श्री सुरेश पटवा
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “निकलने नहीं दिया”।)
ग़ज़ल # 12 – “निकलने नहीं दिया” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
मजबूरियों ने घर से निकलने न दिया,
नई आफ़त ने उनको मिलने न दिया।
चाहते तो मौसम बदल सकता था,
हालात ने आग को सुलगने न दिया।
ग़मख़्वार सुबह से बैठे थे इंतज़ार में,
कोरोना ख़ौफ़ ने उसे निकलने न दिया।
ज़ख्म ख़ूब खिले बंदिशों की तीरगी में,
हसरत-ए-वस्ल ने उन्हें भरने न दिया।
बहुत नाज़ुक हालत में रहे दिले बीमार,
करिश्मा-ए-मुहब्बत ने मरने न दिया।
तन्हाई की मेहंदी रूह तलक़ उतर गई,
आफ़तों ने रंगे इश्क़ उतरने न दिया।
मुहब्बत हुई मुकम्मल लम्बी जुदाई में,
बमुश्किल मिले फिर बिछड़ने न दिया।
जज़्ब हो गई दिल में साँसों की मानिंद,
काग़ज़ ने स्याही को निकलने न दिया।
उनकी नशीली नज़रों ने चलाए ऐसे तीर,
मेहबूब को फिर उसने संभलने न दिया।
माशूका हुई दिल से कुछ इस तरह नाचूर,
मजबूरियों ने उसे पहलू बदलने न दिया।
बहकते गए नीमबाज़ आँखों के नशे में,
‘आतिश’ को फिर उसने संभलने न दिया।
© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈