हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #101 ☆ मजदूर महिला ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 101 ☆

☆ मजदूर महिला ☆

(प्रस्तुत रचना मजदूर बाला हमारे श्रमिक समाज की बेबसी, दुख , पीड़ा की झलक दिखाती‌है। गरीबी‌ की सजा भुगतते श्रमिक समाज के ललनाओं‌ के बच्चो‌ की भूख  एवम् ‌कुपोषण से‌ जूझते परिवारों की दशाओं की भयानक सच्चाई से रूबरू कराती है ये रचना। इसके साथ ही  सड़कों पर विपरीत ‌परिस्थिति  में अंतिम  सांस तक  जूझने की‌ भारतीय नारी के हौसलों के सत्य घटना क्रम पर  आधारित इस रचना में आपको निराला जी की रचना की छाप स्पष्ट‌ नजर आयेगी।) 

 

जेठ मास के बीच दोपहरी, वह सड़कों पर गिट्टी फेंक रही थी।

अब‌ हाड़-तोड़ मेहनत करने में, अपना भविष्य वो देख रही थी।

 

अम्बर से आग बरसती थी, धरती का जलता सीना था।

उस  खुले  आसमां  के  नीचे, तन से चू रहा पसीना था ।

 

काली छतरी के नीचे उसने, अपना दुधमुंहा शिशु लिटाया था ।

भूखा प्यासा रोता बच्चा भी, उसकी राह रोक ना पाया था ।

 

करते करते घोर कठिन श्रम, थक कर निढाल वो लेट रही थी।

जलती धरती बनी‌ बिछौना उसकी, सिर पर छाते की छाया थी।

 

छाते की छाया में, दोनों पांवों को घुटनों से मोडे।

बना हाथ का तकिया, बच्चे का सिर सीने से जोड़ें ।

 

वो बेख्याली में लेट रही, अपने  ग़म  की  चादर  ओढ़े।

चादर फटी हुई थी उसकी, बेबसी बाहर झांक रही थी।

 

फटी चादर की‌ सुराख  से, उसकी गरीबी ताक रही थी।

छाती‌ से चिपका प्यारा शिशु, अपना भोजन ढूंढ़ रहा था,

मां की ममता ढ़ूढ़ रहा था,।।

 

पर हाय रे क़िस्मत! उस बच्चे के, मां की ममता बीरान थी।

दूध न था छाती में उसके, गरीबी से परेशान थी।

 

फटे  हुए  कपड़े  थे तन  पर, जर्जर तन था काया थी।

गढ्ढो में धंसी हुई दो आंखें, उनमें ममता की छाया थी।

 

फटे हाल  वस्त्रों  के  पीछे,  उसका तन नंगा झांक रहा था।

शोषण की पीड़ा बन कर के, उसका भविष्य ही ताक रहा था ।

 

हाथों में है फावड़ा सिर पे भरी टोकरी, भूखा बचपन गोद में।

ये उसकी पहचान री।

 

सारे ‌मिथक तोड़ कर, अपना वतन छोड़  कर।

अपने श्रम को बेचती, दुख के‌ लबादे ओढ़कर ।

 

शोषण की‌‌ पीडा़ बेबसी का दंश झेलती।

फिर भी हर हाल में दुखों से है खेलती।

 

अंबर बना ओढना‌, धरती का बिछौना है।

गोद चढा़ दुधमुहां, उसका खिलौना है

 

उसी से वो बातें करती, उसी से है खेलती।

अपनी सारी ममता, उसी पे है उड़ेलती।

 

शोषण कुपोषण का दंश, झेल रही पीढ़ियाँ ।

फांकाकशी  लाचारी से, खेल रही पीढ़ियाँ ।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 9 (46-50)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #9 (46-50) ॥ ☆

 

बसंतोत्सव   में  झूलती  नारियों  ने, कुशल  होते  भी  झूले  की  डोरियों को

शिथिल भुजलताओं से साधा दिखा डर,बिलसने परम प्रिय के अपने गले को। 46।

 

‘‘अरे मान छोड़ो न रूठो निरर्थक गई आयु सुख की न फिर लौट आती ” –

कोकिल के ऐसा सुनाते सँदेशो, भुला मान हुई प्रेमरस में नहाती ॥ 47॥

 

फिर विष्णु औं काम सम बसंतोत्सव के जब राजा दशरथ ने सुख सब उठाया

तब जगी इच्छा कि आखेट भी हो, राजा ने तब मृग या हित मन बनाया ॥ 48॥

 

चलते हुये मृग-वाराहादि को मार जो क्रोध भय का भी लक्ष्य साधती है

रख देह को चुस्त औं विजय हित स्वस्थ नहि दुर्व्यसन, युद्ध कलावती है॥ 49॥

 

वन में पहुँचने का सा वेषधर वह कंधे पै धर धनुष, रवि सा प्रतापी

अश्वों के खुर से उड़ा धूल, नभ को घटाता सा घेरा गया वन शिकारी ॥ 50॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कद ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

?संजय दृष्टि – कद ??

 

सत्ता, संपदा, शक्ति,

कुटिलता के संग

षड्यंत्र रचती रहीं,

षड्यंत्र का स्तर

ज्यों-ज्यों नीचे गिरा,

प्रतिभा का कद

त्यों-त्यों ऊँचा हुआ…!

 

©  संजय भारद्वाज

दोपहर 1:05 बजे, 12 दिसम्बर 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #122 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 8 – “रंग” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “रंग ”)

? ग़ज़ल # 8 – “रंग ” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

सामने आते ही दिल में उतर जाते हैं,

इश्क़ज़दा चेहरों के रंग बदल जाते हैं।

 

माशूक़ का चेहरा खिला सुर्ख़ ग़ुलाब,

ख़ाली बटुआ देख के रंग बदल जाते हैं।

 

जो क़समें खाते सदियों साथ चलने की,

पहली फ़ुर्सत उनके ढंग बदल जाते हैं।

 

समा जाना चाहते थे जो एक दूसरे में,

बासी ख़ुशबू उनके अंग बदल जाते हैं।

 

एक सा नहीं रहता समय का मिज़ाज,

वक़्त के साथ सबके ढंग बदल जाते हैं।

 

ज़िंदगी में पत्थर तो हम सभी उठाते हैं,

मुलज़िम सामने पा के संग बदल जाते हैं।

 

मौत की सज़ायाफ़्ता क़ैद में सब ज़िंदगी,

कुव्वत हिसाब कूच के ढंग बदल जाते हैं।

 

सियासती चेहरों के रंग को क्या कहिए,

चाल के हिसाब उनके ढंग बदल जाते हैं।

 

कई मुखौटा लगाकर चलते हैं हम सब,

क़ज़ा की चौखट सबके रंग बदल जाते हैं।

 

मुहब्बत सियासत में सब जायज़ ‘आतिश’

दाँव लगता देख सबके ढंग बदल जाते हैं।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 59 ☆ गजल – दुनियॉं ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  “गजल”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 59 ☆ गजल – दुनियॉं ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ☆

फल-फूल, पेड़-पौधे ये जो आज हरे है

आँधी में एक दिन सभी दिखते कि झरे है।

 

सुख तो सुगंध में सना झोंका है हवा का

दुख से दिशाओं के सभी भण्डार भरे है।

 

नभ में जो झिलमिलाते हैं, आशा के हैं तारे

संसार के आँसू से, पै सागर ये भरे है।

 

जंगल सभी जलते रहे गर्मी की तपन से

वर्षा का प्यार पाके ही हो पाते हरे है।

 

ऊषा की किरण ही उन्हें देती है सहारा

जो रात में गहराये अँधेरों से डरे है।

 

रॅंग-रूप का बदलाव तो दुनियाँ का चलन है

मन के रूझान की कभी कब होते खरे है ?

 

सब चेहरे चमक उठते है आशाओं के रंग से

आशाओं के रंग पर छुपे परदों में भरे है।

 

इतिहास ने दुनियॉं को दी सौगातें हजारों

पर जख्म भी कईयों को जो अब तक न भरे है।

 

यादों में सजाता है उन्हें बार-बार दिल

जो साथ थे कल आज पै आँखों से परे है।       

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ।।स्नेह की मूरत, प्रभु का अमृत प्रसाद सी, बेटी होती है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण एवं विचारणीय रचना ।।स्नेह की मूरत ,प्रभु का अमृत प्रसाद सी, बेटी होती है।।)

☆ कविता – ।।स्नेह की मूरत, प्रभु का अमृत प्रसाद सी, बेटी होती है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

।।विधा।। मुक्तक।।

[1]

घर में  चहकती   सुरमई ताल हैं    बेटियाँ।

जो करदे हल कोई  ऐसा सवाल हैं बेटियाँ।।

स्नेह की मूरत    प्रभु का अमृत प्रसाद जैसे।

सच कहूँ तो      बहुत ही कमाल हैं बेटियाँ।।

 

[2]

घर की रौनक आरती का थाल   बेटी से  है।

घर की सुख शांति  प्यार बहाल बेटी    से है।।

पायल की झंकार    प्रेम दुलार है     बेटी से।

सारा का ही  सारा  घर खुशहाल बेटी से है।।

 

[3]

वह होते हैं भाग्यवाले घर जिनके बेटी आती है।

घर की खुशी प्रभुकृपा तो बेटी  ही  लाती   है।।

बेटियों से ही है हर उत्सव रंग बहार    घर की।

बेटीयों के जरिये ही खुशी घर में जगह पाती है।।

 

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 9 (41-45)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #9 (41-45) ॥ ☆

 

कज्जल तिलक रूप शोभा प्रवर्धित करता है जैसे सुधार नारियों की –

काले भ्रमर दल ने वैसे तिलक पुष्प को घेर शोभा बढ़ाई तिलक की ॥ 41॥

 

नव मल्लिका का लता तरू सँग विलसती, मकरंद मधुगंध मीठी उड़ाती

पल्लव अधर पै झलकते सुमन हास की काँति से मन को उन्मत्त बनाती॥42॥

 

अरूण लालिमा से भी सुंदर वसन, सजे कानों में सुंदर यवाकुर सहुाने

कोकिल की मादक मनोहर सी तानें लगीं रसिकों को रमणियों में रमाने ॥43॥

 

परागों भरी तिलक की मंजरी अलि समूहों से संयुक्त थी यों सुहाती

जैसे कि केशों की सज्जा की जाली में मुक्ताओं की लगी लडि़याँ हैं भाती। 44।

 

ऋतु श्री की मुखछबि बढ़ाने कुसुम रेणुऔं काम के ध्वज के पट सी सुहानी

पवन सँग उड़ाती हुई संग उड़कर अलिदल ने की यों छटानिज दिखानी॥45॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – यात्रा… ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

?संजय दृष्टि – यात्रा…  ??

जीवन क्षणभंगुर है;

सिक्का बताता रहा,

समय का चलन बदल दिया;

उसने सिक्का उलट दिया…,

क्षणभंगुरता में ही जीवन है;

अब सिक्के ने कहा,

शब्द और अर्थ के बीच

अलख दृष्टि होती है,

लघु से विराट की यात्रा

ऐसे ही होती है..।

 

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 9:46 बजे, 15 दिसम्बर 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 111 ☆ ग़ज़ल ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण  “ग़ज़ल। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 111 – साहित्य निकुंज ☆

☆ ग़ज़ल  ☆

मिलेगा न मंजर उमर देखिए 

कभी गौर से तो इधर देखिए ।

 

मिली है नज़र आज सालों के बाद  

हमे इक नज़र आज भर देखिए ।

 

नज़र भी चुराकर मिलाते हैं वो

कि महबूब का ये हुनर देखिये

 

सरे आम ढूंढा तुझे ही यहाँ  

मुहब्बत का  मेरी असर देखिए ।।

 

अपना बनाने की कस्मे खाई

लगी प्यार की ऐसी मुहर देखिये।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 100 ☆ यों तो दुनिया में कहीं था न पता तेरा….☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण रचना  “यों तो दुनिया में कहीं था न पता तेरा….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 100 ☆

यों तो दुनिया में कहीं था न पता तेरा…. ☆

आखिर दिल की पुकारों में तुझको देख लिया

डूबते वक़्त किनारों में तुझको देख लिया

 

यों तो दुनिया में कहीं था न पता तेरा, मगर

हमने कुछ प्यार के मारों में तुझको देख लिया

 

फिर कभी लौटके आयी नहीं खुशबू वैसी

दिल ने सौ बार बहारों में तुझको देख लिया

 

हमने पायी है वही टूटते दिल की तस्वीर

जिन्दगी! चाँद-सितारों में तुझको देख लिया

 

तू भले ही रहा दुनिया से अलग हो के “संतोष”

पर किसी ने था हज़ारों में तुझको देख लिया

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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