हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 7 (36-40)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #7 (36-40) ॥ ☆

 

 

अज ने वधू इंदुमति की सुरक्षार्थ, टेरा पिता तुल्य सेना सचिव को

घेरा तथा श्शत्रुसेना को जैसे महाउर्मिनद श्शेष गंगा की गति को ॥ 36॥

 

पैदल से पैदल, रथी से रथी, अश्वारोही भिड़े अश्वारोहियों से

गजासीन योद्धा गजासीनियों से, सभी प्रतिभरों तुल्य बल रोधियों से ॥ 37॥

 

तूर्यों के धननाद ने बिन कहे कुछ, कुल नाम औं ख्याति वृतांत सारे

बाणों की भाषा में ही आत्म परिचय, बताते धनुर्धरों ने बाण मारे ॥ 38॥

 

अश्वों के खुर से उड़ी धूल रण में पहियों से रथ के घनीभूत होती

हाथी के कानों की फड़कन से फैली लगी रोकने नेत्रो से सूर्य ज्योति ॥ 39॥

 

ध्वज वायु में लहरते मत्स्य की भाँति, रज रूप जल को निगलते उगलते –

परिवेश में फैलते नवल जल पीते, सभी मछलियों से दिखे खुश मचलते ॥ 40॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ डायरी के बहाने ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कविता  ☆ डायरी के बहाने ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

मेरी डायरी पर बहुत से

पते हो गये हैं

जब कभी पन्ने पलट कर देखता हूं

अनेक चेहरे

सामने आने लगते हैं

कब मिला, कहां मिला, कैसे मिला

सब याद दिलाने लगते हैं ।

जब कभी हम

कहीं दूर जाते हैं

नये लोगों से मिलते हैं

हम उनको वादा करते हैं

मिलते रहने का या

याद करते रहने का ।

पर बहुत दिनों तक नहीं चल पाता

यह सिलसिला

पते लिखे रह जाते हैं

चेहरे धुंधले होने लगते हैं ।

अचानक फिर किसी मोड़ पर

होती है मुलाकात

सामने वाला पूछता है-पहचाना?

कुछ याद नहीं आता ।

शर्मिंदगी का अहसास होने लगता है ।

फिर से लिखता हूं नाम और पता ।

डायरियां बदलती रहती हैं

नाम और पते

अपनी जरुरत के चलते

कटते और छूटते रहते हैं ।

सबकी अपनी अपनी जरुरत

अपने अपने शौक

कौन कब तक अच्छा लगे

जो याद रखा जाये ?

डायरी में नाम

कटते और छूटते रहते हैं ।

कभी ऐसा भी होता है

पता चलता है कि

लिखे नाम और पता वाला आदमी

इस दुनिया से विदा हो गया।

तब डायरी पर देर तक

देखता रह जाता हूं

सब याद आने लगता है ।

कब मिले , कहां मिले

कितने हंसे, कितने रोये

आंखें नम होने लगती हैं

बेशक नहीं जा पाता

उनकी अंतिम बेला में

पर लगता है

जीवन का कुछ छूट गया

भीतर ही भीतर कुछ टूट गया ।

कोई अपना चला गया

डायरी से नाम काटते वक्त

बड़ा अजीब लगता है

यह सोच कर कि इस पते पर

भेजी चिट्ठी का

कोई जवाब नहीं आएगा।

सच, मेरी चिट्ठी कभी पहुंच भी गयी

तो कौन देगा जवाब?

बेबसी में डायरी बंद कर देता हूं ।

क्या आपके साथ भी ऐसा नहीं होता,,,,?

 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अव्यक्त ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – अव्यक्त ??

अंतहीन विवाद,

भीषण कलह,

एक-दूसरे के लिए आज से

मर चुका होने की घोषणा,

फिर भी जाने क्या था कि

खिड़की के कोने पर खड़ा वह

भाई को तब तक देखता रहा

जब तक सुरक्षित रूप से

पार नहीं कर ली उसने सड़क,

और ओझल नहीं हो गया आँखों से..,

 

आपसी सहमति से हुए

उनके संबंध विच्छेद पर

अब तो अदालती मोहर भी लग चुकी,

फिर भी जाने क्या है कि

हर रोज़ वह बनाती है अपने साथ

उसके भी नाम की रोटियाँ

और सुबह आँसुओं के नमक से

लगा-लगा कर खाती है

रोज़ाना उसे कोसते हुए…,

 

संपत्ति बीच में क्या आई

शत्रु हो गई अपनी ही जायी,

एक खुद का,दो बेटों का

और एक बेटी का हिस्सा करके भी

गुज़रने से पहले

माँ अपना हिस्सा भी कर गई

अबोला किये बैठी नाराज़ बेटी के नाम…,

 

“लव यू मॉम…”

“मेड फॉर इच अदर” “फारॅएवर…”

“ग्रेटेस्ट ब्रो!’

सेलेब्रेशन, विशिष्ट संबोधन

और फिर पढ़ता हूँ सुर्खियाँ-

भाई का भाई द्वारा खून,

पति निकला पत्नी का हत्यारा,

बूढ़ी माँ को बेटी ने दिया घर निकाला…,

 

सोचता हूँ

जो अभिव्यक्त नहीं होता था

संभवत: अधिक परिपक्व

अधिक सशक्त होता था!

 

©  संजय भारद्वाज

( 2 जुलाई 2016, प्रात: 6:30 बजे, पुणे से मुंबई की यात्रा में)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 54 ☆ गजल ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  “गजल”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 54 ☆ गजल ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ☆

प्यार-ममता की मधुर हर खुशी आज अतीत हो गई

नये जमाने की अचानक पुराने पै जीत हो गई

क्योंकि भटकी भावना सद्बुद्धि के विपरीत हो गई।

 

शांति -सुख लुट गये घरों के हर तरफ बेचैनियॉं है

नासमझदारी समय की शायद प्रचलित रीति हो गई।

 

स्वार्थ के संताप में तप झुलस गये रिश्ते  पुराने

काम के संबंध पनपे, मन की पावन प्रीति खो गई।।

 

भाव-सोच-विचार  बदले, सबों के आचार बदले

गहन चिंतन-मनन गये, उथले चलन से प्रीति हो गई।

 

सादगी सद्भावना शालीनता गुम से गये सब

मौजमस्ती, मनचलेपन, नग्नता की जीत हो गई।

 

पुरानी संस्कृति चली मिट, मान-मर्यादायें मर्दित

चुलबुलापन, चपलता, नई सभ्यता की रीति हो गई।।

 

सांस है सांसत में, अब हर दिन दुखी रातें अपावन

रो रहा हर बुढ़ापा जब से जवानी गीत हो गई।।

 

नई हवा जब से चली है, बढ रहे झोके झकोरे

प्यार ममता की मधुर अभिव्यक्ति, आज अतीत हो गई।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 3 – “ज़िंदा है” ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।  आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “ज़िंदा है”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल # 3 – “ज़िंदा है” ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

फ़रमाते हैं, वह नाफ़ानी दुनिया में अभी ज़िंदा है,

पूरी दुनिया जिस तरह काग़ज़ी पैकर में ज़िंदा है।

 

इंसान दिली ख्वाहिशों से बंधा जिद्दी परिंदा है,

बेमुद्दत अरमानों से  घायल उन्ही में ज़िंदा है।

 

खोखले खोल में उड़ता फिरता है हरेक शख़्स,

अपनी हसरतों और मंसूबों की क़ैद में ज़िंदा है।

 

मालिक ने जीस्त की हर आरज़ू पूरी कर दीं,

उससे मिलने की बस एक आस में ज़िंदा है।

 

ज़िंदगी में दोस्तों ने परेशान तो बहुत किया,

पर उन्ही की मुहब्बत ओ दुआओं में ज़िंदा है।

 

कुछ बोलो नाकामियों पर उसकी हँस ही लो,

“आतिश” का अहसास अभी दिलों में ज़िंदा है।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 7 (31-35)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #7 (31-35) ॥ ☆

 

राजाओं ने योजनाबद्ध ढंग से लड़ इंदुमति अज से ले छीनने को

बढ़, देख मौका कर अवरोध पथ में रच मोरचे युद्ध में जीतने को ॥ 31॥

 

कर ब्याह अनुज का गौतम दे भरपूर, वैदर्भ नृप भोज ने दी बिदाई

रघुपुत्र अज की सुरक्षा का धर ध्यान, खुद साथ चल पीछे सेना चलाई ॥ 32॥

 

बिता तीन दिन – रात अज साथ मग में कुंडिन नगर – स्वामि भोजाधिराजा

लौटे उसी भांति जैसे प्रखर सूर्य से पर्व में चंद्रमा लौट आता ॥ 33॥

 

स्वयंवर से पहले ही रघु – दिग्विजय में पराजित नृपति शत्रु थे अज प्रखर के

अतः संगठित हो नहीं सह सके सब मिलन इन्दु का अज से अनुरूप वर से । 34।

 

जैसे कि रोका था वामनचरण को प्रल्हाद ने, इन्द्र के शत्रु जो थे

वैसे ही रोका नृपति गण ने अज को वहाँ मार्ग में इन्दुमति साथ जाते ॥ 35॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – त्रिकालदर्शी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – त्रिकालदर्शी  ??

भविष्य से

सुनता है

अपनी कहानी,

जैसे कभी

अतीत को

सुनाई थी

उसकी कहानी,

वर्तमान में जीता है

पर भूत, भविष्य को

पढ़ सकता है,

प्रज्ञाचक्षु खुल जाएँ तो

हर मनुज

त्रिकालदर्शी हो सकता है!

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 9.31 बजे, 9.4.2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 106 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 106 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

अपराधी पाकर शरण,

होते धन्य सनाथ।

रहता जिनके शीश पर,

नेताजी का हाथ।।

 

लगा रही गोता लगन,

    दो नैनों की झील।

सुध-बुध खोकर बावरा,

   करता प्यार अपील।।

 

शिशु की पुलकन देखकर,

 मन में उठी उमंग।

लगा रही है प्यार से,

माँ की ममता अंग।।

 

विरह प्रेम में जल रहा,

 मन में एक अलाव।

शांत हुई क्रमशः जलन,

 था मनुहार-प्रभाव।।

 

जीवन के हैं चार दिन,

   करो नहीं तुम बैर।

हिल मिल कर करते रहो,

    प्रेम गली की सैर।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 95 ☆ फासले न बढ़ाओ…. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण रचना  “फासले न बढ़ाओ ….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 95 ☆

☆ फासले न बढ़ाओ …. ☆

कभी तो कुछ समझदारी किया करो

मुहब्बत  से    जरा यारी  किया करो

 

औरों पर  तो  रखते  हो  खूब  नजर

अपनी भी कुछ पहरेदारी किया करो

 

दिल ने जब जो चाहा झट बोल दिया

अरे  कुछ  तो  पर्दादारी  किया   करो

 

सौगात  राहतों  की  वो  रोज  दे  रहे

मंहगाई  पर  भी  सवारी  किया करो

 

मिले कुछ गुरबत से राहत गरीबों को

फरमान  ऐसे  भी  जारी किया  करो

 

नफरत से कुछ न हासिल होगा तुम्हें

प्यार से बातें  अब प्यारी  किया करो

 

फासले न बढ़ाओ इंसानों के दरम्यां

“संतोष” काम परहितकारी किया करो

 

भूल कर सभी नादानी,कहाँ चल दिये

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 7 (26-30)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #7 (26-30) ॥ ☆

घृत श्शमी पल्लव औं खील की गंध दायी उठा धूम्र हविवेदिका से

छू इन्दु के गाल जो क्षण करनफूल सा लगा, हो नीलकमल का जैसे ॥ 26॥

 

उस धूम से इन्दु का मुख सहज अश्रु छज्जल भरे नेत्र वाला गया हो

उसने किया गाल को लाल सा और आभा रहित कर्ण आभूषणों को ॥ 27॥

 

बैठे हुये स्वर्ण की चौकियों पर दम्पति ने सबसे शुभाशीष पाये

पूज्य अतिथियों, राज्यपरिवार जन और सधवाओं ने क्रमिक अक्षत चढ़ाये ॥ 28॥

 

सम्पन्न कर इन्दु विवाह – उत्सव समुद्ध श्री भोज कुलदीप नृप ने

सभी नृपों का अलग अलग योग्य सम्मान कर लगा बिदाई करने ॥ 29॥

 

मन दुख भरा किन्तु मुख पै खुशी भर घड़यालधारी सरोवर सा सबने

सम्मान पा भोज को दे के उपहार प्रस्थित हुये राज्य की ओर अपने ॥ 30॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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