हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 3 (41-45)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #3 (41-45) ॥ ☆

 

दिलीप सुत रघु ने नंदिनी के निस्यंतृ जल से स्वनेत्र धोये

लगे निरखने नयन तो सब वह जो भी पदारथ गये थे खोये ॥ 41॥

 

तो राज सुत ने लखा कि घोड़े को इंद्ररथ में गया था जोता

औं सारथी रास धरे था जाता, जहाँ से सूरज उदित है होता ॥ 42॥

 

हजार अपलक नयन न हरिताश्व से उसको सुरक्षित सहज समझकर

आकाश भेदी गँभीर स्वर पर मधुर वचन में कहा बुलाकर ॥ 43॥

 

बताते विद्धान कि आप ही देव प्रधान है यज्ञ में भाग पाने

पिता के मेरे तो यज्ञ के अश्व को आप फिर वन्यों लगे चुराने ॥ 44॥

 

हे दिव्य दर्शी विलोक स्वामी उचित तुम्हें यज्ञ सफल करो तुम

यदि यज्ञ में विघ्न करेंगे खुद तो, सब धार्मिक कर्म जायेंगे गुम ॥ 45॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ कविता ☆ महानगर… ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कविता ☆ महानगर… ☆ श्री कमलेश भारतीय  

चंडीगढ़ में सन् 1990 में दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक बना तब ये छोटी छोटी रचनाएं लिखी थीं :  महानगरये सुभाष रस्तोगी व माधव कौशिक द्वारा संपादित कार्यालय पत्रिका अंकुर में एकसाथ प्रकाशित की गयी थीं। 

[1]

महानगर की दीवार के साथ हांफते हुए
तेज़ रफ्तार ज़िंदगी की
दौड़, होड़ के बीच
बहुत याद आया
मुझे अपना गांव

[2]

कोयल कुहुकी
महानगर की तेज़ रफ्तार जिंदगी में
उसकी मीठी आवाज़
किसी ने न सुनी
इसलिए वह बेचारी
बहुत सिसकी
बहुत सिसकी

[3]

महानगर में चांदनी
पेड़ों के पीछे से
मुस्कुराती नहीं झांकती
बल्कि
दूधिया ट्यूबलाइट्स के सामने
मुंह छिपाये
उदास रोती है
रात भर

[4]

दिल में बस
एक ही हसरत रही
महानगर की भीड़ में
मुझको कोई मेरे गांव के
नाम से पुकार ले

[5]

मेरे छोटे से गांव
मुझे माफ कर देना
मैं तुम्हारी ममता भरी छांव
छोड़कर
महानगर की धूप में चला आया

[6]

अब गांव से मां की चिट्ठी
कभी नहीं आएगी
आएगी भी तो
महानगर की भाग दौड़ में
कमरे के एक कोने में
निरूत्तर ही पड़ी रह जायेगी

[7]

गांव ने उलाहना दिया
महानगर के नाम
मेरे सपूत छीन लिए
दिखा मृगतृष्णा की छांव

[8]

महानगर में बस
एक पांव रखने की देर थी
उसने मुंह खोला
और मेरे व्यक्तित्व को
पूरे का पूरा
निगल लिया

[9]

महानगर
क्या खूब हो तुम भी
सौंप देते हो
आंखों के सामने से
गुजर जाते हैं
असंख्य चेहरे
पर किसी को जानने की
फुर्सत तो नहीं देते

© श्री कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 45 ☆ दोहे ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  रचित भावप्रवण  “दोहे । हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 45☆ दोहे  ☆

कोई समझता कब कहां किसी के मन के भाव

रहे पनपते इसी से झूठे द्वेष दुराव

 

मन की पावन शांति हित आवश्यक सद्भाव

हो यदि निर्मल भावना कभी न हो टकराव 

 

ममता कर लेती स्वतः सुख के सकल प्रबंध 

इससे रखने चाहिए सबसे शुभ संबंध 

 

प्रेम और सद्भाव से बड़ा न कोई भाव 

नहीं पनपती मित्रता इनका जहां अभाव 

 

मन के सारे भाव में ममता है सरताज 

सदियों से इसका ही दुनिया में है राज

 

दुख देती मित्र दूरियां आती प्रिय की याद

करता रहता विकल मन एकाकी संवाद 

 

होते सबके भिन्न हैं प्रायः रीति रिवाज

पर सबको भाती सदा ममता की आवाज

 

बातें व्यवहारिक अधिक करता है संसार

किंतु समझता है हृदय किस के मन में प्यार

 

मूढ़ बना लेते स्वतःगलत बोल सन्ताप

मिलती सबको खुशी ही पाकर प्रेम प्रसाद

 

बात एक पर भी सदा सबके अलग विचार

मत होता हर एक का उसकी मति अनुसार 

 

प्रेम सरल सीधा सहज सब पर रख विश्वास

खुद को भी खुशियां मिले कोई न होय निराश

 

तीक्ष्ण बुद्धि इंसान को ईश्वर का वरदान

कर सकती परिणाम का जो पहले अनुमान

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ सत्तर से एक कम! ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  “सत्तर से एक कम!”)

☆ कविता ☆ सत्तर से एक कम! ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

हाँ थोड़ा थक सा जाता हूँ

दूर निकलना छोड़ दिया,

पर ऐसा भी नही हैं कि

मैंने चलना ही छोड़ दिया।

 

फासलें अक्सर रिश्तों में

अजीब सी दूरियां बढ़ा देते हैं,

पर ऐसा नही हैं कि मैंने

अपनों से मिलना छोड़ दिया।

 

हाँ जरा अकेला महसूस करता हूँ

अपनों की ही भीड़ में,

पर ऐसा भी नहीं है कि मैंने

अपनापन ही छोड़ दिया।

 

याद तो करता हूँ अब भी

मैं सभी को और परवाह भी,

पर कितनी करता हूँ

बस! ये बताना छोड़ दिया ।

 

हाँ! उस मंजर की कसक बाकी है अभी,

जब बारिश में साथ भीगते थे कभी,

पर ऐसा भी नही है कि मैंने

बारिश में भीगना ही छोड़ दिया |

 

हाँ! याद तो आती है वस्ल की रातें,

जब तनहा होता हूँ कभी,

पर ऐसा भी नहीं कि मैंने,

ख़्वाब देखना ही छोड़ दिया ।

 

ठोकरें खाई हैं ऊबड़ खाबड़ राहों पर

एक कम सत्तर तक आते-आते

पर ऐसा भी नहीं कि

शतायु का ख़्वाब छोड़ दिया है।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 3 (36-40)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #3 (36-40) ॥ ☆

 

कमल भी बढ़ती पुराने मुरझे को छोड नये मृदु कमल में जाकर

तथैव रघुकुल की श्री बढ़ी नये सुयोग्य युवराज विभा को पाकर ॥ 36॥

 

पवन से पावक निरंभ्र नभ – रवि मदोन्मत्त गज प्रचण्ड होते

तथा प्रतापी सुपुत्र रधु से दिलीप भी गये अजेय होते ॥ 37॥

 

नेतृत्व दे राजपुत्रों का रघु को बना अश्व रक्षा का उसको प्रभारी

किये अश्वमेघ यज्ञ निन्यानबे पूर्ण निविघ्न राजा ने बन धर्मचारी ॥ 38॥

 

जब सौवा यज्ञ – अश्व छोड़ा गया तब इंद्र यह सब सहन कर न पाया

अदृश्य हो सैनिकों के ही आगे, विश्वजयी घोड़े को उसने चुराया ॥ 39॥

 

अदृश्य होने पर अश्व के सहज ठगी सी रह गई कुमार सेना

तभी अचानक प्रकट हुई ख्यात वशिष्ठ गुरूधेनु प्रिय नंदिनी वहाँ ॥ 40॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – खेल ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? प्रथम पूज्य, गजानन, श्रीगणेश को नमन ?

….एक अनुरोध, वाचन संस्कृति का निरंतर क्षय हो रहा है। श्रीगणेश चतुर्थी से अनंत चतुर्दशी तक किसी एक पुस्तक / ग्रंथ का अध्ययन करने का संकल्प करें। प्रतिदिन कुछ पृष्ठ पढ़ें और मनन करें। महर्षि वेदव्यास के शब्दों को ‘महाभारत’ के रूप में लिपिबद्ध करने वाले, कुशाग्रता के देवता के प्रति यह समुचित आदरभाव होगा।

? श्रीगणेश चतुर्थी की हार्दिक बधाई ?

…..एक अनुरोध और, त्योहार पारम्परिक रूप से एवं सादगी से मनाएँ। साज-सज्जा भारतीय संस्कृति के अनुरूप तथा पर्यावरण स्नेही रखें।

 – संजय भारद्वाज

? संजय दृष्टि – खेल ?

शब्द पहेली,

सुडोकू,

अल्फाबेटिक क्विज,

बिल्ट योअर वोकेबुलरी,

अक्षर से खेलना;

शब्द से खेलना;

ब्रह्म से खेलना,

कौन कहता है;

केवल ब्रह्म ही

मनुष्य से खेलता है?

 आपका दिन सार्थक हो ?

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 97 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 97 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

शिव का पूजन कर रही,

  मने तीज त्योहार।

लंबी उम्र का मांगती,

   पति रूपी उपहार।।

 

गौरा अब ये कह रही,

 क्या है मेरे भाग।

अब तो मुझको दीजिए,

मेरा अमर सुहाग।।

 

गोरी मुझसे कह रही,

करु सोलह श्रृंगार।

प्यार समर्पण शक्ति से,

मने तीज त्योहार।।

 

गौरी शिव की वंदना,

   करती है हर बार।

ईप्सा अटल सुहाग की,

  करे सुहागन नार।।

 

  झोली में सुहागन की

    देना प्रिय का प्यार।

उनके है आशीष से ,

 मिले खुशियां अपार।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 87 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 87 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

(कवच, राहत, उड़ान, व्यवसाय, ललित)

अपने बच्चों के लिए, कवच बनें माँ बाप

आता संकट जब कभी, साथ खड़े हों आप

 

निशि-दिन देखो बढ़ रही, मॅहगाई की मार

राहत जाने कब मिले, खर्चे बढ़े अपार

 

भारत भी भरने लगा, नई विकास उड़ान

ध्वज लहराया चाँद पर, खूब मिला सम्मान

 

कोरोना के काल में, बन्द हुए व्यवसाय 

खत्म हुए धंधे कई, होती कैसे आय

 

दिया प्रकृति ने है हमें, ललित कला का कोष

फिर भी हैं देते सदा, हम उसको ही दोष

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 3 (31-35)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #3 (31-35) ॥ ☆

 

आग्नेय अस्त्रों की पाई शिक्षा रघु ने रूकचर्म – वसन पहिनकर

पिता से, जो सिर्फ नहीं थे राजा वरन थे विख्यात प्रखर धनुर्धर ॥ 31॥

 

समय के सँग रघु हुये यवा नव गोवंत्स ज्यों एक वृषभ मनोरम

या जैसे गज शिशु तरूण परम पुष्ट, गंभीर सुन्दर किसी से न कम ॥ 32॥

 

केशांत के बाद तरूण रघु का किया गया व्यांह कुमारियों से

प्रतापी पति पा, थी वे भी हर्षित, ज्यों राहणियाँ थी खुश – चंद्रमा से ॥ 33॥

 

विशाल ग्रीवी कपाट वक्षी प्रलंब भुज रघु हुये सुशोभित

पिता से ज्यादा विनय में केवल दिलीप फिर भी थे चिर असीमित ॥ 34॥

 

दिलीप ने लख विनीत रघु को स्वभाव, शिक्षा से योग्य पाकर

युवराज पद से किया अलकृंत स्वतः का बोझा तनिक घटाकर ॥ 35॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – महासागर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – महासागर ?

लहरें उठतीं,

लहरें उफनतीं,

मुझ तक पहुँचती,

मैं मौन सुनता

उनकी अंतर्व्यथाएँ,

वे तिरोहित हो जातीं,

उनके आँसू का खारापन

मुझमें संचित होने लगा,

शनै:-शनै: एक महासागर

मुझमें जन्म लेने लगा।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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