हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 9 (6-10)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #9 (6-10) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग – 9

 

धन और जल दे असतदलन से, कुबेर वरूण वयम विधि निभाई

औं कांति से अरूण अनुयायी रवि सी दशरथ ने जगमें सुख्याति पाई ॥ 6॥

 

उत्कर्षशाली महीप दशरथ को द्यूत – आखेट – सुरा न भायी

नव यौवना नारियों में भी उसने कहीं कभी भी रूचि न दिखायी ॥ 7॥

 

कभी स्वशासन में इंद्र से भी न बोली उसने सहम के वाणी

न हास में भी असत्य बोला, न शत्रुओ से कठोर वाणी ॥ 8॥

 

नृपों ने उस रधुकुल के धुरंधर से विकास और नाश भी, दोनों पाये

आज्ञानुयायी का मित्र था वह कठोरतम द्वेष जो ले के आये ॥ 9॥

 

उदधि परिवृता धरा को दशरथ ने धनुष ले सिर्फ था रथ से जीता

गज अश्व सेना ने तो सुनाई सबों को उनकी विजय की गीता ॥ 10॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दर्द ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – दर्द ??

वे जो लिखते हैं

बैठकर झील के किनारे

या नदी के तट पर,

पूछते हैं मुझसे;

कैसे लिख लेता हूँ

ऐसी पनीली रचनाएँ

इस आग उगलते रखें रेगिस्तान में?

मुस्करा कर चुप हो जाता हूँ,

क्या जानें वे;

हर रेगिस्तां ने पी रखा है

दर्द का, पूरा का पूरा एक समंदर !

(कवितासंग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता’ से।)

©  संजय भारद्वाज

 अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 110 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 110 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे 

कविता मेरी प्रेरणा, कविता में अनुराग।

अंतर्तम  में बह रहा, है भावों का  राग।।

 

सारस्वत की  रागिनी, बहती है अविराम।

जो है इनकी प्रेरणा, उनको विनत प्रणाम।।

 

राजनीति का हो रहा, सबको ही अब रोग।

 बाढ  प्रदर्शन की चली, बहे जा रहे लोग।।

 

निष्फल ही करते रहे, उनके लिए प्रयास।

समझा उसे जरा नहीं, टूट गई है आस।।

 

भौंरा कैसे नाचता, फूल पंखुड़ी बंद।

इधर उधर डोला फिरे, ढूंढ रहा मकरंद।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 99 ☆ याद जब कभी  भी….☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण रचना  “याद जब कभी  भी ….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 99 ☆

☆ याद जब कभी  भी …. ☆

 

न जाने किनके सर मुकद्दर आये

अपने हिस्से में  बस पत्थर  आये

 

याद जब कभी  भी आई  उनकी

दिल के हर जख्म फिर उभर आये

 

राह तकते रहे  हर सू हम जिनकी

वो  गैर  की  बाहों  में नजर  आये

 

राह में लुटते रहे रहज़न जब तक

तब तक न वहाँ कोई रहबर आये

 

चाह मंज़िल की रुकती है न कभी

राह में कैसे भी क्यों न मंजर आये

 

कत्ल किया था किसी और ने कभी

इल्जाम  लेकिन   हमारे  सर  आये

 

उगलता नफरती खून अखबारों में

मुहब्बत की भी “संतोष” खबर आये

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – हास्यास्पद ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि –  हास्यास्पद ??

हिमखंड की

क्षमता से अनजान,

हिम का टुकड़ा

अपने जलसंचय पर

उछाल मार रहा है,

अपने-अपने टुकड़े को

हरेक ब्रह्मांड मान रहा है,

अनित्य हास्यास्पद से

नित्य के मन में

हास्य उपजता होगा,

ब्रह्मांड का स्वामी

इन क्षुद्रताओं पर

कितना हँसता होगा..!

 

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 10:11 बजे, 5.12.2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 88 ☆ सतरंगी दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  “सतरंगी दोहे”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 88 ☆

☆ सतरंगी  दोहे ☆ 

परहित से बढ़कर नहीं, जग में कोई धर्म।

परपीड़ा में जो हँसें, है वह पाप अधर्म।।

 

मन को अच्छा जो लगे, वो ही करिए आप।

लेकिन ऐसा मत करो, जिसमें हो संताप।।

 

मानव जीवन सफल हो, ऐसा कर लें काम।

खुशबू फैले फूल – सी, सुखद मिले परिणाम।।

 

जंगल में मंगल करें, प्रेम प्रीत श्रीराम।

जो सुमिरें भगवान को, बिगड़े बनते काम।।

 

योग करें मित्रो सदा, देता शुभ परिणाम।

तन – मन आनन्दित रहे, नहीं लगें कुछ दाम।।

 

कोरोना ने डस लिए, लाखों – लाखों प्राण।

श्रद्धा अर्पित मैं करूँ, ईश्वर कर कल्याण।।

 

निज कर्मों से हैं दुखी, रोग बढ़ाएं, क्लेश।

मानव रूपी जीव के, सर्पों के से वेश।।

 

कर्तव्यों से हैं विमुख, गया शील, व्यवहार ।

खड़ा – खड़ा नित देखता , कलियुग का संसार।।

 

डर से जीवन न चले, करें नित्य संघर्ष।

भेद मिटाएँ आपसी, करिए सदा विमर्श।।

 

तू – तू मैं – मैं त्यागिए , होगी शक्ति विनष्ट।

चैन छिने, दुख भी बढ़ें, बढ़ें सभी के कष्ट।।

 

रोना – धोना छोड़िए, मन करिए अनुकूल।

ईश्वर ने तो लिख दिए, मूल, शूल औ फूल।।

 

मुझमें निरी बुराइयाँ ,खोज रहा नित यार।

कोशिश मैं करता रहा, बाँटू जग में प्यार।।

 

चलता ही चलता चले, सुख – दुख यह मेल।

कभी पास हम हो गए , और कभी हम फेल।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 8 (91-95)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #8 (91-95) ॥ ☆

गुरू वशिष्ठ की बात सुन औं ऊँचे उपदेश

अज बोले – ‘‘है ठीक” पर मन में रहा न शेष ॥ 91॥

 

आत्मज देख अबोध, अज प्रियवादी महाराज ।

चित्र, स्पप्न लख इन्दु के काटे नत्सर आठ ॥ 92॥

 

पीपल  जड़ से श्शोक से, अज मन हुआ विदीर्ण

वैद्यों हेतु असाध्य भी, प्रिया मिलन हित तीर्ण ॥ 93॥

 

तब संस्कारित पुत्र को सौंप कवच औ देश

मुक्ति हेतु अज ने किया अनशन पा आवेश ॥ 94॥

 

गंगा – सरयू तीर्थ में देह त्याग के साथ, अज ने पाई अमरता मिटा हृदय का त्रास ।

अधिक कांतिमय और भी दिव्यविभा के साथ,नंदन वन क्रीड़ाभवन का तब बन के नाथ ॥ 95॥

 

आठवाँ सर्ग समाप्त

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #110 – कविता – सहमी गौरैया बैठी है….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं समसामयिक विषय पर एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय कविता  “सहमी गौरैया बैठी है…..”। )

☆  तन्मय साहित्य  #110 ☆

☆ कविता – सहमी गौरैया बैठी है…..

(एक प्रयोग – न्यूज पेपर पढ़ते हुए बनी एक अखबारी कविता)

कॉन्फ्रेंस कौवों की मची हुई है

काँव-काँव की धूम

सहमी गौरैया बैठी है

एक तरफ होकर गुमसूम।

 

एक ओर सब्सिडी वाला

चालू है गिद्धों का भोज

बोनी-टोनी, ऊसी-पूसी

ताके-झाँके डगियन फ़ौज,

शाख-शाख पर रंग बदलते

गिरगिटिया नजरें मासूम

सहमी गौरैया बैठी है

मन मसोस होकर गुमसूम।

 

तोतों की है बंद पेंशन

बाजों के अपने कानून

निरीह कपोतों की गर्दन पर

इनके हैं निर्मम नाखून,

इधर बिके बिन मोल पसीना

उधर निकम्मों को परफ्यूम

सहमी गौरैया बैठी है

मन मसोस होकर गुमसूम।

 

जन सेवक बनकर शृगाल

जंगल में डोंडी पीट रहे

अमन-चैन में है जंगल अब

हँसी-खुशी दिन बीत रहे,

चकित शेर है देख, भेड़ियों के

सिर पर चंदन कुंकूम

सहमी गौरैया बैठी है

मन मसोस होकर गुमसूम।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 3 – जो मैं बाग़वां होती — ☆ डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत “जो मैं बाग़वां होती –” 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 3 ✒️

? गीत – जो मैं बाग़वां होती —  डॉ. सलमा जमाल ?

जो मैं बाग़वां होती ,

तो गु्ल्शन को महका देती ।

मनाते जश्न धरती पुत्र ,

खेतों को लहका देती ।।

 

कभी महफ़िल , तो अकेले ,

हर दिन सुख-दुख के झमेले ,

कभी बसंत , कभी पतझड़ ,

हंसने – रोने के मेले ,

सभी जंगल हरे रखती ,

पलाश हर सू दहका देती ।

मनाते ——————- ।।

 

झील – झरने और नदियां ,

उन्हें बहते गुज़रीं सदियां ,

बातें पेड़ों – पहाड़ों की ,

साग़र – लहरों की बतियां ,

बिना किसी जाम मीना के ,

क़ायनात बहका देती ।

मनाते ——————- ।।

 

पीते शेर , भेड़ , बकरी ,

मिलकर इक घाट पे पानी ,

पुरुष पाते देवत्व को ,

नारीं होतीं महारानी ,

फ़रिश्ता बनके ज़मीं पर ,

जन्नत को दमका देती ।

मनाते ——————- ।।

 

अंधेरी रात अमावस्या ,

ऋषि-मुनियों की तपस्या ,

बैठे वीरान मरघट पे ,

लेकर अघोरी समस्या ,

गर मैं चांद – तारे होती ,

रातों को चमका देती ।

मनाते ——————- ।।

 

होती बग़िया की माली ,

लगाती फूलों की डाली ,

सहेजती गुल को हाथों से ,

और कांटों की रखवाली ,

तराना छेड़ती ‘ सलमा ‘

परिंदों को चहका देती ।

मनाते ——————- ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 8 (86-90)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #8 (86-90) ॥ ☆

श्शोकमुक्त मन से करें उन्हें सपिण्डीदान

प्रेतो को स्वजनाश्रुतो करते कष्ट प्रदान ॥ 86॥

 

देही का जीवन विकृति, मृत्यु प्राकृतिक रूप

क्षण भी जी जो साँस ले, भाग्यवान वह भूप ॥ 87॥

 

भ्रमित बुद्धि प्रियनाश को लखते शल्य समान

स्थिरधी पर मुत्यु का भी करते सम्मान ॥ 88॥

 

आत्मा और शरीर भी करते योग – वियोग

तो औरों का मिलन तो है केवल संयोग ॥ 89॥

 

सबल जितेन्द्रिय आप तो है औरों से भिन्न

आँधी में गिरि वृक्ष क्या होते है सम खिन्न ? ॥ 90॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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