हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 61 ☆ परहित सरिस धरम नहिं भाई ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “परहित सरिस धरम नहिं भाई।)

☆ किसलय की कलम से # 61 ☆

☆ परहित सरिस धरम नहिं भाई 

परहित, परोपकार, परसेवा अथवा परमार्थ जैसे शब्दों को ही सुनकर हमारे मन में दूसरों की मदद हेतु भाव उत्पन्न हो जाते हैं। किसी भी तरह के जरूरतमंदों की सहायता करना, उनकी सेवा करना मानवसेवा का प्रमुख उदाहरण है। यदि ईश्वर ने आपको सक्षम बनाया है, या आप गरीबों की अंशतः भी मदद करते हैं तो इससे बढ़कर अच्छा कार्य और कुछ भी नहीं हो सकता। परहित का आधार मात्र आर्थिक नहीं होता। आप समाज में रहते हुए अनेक तरह से ये कार्य कर सकते हैं। आपके द्वारा किया गया श्रमदान, शिक्षादान, अंगदान, सहृदयता, अथवा भावनात्मक संबल भी परहित है। किसी को गंतव्य तक पहुँचाना, अनजान को राह दिखाना, किसी को दिशाबोध कराना सहृदयता ही है। भूखे को खाना, प्यासे को पानी, धूप से व्यथित व्यक्ति को अपने घर की छाँव देकर भी मदद की जा सकती है। अपने घर की पुरानी, अनुपयोगी वस्तुएँ, कपड़े, बर्तन, बचा भोजन आदि भी हम जरूरतमंदों को दे सकते हैं। घर के आयोजनों में कुछ गरीबों को बुलाकर उन्हें भोजन करा सकते हैं या फिर भोजन ले जाकर गरीबों में बाँट सकते हैं। गरीब बच्चों की शालेय शुल्क, पोशाक, जूते, बैग, पुरानी किताबें आदि भी दी जा सकती हैं। ये कार्य  सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से व्यापक स्तर पर भी किए जा सकते हैं। प्रतिवर्ष नवंबर, दिसंबर और जनवरी महीनों में ठंड का प्रभाव काफी बढ़ जाता है। हर किसी का सुबह और रात में निकलना मुश्किल हो जाता है। अब आप ही सोचें कि जो बेसहारा अथवा गरीब लोग विभिन्न कारणों से फुटपाथ, पेड़ों के नीचे या खुली जगह में रात काटने पर विवश होते हैं, उनकी क्या हालत होती होगी? हम यदि मानवीयता और सहृदयता के भाव से सोचेंगे तो स्वमेव लगेगा कि इन जरूरतमंदों की मदद निश्चित रूप से की जाना चाहिए। हम चाहें तो इन्हें यथासंभव खाने के पैकेट्स दे सकते हैं। इन्हें अपने घरों के पुराने कपड़े दे सकते हैं। रात में मंदिर, पूजाघरों, धर्मशालाओं, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, फुटपाथों और पेड़ों के नीचे उन तक पहुँचकर उन्हें पुराने कपड़े, ऊनी वस्त्र, कंबल, चादर आदि भी दे सकते हैं। जब भी परसेवा की बात आती है तो हर किसी के मन में एक प्रश्न जरूर उठता है- कहीं ऐसा तो नहीं कि ये ठंड में ठिठुरता अथवा भूखा आदमी अपने बुरे कर्मों से आज इस अवस्था में है, इसकी मदद करना चाहिए या नहीं। तब यहीं पर हमें अपनी नेकनियति की विशालता पहचानने की आवश्यकता होती है कि आँखों के सामने ठंड में ठिठुरते अथवा भूखे आदमी को मानवीय आधार पर यूँ ही तो नहीं छोड़ा जा सकता। हमें यह ध्यान रखना होगा कि एक इंसान होने के नाते गरीब और जरूरतमंदों की सेवा करना भी हमारा सामाजिक दायित्व है। तब देखिए, आपका यह सेवाकार्य, यह सेवाभाव आपके मन को कितनी शांति पहुँचाता है। आपकी यह प्रवृत्ति आपकी खुशी का कारण तो बनेगी ही, साथ में अन्य लोगों को भी ऐसे कार्यों हेतु प्रेरित करेगी।

मनुष्य के सामाजिक प्राणी बनने का कारण भी यही है कि वह सुख-दुख में परस्पर काम आए। अपने से कमजोर अथवा जरूरतमंदों की सहायता करे। अन्य बात यह भी है कि जब ईश्वर ने आपको इतना काबिल बनाया है कि आप समाज के कुछ काम आ सकते हैं, तब आपको दया, करुणा व नम्रता के भावों को अपने हृदय में स्थान देना चाहिए। जरूरतमंदों की पीड़ा अनुभव कर उनकी यथोचित सहायता हेतु आगे आना चाहिए।

समाज में भले ही आज परोपकारियों की संख्या अपेक्षाकृत कम है, फिर भी समाज में ऐसे अनेक लोग दिखाई दे ही जाते हैं जो परहित का बीड़ा उठाए नेक कार्यों में संलग्न हैं। समाज में ऐसी संस्थाएँ भी होती हैं जो निश्छल भाव से जरूरतमंदों की तरह-तरह से सहायता करती रहती हैं। कुछ संस्थाएँ ऐसी भी होती हैं जो व्यापक स्तर पर जनसेवा में जुड़ी रहने के बाद भी प्रचार-प्रसार से दूर रहती हैं। उनका मात्र यही उद्देश्य होता है कि वे यथासामर्थ्य समाज में अपना कर्त्तव्य निर्वहन करें। ऐसे लोग और ऐसी संस्थाओं को मैंने बहुत निकट से देखा है। इन्हें न तो अपनी प्रशंसा की भूख होती है और न ही किसी सम्मान की आशा। परहित कार्यों से जुड़े लोग बताते हैं कि परहित से मिली शांति और खुशी ने हमारी जीवनशैली ही बदल दी है। वे आगे कहते हैं कि दुनिया में आत्मशांति से बढ़कर कोई दूसरी चीज नहीं होती और वही हमें इस कार्य से प्राप्त होती रहती है। हमें बुजुर्गों के आशीर्वचन, बच्चों के मुस्कुराते चेहरे और जरूरतमंदों की अप्रतिम खुशी के सहज ही दर्शन हो जाते हैं। इनके अतिरिक्त भी लोग पशु-पक्षियों के प्रति भी सहृदयता रखते दिखाई देते हैं। हमारे शहर में हाल ही में घटी एक घटना का संदर्भित जिक्र है कि जब एक शख्स ने एक कुत्ते की गोली मारकर हत्या कर दी, तब इस अमानवीय कृत्य को देखकर क्षेत्रीय नागरिकों का आक्रोश फूट पड़ा और प्रशासन को उसे गिरफ्तार कर उसके विरुद्ध कार्यवाही करना पड़ी। लोगों का कहना था कि आखिर एक पशु के साथ आदमी इतनी क्रूरता कैसे कर सकता है। इस अपराध के लिए उसे क्षमा नहीं किया जाना चाहिए। यह घटना एक ज्वलंत प्रश्न हमारे सामने खड़ा करती है। पानी में भीगे, ठंड में ठिठुरते और गर्मियों में पशु-पक्षियों को भोजन, दाना, पानी के बर्तन, सकोरे आदि रखते हुए तो सभी ने देखा ही होगा। घायल पशु-पक्षियों की चिकित्सा कराते भी हमने देखा है। आसपास गौशालाएँ, आवारा कुत्तों की देखरेख करते लोग दिखाई दे जाते हैं। हिंदू धर्म में हिंसा को अनुचित माना गया है। जैन धर्म तो अहिंसा की धुरी पर ही चल रहा है। दुनिया में निःस्वार्थ और निःशुल्क अनगिनत चिकित्सालय संचालित हैं। असंख्य अनाथालय और वृद्धाश्रम अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। हमारे शहर में ही एक कैंसर हॉस्पिस है जहाँ कैंसर के गंभीर रोगियों को निःशुल्क चिकित्सा, दवाईयों के साथ रोगियों की सेवा-सुश्रूषा भी हॉस्पिस द्वारा की जाती है। ऐसे परोपकारियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना और ऐसे कार्यों में सहभागी बनना प्रत्येक के लिए गौरव की बात है। जीवन के अंतिम समय में जब लोग अपने ही स्वजनों की सेवा और उनके समीप जाने में भी कतराते हैं, तब ये हॉस्पिस वाले ऐसे मरीजों की अंतिम साँस तक तीमारदारी और दवाईयाँ उपलब्ध कराते हैं। इसे परोपकार का उत्कृष्ट उदाहरण कहा जा सकता है। यहाँ यह भी उल्लेख करना उचित है कि अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धति के उपलब्ध होने के कारण लोग एवं मृतात्मा के परिजन लीवर, आँखें, किडनी व अन्य अंग भी दान कर मानवीयता का परिचय देते हैं।

यह बात अलग है कि समाज में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो मानवता को ताक पर रखकर स्वार्थवश इस परहित को एक धंधे के तौर पर संचालित करते हैं। ये लोग व्यक्तिगत अथवा अपनी संस्था के माध्यम से सरकारी अनुदान, लोगों के दान अथवा सहायता को स्वार्थसिद्धि का माध्यम बना लेते हैं। ये अनैतिक कार्य करने वाले लोग  अर्थ को ही ईश्वर और प्रतिष्ठा का पर्याय मानते हैं। इन्हें संपन्नता तो प्राप्त हो जाती है, लेकिन ये वास्तविक सुख शांति से सदैव वंचित ही रहते हैं।

इस दुनिया में हमने जन्म लिया है। अन्य प्राणियों की अपेक्षा बुद्धि, विवेक और क्षमताएँ भी हमें अधिक प्राप्त हैं। सोचिए! क्या हमें इनका सदुपयोग नहीं करना चाहिए। सुख, शांति, प्रेम, भाईचारे व आदर्श जीवन शैली एक आदर्श इंसान की चाह होती है। यदि यह सुनिश्चित हो जाए तो एक आम इंसान इसके आगे और कोई अपेक्षा नहीं करेगा। आपकी यश, कीर्ति, मान, प्रतिष्ठा तो आपके विवेक पर निर्भर रहती है, जो आपके बुद्धि, कौशल एवं श्रम का ही सुफल होता है। यह बात अलग है कि कुछ उँगलियों पर गिने जाने वाले लोग भी होते हैं जो समाज में अराजकता, हिंसा, विद्वेष आदि फैलाकर अपना छद्म वर्चस्व स्थापित करते हैं। एक प्रतिभावान, परोपकारी व सहृदय इंसान का सम्मान कौन नहीं करेगा? फिर हमें बजाय शॉर्टकट के आदर्श मार्ग अपनाने में संकोच क्यों होता है। पता नहीं क्यों आज के अधिकांश लोग न्याय, धर्म, परोपकार व भाईचारे के मार्ग पर चलना ही नहीं चाहते। झूठी योग्यता का ढिंढोरा पीटकर स्वार्थ सिद्ध करना इंसानियत कदापि नहीं हो सकती।

आईये हम एक सच्चे इंसान की तरह आदर्श जीवनशैली अपनाएँ। खुद जिएँ और लोगों को चैन से जीने दें। भले ही कुछ इंसान असामाजिक गतिविधियों में लिप्त रहकर समाज में विकृति फैलाएँ, लेकिन हमें परोपकार के मार्ग को नहीं छोड़ना चाहिए। मानवता के पथ पर आगे बढ़कर घर, समाज और देशहित की सोच लिए आगे बढ़ते जाना है, क्योंकि दुनिया में जरूरतमंदों की मदद करना परहित का श्रेष्ठतम उदाहरण है। कहा भी गया है कि-

परहित सरिस धरम नहिं भाई,

परपीड़ा सम नहिं अधमाई।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 109 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 109 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे 

माँ का आँचल देखकर, बदली उसकी चाल।

ममता उसको मिल रही, खुश हो जाता लाल ।।

 

आनन की शोभा बढ़ी, देख मधुर मुस्कान।

गाल गुलाबी हो रहे, सुंदरता की शान।।

 

झटकी अलकें देखकर, रुक जाती तकरार।

मन तो कैसे रीझता, हो जाता है प्यार।।

 

सूरत तेरी मोहिनी, आँखें हैं अनमोल।

जो भी मन में हो रहा, तू नयनों से बोल।।

 

अधरों पर धर बाँसुरी, लिया प्रेम आलाप।

दौड़ी आई राधिका, दूर हुए संताप।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 113 ☆ गैस त्रासदी की बरसी  ….! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है गैस त्रासदी पर श्रद्धांजलि स्वरुप एक कविता  ‘गैस त्रासदी की बरसी  ….!’ )  

☆ कविता # 113 ☆ गैस त्रासदी की बरसी  ….!  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(37 साल पहले  2-3 दिसम्बर की रात्रि को भोपाल गैस त्रासदी में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि ) 

अजीब भागमभाग, 

भाग भाई भाग…. भाग, 

इधर भाग उधर भाग, 

नींद खुली तो भागमभाग, 

विषैली हवा के साथ भाग, 

नन्हीं जान लेकर भाग, 

जिंदगी की ख़ातिर भाग,

बहते आंसुओं लेकर भाग

कैसे भी करके पर तू भाग, 

लाशों के ऊपर से भी भाग, 

बच्ची की जान बचाने भाग,

जिंदगी की जंग में तू भाग, 

दौड़ दौड़ के घिसटते भाग, 

जिंदगी की ख़ातिर तू भाग ….! 

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 9 – गैस त्रासदी ☆ श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 9 ☆ हेमन्त बावनकर

 गैस त्रासदी !

(2-3 दिसंबर 1984 की रात  यूनियन कार्बाइड (यूका), भोपाल से मिक गैस  रिसने  से कई  लोगों  की मृत्यु हो गई थी।  मेरे काव्य -संग्रह  ‘शब्द …. और कविता’ से  उद्धृत  गैस त्रासदी पर श्रद्धांजलि स्वरूप।)

हम

गैस त्रासदी की बरसियां मना रहे हैं।

बन्द

हड़ताल और प्रदर्शन कर रहे हैं।

यूका और एण्डर्सन के पुतले जला रहे हैं।

 

जलाओ

शौक से जलाओ

आखिर

ये सब

प्रजातंत्र के प्रतीक जो ठहरे।

 

बरसों पहले

हिटलर के गैस चैम्बर में

कुछ इंसान

तिल तिल मरे थे।

हिरोशिमा नागासाकी में

कुछ इंसान

विकिरण में जले थे।

 

तब से

हमारी इंसानियत

खोई हुई है।

अनन्त आकाश में

सोई हुई है।

 

याद करो वे क्षण

जब गैस रिसी थी।

 

यूका प्रशासन तंत्र के साथ

सारा संसार सो रहा था।

 

और …. दूर

गैस के दायरे में

एक अबोध बच्चा रो रहा था।

 

ज्योतिषी ने

जिस युवा को

दीर्घजीवी बताया था।

वह सड़क पर गिरकर

चिर निद्रा में सो रहा था।

 

अफसोस!

अबोध बच्चे….. कथित दीर्घजीवी

हजारों मृतकों के प्रतीक हैं।

 

उस रात

हिन्दू मुस्लिम

सिक्ख ईसाई

अमीर गरीब नहीं

इंसान भाग रहा था।

 

जिस ने मिक पी ली

उसे मौत नें सुला दिया।

जिसे मौत नहीं आई

उसे मौत ने रुला दिया।

 

धीमा जहर असर कर रहा है।

मिकग्रस्त

तिल तिल मर रहा है।

 

सबको श्रद्धांजलि!

गैस त्रासदी की बरसी पर स्मृतिवश!

 

© हेमन्त बावनकर

पुणे 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 98 ☆ हम पर कृपा करो घनश्याम ….☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण रचना  “हम पर कृपा करो घनश्याम ….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 98 ☆

☆ हम पर कृपा करो घनश्याम…. ☆

 

निश दिन डूबे विषयों में हम, लीन्हों तनिक न नाम

स्वारथ से संसार भरो है, कौन यहाँ निष्काम

 

एक आस विश्वास तुम्ही हो, पूरन कर दो काम

लगे बहुत मेले माया के, भूल गए श्रीधाम

 

रोशन कर दो राह हमारी, दिखें हमारे श्याम

भक्ति-भाव “संतोष”न जाने, चरणन करे प्रणाम

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 8 (61-65)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #8 (61-65) ॥ ☆

मन था – आम्र प्रियंगु का करना तुम्हें विवाह

उचित नहीं जो गई बिना कर उसका निर्वाह ॥ 61॥

 

तुमसे दोहद प्राप्त यह दे जब पुष्प अशोक

हार की जगह तिलाज्जंलि में होगा उदयोग ? ॥ 62॥

 

सुंदरि तब आघात का रख आभार अशोक

पुष्प अश्रुवत गिरा के दिखता अधिक सशोक ॥ 63॥

 

किन्नर कंठी ! बकुल यह ज्यों सुरभित तब श्वाँस

से रच रसना अधूरी, गई छोड़ क्यों साथ ? ॥ 64॥

 

सम सुख – दुख भागी सखी, चंद्रकिरण सा पुत्र

एकनिष्ठ मैं स्वजन तब, निठुर त्याग तब अत्र ॥ 65॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नको नको रे ज्योतिषा ☆ बहिणाबाई चौधरी

बहिणाबाई चौधरी

बहिणाबाई चौधरी - विकिपीडिया

(११ ऑगस्ट, इ.स. १८८० – ३ डिसेंबर, इ.स. १९५१)

? कवितेचा उत्सव ? 

☆ नको नको रे ज्योतिषा… ☆  बहिणाबाई चौधरी ☆  

नको नको रे ज्योतिषा ,

माझ्या दारी नको येऊ/

माझे दैव मला कळे,

माझा हात नको पाहू/

 

धनरेषांच्या च-यांनी,

तळहात रे फाटला/

देवा तुझ्याबी घरचा,

झरा धनाचा आटला/

 

म्हणे नशिबाचे नऊ ग्रह,

तळहाताच्या रेघोट्या,

बापा नको मारू थापा,

अशा उगा ख-या खोट्या

 

 – बहिणाबाई चौधरी

चित्र साभार : मराठी विकिपीडिया 

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लिप्सा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लिप्सा ??

लिप्सा

राजाओं ने

अपने शिल्प बनवाए,

अपने चेहरे वाले

सिक्के ढलवाए,

कुछ ने

अपनी श्वासहीन देह;

रसायन में लपेटकर

पिरामिड बनाने की

आज्ञा करवाई,

कुछ ने

जीते-जी

भव्य समाधि

की व्यवस्था लगवाई,

काल के साथ

तरीके बदले;

आदमी वही रहा,

अब आदमी

अपने ही पुतले

बनवा रहा है,

खुद ही अनावरण

कर रहा है,

वॉट्सएप से लेकर

फेसबुक, इंस्टाग्राम,

ट्विटर पर आ रहा है,

अपनी तस्वीरों से

सोशल मीडिया

हैंग करा रहा है,

प्रवृत्ति बदलती नहीं है;

मर्त्यलोक के आदमी की

अमर होने की लिप्सा

कभी मरती नहीं है!

 

©  संजय भारद्वाज

(सुबह 11:43 बजे, 4.10.2018)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 87 ☆ समसामयिक दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  “समसामयिक दोहे”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 87 ☆

☆ समसामयिक दोहे ☆ 

घर – घर पीड़ा देखकर, मन ने खोया चैन।

हर कोई भयभीत है, घड़ी- घड़ी दिन- रैन।।

 

खुद को आज संभालिए , मन से करिए बात।

दिनचर्या को साधिए , योग निभाए साथ।।

 

गरम नीर ही मित्र है, कभी न छोड़ें साथ।

नीम पात जल भाप लें, कोरोना को मात।।

 

दाल, सब्जियां भोज में , खाएँ सब भरपूर।

शक्ति बढ़े, जीवन सधे, आए मुख पर नूर।।

 

दुख – सुख आते जाएँगे, ये ही जीवन चक्र।

अच्छा सोचें हम सदा, कर लें खुद पर फक्र।।

 

याद रखें प्रभु को सदा, कर लें जप औ ध्यान।

दुख कट जाते स्वयं ही, हो जाता कल्यान।।

 

पेड़ हमारी शान हैं, पेड़ हमारी जान।

पेड़ों से ही जग बचे,बढ़ जाए मुस्कान।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 8 (56-60)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #8 (56-60) ॥ ☆

निशि फिर आती चंद्र तक चकवी चकवा पास

तुम्हें नहीं जब लौटना हो मन क्यों न उदास ॥ 56॥

 

किसलय शैय्या भी जिसे देती थी संत्रास

काष्ठ चिता पर सहेगी वह कैसे अधिआस ? ॥ 57॥

 

रसना भी तब संचरण बिन होकर चुपचाप

लगती है तब अनुकरण कर मृत हो गई आप ॥ 58॥

 

कोयल में वाणी मधुर हँसिनि में गति भाव

हरिणियों में रख दृष्टि औं कँपी लता में हाव ॥ 59॥

 

तुमने जाते स्वर्ग तो रखे कि दें अवलंब

किन्तु व्यथित मन को मेरे इनसे क्या संबंधी ? ॥ 60॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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