हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कर्मयोगी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – कर्मयोगी  ??

बचपन में उसने

एक बार घड़ी पर

डाल दिया था रुमाल

और सोचा,

समय अब उसका है,

कालांतर में,

समय ने ही सिखाया,

मनुष्य के अधिकार में

केवल उसका कर्म होता है,

जीतता है भाग्य का धनी

कभी-कभार,

पर कर्मयोगी

सदैव विजयी होता है..!

 

©  संजय भारद्वाज

29.12.2021, अपराह्न 12:00 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #114 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 114 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

ठंड बहुत है आज तो, है अँगीठी पास।

आती प्रिय की याद है,जगती मन में आस।।

 

 

नहीं पेट की गड़बड़ी,नहीं दर्द का नाम।

पानी पीना कुनकुना, देता है आराम।।

 

सबके कर्मो का यहीं, होने लगा हिसाब।

आँच कभी आए नहीं, दे दो सही जवाब।।

 

सूरज तो निकला नहीं, कैसे निकले धूप।

मौसम बिगड़ा दिख रहा, लगता दृश्य  अनूप।।

 

कृषक कुहासा देखकर, हो जाता हैरान।

उसको फसलों में हुआ, बहुत बड़ा नुकसान।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 103 ☆ वीणा के नव-नव तारों से …. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “वीणा के नव-नव तारों से …. । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 103 ☆

☆ वीणा के नव-नव तारों से …. 

शिकारी  अब जाल  बदलेगा

अब फिर नया साल बदलेगा

 

सूरज    लाता    नया   सबेरा

चँदा   अपनी   चाल  बदलेगा

 

मौसम   भी    लेगा  अंगड़ाई

पंचांग   का    काल   बदलेगा

 

वीणा   के नव-नव  तारों   से

अब  नया   सुरताल  बदलेगा

 

नया    आलम    नई    पुरवाई

नव   बरस अब  हाल  बदलेगा

 

नई    उमंगें     नई         तरंगें

अब  पिछले  सवाल  बदलेगा

 

डरायेगा   फिर  नए रूप    में

कोरोना  अब ख्याल  बदलेगा

 

मुश्किलें   दूर  हों   बाईस   में 

लिखा  भाग्य -भाल   बदलेगा

 

हो “संतोष” खुशियाँ हर तरफ

नव   वर्ष   बेमिसाल  बदलेगा

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 10 (61-65)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #10 (61-65) ॥ ☆

हेम पंख की प्रभा से करते मेघाकृष्ट

गरूड़ ने उनको उडाया बिठा स्वतः की पृष्ठ ॥ 61॥

 

वक्ष मध्य कौस्तुभ मणि धारे लक्ष्मी देवि

कमलपुष्प के व्यंजन से करती व्यजन ससेवि ॥ 62॥

 

देखा सपर्षि भी किये नभगंगा स्नान

वेदपाठ करते हुए करते प्रभु का ध्यान ॥ 63॥

 

सुनकर उनसे स्वप्न की बातें नृपति सुजान

थे प्रसन्न पा विष्णु से पितृभाव सम्मान ॥ 64॥

 

एक विष्णु थे कुक्षि में उन सबकी विद्यमान

किन्तु भिन्न – प्रतिबिंब थे जल में चंद्र समान ॥ 65॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – टीआरपी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

?संजय दृष्टि – टीआरपी ??

 

व्यवसाय भी

व्यापार का मारा है,

आँख के गर्भ में है,

तब तक ही आँसू तुम्हारा है,

खारा पानी छलकाना

सबसे बड़ी भूल हो जाएगा,

देखते-देखते तुम्हारा आँसू

टीआरपी टूल हो जाएगा..!

 

©  संजय भारद्वाज

16.12.2021, सुबह 10:00 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 138 ☆ कविता – खूब बढ़ें कन्ज्यूमर पर हाँ उत्पादन भी उतना हो ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय कविता  ‘खूब बढ़ें कन्ज्यूमर पर हाँ उत्पादन भी उतना हो’ । इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 138 ☆

? कविता – खूब बढ़ें कन्ज्यूमर पर हाँ उत्पादन भी उतना हो ?

पुरानी फाईलें सहेज रहा था

आलमारी में

मुझे मिली

मेरे बब्बा जी की डायरी

मैने जाना वे मण्डला में अप्रभावित थे  

१९२० के स्पैनिश फ्लू और

प्लेग से, कोरोना सी  गांवों तक 

व्यापक नही थी

वे महामारियां  

पीछे के पन्नो पर

घर खर्च का हिसाब दिखा

मैने जाना कि

१९२५ में

आधा पैसा भी होता था

और उससे

भर पेट खाना भी खाया जा

सकता था.

 

उन दिनो सत्तू, बूंदी के लड्डू, और जलेबी

वैसे ही कामन थे

जैसे आज

ब्रेड बटर , कार्न फ्लैक्स और पिज्जा

तब  फेरी वाले आवाज लगाते थे

सास की चोरी , बहू का कलेवा हलवा हलेवा

मतलब हलुआ भी बना बनाया मिलता था उन दिनों

और खोमचे लेकर गाता निकलता था चने वाला

ऊपर चले रेल का पहिया

नीचे खेलें कृष्ण कन्हैया, चना जोर गरम,

मैं लाया मजेदार चना जोर गरम

यानी चना जोर गरम वैसा ही पाप्युलर था

जैसे अब पापकार्न है.

 

डायरी ने यह भी बतलाया कि तब

तीन रुपये महीने में बढ़ियां तरीके से

घर चल जाता था.

ऐसा जैसा आज साठ हजार में भी नही चल पाता.

 

आबादी बढ़ती रही

चुनाव होते रहे

बाढ़, अकाल और युद्ध भी हुये

हर घटना से मंहगाई का इंडैक्स कुछ और बढ़ता रहा

शेयर बाजार का केंचुआ

लुढ़कता पुढ़कता चढ़ता बढ़ता रहा

सोने का भाव जो आज पचास हजार रुपये प्रति १० ग्राम है

महज २० रुपये था १९२५ में

और पिताजी की शादी के समय १९५० में केवल १०० रु प्रति १० ग्राम

 

बच्चे दो या तीन अच्छे वाला नारा देखते देखते

हम दो हमारे दो

में तब्दील हो चुका है

प्रगति तो बेहिसाब हुई है

पर पर-केपिटा इनकम उस तेजी से नही बढ़ी

क्योंकि आबादी सुरसा सी बढ़ रही है

और अब जनसंख्या नियंत्रण कानून

जरूरी लगने लगा है

 

आने वाले कल की कल्पना करें

शादी के लिये

सरकारी अनुमति लेने की नौबत न आ जाये !

शादी के बाद माता पिता बनने के लिये भी

परमीशन लेनी पड़ सकती है .

आनलाईन प्रोफार्मा भरना होगा

पूछा जायेगा

होने वाले बच्चे के लिये

स्कूल में सीट आरक्षित करवाई जा चुकी है ?

आय के ब्यौरे देने होंगे

परवरिश की क्षमता प्रमाणित करने के लिये  

स्वीकृति के लिये सोर्स लगेंगे

रिश्वत की पेशकश की जायेगी

अनुमति मिलने के डेढ़ साल के भीतर

जो पैरेंट्स नही बन सकेंगे

उन्हें टाईम एक्सटेंशन लेना होगा .

 

पानी की कमी के चलते

टी वी कैंपेन चलेंगे

नहाओ ! हफ्ते में बस एक दिन

कोई राजनेता समझायेंगें

हमने नहाती हुई हीरोईन के विज्ञापन

इसीलिये तो दिखलाये हैं कि बस देखकर ही

सब नहाने का आनंद ले सकें

वर्चुएल स्नान का आनंद

 

अंगूर दर्जन के भाव मिलेंगे और

आम फांक के हिसाब से

संतरे की फांक  

पाली पैक में प्रिजर्वड होकर बिकेंगी

किसी मल्टी नेशनल ब्रांड के बैनर में

मिलेगा घी चम्मच की दर पर

अगर उत्पादन न बढ़ा उतना

जितने कन्ज्यूमर्स बढ़ रहे हैं तो

मैं प्रगति का हिमायती हूं

खूब बढ़ें कन्ज्यूमर

पर हाँ उत्पादन भी उतना हो

 

कवियों की संख्या भी बढ़ेगी

बढ़ती आबादी के साथ

और उसे देखते हुये

वर्चुएल प्लेटफार्म

बढ़ाने पड़ेंगे, कविता करने के लिये.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 91 ☆ समसामयिक दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  “समसामयिक दोहे ”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 91 ☆

☆ समसामयिक दोहे ☆ 

चाहत से कुछ कब मिले, बिन चाहे मिल जाय।

जब बरसे उसकी कृपा, धन से मन भर जाय।। 1

 

लाख बुराई जग करे, बुरा न चाहें ईश।

ईश्वर ही सच्चा सखा, सदा झुकाऊँ शीश।। 2

 

नंगा पैदा खुद हुआ, जाए खाली हाथ।

बुरा – भला जो भी किया, जाए अपने साथ।। 3

 

कृपा करें परमात्मा, मार सके कब कोय।

सुख – दुख भी उसकी कृपा, मत जीवन भर रोय।। 4

 

जग में ढूंढ बुराइयां, अपनी ठोके पीठ।

ऐसा मानव जगत में,  रीछ बहुत ही ढीठ।। 5

 

कपटी खुश होता नहीं, दूजों के सुख देख।

बस अपने में मुग्ध है, चाहे खुद अभिषेक।। 6

 

मैल, कपट मन में रखें, हैं वे रिश्तेदार।

झूठ दिखावा कर रहे, खोखल उनका प्यार।। 7

 

खाली – मूली बात कर, झूठे ही हरषायँ।

काम पड़े जब तनिक – सा, कभी काम ना आयँ।। 8

 

कपट रखें कुछ बावरे , करते मीठी बात।

सदा दूर रखना प्रभू, इनका, मेरा साथ।। 9

 

करता हूँ कर्तव्य मैं, कब है मन में चाह।

तनिक काम जब भी कहा, लोग करें बस आह।। 10

 

मानव वे ही श्रेष्ठ हैं, करें न पीछे वार।

मिलें, खिलें वे फूल से, सदा लुटाएं प्यार।। 11

 

कपटी , दम्भी मूढ़ हैं, पीटें अपना ढोल।

तनिक-तनिक – सी बात पर, बिगड़ें उनके बोल।। 12

 

खुद में निरी बुराइयाँ, हे मानव तू देख।

जीवन में लिखते रहो, रोज नए अभिलेख।। 13

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 10 (56-60)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #10 (56-60) ॥ ☆

नृप निज पति के हृदय की इच्छा को धर ध्यान

आधे आधे भाग निज उसको दिये समान ॥ 56॥

 

सृमित्रा को दोनों थीं प्रिय बिलकुल उसी प्रकार

भ्रमरी को गज गाल की ज्यों दोनो मदधार ॥ 57॥

 

तीनो ने प्रभु कृपा से देने को सन्तान

गर्भ धरा ज्यों अमृता करती वृष्टि प्रदान ॥ 58॥

 

साथ गर्भ धर तीनों ने की वह कांति प्रदान

धान्य भरी ज्यों बालियाँ पीली देती धान ॥ 59॥

 

सपनों में उनने लखा बहुथा बारम्बार

आयुध धारी विष्णु से रक्षित सभी प्रकार ॥ 60॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #114 – नव वर्ष अभिनंदन… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं नववर्ष पर एक विचारणीय गीतिका “नव वर्ष अभिनंदन…”)

☆  तन्मय साहित्य  #114 ☆

☆ नव वर्ष अभिनंदन…

करें हम नए वर्ष की बात

उजालों की होगी सौगात

पुराने अनुभव होंगे साथ

चलो! हम मिलकर साथ चलें

ले हाथों में हाथ,

प्रेम से आओ गले मिले।

 

आशाओं के दीप जलाएं, खुशियां सब पाएं

मधुर छंद, गीतों के संग, नूतन अभिलाषाएं

नई किरण के साथ, सोच चिंतन हो नया नया

सीख, पुरातन से लें, त्रुटियां पुनः न दुहरायें,

नहीं फिर हो जीवन मे हार

भाई-चारे की बहे बयार

करे सब एक-दूजे से प्यार

विजयरथ आगे सदा चले

सीढ़ी उन्हें बना लें

पथ हो चाहे पथरीले,

प्रेम से आओ गले मिलें।।………

 

स्वागत हँस कर करें समय के, नवपरिवर्तन का

अभिनंदन मन से, प्रकृति के मोहक नर्तन का

मौसम सुख-दुख के आये, मुरझाये कभी न हम

जीवन एक तपस्या, विधि के पूजन अर्चन का,

रहे अंतर में,  सात्विक भाव

स्वच्छ परिवेश, नगर अरु गांव

हरित पेड़ों की शीतल छांव

प्रदूषण से शिकवे गीले

पर्यावरण विशुद्ध, सभी

हम होंगे, खिले खिले,

प्रेम से आओ गले मिलें।।………

 

जातिवाद और धर्म पंथ के, भेद मिटे सारे

सम्यक दर्शन, समभावो के, फैले उजियारे

नया वर्ष-उत्कर्ष, हर्ष, संकल्प, सुखद होंगे

घर आँगन में खुशियों के, चमके चंदा-तारे,

करें  इक – दूजे का सम्मान

सभी के अधरों पर मुस्कान

सुलभ हो सब को अक्षरज्ञान

न कोई पथ में हमें छले

जीतेंगे  निश्चित  ही

संघर्षों के सभी किले,

प्रेम से आओ गले मिले।।……….

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 7 – नज़्म-उसे भूल जा ना याद कर ☆ डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है नव वर्ष के आगमन पर आपकी एक भावप्रवण रचना “उसे भूल जा ना याद कर”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 7 ✒️

? नज़्म – उसे भूल जा ना याद कर —  डॉ. सलमा जमाल ?

जो जुदा हुए वो अजीज़ थे,

तेरे अपने तेरे क़रीब थे ।

उन्हें भूल जा ना याद कर ,

जो तूने सहा ना फ़रियाद कर ।।

 

यह कैसी ग़म की हवा चली ,

सुनसान हो गई है गली – गली ,

सुबहा से पहले शाम ढली ,

चमन को सिर्फ़ ही ख़िज़ां मिली ,

जो गया ख़ुदा का हबीब था ,

तू फ़िर से गुलशन आबाद कर ।

जो तूने ————————- ।।

 

वो करोना से जुदा हुए ,

सारी उम्र तुझ पर फ़िदा हुए ,

ना वबा का कोई कुसूर था ,

ये सब इंसान का ही फ़ितूर था ,

ये क़हर हमारा नसीब था ,

बची उम्र को ना बर्बाद कर ।

जो तूने ———————— ।।

 

किसी के जाने से कमी नहीं ,

ये दुनियां आज तक थमीं नहीं ,

जो मिल रहा वो ग़नीमत है ,

अभी कुछ दिनों की अज़ीयत है ,

वो दीन – दुनिया का रक़ीब था ,

उसे रिश्तों से आज़ाद कर ।

जो तूने ———————— ।।

 

दवा अस्पताल का बहाना था ,

क़ज़ा को उन्हें ले जाना था ,

जो बचा है उसका बन रहनुमा ,

कहीं सब हो जाए ना धुंआं ,

बहारों का वो अक़ीब था ,

उसकी यादों को पुरताब कर ।

जो तूने ————————- ।।

 

इक बार मिलती है ज़िन्दगी ,

कर शुक्र अल्लाह की बन्दगी ,

जो बचा है उसको सहेज ले ,

 तू गिले-शिकवे सारे समेट ले ,

फ़लसफ़ा ये तेरा अजीब था ,

‘ सलमा ‘ तू अपना दिल शाद कर ।

जो तूने ————————- ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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