श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा लिखित एक विचारणीय कविता ‘खूब बढ़ें कन्ज्यूमर पर हाँ उत्पादन भी उतना हो’ । इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 138 ☆
कविता – खूब बढ़ें कन्ज्यूमर पर हाँ उत्पादन भी उतना हो 
पुरानी फाईलें सहेज रहा था
आलमारी में
मुझे मिली
मेरे बब्बा जी की डायरी
मैने जाना वे मण्डला में अप्रभावित थे
१९२० के स्पैनिश फ्लू और
प्लेग से, कोरोना सी गांवों तक
व्यापक नही थी
वे महामारियां
पीछे के पन्नो पर
घर खर्च का हिसाब दिखा
मैने जाना कि
१९२५ में
आधा पैसा भी होता था
और उससे
भर पेट खाना भी खाया जा
सकता था.
उन दिनो सत्तू, बूंदी के लड्डू, और जलेबी
वैसे ही कामन थे
जैसे आज
ब्रेड बटर , कार्न फ्लैक्स और पिज्जा
तब फेरी वाले आवाज लगाते थे
सास की चोरी , बहू का कलेवा हलवा हलेवा
मतलब हलुआ भी बना बनाया मिलता था उन दिनों
और खोमचे लेकर गाता निकलता था चने वाला
ऊपर चले रेल का पहिया
नीचे खेलें कृष्ण कन्हैया, चना जोर गरम,
मैं लाया मजेदार चना जोर गरम
यानी चना जोर गरम वैसा ही पाप्युलर था
जैसे अब पापकार्न है.
डायरी ने यह भी बतलाया कि तब
तीन रुपये महीने में बढ़ियां तरीके से
घर चल जाता था.
ऐसा जैसा आज साठ हजार में भी नही चल पाता.
आबादी बढ़ती रही
चुनाव होते रहे
बाढ़, अकाल और युद्ध भी हुये
हर घटना से मंहगाई का इंडैक्स कुछ और बढ़ता रहा
शेयर बाजार का केंचुआ
लुढ़कता पुढ़कता चढ़ता बढ़ता रहा
सोने का भाव जो आज पचास हजार रुपये प्रति १० ग्राम है
महज २० रुपये था १९२५ में
और पिताजी की शादी के समय १९५० में केवल १०० रु प्रति १० ग्राम
बच्चे दो या तीन अच्छे वाला नारा देखते देखते
हम दो हमारे दो
में तब्दील हो चुका है
प्रगति तो बेहिसाब हुई है
पर पर-केपिटा इनकम उस तेजी से नही बढ़ी
क्योंकि आबादी सुरसा सी बढ़ रही है
और अब जनसंख्या नियंत्रण कानून
जरूरी लगने लगा है
आने वाले कल की कल्पना करें
शादी के लिये
सरकारी अनुमति लेने की नौबत न आ जाये !
शादी के बाद माता पिता बनने के लिये भी
परमीशन लेनी पड़ सकती है .
आनलाईन प्रोफार्मा भरना होगा
पूछा जायेगा
होने वाले बच्चे के लिये
स्कूल में सीट आरक्षित करवाई जा चुकी है ?
आय के ब्यौरे देने होंगे
परवरिश की क्षमता प्रमाणित करने के लिये
स्वीकृति के लिये सोर्स लगेंगे
रिश्वत की पेशकश की जायेगी
अनुमति मिलने के डेढ़ साल के भीतर
जो पैरेंट्स नही बन सकेंगे
उन्हें टाईम एक्सटेंशन लेना होगा .
पानी की कमी के चलते
टी वी कैंपेन चलेंगे
नहाओ ! हफ्ते में बस एक दिन
कोई राजनेता समझायेंगें
हमने नहाती हुई हीरोईन के विज्ञापन
इसीलिये तो दिखलाये हैं कि बस देखकर ही
सब नहाने का आनंद ले सकें
वर्चुएल स्नान का आनंद
अंगूर दर्जन के भाव मिलेंगे और
आम फांक के हिसाब से
संतरे की फांक
पाली पैक में प्रिजर्वड होकर बिकेंगी
किसी मल्टी नेशनल ब्रांड के बैनर में
मिलेगा घी चम्मच की दर पर
अगर उत्पादन न बढ़ा उतना
जितने कन्ज्यूमर्स बढ़ रहे हैं तो
मैं प्रगति का हिमायती हूं
खूब बढ़ें कन्ज्यूमर
पर हाँ उत्पादन भी उतना हो
कवियों की संख्या भी बढ़ेगी
बढ़ती आबादी के साथ
और उसे देखते हुये
वर्चुएल प्लेटफार्म
बढ़ाने पड़ेंगे, कविता करने के लिये.
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈