हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 63 – भर रही हो रोशनी …..☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “भर रही हो रोशनी ….. । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 63 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || भर रही हो रोशनी ….. || ☆

वस्तुतः जैसे

प्रवाली बन गई हो

श्यामली तुम फिर

दिवाली बन गई हो

 

फटे आँचल को

पकड़ कर प्यारमें

भर रही हो रोशनी

अँकवार में

 

किसी भूखे की

प्रतिष्ठा साधने को

भोग- छप्पन सजी

थाली बन गई हो

 

थप-थपाती उजाले

के बछेरू को

और सहलाती समय

के पखेरू को

 

आँख में भर उमीदों

के समंदर को

ज्योति की खुशनुमा

डाली बन गई हो

 

अनवरत श्रम से

लगा जैसे थकी हो

झरोखे में थम गई

सी टकटकी हो

 

रही खाली पेट

पर,आपूर्ति की

सुनहली कोई

प्रणाली बन गई हो

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

04-11-2021

दीपावली – 2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अभिन्न ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – अभिन्न ??

अलग करने की

कल्पनाभर से

अस्तित्व धुआँ-धुआँ हो चला,

लेखन मुझमें है

या मैं लेखन में हूँ,

अबतक पता नहीं चला…!

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 5:58 बजे, 18.11.2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #53 ☆ # कब उजाला होगा ? # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी नवरात्रि पर्व पर विशेष कविता “# कब उजाला होगा ? #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 53 ☆

☆ # कब उजाला होगा ? # ☆ 

अमावस की रात बीत गई

घर घर में अब उजाला होगा

लाखों दीप जलें है मगर

इस झोपड़ी में कब उजाला होगा ?

 

व्यंजनों की धूम है

मिठाइयां बट रही है

मौज-मस्ती में

दिन-रात कट रही है

कहीं चूल्हा ना जला

फाका जहां किस्मत है

इन भूखें लोगों के

मुंह में कब निवाला होगा ?

 

रंग बिरंगे परिधानों से

महफिलें सज रही है

कीमती आभूषणों से

नारियां सज-धज रहीं है

दिन-रात मेहनत के बाद भी

वस्त्र जिन्हें नसीब नहीं

इन वंचितों के अंग पर

कब दुशाला होगा ?

 

जिंदगी के जुऐं में

बड़े बड़े दांव लग रहे हैं

किसी की हुई हार तो

किसी के भाग जग रहें हैं

कोई ऐश्वर्य के मदिरा में डूबा है

तो कोई जन्म से प्यासा है

इन प्यासों के होंठों पर

आखिर कब प्याला होगा ?

 

आज बाजार में बिकने को

मै भी खड़ा हूं

अपनी उसूलों की कीमत तय कर

उसपे अड़ा हूं

क्या कोई पारखी खरीदेगा मुझको ?

मेरी इस काबिलियत का

कब हवाला होगा ?

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 7 (6-10)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #7 (6-10) ॥ ☆

खिड़की तरफ लपकते खुली वेणी को, झरते सुमन भी लिये घर में बाला

जब तक नजर भर न देखा उन्हें, अपने बालों को उसने न तब तक सम्हाला। 6।

 

श्रंगार करने महावर लगाती कोई खींच झट पैर, उठ उझकि जाती

गीले महावर से पंजे बनाती गई छज्जे तक भूमि पर रंग लगाती ॥ 7॥

 

कोई आँज दाँये नयन में ही अज्जन बिना बाँये में पहले काजल लगाये

कज्जल श्शलाका लिये हाथ में हीं, गई छज्जे तक रूप अटपट बनाये ॥ 8॥

 

कोई झाँकती जालियों से लिये हाथ साड़ी जो ढीली हुई खुली आधी

कंकण प्रभा में यदपि दिखती नाभि, मगर लालसी वश न नीवी थी बाँधी ॥ 9॥

 

गुंथते कोई करधनी माल मणियों की, सहज हड़बड़ा करके उठने के कारण

उलझा अॅगूठे में ले सूत्र केवल, बिखरनें से मणियों का की न निवारण ॥ 10॥

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 65 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 65 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 65) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 65

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

ख्वाहिश नहीं है अपनी कि

हजारों दिलों पर राज हो,

बस जो रहते हैं हमारे दिल में

वो हमसे कभी नाराज न हों

 

Never nurtured any desire to

rule over thousands of hearts

It’s just that the one residing in

my heart should never get upset …..

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

जरा  वक़्त  का  ये

सितम तो देखिए,

खुद गुज़र जाता है

हमें वहीं छोड़ कर…

 

Just look at the

atrocity of the time,

it itself moves away

leaving us there only…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

ज़ख्म दे कर ना पूछ

तू मेरे दर्द की शिद्दत,

दर्द  तो  फिर  दर्द है

कम क्या ज्यादा क्या…

 

Having hurt me painfully,

Don’t ask the limit of pain

After all, a pain is a pain,

What more or what less…!

  ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 65 ☆ गीत सलिला ……. ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  ‘गीत सलिला। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 65 ☆ 

☆ गीत सलिला ☆ 

तुमको देखा

तो मरुथल मन

हरा हो गया।

*

चंचल चितवन मृगया करती

मीठी वाणी थकन मिटाती।

रूप माधुरी मन ललचाकर –

संतों से वैराग छुड़ाती।

खोटा सिक्का

दरस-परस पा

खरा हो गया।

तुमको देखा

तो मरुथल मन

हरा हो गया।

*

उषा गाल पर, माथे सूरज

अधर कमल-दल, रद मणि-मुक्ता।

चिबुक चंदनी, व्याल केश-लट

शारद-रमा-उमा संयुक्ता।

ध्यान किया तो

रीता मन-घट

भरा हो गया।

तुमको देखा

तो मरुथल मन

हरा हो गया।

*

सदा सुहागन, तुलसी चौरा

बिना तुम्हारे आँगन सूना।

तुम जितना हो मुझे सुमिरतीं

तुम्हें सुमिरता है मन दूना।

साथ तुम्हारे गगन

हुआ मन, दूर हुईं तो

धरा हो गया।

तुमको देखा

तो मरुथल मन

हरा हो गया।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कबाड़ीवाले का बेसब्री से इंतज़ार ☆ डॉ निशा अग्रवाल

डॉ निशा अग्रवाल

☆  कविता – कबाड़ीवाले का बेसब्री से इंतज़ार ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆  

ये कैसा जमाना आया है

ये कैसा फसाना लाया है

कबाड़ी वाले का है बेसब्री से इंतेज़ार

आये जल्दी ,आकर ले जाए फूटे बर्तन चार

टूटा फूटा ,फटा पुराना कपड़ा बर्तन सब ले जाये

बदले में चंद रुपये छुट्टे वो मुझे दे जाए।

क्या कभी ऐसा भी कोई आएगा।

जो टूटे फूटे दिल को ले जाएगा।।

मीठे बोल बदले में दे जाएगा।

जो भूली बिसरी यादों को दोहराएगा।

एक दिन कबाड़ी वाला आया,

उसकी ठेली को टूटे फूटे समान से लदाया।

जैसे ही बिखरे सामान को ठेली पर देखा मैने,

एक डुगडुगी बजाती हुई गुड़िया को पाया मैंने।

वो गुड़िया किसी के घर की बुढ़िया थी,

जो सबके दिलों को जोड़ती थी।

मैंने चंद रुपये देकर , उससे एक गुज़ारिश की,

कबाड़ीवाले से बुढ़िया को मैंने लेने की फरियाद की ।

हंसा जोर से ,और ये बोला,

क्यों चाहिए तुमको ये बहना।

मेने बोला तू सब ले ले,लेकिन ये बुढ़िया मुझको दे दे।

ये ही धन है, ये ही खुशी है

मिलेगा आशीष इसका मुझको,

हर दिन मेरी दीवाली यही है।।

आज के इंसान के लिए हर नाकाम चीज़ कबाड़ी का सामान बन गयी है।

इंसान की नज़र में बूढ़े इंसान की शून्य कीमत बन गयी है।।

©  डॉ निशा अग्रवाल

जयपुर, राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #95 ☆ दीपो से धरा सजाना है ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# #95 ☆ # दीपो से धरा सजाना है# ☆

अमावस की काली रातों में,

           दीपों से धरा सजाना है।

रह ना जाए कोई कोना,

        जग में प्रकाश फैलाना है।

तन आलोकित मन आलोकित,

   जग को आलोकित कर जाना है।

 मन मारे जो बैठ गये घर में,

   उनके दिल  का दिया जलाना है।

।।अमावस की काली रातों में।।1।

 

जीवन की अंधेरी रातों में,

      कांटों के उपर चलना है।

  उम्मीदों का जला के एक दिया,

        खतरों से बच के निकलना है।

ना खाये कोई ठोकर राहों में,

      एक दीपशिखा सा जलना है।

सत्कर्मो के पथ आलोकित हों,

            राहों में उजाला करना है।

।।अमावस की काली रातों में।।2।।

 

नीले अंबर की छांव में,

       दुख से कातर हर गांव में।

 बांधे घुंघरू पांवों में,

       छम छम नांच दिखाना है,

ना दुखी हो कोई जीवन में,

       खुशियों के गीत सुनाना है।

  हर तरफ खुशी के रेले हों,

         हर दिल का साज बजाना है।

।।अमावस की काली रातों में।।3।।

 

खेतों में खलिहानों में,

 झोपड़ियों  महलों के कंगूरो पे।

हर मंदिर के कलशों उपर,

      हर मस्जिद की मीनारों पर।

अब अंधेरे रह ना जायें,

         चर्चों और गुरद्वारों में।

हर तरफ रौशनी फैली हो,

।।अमावस की अंधेरी रातों में।।4।।

 

हर तरफ पटाखे फूट रहे,।

        बंटती हर तरफ मिठाई हो।

आओ हम खुशियां बांटें,

        दीवाली की सबको बधाई हो।

 हर तरफ खुशी  के मंजर हो,

   ना जीवन में ग़म के अंधेरे हो।

उम्मीदों की किरणें फूट पड़े,

            जीवन में नये सबेरे हों।

।।अमावस की काली रातों में।।5।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

23-10-2021

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 7 (1-5)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #7 (1-5) ॥ ☆

अनुरूप वर प्राप्त तब इंदुमति को जो देवसेना सी थी स्कंद को प्राप्त

ले साथ अपनी बहिन, भोज नृप ने किया यत्न नगरी में जाने का तत्काल ॥ 1॥

 

सारे नृपति भी प्रभाहीन तारों से रवि के उदय पर दुखी पराजित से

निज रूप-गुण-वेश को कोसते से, गये शिविर में आये थे जो जहाँ से ॥ 2॥

 

शचि की कृपा से स्वयंवर में सब नृप रहे श्शांत यद्यपि था संकट का डर भी

काकृत्स्थ अज के स्पर्धी अनेकों नृपति मन मसोसे रहे द्वेष कर भी  ॥ 3॥

 

वर वधु सँग पहुँचा उस राजपथ पर जहाँ पुष्पवर्षा से शोभित सुपथ था

जहाँ तोरणें इन्द्रधनु सम सजी थीं, जहाँ ध्वजा छाया से आतय विरत था॥ 4॥

 

जहाँ भवनों के स्वर्ण छज्जों से महिलायें थी झलक पाने को आतुर उमगती

तज काम सारे अधूरें, घरों के, वर-वधू की रूप श्शोभा निरखती॥ 5॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संपदा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – संपदा ? ?

उनके लिए

धन ही संपदा थी,

उसके लिए

सम्बंध ही धन था,

वे सम्बंधों से भी

धन कमाते रहे,

उसे जिनसे कमाना था;

उनसे भी रिश्ते बनाते रहा,

समय का लेखा-जोखा

प्रमाणित करता है;

सम्बंध कमाने वाले,

आत्मीयता से

आजीवन सिंचित रहे,

केवल अकूत सम्पत्ति भर

जुटा सकने वाले पर

सच्ची संपदा से वंचित रहे!

भाईदूज की हार्दिक शुभकामनाएँ

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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