हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (66-70)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (66 – 70) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

 

फिर प्रसूति पश्चात मैं तप में हो तल्लीन।

प्रभु से माँगूगी तुम्हें हो विनीत अतिदीन।।66।।

 

वर्णों और आश्रमों का नृप पर रक्षा भार।

होता इससे भी मेरा उचित तुम्हें उद्धार।।67।।

 

‘‘ठीक कहूँगा राम से मैं यह करूण पुकार’’

कह लक्ष्मण ओझल हुये, उठा रूदन-चीत्कार।।68।।

 

था सीता के क्लेश में दुखी हर एक वन ठौर।

शिखी भीत, पुष्पाश्रु तरू मृग ने उगले कौर।।69।।

 

व्याधाहत पक्षी को लख श्लोक रूप में शोक।

जिनका था वह वाल्मीकि कर न सके दुख-रोक।।70अ।।

 

कुश समिधा ले लौटते पा रोदन-आभास।

अनुमानित पथ पार कर पहुँचे सीता पास।।70ब।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अंतरराष्ट्रीय जल दिवस विशेष – बिन पानी सब सून ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है अंतरराष्ट्रीय जल दिवस पर आपकी अत्यंत विचारणीय कविताएं – बिन पानी सब सून )

☆ कविता ☆ विश्व जल दिवस विशेष – बिन पानी सब सून ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

धरती-आसमाँ-आदमी सभी सूखे

कहीं नहीं है पानी

आँख सहेजी वरना कब का

मर गया होता पानी.

हजार फुट खोदने पर भी

पानी नहीं लगा

फिर और खोदा

तो थोड़ा-सा लगा,

हाय-री किस्मत

वह भी पानी नहीं

हज़ार फुट खोदनेवालों का

पसीना निकला.

वह बेगैरत नहीं

शायद प्यासा रहा होगा

वरना आदमी का खून

इतनी जल्दी

पानी नहीं होता.

ये सागर से घिरे,

वो शीश पर

गंगा धारण करते

‘ देवता अमर है ‘

आदमी की तरह

प्यासे नहीं मरते.

नल पर कितनी भीड़ है

देख मेरी सरकार

दो कलसे की खातिर

टांके लग् गए

चार.

गरीब आदमी पानी से

प्यास ही नहीं

भूख भी मिटाता है

कैसे ?

एक रोटी की कमी

दो लोटे पानी पी

पूरी करता है

ऐसे.

” क्या यह पानी

पीने योग्य है ? “

” हाँ,

यदी सच में प्यास लगी हो.”

जोखू, फिर

गंदा पानी पी रहा

उसे ‘ ठाकुर का कुआँ ‘ तो मिला

मगर सूखा हुआ.

उस दिन भी उसे

ठाकुर का कुआँ नहीं

कुएँ का पानी ही

तो चाहिए था.

कुदरत से

एक -तिहाई धरती

और दो-तिहाई

पानी मिला है,

फिर प्यास क्यों ?

जाँच हो,

ये घोटाला

कब से चला है ?

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 

अंतरराष्ट्रीय जल दिवस पर श्री संजय भरद्वाज , अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे के विशेष आलेख / नाटक आप निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं >>

? संजय दृष्टि 👉  अंतरराष्ट्रीय जल दिवस विशेष – बिन पानी सब सून ?

? यूट्यूब लिंक 👉 अंतरराष्ट्रीय जल दिवस विशेष – नाटक – ” जल है तो कल है” ?

 

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#125 ☆ हक न छीनें परिश्रम का…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना  “हक न छीनें  परिश्रम का….”)

☆  तन्मय साहित्य  #125 ☆

☆ हक न छीनें  परिश्रम का…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

घाम, सूरज का तपाये

बारिशें, जी भर भिंगाये

निठुर जाड़ा तो जड़ों तक

शीत में तन-मन कँपाये।

 

वे सदा रहते खुले में

खेत में खलिहान में

गुनगुनाते साथ श्रम के

चाय के बागान में,

बेबसी भीतर दबे दुखदर्द

ये किसको सुनाए…..

 

मुँह अंधेरे जब उठे

चिंता सताए पेट की

निगल, बासी कौर कुछ

ड्योढ़ी चढ़े फिर सेठ की,

झिड़कियों को अनसुना कर

पसीने में वे बहाए…….

 

राज-मिस्त्री मजदूरों के

साथ असंगठित हैं जो

करें चिंता श्रमजीवी

समुदाय की अधपेट हैं वो

हक न छीनें परिश्रम का

उसी से अट्टालिकाएँ…..

 

वे सदा मुस्तेद सीमा पर

अथक अविराम से

युद्ध या हो विभीषिकाएँ

डोर ये ही थामते,

मौसमों से जूझते, पथ में

कई है विषमताएँ…….

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 19 ☆ कविता – वृक्ष की पुकार ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक कविता  “वृक्ष की पुकार”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 19 ✒️

?  कविता – वृक्ष की पुकार —  डॉ. सलमा जमाल ?

रुकती हुई,

सांसो के मध्य,

कल सुना था मैंने,

कि तुमने कर दी,

फिर एक वृक्ष की,

” हत्या “

इस कटु सत्य का,

हृदय नहीं,

कर पाता विश्वास,

” राजन्य “

तुम कब हुए, नर पिशाच ।।

 

अंकित किया, एक प्रश्न ?

क्यों ? केवल क्यों ?

इतना बता सकते हो,

तो बताओ ? क्यों त्यागा,

उदार जीवन को ?

क्यों उजाड़ा,

रम्य वन को ? क्यों किया,

हत्याओं का वरण ?

अनंत – असीम,जगती में

क्या ? कहीं भी ना,

मिल सकी, तुम्हें शरण ? ।।

 

अच्छा होता

तुम, अपनी

आवश्यकताएं,

तो बताते,

शून्य, – शुष्क,

प्रदूषित वन जीवन,

की व्यथा देख,

रोती है प्रकृति,

जो तुमने किया,

क्या वही थी हमारी नियति ?।।

 

शैशवावस्था में तुम्हें,

छाती पर बिठाए,

यह धरती,

तुम्हारे चरण चूमती,

रही बार-बार,

रात्रि में जाग – जाग

कर वृक्ष,

तुम्हें पंखा झलते रहे बार-बार,

तब तुम बने रहे,

सुकुमार,

अपनी अनन्त-असीम,

तृष्णाओं के लिए,

प्रकृति पर करते रहे

अत्याचार ।।

 

हम शिला की

भांति थे,

निर्विकार,

तुम स्वार्थी –

समयावादी,

और गद्दार,

तभी वृद्ध,

तरुण – तरुओं,

पर कर प्रहार,

आयु से पूर्व,

उन्हें छोड़ा मझधार,

रिक्त जीवन दे,

चल पड़े

अज्ञात की ओर,

बनाने नूतन,

विच्छन्न प्रवास ।।

 

किस स्वार्थ वश किया,

यह घृणित कार्य ?

क्या इतना सहज है,

किसी को काट डालना,

काश !

तुम कर्मयोगी बनते,

प्रकृति के संजोए,

पर्यावरण को बुनते,

प्रमाद में  विस्मृत कर,

अपना इतिहास,

केवल बनकर रह

लगए, उपहास ।।

 

काश ! तुमने सुना होता,

धरती का, करुण क्रंदन,

कटे वृक्षों का,

टूट कर बिखरना,

गिरते तरु की चीत्कार,

पक्षियों की आंखोंका, सूनापन,

आर्तनाद करता, आकाश,

तब संभव था, कि तुम फिर,

व्याकुल हो उठते,

पुनः उसे, रोपने के लिए ।।

 

अपना इतिहास,

बनाने का करते प्रयास,

तब तुम, वृक्ष हत्या,

ना कर पाते अनायास ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (61-65)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (61 – 65) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

‘‘मेरी तरफ से पूँछे वे राजा से यह बात।

अग्नि परीक्षा ले मेरी सुन केवल अपवाद।।61अ।।

 

दिया त्याग जो मुझे यह है क्या धर्म-विधान।

या रघुकुल अनुरूप यह हो इसका संधान’’।।61ब।।

 

अथवा मेरे विषय में है यह स्वेच्छाचार।

या मम पिछले जन्मों के पापों का प्रतिकार।।62।।

 

राजलक्ष्मी को छोड़ तुम वन गये थे मम साथ।

इससे पास उसको मेरा छोड़ दिया विश्वास?।।63।।

 

राक्षस पीड़ित थे कभी जिन तपसिन के साथ।

उनको मैंने दी शरण अभय आपके साथ।।64अ।।

 

कृपा आपकी थी बड़ी थी मैं निडर सनाथ।

उन तापस की शरण अब जाऊँ मैं कैसे नाथ?।।64ब।।

 

पलता है मम उदर में अंश तुम्हारा आज।

नहिं तो रखती मैं भला यह जीवन किस काज?।।65।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 118 – कविता – होली के रंग… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है होली / रंग पंचमी पर्व पर विशेष कविता  “*होली के रंग … *”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 118 ☆

☆ कविता – होली के रंग  

कभी भंग ऐसा चढता

अपनों को लगाए रंग।

गिले-शिकवे भूलकर

मिलता अपनों का संग।।

 

इंद्रधनुष के सात रंग,

बनाओ अपना भंग।   

लगाकर इनको सबके मांथ,

जीत लोअपनी जंग।।

 

बैंगनी रंग प्रीत का रंग,

धर्मपत्नी पर उछालो।।

साथ कभी ना छोड़ूं तेरा,

दिल से दिल मिला लो।।

 

रंग रंगों नीला मात-पिता,

चरणों में मिले आसमान।।

सिर झुका उनकी सदा,

रखना सदैव सम्मान ।।

 

आसमानी है रंग अनूठा,

साली जी को भाएं।।

जब भी जाए घर उनके,

सुंदर उपहार ले जाएं।।

 

हरा रंग में भंग मिला,

लगा दो अपनी भौजाई।।

घर आंगन महकता रहे,

उनकी खुशबु अगनाई।।

 

पीला रंग बिखराओं,

अपनी अपनी फुलवारी।

हंसते-हंसते सजा रहे,

बच्चों की नव क्यारी ।।

 

नारंगी रंग वीरों को भाएं,

बाटं दो सारे जवान।

उनके संरक्षण में सदा,

खिलता अपना हिंदुस्तान।।

 

भंग चढ़ाकर लाल रंग,

लगा दो अपने परिवार।

सारी उम्र टूटे नहीं,

बनाओ ऐसा घर द्वार।।

 

गुलाबी रंग हैं न्यारी,

होती सबसे प्यारी।

अबीर गुलाल लेकर देखों,

लगाई बारी-बारी।।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (56-60)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (56 – 60) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

मूर्छित सीमा को हुआ कुछ न दुःख का भान।

किन्तु चेतना पा दुखी हुई असीम अजान।।56अ।।

 

लक्ष्मण के उद्वोध से और बढ़ा दुखभार।

मूर्छा ने दी शांति, पर चेत ने कष्ट अपार।।56ब।।

 

पतिनिंदा उसने न की, यद्यपि निर-अपराध।

कोसा खुद को हर तरह फिर-फिर मन को साध।।57।।

 

सीता को धीरज बँधा, क्षमा माँग चुप-चाप।

वाल्मीकि-आश्रम का पथ दिखा, सहा संताप।।58।।

 

सीता बोली- ‘‘खुश रहो, तुम अग्रज आधीन।

वैसेहि जैसे विष्णु है इंद्र के आगे दीन’’।।59।।

 

सासों को कहने कहा लक्ष्मण से तो प्रणाम।

और कामना कुशल की सुखी हो जिससे राम।।60।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 80 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 80 –  दोहे ✍

मन में उपजी कामना, कह सकते आसक्ति।

बिना किसी भी रूप के, क्या रह सकता व्यक्ति।।

 

मेरे मन की विकलता, माप सकेगा कौन?

अपनी गति, मति देखकर, रह जाते सब मौन।।

 

जिसको चाहो टूटकर, वही करे संदेह।

मन की कीमत कुछ नहीं, बहुत कीमती देह।।

 

प्रिया शरीरी तुम नहीं, रूप शिखा द्मुतिमान ।

रोम रोम में बस गए, अर्पित जीवन प्राण।।

 

बैरी हैं सब रूप के, चाह रहे अधिकार।

डाले बंसी प्रेम की, तकते रहे शिकार।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत #82 – “बहुत दूभर दिन यहाँ …” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “बहुत दूभर दिन यहाँ …।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 82 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “बहुत दूभर दिन यहाँ ”|| ☆

पेड़ अपने साये में

सहमे किनारे के ।

बहुत दूभर दिन यहाँ

पर हैं गुजारे के।।

 

मुश्किलें बढती लगीं

संजीदगी लेकर ।

थक रहा उत्साह है

यह जिन्दगी देकर।

 

इसी मुश्किल वक़्त को

लकवा लगा है

मेम्बर दहशतजदा हैं

इस इदारे के ।।

 

उद्धरण हल क्या बताये

व्याकरण का ।

हर इक कोना व्यस्त है

पर्यावरण का।

 

यह हरापन प्रचुरतम

देता नसीहत।

सभी मानव साक्षी हैं

जिस सहारे के ।।

 

इधर जंगल जान है

मानव जगत की।

जो बचाए चेतना

इसकी परत की ।

 

जहाँ  संस्कृतियां परस्पर

उन्नयन कर।

बचाती नैवेद्य हैं सन्ध्या-

सकारे के ।।

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

23-03-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #73 ☆ # होली # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है होली के पर्व  के अवसर पर आपकी एक भावप्रवण कविता “# होली #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 73 ☆

☆ # होली # ☆ 

बहुत बुरा हुआ कि

कुछ नहीं हुआ

इस सादगी ने तो

दिल को है छुआ

रंगों में ढूंढते रहे

वो लाल रंग

वो मायूस हो गये के

क्यों कुछ नहीं हुआ ?

 

सब साजिशें फेल हो गई

रंगों की सब तरफ

रेल-पेल हो गई

रंगों से पुते चेहरे

मिलते हुए गले

लग रहा था जैसे

सबमें मेल हो गई

 

कुछ पे चढ़ा हुआ था

मदिरा का नशा

कुछ पे चढ़ा हुआ था

भांग का नशा

कुछ डुबे हुए थे

रंगों के हौद में

कुछ पे चढ़ा हुआ था

सियासत का नशा

 

यह रंगों का,

उमंगों का त्योहार है

शिकवे गिले भूलकर

क्षमा का त्योहार है

मीठा मीठा खाओ,

मीठा मीठा बोलो

सबको प्यार से गले लगाने का

त्योहार है /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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