हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 10 (31-35)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #10 (26-30) ॥ ☆

 

कुछ भी नहीं है प्राप्य जो तुम्हें नहीं है प्राप्त

लोक अनुग्रह ही तब जन्म कर्म का आप्त ॥ 31॥

 

कर महिमा गुणगान तब उपरत जो है वाक्

वह श्रम से है नहीं, तब गुणों की सीमा नाप ॥ 32॥

 

इस प्रकार उन देवों ने जिनके इंद्रिय ज्ञान

अधोमुखी हुये विष्णु को किया प्रसन्न समान ॥ 33॥

 

देवों ने पूंछी कुशल, हुये मुदित भगवान

राक्षस रूपी उदिध का, मन्थन गहन महान ॥ 34॥

 

तब समुद्र तट गुहासे ध्वनित उदधि उद्गार

सागर ध्वनि कर पराजित बोले श्री भगवान ॥ 35॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ‘जाता साल’ और ‘आता साल’ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

?संजय दृष्टि – ‘जाता साल’ और ‘आता साल’ ??

[1]

जाता साल

करीब पचास साल पहले

तुम्हारा एक पूर्वज

मुझे यहाँ लाया था,

फिर-

बरस बीतते गए

कुछ बचपन के

कुछ अल्हड़पन के

कुछ गुमानी के

कुछ गुमनामी के,

कुछ में सुनी कहानियाँ

कुछ में सुनाई कहानियाँ

कुछ में लिखी डायरियाँ

कुछ में फाड़ीं डायरियाँ,

कुछ सपनों वाले

कुछ अपनों वाले

कुछ हकीकत वाले

कुछ बेगानों वाले,

कुछ दुनियावी सवालों के

जवाब उतारते

कुछ तज़ुर्बे को

अल्फाज़ में ढालते,

साल-दर-साल

कभी हिम्मत, कभी हौसला

और हमेशा दिन खत्म होते गए

कैलेंडर के पन्ने उलटते और

फड़फड़ाते गए………

लो,

तुम्हारे भी जाने का वक्त आ गया

पंख फड़फड़ाने का वक्त आ गया

पर रुको, सुनो-

जब भी बीता

एक दिन, एक घंटा या एक पल

तुम्हारा मुझ पर ये उपकार हुआ

मैं पहिले से ज़ियादा त़ज़ुर्बेकार हुआ,

समझ चुका हूँ

भ्रमण नहीं है

परिभ्रमण नहीं है

जीवन परिक्रमण है

सो-

चोले बदलते जाते हैं

नए किस्से गढ़ते जाते हैं,

पड़ाव आते-जाते हैं

कैलेंडर हो या जीवन

बस चलते जाते हैं।

[2]

आता साल

शायद कुछ साल

या कुछ महीने

या कुछ दिन

या….पता नहीं;

पर निश्चय ही एक दिन,

तुम्हारा कोई अनुज आएगा

यहाँ से मुझे ले जाना चाहेगा,

तब तुम नहीं

मैं फड़फड़ाऊँगा

अपने जीर्ण-शीर्ण

अतीत पर इतराऊँगा

शायद नहीं जाना चाहूँ

पर रुक नहीं पाऊँगा,

जानता हूँ-

चला जाऊँगा तब भी

कैलेंडर जन्मेंगे-बनेंगे

सजेंगे-रँगेंगे

रीतेंगे-बीतेंगे

पर-

सुना होगा तुमने कभी

इस साल 14, 24, 28,

30 या 60 साल पुराना

कैलेंडर लौट आया है

बस, कुछ इसी तरह

मैं भी लौट आऊँगा

नए रूप में,

नई जिजीविषा के साथ,

समझ चुका हूँ-

भ्रमण नहीं है

परिभ्रमण नहीं है

जीवन परिक्रमण है

सो-

चोले बदलते जाते हैं

नए किस्से गढ़ते जाते हैं,

पड़ाव आते-जाते हैं

कैलेंडर हो या जीवन

बस चलते जाते हैं।

 

©  संजय भारद्वाज

4:31 दोपहर, 2 जून 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #113 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 113 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

स्वेटर

माँ ने स्वेटर में बुना,  माँ का प्यारा प्यार।

याद दिलाता यह हमें ,माँ का प्यार दुलार।।

 

अँगीठी

देखो कितनी ठंड है, जली अँगीठी द्वार।

मिलजुल कर सब तापते,खुश होता परिवार।।

 

रजाई

ठंड -ठंड हम कर रहे,  नहीं रजाई  पास।

तापें जला अलाव तब, आ जाती है सांस।।

 

शाल

प्रियतम  जब भी ओढ़ता,मीत प्रीति का शाल।

सर्दी में गरमी मिले, जीवन भर हर हाल ।।

 

कंबल

कंबल वो तो बाँटते,करें पुण्य का काम।

मिल जाए वैकुंठ का,आशीषों से धाम।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 102 ☆ साल नया अब निखर रहा है….☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  नव वर्ष पर एक भावप्रवण  पूर्णिका साल नया अब निखर रहा है…. । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 102 ☆

☆ साल नया अब निखर रहा है….  ☆

बूढ़ा  दिसंबर   गुजर  रहा है

साल नया अब निखर रहा है

 

जवां जनवरी जोश में आई

मौसम  देखो  संवर  रहा  है

 

उम्र की माला का इक मोती

नये  साल  में   झर   रहा   है

 

कुछ खोया कुछ पाया हमने

जीवन   ऐसे   उतर  रहा   है

 

गुनगुनाती  है   धूप   सुहानी

तन कंप कंप यूँ ठिठुर रहा है

 

बिरहन पिय की राह ताकती

एक  आस  नव सहर रहा  है

 

जोश  होश   “संतोष”   रहेगा

वर्ष  बाइसवां   बिखर  रहा है

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 10 (26-30)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #10 (26-30) ॥ ☆

 

जैसे मिलती उदधि में गंगा की सब धार

मिलते साधन सिद्धि सब तुममें उसी प्रकार ॥ 26॥

 

जिसने धर तब ध्यान सब किये समर्षित कर्म

उन विराणियों को श्शरण देते तुम बन धर्म ॥ 27॥

 

है प्रत्यक्ष महिमा अमित, पृथ्वी की तव नाथ

वेद वचन की सत्यता तो, फिर क्या तब बात ?॥ 28॥

 

स्मरण मात्र तब पावन करता जन को देव

तब तो अन्य भी वृत्तियाँ देती फल स्वयमेव ॥ 29॥

 

उदधिरतन सूरज किरण, के तब तेज समान

मनवाणी से अगम है वर्णन तब गुणखान ॥ 30॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अमूल्य ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

?संजय दृष्टि – अमूल्य  ??

 

भूमंडल की

सारी संपदा हाँफने लगी,

भूतल की

हर सत्ता का दम निकला,

जिसे सबने था

बहुमूल्य समझा,

मेरा वह स्वाभिमान

अमूल्य निकला..!

 

©  संजय भारद्वाज

4:31 दोपहर, 2 जून 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ।।मत होना मायूस जीवन से कि जिंदगी में सौगात बहुत है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण एवं विचारणीय रचना ।।मत होना मायूस जीवन से कि जिंदगी में सौगात बहुत है।।)

☆ कविता – ।।मत होना मायूस जीवन से कि जिंदगी में सौगात बहुत है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

।।विधा।। मुक्तक।।

[1]

खुशी होकर जियो जिंदगी में जज्बात बहुत है।

मिलेगा बहुत कुछ इस में सौगात बहुत है।।

पर वाणी में रखना तुम मिठास बहुत ही।

बात की चोट से यहाँ पर आघात बहुत है।।

 

[2]

न गुम रहनाअतीत में यादों की बारात बहुत है।

मत होना मायूस खुशियों की अफरात बहुत है।।

बना कर रखना तुम अपने रिश्ते नातों को।

अपनों के खोने पाने की यहाँ मुलाकात बहुत है।।

 

[3]

समय से चल कदम मिलाके वक्त की रफ्तार बहुत है।

जो रखते मस्तिष्क को ठंडा उन्हें सत्कार बहुत है।।

क्रोध को त्यागना ही उत्तम है यहाँ पर।

व्यर्थ का जीवन में यहाँ पर गुफ्तार बहुत है।।

 

[4]

पैदा करनी शांति कि घृणा का रक्तपात बहुत है।

करना नहीं विश्वास कि धोखे की खुराफात बहुत है।।

बढ़ाना आदमी से आदमी का प्यार यहाँ पर।

जिंदगी में बिना वजह आंसुओं की बरसात बहुत है।।

 

[5]

मत तोड़ना विश्वास कि यहाँ घात प्रतिघात बहुत है।

कोशिश जरा करेआदमी अच्छा हालात बहुत है।।

जीत को रखना जीवन में बहुत ही संभाल कर तुम।

गर कभी मन हार गए तो फिर मात बहुत है।।

 

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 90 ☆ गाय माता को समर्पित दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  गाय माता को समर्पित दोहे ”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 90 ☆

☆ गाय माता को समर्पित दोहे ☆ 

कामधेनु है स्वर्ग में , रत्न कीमती एक।

चौदह रत्नों सँग उदय, करें सभी अभिषेक।।

 

भारत माँ की शान है, गौ माता अभिमान।

धरती माँ भी दे रही, सबको ही वरदान।।

 

गौ पूजा ही प्रार्थना, गौ ही देवि समान।

गौ की सेवा से सदा, होता है कल्यान।।

 

गौ को सभी बचाइए, गौ ही मूलाधार।

गौ की सेवा जो करें, ईश्वर करता प्यार।।

 

गौ देवों की देव है, सभी बचाओ मित्र।

धरती माँ रचती रही, नए पावनी चित्र।।

 

दूध, दही ,घृत दे रही, ये सब अमरित तुल्य।

गौधन से धरती सजे, जीवन बने प्रबल्य।।

 

वेद, ग्रंथ करते रहे, इसका ही गुणगान।

संकट में अब आ रहे, भक्तो इसके प्रान।।

 

कुछ कुलघाती कर रहे,घात और प्रतिघात।

माँस करें निर्यात ये, सत्ता दे रही साथ।।

 

करें अधर्मी घात नित, लेते चुप – छुप प्राण।

इनकी जिह्वा लपलपी, बहरे इनके कान।।

 

कुछ अपराधी कर रहे, गौ हत्या का पाप।

इसी जन्म में मिल रहा, तन-मन का संताप।

 

पालक पालें गाय को, दुहकर देत निकाल।

मित्रो होंगे अति बुरे, उन लोगों के हाल।।

 

गोरक्षा के नाम पर , बहुत बहा है खून।

किंतु न मित्रो बन सका, गोरक्षा कानून।।

 

प्रभु सबको सद्बुद्धि दें, गौ का रख लें ध्यान।

भारत की बढ़ जाएगी, जग में प्यारे शान।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 10 (21-25)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #10 (21-25) ॥ ☆

सप्त साम प्रार्थित तुम्ही, सप्त सिंधु श्शयमान

सप्त शिखाग्नि रूप मुख, सप्त लोक आधान ॥ 21॥

 

चतुर्वर्गफल प्रद समझ, चतुर्युगों मय काल

चतुर्वर्गमय विश्व यह, चतुर्मख तुमसे जात ॥ 22॥

 

हृदय प्रकाशी आपको योगी कर अभ्यास

मन को वशकर खोजते, लिये मोक्ष की आश ॥ 23॥

 

निस्प्रह नित्य प्रबुद्ध तुम और अजन्मा नाम

सतत सजग निद्रा निरत अटपट उल्टे काम ॥ 24॥

 

विषय भोग, दुष्कर तप, याकि दैत्य संहार

करने आप समर्थ सब जन रक्षा व्यवहार ॥ 25॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #113 – गीतिका – रोटियाँ…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं एक विचारणीय गीतिका “रोटियाँ….”)

☆  तन्मय साहित्य  #113 ☆

☆ गीतिका – रोटियाँ….

कितना अहम सवाल हो गई है रोटियाँ

सुबहो शरण दी पेट में फिर शाम रोटियाँ।

 

जंगल में इसी बात पे पंचायतें जुटी

क्यों शहर में ही सिर्फ बिक रही है रोटियाँ।

 

फुटपाथ के फकीर ने उठते ही दुआ की

अल्लाह आज भी दिला दो चार रोटियाँ।

 

मजदूरनी के पूत ने रोते हुए कहा

छाती में नहीं दूध माँ कुछ खा ले रोटियाँ।

 

कचरे में ढूँढते हुए भारत का वो भविष्य

उछला खुशी से फेंकी हुई देख रोटियाँ।

 

संसद में मानहानि का गंभीर था सवाल

क्यों व्यर्थ ही चिल्ला रहे कुछ लोग रोटियाँ।

 

देहलीज से निकल के कहाँ लापता हुई

है संविधान ला दे मुझे मेरी रोटियाँ।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares