हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 105 ☆ कोरोना में कुर्सी का खेल ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “कोरोना में कुर्सी का खेल…. । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 105 ☆

☆ कोरोना में कुर्सी का खेल ….

 

कोरोना

नव रूप

बदलकर

चल रहा है.!

आम

आदमी को

बहुत

छल रहा है.!!

ओमीक्रान

का नया

वेरियंट.!

जिसमे कुछ

अलग है

करेंट.!!

फिर भी

उसकी

आड़ में धंधा

फल-फूल

रहा है..!

आम आदमी

सत्ता के

सहारे

झूल रहा है.!!

चुनावी

इश्क़

कोरोना पर

भारी है.!

चुनाव

कराने की

तैयारी है.!!

पर आम

आदमी पर

प्रतिबंधों की

बौछार है..!

उनके लिए

क्या दुख-दर्द

क्या त्यौहार है.!!

जिसकी

चपेट में

कई देश हैं..!

पर यहाँ पर

बदला बदला

परिवेश है..?

पिछली

त्रासदी

भूल रहे हैं.!

चुनाव सर पर

झूल रहे हैं !!

ये जनता है

सब जानती है.!

अच्छा-बुरा

पहचानती है.!!

कोरोना में

कुर्सी का खेल

“संतोष”

सत्ता के लिए

तेल-पानी का

मेल ..?

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 11 (46-50)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #11 (46-50) ॥ ☆

ध्वनि कठोर कर धनुष ने टूट किया उद्घोष।

परशुराम सह न सके क्षत्रिय का यह जोश।।46।।

 

शंकर-धनु के भंग पर जनक हो परम प्रसन्न।

सीता सौंपी राम को कर निज प्रण सम्पन्न।।47।।

 

किया जनक ने राम को सिय का कन्यादान।

कौशिक मुनि के सामने अग्नि को साक्षी मान।।48।।

 

राजपुरोहित भेज कर दशरथ जी के पास।

कहलाया, सेवा का दें योग बना निज दास।।49।।

 

जब थी दशरथ हृदय में पुत्र-वधू की चाह।

शतानंद ने तभी जा की सुरीति निर्वाह।।50अ।।

 

सच है पुण्यात्माओं को उनके पुण्यप्रताप।

मिलते हैं फल वांछित, कल्प वृक्ष से आप।। 50ब।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – नयी सलीब ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – नयी सलीब ??

पहाड़ का बदन गोदते लोग

सीने पर कीले ठोंकते लोग,

पहाड़ का मांस नोचते लोग

बरछी भाले भोंकते लोग,

 

जिनका आश्रय रहा

पहाड़ उनसे ही घिरा,

जिसके साये तले पले

उसकी जान लेने पर तुले,

 

शहर-दर-शहर

गोदने-ठोंकने का यही चित्र,

बस्ती दर बस्ती

नोचने-भोंकने का यही परिदृश्य

 

वह इतिहास झूठा पढ़ाया था

जिसमें ईसा को

एक बार ही क्रॉस पर लटकाया था..!

 

©  संजय भारद्वाज

(कवितासंग्रह ‘योंही’ से)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 141 ☆ कविता – अच्छे दिन ! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय कविता  अच्छे दिन ! । इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 141 ☆

? कविता – अच्छे दिन ! ?

जगती आँखों देखे सपने, वो लायेंगे अच्छे दिन 

इस आशा में की वोटिंग कि, अब आयेंगे अच्छे दिन 

शेयर का बढ़ गया केंचुंआ, अनुमानो की आहट से 

रुपया कुछ मजबूत हुआ है, अब आयेंगे अच्छे दिन

हर परिवर्तन समय चाहता, अब वे ऐसा कहते हैं 

पूछे वोटिंग वाली  स्याही, कब आयेंगे अच्छे दिन

बूढ़ी आँखें बाट जोहती, उम्मीदों को सजा सजा 

गिन गिन कर दिन बीत रहे हैं, कब आयेंगे अच्छे दिन

योजनायें बनती बहुतेरी, ढ़ेरों गुम हो जाती हैं 

सबको पूरा करना होगा, तब आयेंगे अच्छे दिन

सरकारें बस राह बनाती, और दिशा दिखलाती हैं 

चलना स्वयं हमीं को होगा, तब आयेंगे अच्छे दिन

नेता अनुकरणीय बनेंगे, जनता भी अनुशासित होगी

रामराज्य सा शासन होगा, जब आयेगें अच्छे दिन

सुरसा सी बढती आबादी, लील रही है साऱी उन्नति

जब आबादी सीमित होगी, तब आयेंगे अच्छे दिन

भ्रष्ट व्यवस्था दाग बदनुमा, सबको इसको धोना होगा

भ्रष्टाचार मिटेगा जब, तब आयेंगे अच्छे दिन

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 93 ☆ तुझको चलना होगा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण  रचना “तुझको चलना होगा”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 93 ☆

☆ गीत – तुझको चलना होगा ☆ 

धीरे – धीरे बढ़ो मुसाफिर

जीवन है अनमोल।

दुख चाहे जितने भी आएं

मुख में मिश्री घोल।।

 

चलना ही जीवन की नियति

तुझको चलना होगा।

जागो ! उठो दूर है मंजिल

देख स्थिति ढलना होगा।

 

सत, असत की बल्लरियों में

देख कहाँ है झोल।।

 

लक्ष्य बनाकर बढ़ना पथ पर

औ’ स्वयं विश्वास करो।

मृत्यु तो जीवन का गहना

मत रोना कुछ हास करो।

 

पंछीगण को देख निकट से

भोर में भरें किलोल।।

 

जो सोया है, उसने खोया

आँख खोल मत डर प्यारे।

अपनी मदद स्वयं जो करते

उस पर ही ईश्वर वारे।

 

परिभाषा जीवन की अद्भुत

सदैव तराजू तोल।।

 

संशय , भ्रम में नहीं भटकना

यह जीवन नरक बनाते।

द्वेष – ईर्ष्या वैर भाव भी

सदा अँधेरा यह लाते।

 

सच्चाई की जीत लिखी है

आगे होगा गोल।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 11 (41-45)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #11 (41-45) ॥ ☆

कौशिक बोले जनक से सुनिये इनका सार ।

ये हैं, पर्वत पै कि हो जैसे बजप्रहार।।41 ।।

 

ऐसा सुनकर जनक का बढ़ा सहज विश्वास ।

चिनगारी की शक्ति का हुआ प्रबल आभास ।।42 ।।

 

तब नृप ने दिया चरों को धनु लाने आदेश ।

मेघों को ज्यों इन्द्र दे इन्द्र – धनुष आदेश ।।43 ।।

 

लख भुजंग सम धनुष को राम बढ़े ले हाथ।

जिससे मखमृग हनन हित शिव का था शर व्याघ।।44।।

 

चकित हो गई सभा सब जब धनु खींचे राम।

पुष्प-धनुष को सहज ही ज्यों रखता है काम।।45।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#116 ☆ जड़ों को सूखने मत दो…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण कविता “जड़ों को सूखने मत दो….”)

☆  तन्मय साहित्य  #116 ☆

☆ जड़ों को सूखने मत दो….

जड़ों को सूखने मत दो

उन्हीं से ये चमन महके।

 

कुमुदनी मोगरा जूही

सुगंधित पुष्प ये सारे

चितेरा कौन है जिसने

भरे हैं रंग रतनारे,

गर्भ से माँ धरा के

टेसू के ये कुसुम दल दहके…..

 

न भूलें जनक-जननी को

वही हैं श्रोत ऊर्जा के

वही आराध्य हैं तप है

वही जप-मंत्र पूजा के,

जताते हैं नहीं जो भी

किए उपकार, वे कह के…..

 

सहे जो धूप वर्षा ठंड

मौसम के थपेड़ों को

निहारो नेह से रमणीय

साधक सिद्ध पेड़ों को,

जीवनीय प्राणवायु दे

अनेकों कष्ट सह कर के….

 

हवाएँ बाहरी जो है

न हों मदमस्त इठलाएँ

रुपहली धूप से दिग्भ्रान्त

भ्रम में हम न भरमाएँ,

उन्हें ही प्राणपोषक रस

जुड़े जड़ से, वही चहके…..

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 9 ☆ नदी और पहाड़ ☆ डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर भावप्रवण  रचना  “नदी और पहाड़ ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 9 ✒️

?  नदी और पहाड़ —  डॉ. सलमा जमाल ?

 मैं हूं नदी ,

 अनवरत रूप से

बहती हुई, चली जा रही हूं

अज्ञात की ओर ,

ना पता , ना मंजिल ,

ना कोई हमसफ़र ,

और तुम थे पहाड़ ,

रहे अडिग सदा ही

नदी को बहते देखने के लिए ।

हाय ! मैं रही असफल ।।—-

 

तुम्हारे अंदर अपनी लहरों से ,

कटाव भी ना बना सकी ,

ना ही समा पाई तुम्हारे अंदर

” तुम थे कठोर “

फिर भी तुम्हारे ऊपर ,

हरियाली कैसे उग आई ?

पत्थर , पानी , हरियाली ,

क्या कभी बन सकते हैं ?

किसी के साहचर्य ,

सोच कर होता हैआश्चर्य।।—

 

तुमने अपनी कठोरता से ,

कभी एक नहीं

होने दिया किनारों को,

और ना ही दोनों किनारों पर,

खड़े पेड़ , हरीतिमा को

आपस में कभी

गले मिलने दिया ,

” परन्तु “

सभी मिलकर प्यास

बुझाते रहे मेरे

निर्मल पानी से ,

कितना दर्दनाक है यह मंजर।। —

 

क्या कभी किया है एहसास

अगर मैं सूख जाती तो

तुम कैसे रह सकते थे

हरे भरे और अडिग ,

कैसे बुझाते अपनी प्यास ।

आने वाली नस्ल को

विरासत में क्या सौंपते ?

कैसे बधांते आस ।। —-

 

मेरे सूख जाने से

हो जाओगे निष्प्राण ,

अभी समय है ,बाहुपाश में

ले लो मुझे ,कर लो

सुरक्षित स्वयं केलिए ,

दोनों किनारों को मिलने दो,

पानी की ठेल से खोह ,

कटाव बनने दो ,

हम तुम एक दूसरे में

समा जाएं ।। —

 

तब संसार को मिलेगा ,

निरंतर चलने का आभास ।

फिर कोई भी ना हो

पाएगा “सलमा”

जीवन से निराश ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 11 (36-40)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #11 (36-40) ॥ ☆

पुर्नवसू सम स्वर्ग से आये धरा पर मान ।

पुरवासी जन ने किया अपलक छवि का पान ।।36 ।।

 

अग्निहोत्र की कर क्रिया, मुनि ले नृप का नाम ।

कहा जनक धनु दरस हित उत्सुक हैं श्री राम।।37 ।।

 

जन्में रघुकल में कमल सम शिशु रूप निहार ।

नृपभारी धनुभंग का करने लगे विचार।।38 ।।

 

बड़े हाथियों से भी जो, होये सहज न काज ।

गज शिशु से कैसे भला वह संभव मुनिराज।।39 ।।

 

जिसकी डोरी बाँधने में कई नृप गये हार ।

उस धनु से लज्जित, गये निज बल को धिक्कार ।।40II

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 16 – बुंदेली गीत – सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़….. ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है बुंदेली गीत  “सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़…..। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 16 – बुंदेली गीत – सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़…..  ☆ 

सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़,

जरा-जरा सी बातन में ।

धज्जी खें तो साँप बता रये,

जरा-जरा सी बातन में ।

 

जी खों देखो हाँक रहो है,

ज्ञान बघारें साँचन में ।

इनखों तो भूगोल रटो है,

झूठी-मूठी बातन में ।

सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़,

जरा-जरा सी बातन में ।

 

धरम के पंडा सबई बने हैं,

मंदिर, मस्जिद, गिरजा में।

जी खों देखो राह बता रये,

छोटी-ओटी बातन में।

सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़,

जरा-जरा सी बातन में ।

 

बऊ-दद्दा ने पढ़वे भेजो,

बडे़-बडे़ कॉलेजन में ।

बे तो ढपली ले कें गा रये,

उल्टी-टेढ़ी रागन में।

सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़,

जरा-जरा सी बातन में ।

 

आजादी बे कैसी चाहत,

कौनऊँ उनसे पूछो भाई।

पढ़वो-लिखवो छोड़कें भैया ,

धूल झोंक रहे आँखन में।

सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़,

जरा-जरा सी बातन में ।

 

पढ़वे खें कालेज मिलो है,

रहवे खों कोठा भी दे दये।

पढ़वे में मन लगत है नईयाँ,

जोड़-तोड़ की बातन में ।

सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़,

जरा-जरा सी बातन में ।

 

नेता सबरे कहत फिरत हैं,

हम तो जनता के सेवक हैं।

जीत गए तो पाँच बरस तक,

घुमा देत हैं बातन में।

सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़,

जरा-जरा सी बातन में ।

 

राजनीति में झूठ-मूठ की ,

खबर छपीं अखबारन में ।

नूरा-कुश्ती रोजइ हो रही,

गली-मुहल्लै आँगन में।

सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़,

जरा-जरा सी बातन में ।

 

कोनउ नें कओ सुनरै भैया

तोरो कान है कऊआ ले गओ।

अपनों कान तो देखत नैयाँ,

दौर गये बस बातन में।

सच्चई-मुच्चई लड़वे ठाँढे़,

जरा-जरा सी बातन में ।

धज्जी खें तो साँप बता रये,

जरा-जरा सी बातन में ।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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