हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 89 ☆ समसामयिक दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  “समसामयिक दोहे”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 89 ☆

☆ समसामयिक दोहे ☆ 

घर – घर पीड़ा देखकर, मन ने खोया चैन।

हर कोई भयभीत है, घड़ी- घड़ी दिन- रैन।।

 

खुद को आज संभालिए, मन से करिए बात।

दिनचर्या को साधिए, योग निभाए साथ।।

 

गरम नीर ही मित्र है, कभी न छोड़ें साथ।

नीम पात जल भाप लें, कोरोना को मात।।

 

दाल, सब्जियां भोज में, खाएँ सब भरपूर।

शक्ति बढ़े, जीवन सधे, आए मुख पर नूर।।

 

दुख – सुख आते जाएँगे, ये ही जीवन चक्र।

अच्छा सोचें हम सदा, कर लें खुद पर फक्र।।

 

याद रखें प्रभु को सदा, कर लें जप औ ध्यान।

दुख कट जाते स्वयं ही, हो जाता कल्यान।।

 

पेड़ हमारी शान हैं, पेड़ हमारी जान।

पेड़ों से ही जग बचे, बढ़ जाए मुस्कान।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 9 (31-35)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #9 (31-35) ॥ ☆

 

बसंत में किंशुक कलियों के रूप थे वृक्ष में कुछ ऐसे सुहाते

जैसे कि मदमत प्रमदाओं के नख प्रियतम के तन को हैं चिन्हित बनाते ॥ 31॥

 

जो शीत प्रमदाओं को कष्टकारी थी, जघन व अधरोष्ठ को कठिन भारी

बंसत आने पै रवि ने उसको डरा हटाने की की तैयारी ॥ 32॥

 

ठिठोली करती मलय पवन से उलझाती पल्लव – कली – लतायें

नव आम्र टहनी ने कामजित के मन में भी पैदा की कामनायें ॥ 33॥

 

मधुर महकती अमराइयों में रह रह के कोकिल की प्रेमवाणी

सुनी गई जैसे मुग्ध प्रमदाओं की प्रिय मिलन की मधुर कहानी ॥ 34॥

 

पवन तरंगित लतायें उपवन में कली रदनों की छवि दिखातीं

हिला के किसलय नव भाव मुद्रा दिखा भ्रमर स्वन में गीत गाती ॥ 35॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #111 – कविता – तुमको भी कुछ सूत्र सिखा दें….☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं एक अतिसुन्दर विचारणीय कविता  “तुमको भी कुछ सूत्र सिखा दें….…..”। )

☆  तन्मय साहित्य  #111 ☆

☆ कविता – तुमको भी कुछ सूत्र सिखा दें….…..

 अपना यशोगान करना             

पहचान हमारी

आओ तुमको भी अचूक

कुछ सूत्र सिखा दें।

 

थोड़े से गंभीर

मुस्कुराहट महीन सी

संबोधन में भ्रातृभाव

ज्यों नीति चीन की

हो शतरंजी चाल

स्वयं राजा, खुद प्यादे

आओ तुमको भी अचूक

कुछ सूत्र सिखा दें।।

 

हो निशंक, अद्वैत भाव

मैं – मैं उच्चारें

दिनकर बनें स्वयं

सब शेष पराश्रित तारे,

फूकें मंत्र, गुरुत्व भेद

शिष्यत्व लिखा दें

आओ तुमको भी अचूक

कुछ सूत्र सिखा दें।।

 

बुद्ध, प्रबुद्ध, शुद्धता के

हम हैं पैमाने

नतमस्तक सम्मान

कई बैठे पैतानें,

सिरहाना,सदियों का सब

भवितव्य बता दे

आओ तुमको भी अचूक

कुछ सूत्र सिखा दें।।

 

हों विचार वैविध्य, साधते

सभी विधाएँ

अध्ययन, चिंतन, मनन

व्यर्थ की ये चिंताएँ

जो मन आये लिखें और

मंचों पर बाँचें

आओ तुमको भी अचूक

कुछ सूत्र सिखा दें।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 4 – लाल हथेली — ☆ डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत “लाल हथेली –” 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 4 ✒️

? गीत – लाल हथेली —  डॉ. सलमा जमाल ?

मेहंदी वाली लाल हथेली ,

उस पर शब ये जुदाई की।

तुम क्या समझो क्या जानो ,

बात मेरी तन्हाई की ।।

 

दुल्हन बैठी आंख झुकाए,

आहट लेती क़दमों की ।

किस से शिकवा और शिकायत,

आज करे हरजाई की ।

तुम क्या —————–।।

 

चांद सितारे भी अंगड़ाई,

लेते- लेते डूब गए ।

तीर चलाती दिल पे मेरे ,

यह आवाज़ शहनाई की।

तुम क्या ————–।।

 

सावन की घनघोर बदरिया,

बरसी मन के आंगन में ।

साजन तो परदेस बसे सखि,

बात ना कर पुवाई की।।

तुम क्या—————।।

 

टूट गए आशा के बंधन ,

गाल गुस्से से लाल हुऐ ।

मुझ पे सखियो हंस मत देना,

है बात “सलमा “रुसवाई की ।

तुम क्या—————।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अतिथि ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के साधना डिग्री कॉलेज में सह प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, स्वर्ण मुक्तावली- कविता संग्रह, स्पर्श – कहानी संग्रह, कशिश-कहानी संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज ससम्मान  प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण एवं सार्थक कविता अतिथि)  

☆ कविता – अतिथि  ☆ 

’अतिथि देवो भवः’ है भारतीय संस्कृति,

चंद दिनों के मेहमान हर कोई यहाँ,

फिर क्यों द्वेष, नफ़रत से भरा है संसार?

जान लो अतिथि का सही अर्थ,

अतिथि होता है इंसान कोई भी,

जन्म लेता है पवित्र अवनि पर,

अतिथि है समाज की धरोहर,

प्रेम की भाषा, आदर-सत्कार कर,

दुआ प्राप्त कर अतिथि से,

स्नेह व प्रतिसाद की अपेक्षा है,

कर स्वागर मधुर वाणी से,

होता उत्सव उसके जन्म से,

नहीं होता मात्र मंच का अधिकारी,

होता है वह जन्म का अधिकारी,

मृदुल वाणी का हकदार वह,

अतिशय नमन को आतुर वह,

आगमन से खुलते है भाग,

अनुगृहित होता मुदित मन,

अतिथि का मत कर अपमान,

अतिथि का कर सत्कार,

अतिथि के विदा होने पर,

मत बहा अश्रु की धारा,

अतिथि होता है पूजनीय,

अतिथि तुम भी हो,

जन्म तुमने भी लिया,

उस पर अन्याय मत कर,

वास है इस धरा पर,

लेकर अतिथि का आशीर्वाद

 बढ़ना है आगे तुम्हें सदा।

 

©  डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

सह प्राध्यापिका, साधना डिग्री कॉलेज, उत्तरहळी, केंगेरी मेन रोड, बेंगलूरु।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 9 (26-30)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #9 (26-30) ॥ ☆

 

जन्में प्रथम पुष्प फिर नये पल्लव फिर गूँजी पुष्पों पै भ्रमर गुजार

औं बाद में कोकिला की मधुर कूक, वृक्षों पैं छाया वंसत श्रृंगार ॥ 26॥

 

ज्यों नीति अर्जित, नृपति के धनहित ही होता था याचकों का आना

वैसे ही वासंती पद्यश्री पास हंसों औ भ्रमरों का था गुनगुनाना ॥ 27॥

 

बसंत उद्धत अशोक का पुष्प ही मात्र कामोद्वीपक, नही था

पर पल्लवों के प्रिय कर्ण फूलों ने भी रसिक जन में रस जगाया ॥ 28॥

 

बसंत शोभा की नवल रचना – कुरबक कुसुम सद्य मकरन्द दायी

भ्रमरों की गुंजार के बन गये केन्द्र, जो सुखद सुंदर देते दिखाई ॥ 29॥

 

प्रमदा की मुखमदिरा से सिंचे गुण से बकुलों को भौरे घेरे

मधु लोभवश पंक्तियों में थे भौरे उड़ गुनगुना गान करते घनेरे ॥ 30॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 11 – डरें नहीं झंझावातों से… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है सजल “डरें नहीं झंझावातों से… । अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 11 – डरें नहीं झंझावातों से…  ☆ 

समांत-अम

पदांत-हैं

मात्राभार- १६

 

जीवन में जब आते गम हैं।

आँखें सबकी होती नम हैं।।

 

कलयुग की लीला यह देखो,

आँखों में अब कहाँ शरम हैं।

 

डरें नहीं झंझावातों से,

पाएँ मंजिल यही धरम हैं।

 

तूफानों में किश्ती खेते,

पार लगाते उनका श्रम हैं।

 

मेहनत कश भूखा है सोता,

सरकारों को अब भी भ्रम हैं।

 

वृद्ध मात-पिता हैं हो गए,

फिर भी काया में दमखम हैं।

 

कर्तव्यों को कौन पूँछता,

अधिकारों पर चली कलम हैं।

 

तन में भगवा चोला ओढ़ा,

धर्म-ज्ञान का उन्हें वहम हैं।

 

सबको जो हैं मूर्ख समझते,

उन में ही तो बुद्धि कम हैं।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आँसू ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – आँसू ??

वह समंदर

क्या हुआ,

पछता रहे हैं सारे;

जो उसकी आँख में

कभी आँसू

बो कर गये थे !

©  संजय भारद्वाज

(अपराह्न 1:30 बजे, 26.3.19)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 9 (21-25)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #9 (21-25) ॥ ☆

कुश मेखला,चर्म मृग श्रृंग धारी संस्कारी नृप संयत जिसकी वाणी –

में स्वयं शिव ने दी दीप्ति अपनी हो जैसे उसमें प्रभा समानी ॥ 21॥

 

कर तीर्थस्नान, बन के जितेन्द्रिय, देवों का सा मान दशरथ ने पाया

नमुचि विरोधी सुरेन्द्र को बस प्रवति में जिसने था सिर झुकाया ॥ 22॥

 

पराक्रमी दशरथ धनुर्धर ने जो युद्ध में इन्द्र का अग्रगामी

आकाश में उड़ती धूल को रक्त से शांत करने का बना नामी ॥ 23॥

 

कुबेर वरूणेन्’द्र यम सम पराक्रमी दशरथ नृपति की ज्यों अर्चना में

बंसत ऋतुराज भी हो उपस्थित निरत हुआ पुष्प की सर्जना में ॥ 24॥

 

कुबेर रक्षित दिशा को जाने अरूण ने अश्वों को जब घुमाया

तो सूर्य ने कर विमल दिशायें मलय से हट शीत को कुछ घटाया ॥ 25॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 68 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 68 –  दोहे ✍

 

सभी दलों के प्रवक्ता, शेखी रहे बघार।

उनकी मुद्रा कह रही, दिल्ली में दमदार।।

0

हाय, पटकनी खा गए, बहे धार ही धार।

किया आत्मविश्वास ने, ऐसा बंटाधार।।

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नारे लगे विरोध में, किए रास्ते जाम।

लेन-देन पक्का हुआ, मिलजुल बैठे श्याम।।

0

राजनीति की चाल को, समझ ना पाए आप।

बेटा भी कहने लगा, हमीं तुम्हारे बाप।।

0

मूर्ति लगाई इन्होंने, चढ़े गले में हार

वाह चढ़ावे आ गए, करने को मिस्मार।।

0

शुद्ध हरामी रहे थे और बहुत बदनाम।।

दल बदला तो हो गए, पावन सीताराम।।

0

अच्छे दिन आए नहीं, शुरू बुरे का दौर।

कुआ खाई के बीच में, नहीं ठिकाना ठौर ।।

0

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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