले दुलार।
वृद्धावस्था की घड़ी, सबके दिल में प्यार।।
वृद्धाश्रम में रह रहे, कलियुग में माँ बाप।
सतयुग की बदली कथा, यही बड़ा अभिशाप।।
नई सदी यह आ गई, जाना है किस ओर।
भ्रमित हो रहे हैं सभी, पकड़ें किस का छोर।।
© मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002
मो 94258 62550
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कद ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆
श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – कद
जितना निकट जाओ,
छोटा कद
ऊँचा होता जाता है,
विज्ञान जताता है.. !
जितना निकट जाओ,
ऊँचा कद
बौना होता जाता है,
अनुभव बताता है…!
© संजय भारद्वाज
( संध्या 6:59 बजे, 3 जुलाई 2022)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
हिन्दी साहित्य – कविता ☆ जब तुम नदी बन जाओगी ☆ श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल ☆
श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल
(युवा साहित्यकार श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल जी लखनऊमें पले बढ़े और अब पुणे में सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। आपको बचपन से ही हिंदी और अंग्रेजी कविताएं लिखने का शौक है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता जब तुम नदी बन जाओगी।)
☆ कविता ☆ जब तुम नदी बन जाओगी ☆ श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल ☆
जब तुम नदी बन जाओगी
और जब तुम नदी बन जाओगी
तब तुम्हे महसूस हो जायेंगी
वो हज़ारों छोटी बड़ी मछलियां,
जो तैर रही हैं तुममे
महसूस होंगी तुम्हें टकराती हुई
और फिर टूटती हुई चट्टानें
और जब तुम नदी बन जाओगी
तुम्हे पता चलेगा तुम्हारे वेग का।
कही अपनी चंचलता का एहसास होगा
और कहीं अपनी गहराई का।
और जब तुम नदी बन जाओगी
तब भी याद रखना, उन बादलों को
उन हिम खंडों को जो तुम्हे जीवन देने के लिये मिट गए
याद रखना उन सभी कणों को
जो निस्वार्थ बह चले तुम्हारे साथ
और जब तुम नदी बन जाओगी
वो आएंगे तुम्हारे पास
अपनी प्यास बुझाने, अपने पाप धोने
और कभी बस किनारे पे वक़्त गुजारने
आसान नही होगा
पर मुझे पता है
तुम एक दिन नदी बन जाओगी।
© केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल
पुणे मो 9425592588
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में सूक्तियां – भाग – 1॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
॥ मानस के मोती॥
☆ ॥ मानस में सूक्तियां – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
बालकाण्ड
मुद मंगल मय सन्त समाजू, जो जग जंगम तीरथ राजू।
बिनु सत्संग विवेक न होई, रामकृपा बिनु सुलभ न सोई।
भलो भलाई पै लहई, लहई निचाई नीचु
सुधा सराहिअ अमरता, गरल सराहिअ मीचु।
जड़ चेतन गुणदोषमय विश्व कीन्ह अवतार।
संत हंस गुण गहहिं पय, परिहरि बारि विकार।
कीरति भनिति भूति भलि सोई, सुरसरि सम सब कहं हित होई।
राम नाम मनि दीप धरु जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहिरहू जौ चाहसि उजयार।
गुरु के वचन प्रतीति न जेही, सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही।
राम कथा सुन्दर कर तारी, संसय विहंग उड़ावन हारी।
अगुन अनूप अलख अज जोई, भगत प्रेम बस सगुन सो होई।
तुलसी जस भक्तिव्यता, तैसी मिलई सहाय।
आपु न आवई ताहि पहिं, ताहि तहां ले जाय॥
हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम तें प्रकट होहि भगवाना।
उदित उदय गिरी मंच पर रघुकुल बाल पतंग
बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग॥
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 95 – गीत – शायद याद किया तुमने ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆
डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – शायद याद किया तुमने…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 94 – गीत – शायद याद किया तुमने…
शायद याद किया है तुमने कांटे लगे महकने।
खिड़की खुली बजे दरवाजे हवा ठुमकती आई ।
बादल लगा डाकिया जैसा लाया बूँद बधाई।
आँखें ऐसी हुई कि जैसे पंछी लगें चहकने ।
विकल हुई थी मन की धरती बातों बात जुड़ानी
होने लगी ख्वाब की खेती मिला याद का पानी ।
शायद याद किया है तुमने पीड़ा लगी सरसने।
शायद याद किया है तुमने काँटे लगे महकने।
© डॉ राजकुमार “सुमित्र”
112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 97 – “धुँधला सब दिख रहा है…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆
श्री राघवेंद्र तिवारी
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “धुँधला सब दिख रहा है…”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 97 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆
☆ || “धुँधला सब दिख रहा है…”|| ☆
परी बनी ,हरी-हरी
सी पहिन साडियाँ
सिल्की दिखा किये हैं
सुबह की पहाडियाँ
हौले से तह किये
लगीं जैसे दुकान में
ठहरी प्रसन्नता हो ।
खुद के मकान में
चिडियों की चहचहाहटों
के खुल गये स्कूल
पेड़ों के साथ पढ ने
आ जुटीं झाडियाँ
धुँधला सब दिख रहा है
यहाँ अंतरिक्ष में
खामोश चेतना जगी है वृक्ष-वृक्ष में
जैसे बुजुर्ग, बादलों
के झूमते दिखें
लेकर गगन में श्वेत-
श्याम बैल गाडियाँ
गतिशील हो गई हैं
मौसम की शिरायें
बहती हैं धमनियों में
ज्यों खून सी हवायें
या कोई वैद्य आले
को लगा देखता
कितनी क्या ठीक चल
रहीं, सब की नाडियाँ
© श्री राघवेन्द्र तिवारी
14-06-2022
संपर्क : ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047, मोब : 09424482812
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 88 ☆ # नया सवेरा आयेगा # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆
श्री श्याम खापर्डे
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है पितृ दिवस पर आपकी एक भावप्रवण कविता “# नया सवेरा आयेगा #”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 88 ☆
☆ # नया सवेरा आयेगा # ☆
कब तक अंधकार में भटकोगे
कब तक जुमलों से बहकोगे
कब तक सच के लिए तरसोगे
हाथ उठाओ
आवाज लगाओ
लोगों को जगाओ
तब यह तिमिर छट जायेगा
नया सवेरा आयेगा
चारों तरफ दीवारें हैं
रास्ते बंद सारे हैं
सब गम के मारे हैं
सबको गले लगाना होगा
पत्थरों मे राह बनाना होगा
अंधविश्वास भगाना होगा
तब यह शोषण घट जाएगा
नया सवेरा आयेगा
कांटों भरी राह है
दुश्वारियां अथाह है
कदम कदम पर आह है
शिकंजों में कसे जाओगे
यातनाएं हजार पाओगे
हो सकता है मारे जाओगे
तब मरने का डर मिट जाएगा
नया सवेरा आयेगा
नया सवेरा आयेगा /
© श्याम खापर्डे
फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो 9425592588
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈