डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)
लेखनी सुमित्र की #56 – दोहे
पागल कैसा हो गया, रहा सोचता काश।
नदी कहां रुकती भला, तोड़ गई भुजपाश।।
संयम की सीमा कहां, जहां तुम्हारा रूप।
रूप तुम्हारा लग रहा ,संयम के अनुरूप।।
मृत्युवरण की साधना, जीवन का विनियोग।
पुण्यवान को प्राप्त हो, दुर्लभतम संयोग।।
मृत्यु वरण क्यों किसलिए, वापस क्यों अनुदान।
हमने तो चाहा नहीं, मिला अयाचित दान।।
तुम्हें देखकर याचना, हो जाती उध्दाम।
अपनी यौवन सुरभि को, कर दें किसके नाम।।
© डॉ राजकुमार “सुमित्र”
112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश
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