॥ मानस के मोती॥
☆ ॥ मानस में लोकोत्तियां – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
बालकाण्ड
सठ सुधरहिं सत्संगति पाई-पारस परसु कुधातु सुहाई।
गुन अवगुन जानत सब कोई-जौ जेहिं भाव नीक तेहि सोई।
होइहिं सोई जौ राम रुचि राखा-को करि तर्क बढ़ावै साखा।
नहिं कोउ अस उपजा जग माहीं-प्रभुता पाई जाहिं मद नाहीं।
जहां विरोध माने कहुं कोई, तहां गये कल्याण न होई।
समरथ को नहिं दोष गुँसाईं-रवि पावक सुरसरि की नाँई।
परहित लागि तजई जो दैही-संतत संत प्रशंसहि तेही।
बांझ कि जान प्रसव की पीरा।
पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं।
हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता, कहहिं सुनहिं बहुविधि सब संता।
जिनकी रही भावना जैसी, प्रभु मुरति देखी तिन्ह तैसी।
जेहि के जा पर सत्य सनैहू, सौ तेहि मिलई न कछु संदेहु।
का वर्षा जब कृषि सुखानै, समय चूकि पुनि का पछिताने।
मन मलीन तन सुन्दर कैसे, विष रस भरा कनक घट जैसे।
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈