हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 16 (21-25)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (21 – 25) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

 

अब देख सरयू के तट और जल को, जहाँ स्नान सुविधा औं पूजा नहीं है।

वानीर कुंजों से घिर गये उन्हें देख मन दुखता है, अच्छा लगता नहीं है।।21।।

 

अतः छोड़ तुम अब कुशावती नगरी को, स्वकुल-राजधानी अयोध्या में आओ।

ज्यों तव पिता राम, तज मानवी देह, परम तत्व में मिल हुए एक भाव।।22।।

 

सुन प्रार्थना उस नगर देवता की कहा कुश ने-हे देवि ऐसा ही होगा।

सुन देवी उत्तर हुई लुप्त चुपचाप, खुशी हो के अपनी तजी रूप-आभा।।23।।

 

प्रातः सभा में कहा कुश ने वृत्तांत निशि का सभी सभासद ब्राम्हणों से।

जिनने समझ-राजधानी ने कुश का वरण कर लिया है दिया आशीष मन से।।24।।

 

कर वेदपाठी? द्विजों के हवाले, कुश रानियों सहित निकले अयोध्या।

पीछे थी सेना कि ज्यों मेघमाला के चलता है पीछे बवण्डर पवन का।।25।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#128 ☆ कविता – जैसे हैं हम, दिखते कब हैं… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता “जैसे हैं हम, दिखते कब हैं…”)

☆  तन्मय साहित्य  #128 ☆

☆ कविता –  जैसे हैं हम, दिखते कब हैं… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

हम अपने को, लिखते कब हैं

जैसे हैं हम, दिखते कब हैं!

 

जो मन आया लिखा पराया

तुम्हें पसन्द, गीत वह गाया

रचा वही, जिससे मतलब है

जैसे हैं हम…..

 

आदर्शो की, बातें कर ली

ढेर पोथियाँ, हमनें भर ली

विविध विधा,अद्भुत करतब है

जैसे हैं हम…..

 

जिससे कलम पकड़ना सीखा

अब अपने सम्मुख वह फीका

ज्ञान स्वयं का, बहुत विशद है

जैसे हैं हम…..

 

भाव-भंगिमाओं, अभिनय में

स्वमुख उच्चरित निज परिचय में

सबसे ऊँचा, अपना कद है

जैसे हैं हम…..

 

जलसों में, हाजरी जरूरी

रखते सब से, निश्चित दूरी

हर संस्था में, अपने पद हैं

जैसे हैं हम, दिखते कब हैं

हम अपने को लिखते कब हैं।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 23 ☆ कविता – महलों के स्वप्न — ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक कविता  “महलों के स्वप्न ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 23 ✒️

?  कविता – महलों के स्वप्न — डॉ. सलमा जमाल ?

यह जर्जर गिरता हुआ मकान,

और है मेरी जर्जर काया ।

बेटा करता शहर मजदूरी,

अब तक ना घर लौट के आया ।।

 

खपरैल से टपकता है पानी,

भरभरा कर गिर गई दीवारें।

पन्नी में हाथ लगा खड़े हैं ,

पानी निकाल निकाल के हारे ।।

 

चारों तरफ भर गया है पानी,

पलंग पर रखी है आटा बोरी ।

गीली लकड़ी जले ना चूल्हा,

सब दुखों की जल जाए होरी ।।

 

है ऐसी सरकार करें क्या?

कुछ भी ना सहायता पाई ।

बांस, बल्ली, खपरैल ना पन्नी,

घर-घर बेरोजगारी छाई ।।

 

 कभी तो होगी दूर ग़रीबी ,

‘सलमा’ सुख जीवन में आयेंगे ।

लाल मेरा लौटेगा कमाकर,

महलों के स्वप्न सजायेंगे।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 16 (16-20)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (16 – 20) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

बने भित्ति पर चित्र उन हाथियों के जिन्हें हथनियाँ कमल देती थी सर में।

समझ वास्तविक, क्रुद्ध सिंहों ने नख से किये चीर मस्तक दलित हर एक घर में।।16।।

 

बने दारूस्तम्भों पै रमणियों के रंगे चित्र सारे मलिन हो गये हैं।

जिन्हें भ्रम से चंदन समझ सर्प लिपटे, के केंचुल, कुचाभरण से बने गये हैं।।17।।

 

घरों की पुताई भी फीकी गई पड़, उपज आई अब घास उनकी छतों पर।

जहाँ चन्द्र किरणें चमकती थी शीतल, नहीं कोई सौन्दर्य दिखता वहाँ पर।।18।।

 

जिन डालियों को झुका प्रेम से, कभी चुनती थी हँसते हुए फूल नारी।

उन्हें वन-किरातों से कई वानरों ने दिया तोड़ औं उजाड़ी सारी क्यारी।।19।।

 

जिन गवाक्षों से निशादीप शोभा, औं दिन में छलकती थी आनन की आभा।

वहाँ मकड़ियों के घने जाले हैं अब, कहाँ दीप-किरणें? धुँआ या कुहासा।।20।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कविता – परितोष ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – कविता – परितोष ??

आभासी कला में

वे महारथी बने रहे,

मरुस्थल में मृगतृष्णा

का दृश्य दिखाते रहे,

वह सूखी धरती पर

तरबूज की बेल बन कर

उगता रहा, फलता रहा,

दुर्भिक्ष में भी हरा रहा,

अमित परितोष का

अविरल स्रोत बना रहा,

समय साक्षी है,

मृगतृष्णा के मारों के

विदारक अंत की,

और तरबूज से मिलती

तृप्ति आकंठ की,

अपनी वृत्ति का

आकलन आप करो,

अपनी दृष्टि से अपना

निर्णय स्वयं करो..!

© संजय भारद्वाज

प्रात: 4:34 बजे, 18.4.22

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कोहरे के आँचल से # अभी भी… ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगणी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी द्वारा रचित एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “अभी भी…। )

☆ कोहरे के आँचल से # अभी भी सौ. सुजाता काळे ☆

अभी भी आसपास तेरी साँस है, 

अभी भी आसपास तेरा अहसास है।

गर शुष्क सभी लता, फूल, हुए हैं,

गर शुष्क सभी मेरे आँसू हुए हैं ।

अभी भी सावन का मन में मास है।

 

तुम्हे याद करके गला रूंधता है,

और एक तारा नभ से टूटता है।

फिर भी अभी एक बाकी आस है।

अभी भी आसपास तेरा आभास है।

अभी भी आसपास तेरी आस है।

© सुजाता काळे

28/2/22

पंचगणी, महाराष्ट्र, मोबाईल 9975577684

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 16 (11-15)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (11 – 15) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

 

स्वामी रहित आज उस की अयोध्या की, प्राचीर खण्डहर हुई दिख रही है।

जो सांध्य दुस्तर प्रभन्जन से आक्रान्त धन सी, कथा अपनी खुद लिख रही है।।11।।

 

जिन मार्ग में रात को साज नूपुर, संचार करती थी अभिसारिकायें।

अब उन्हीं पर मांस की खोज में शोर करती भटकती हैं श्रृगालिकायें।।12।।

 

जो ताल-जल, नारियां के करों से पा स्पर्श, कल-कल मधुर ध्वनि था गाता।

वहीं अब वहां वन्य भैसों के श्रृंगों से आहत, प्रताड़ित हो रोता दिखाता।।13।।

 

दावाग्नि से बचे, आवास उजड़े मयूरों को वृक्षों का अब है सहारा।

भुला नृत्य-तालों को होकर वनैलें, भटकते हुये दिखता उनका नजारा।।14।।

 

मेरे नगर के वे सोपान जिन पर, कभी रच महावर निकलती थी नारी।

अब तुरत मारे मृगों के रूधिर से रंगे, सिंह पंजों से दबते हैं भारी।।15।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 84 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 84 –  दोहे ✍

सब कुछ तुमको मानकर, तोड़े सभी उसूल।

या पर्वत हो जाएंगे, या धरती की धूल।।

 

सांसों में तुम हो रचे, बचे कहां हम शेष।

अहम समर्पित कर दिया, करें और आदेश।।

 

नींद में निगोडी बस गई, जाकर उनके पास ।

धीरे धीरे कह गई, निर्वासन इतिहास ।।

 

जाग रही है आंख या जाग रही है पीर।

जाने कैसे नींद की, बदल गई तासीर।

 

नींद, आंख, आंसू ,सपन, जीवन के आधार ।

संजीवन की शक्ति है, प्यार, प्यार बस प्यार।।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत #87 – “नदी एक दूध की …” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “नदी एक दूध की…”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 87 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “नदी एक दूध की…”|| ☆

सजी हुई गहनों में

किंचित

सराफे सी तुम

 

स्वर्ण रेख नभ से

आ  गुजरी  हो

 अप्सरा स्वर्ग से आ

उतरी हो

 

गौरव की मूर्तिमति

किरण कोई

आज के

मुनाफे

सी तुम

 

नीली सन्ध्या के

घिरते -घिरते

सोम -सत्व नभ से

झरते  -झरते

 

जैसे तह खोल

बाँध जूडे पर

श्वेत शुभ्र

साफे सी

तुम

 

तारों से बूंद बूंद

बिखरी हो

नदी एक दूध की

आ संवरी हो

 

अम्बर की डाक से

अभी आये

चाँद के

लिफाफे

सी तुम

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

14-04-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कविता – प्रतीक्षा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – कविता – प्रतीक्षा ??

प्रतीक्षा,

मूक बनी,

दोनों का मन

आजीवन मथती रही,

दुर्भाग्य !

प्रतीक्षा,

दोनों की

मुखर स्वीकृति से

आजीवन वंचित रही..!

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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