हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह #83 ☆ सॉनेट गीत – मानव ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  ‘सॉनेट गीत – मानव।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 83 ☆ 

☆ सॉनेट गीत – मानव ☆

(विधा- अंग्रेजी छंद, शेक्सपीरियन सॉनेट)

मानव वह जो कोशिश करता।

कदम-कदम नित आगे बढ़ता।

गिर-गिर, उठ-उठ फिर-फिर चलता।।

असफल होकर वरे सफलता।।

 

मानव ऐंठे नहीं अकारण।

लड़ बाधा का करे निवारण।

शरणागत का करता तारण।।

संयम-धैर्य करें हँस धारण।।

 

मानव सुर सम नहीं विलासी।

नहीं असुर सम वह खग्रासी।

कुछ यथार्थ जग, कुछ आभासी।।

आत्मोन्नति हित सदा प्रयासी।।

 

मानव सलिल-धार सम निर्मल।

करे साधना सतत अचंचल।।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२७-२-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 13 (56-60)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #13 (56 – 60) ॥ ☆

सर्गः-13

 

या काला गुरू से लिखित चंदन चर्चित भूमि।

कहीं मेघ-छाया सहित चंद्र-ज्योत्सना वाम।।

 

कहीं शोभती शरद की मेघ पंक्ति सी साफ।

जिसके बिखरे जाल से दिखता है आकाश।।56।।

 

और कहीं भस्मी लगा शिव का रूप विशाल।

जिनकी ग्रीवा पै सजी कृष्ण-नाग की माल।।57।।

 

गंगा-यमुना मिलन स्थल में कर के स्नान।

मृत्यु बाद पाता हरेक प्राणी पद निर्वाण।।58।।

 

श्रृंगवेरपुर यह वही जहाँ थे मिले निषाद।

जहाँ मौलिमणि त्याग कर किया जटाँ का ताज।।59अ।।

 

जहाँ देख यह रो पड़े थे सारथी सुमंत्र।

कह- ‘केकई पूरी हुई तेरे मन की अन्त’’।।59ब।।

 

मूल प्रकृति ही बुद्धि को करती है उत्पन्न।

सांख्य ज्ञान की मान्यता करती यह उपपन्न।।60अ।।

 

जिसके पद्यरज लगाती यक्षिणि कर स्नान।

त्योंहि मानसर सरयू का है उद्गम स्थान।60ब।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #131 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल-19– “नुमाइश” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “नुमाइश…”)

? ग़ज़ल # 19 – “नुमाइश…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ज़िंदगी खुशनुमा है जब दिल से दिल मिलता है,

जमाने में दिल को कहाँ सच्चा दिल मिलता है।

 

वक़्त ने बदल कर रख दी तहरीर आशियाने की,

रहते खुद के घर में पता दुश्मन का मिलता है।

 

मुहब्बत में गुमसुम लोगों से पता पूछते हो ?

ढूँढने पर उनको नहीं ख़ुद का पता मिलता है।

 

दोस्ती का खेल भी खूब खेला जा रहा आजकल,

काम निकला फिर कहाँ दोस्त का घर मिलता है।

 

रिश्ते नाते दिखावटी नुमाइश बन कर रह गए हैं,

आतिश प्यार माँगने पर ही अपनों से मिलता है।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

 

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ।। जो चट्टानों से निकले वह झरना खास होता है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण एवं विचारणीय रचना ।।जो चट्टानों से निकले वह झरना खास होता है।।)

☆ कविता – ।।जो चट्टानों से निकले वह झरना खास होता है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

जिन्दगी में   मुश्किलों  का, हमेशा   वास  होता   है।

जीवन बाद तो जलने का, भी नहीं एहसास होता है।।

निखरती  है   मुसीबत से, शख्सियत यह दोस्तो।

जो चट्टानों से निकले   वो, झरना खास होता  है।।

 

[2]

जीवन के रंगमंच पर   हर, इक अभिनय जरूरी   है।

मत  कोसो     किस्मत  को, ऐसी  क्या मजबूरी    है।।

बेवजह खुश रहिये मिलती, है इससे    ऊर्जा   बहुत।

कामयाबी न मिलने का, कारण आपकी मगरूरी  है।।

 

[3]

जिन्दगी    इक़     सफर है, बस         चलते          रहो।

मंजिल   की    ओर  कदम, अपने    भरते          रहो।।

विजेता   रुकते     नहीं   हैं, कभी   भी    जीत से पहले।

तुम चुनौतियों से जरा     भी, मत    डरते             रहो।।

 

[4]

जान  लो हर दर्द आदमी को, और  मजबूत     बनाता   है।

हर गलत       अनुभव बहुत, कुछ      सिखाता            है।।

आपकी   मेहनत से    बदल, जाता है    हर         नतीज़ा।

मुश्किल  वक़्त  ही  तुम्हारी, ताक़त  तुम्हें   दिखलाता  है।।

 

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा 71 ☆ गजल – ’’ये जीवन है आसान नहीं’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “ये जीवन है आसान नहीं”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 71 ☆ गजल – ’’ये जीवन है आसान नहीं’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

ये जीवन है आसान नहीं जीने को झगड़ना पड़ता है

चलने की गलीचों पै पहले तलवों को रगड़ना पड़ता है।

मन के भावों औ’ चाहों को दुनिया ने किसी के कब समझा

कुछ खोकर भी पाने को कुछ, दर-दर पै भटकना पड़ता है।

सर्दी की चुभन, गर्मी की जलन, बरसात का गहरा गीलापन

आघात यहाँ हर मौसम का हर एक को सहना पड़ता है।

सपनों में सजायी गई दुनियाँ, इस दुनियाँ में मिलती है कहाँ ?

अरमान लिये बोझिल मन से संसार में चलना पड़ता है।

देखा है बहारों में भी यहाँ कई फूल-कली मुरझा जाते

जीने के लिये औरों से तो क्या ? खुद से भी झगड़ना पड़ता है।

तर होके पसीने से बेहद, अवसर को पकड़ पाने के लिये

छूकर के भी न पाने की कसक से कई को तड़पना पड़ता है।

अनुभव जीवन के मौन मिले लेकिन सबको समझाते हैं

नये रूप में सजने को फिर से, सड़कों को उखड़ना पड़ता है।

वे हैं ’विदग्ध’ किस्मत वाले जो मनचाहा पा जाते है

वरना ऐसे भी कम हैं नहीं जिन्हें बनके बिगड़ना पड़ता है।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ इंसान पीढ़ियाँ और सोशल साइट्स ☆ श्री सूरज कुमार सिंह

श्री सूरज कुमार सिंह 

 

? इंसान पीढ़ियाँ और सोशल साइट्स ?

कहकर की संचार क्षेत्र मे क्रांति तुमने लाई है,

बिछुड़े मिलाए जानकारी पहुँचाये ऐसी चीज़ बनाई है।

 

तार, खत, टेलिफोन आदि सब को पीछे छोड़ आई है,

जो वस्तु सबके द्वारा सोशल साइट कहलाई है। 

 

ईमोटिकाॅन, शॉर्टकट शब्दावली ने शुद्ध भाषा मिटाई है,

अंतर्मुखी भी चैट करें ऐसी बेला आई है।

 

टेलिकॉम सेवा वाले सस्ते डेटा बरसाए हैं,

किताब-कलम छूटी हाथों से अब जो स्मार्टफोन आए हैं।

 

और तो और कोरोना की कैसी घड़ी यह आई है,

सोशल साइट्स की आंधी अब तो हर दिशा मे छाई हैI

 

आया जो फोन मे सोशल मीडिया रिश्तेदार मानो कोई आया है,

नए- नए विचार, प्रसंगों की बहार जीवन मे लाया है।

 

आया हुआ रिश्तेदार परंतु लेकर बहुत कुछ जाएगा,

नफरत और फ़िरकेबाज़ी मे सबको यह उलझाएगा।

 

जोड़ कर इन्होंने रिश्ते दो तोड़े हैं दो हज़ार

दूर हो गए वो जिनसे करते थे कभी हम प्यार।

 

समय और निजी  डेटा हमारे ऐसे चुराएँ हैं,

कर्ज़ किसी जन्म के जैसे हमने इनसे खाए हैं।

 

करना प्रयोग अवश्य इनके पर यह गौर फरमाना

मत देना चाबी जीवन की, नही तो भ्रष्ट हो जाएगा ज़माना।

 

© श्री सूरज कुमार सिंह

रांची

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 13 (51-55)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #13 (51 – 55) ॥ ☆

सर्गः-13

मुनिपत्नी अनसूया ने तापस जन स्नान।

हेतु त्रिपथगा गंगा का किया प्रवाह विधान।।51।।

 

निष्कम्पित तरू यहाँ के ऋषिगण सम ध्यानस्थ।

लगते जैसे योग में है सबके सब व्यस्त।।52।।

 

सफल यहाँ वटवृक्ष वह तव प्रार्थित तत्काल।

पद्यराग मणि सम फलों से शोभित खुशहाल।।53।।

 

देखो सीते! गंगा छवि नील यमुन से भिन्न।

कहीं जो उजली यष्टि सी नीलम जटित प्रसन्न।।54।।

 

कहीं नील संग सित कमल की माला अभिराम।

या मानसप्रिय हंसदल, श्वेत बीच ज्यों श्याम।।55।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#122 ☆ भूख जहाँ है…..…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर आधारित विचारणीय कविता  “भूख जहाँ है………”)

☆  तन्मय साहित्य  #122 ☆

☆ भूख जहाँ है……… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

भूख जहाँ है, वहीं

खड़ा हो जाता है बाजार।

 

लगने लगी, बोलियां भी

तन की मन की

सरे राह बिकती है

पगड़ी निर्धन की,

नैतिकता का नहीं बचा

अब कोई भी आधार।

भूख जहाँ………….

 

आवश्यकताओं के

रूप अनेक हो गए

अनगिन सतरंगी

सपनों के बीज बो गए,

मूल द्रव्य को, कर विभक्त

अब टुकड़े किए हजार।

भूख जहाँ……………

 

किस्म-किस्म की लगी

दुकानें धर्मों की

अलग-अलग सिद्धान्त

गूढ़तम मर्मों की,

कुछ कहते है निराकार

कहते हैं कुछ, साकार।

भूख जहाँ………….

 

दाम लगे अब हवा

धूप औ पानी के

दिन बीते, आदर्शों

भरी कहानी के,

संबंधों के बीच खड़ी है

पैसों की दीवार।

भूख जहाँ………….

 

चलो, एक अपनी भी

कहीं दुकान लगाएं

बेचें, मंगल भावों की

कुछ विविध दवाएं,

सम्भव है, हमको भी

मिल जाये ग्राहक दो-चार।

भूख जहाँ है,,…………

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से#15 ☆ क्या क्या तुम बाँटोगे ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन। ) 

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  रचना “क्या क्या तुम बाँटोगे–”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 15 ✒️

?  क्या क्या तुम बाँटोगे – —  डॉ. सलमा जमाल ?

अब क्या क्या तुम बाँटोगे,

है बहुत कुछ पास हमारे ।

आंचल है यह भारत मां का,

सूरज, चांद ,गगन वा तारे ।।

 

अहं में डूबके तुमने किया ,

भाषा, धर्म ,जाति मतभेद ,

खूब लड़ाऐ हिंदू- मुस्लिम,

अब भी तुम्हें नहीं है खेद,

सियासत की आड़ को लेकर,

किए इंसानो के बंटवारे ।

अब——————-।।

 

एक आदम की औलादें ,

है रक्त में नहीं कोई अंतर,

कोरोना को जेहाद बताया,

क्या इसमें है कोई मंतर ,

कु़रान व गीता एक समान,

फिर क्यों खिचतीं तलवारें।

अब———————।।

 

बाहर है बीमारी का डर ,

अन्दर भूख ने पैर पसारे,

आखिर किससे मजदूर मरें,

जवाब नहीं है पास हमारे ,

रोज़ कमाकर रोटी खाएं ,

अब जिऐंगे किसके सहारे।

अब———————।।

 

अंतर्मन दुखता है मेरा ,

नैनों से बहती अश्रु धार,

आपस की नफ़रत से”सलमा”

करो ना लाशों का व्यापार ,

प्यार का परचम फ़हरा दो ,

तुम भारत के राज दुलारे।

अब——————-।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 13 (46-50)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #13 (46 – 50) ॥ ☆

सर्गः-13

अब सुपुत्र वत तरूओं पै है आतिथ्य प्रभार।

जो छाया दे पूजते फल से विविध प्रकार।।46।।

 

गव्हरमुख से गरजता साँड़ सदृश है आज।

श्रृंग-लग्न घन-पंक से चित्रकूट गिरिराज।।47।।

 

शांत स्वच्छ पतली जहाँ मन्दाकिनि की धार।

दिखती जैसे धरा की हो मुक्ता-गल-हार।।48।।

 

यही है वहीं तमाल तरू जिसके गंधी प्रवाल।

से मैंने थी रची तव कर्णफूल की माल।।49।।

 

यह है अत्रि का तपोवन जिसके प्रबल प्रभाव।

बिना दण्ड प्राणी विनत, फल का न कोई अभाव।।50।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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