हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 60 ☆ सलिल न बन्धन बाँधता …. ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित भावप्रवण कविता ‘सलिल न बन्धन बाँधता …. । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 60 ☆ 

सलिल न बन्धन बाँधता …. ☆ 

*

मुक्तक

नित्य प्रात हो जन्म, सूर्य सम कर्म करें निष्काम भाव से।

संध्या पा संतोष रात्रि में, हो विराम नित नए चाव से।।

आस-प्रयास-हास सँग पग-पग, लक्ष्य श्वास सम हो अभिन्न ही –

मोह न व्यापे, अहं न घेरे, साधु हो सकें प्रिय! स्वभाव से।।

*

दोहे

सलिल न बन्धन बाँधता, बहकर देता खोल।

चाहे चुप रह समझिए, चाहे पीटें ढोल।।

*

अंजुरी भर ले अधर से, लगा बुझा ले प्यास।

मन चाहे पैरों कुचल, युग पा ले संत्रास।।

*

उठे, बरस, बह फिर उठे, यही ‘सलिल’ की रीत।

दंभ-द्वेष से दूर दे, विमल प्रीत को प्रीत।।

*

स्नेह संतुलन साधकर, ‘सलिल’ धरा को सींच।

बह जाता निज राह पर, सुख से आँखें मींच।।

*

क्या पहले क्या बाद में, घुली कुँए में भंग।

गाँव पिए मदमस्त है, कर अपनों से जंग।।

*

जो अव्यक्त है, उसी से, बनता है साहित्य।

व्यक्त करे सत-शिव तभी, सुंदर का प्रागट्य।।

*

नमन नलिनि को कीजिए, विजय आप हो साथ।

‘सलिल’ प्रवह सब जगत में, ऊँचा रखकर माथ।।

*

हर रेखा विश्वास की, शक-सेना की हार।

सक्सेना विजयी रहे, बाँट स्नेह-सत्कार।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 4 (76-80)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #4 (76-80) ॥ ☆

गज की रस्सी से छिली देवदारू की छाल

कहती थी सेना के वे गज थे उच्च विशाल ॥ 76॥

 

फिर गिरिवासी दलों से रघु की हुई मुठभेड़

लगे बाण – पाषाण मिल चिनगारी के ढेर ॥ 77॥

 

रघु बाणों ने दलों को किया दीन श्रीहीन

गववाई किन्नरों से भुजबल -कीर्ति नवीन ॥ 78॥

 

जित ‘ उत्सव – संकेत’ गण लाये जोे उपहार

नृप गिरि दोनों ने लखा हाथों का व्यवहार ॥ 79॥

 

रावण उत्थित शिखर पर कीर्ति पताका गाड़

रघु गिरि से आये उतर बल से उसे पंछाड़ ॥ 80॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सुनो वॉट्सएप ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – सुनो वॉट्सएप ?

 

कई बार की-बोर्ड पर गई

दोनों की अंगुलियाँ,

पर कुछ टाइप नहीं किया,

टाइप कर भी लिया

तो कभी सेंड नहीं किया,

ख़ास बात रही

बिना टाइप किये,

बिना सेंड किये भी

दोनों ने अक्षर-अक्षर पढ़ ली

एक-दूसरे की चैट ..,

चर्चा है,

बिना बोले,

बिना लिखे,

पढ़ लेनेवाला

नया फीचर

वॉट्सएप की जान है,

ताज्जुब है

खुद वॉट्सएप भी

इससे अनजान है…!

©  संजय भारद्वाज

(12.19 बजे, 15.11.2020)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 48 ☆ अटपटे परिवेश में सद्भाव का घुटता है दम ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता “अटपटे परिवेश में सद्भाव का घुटता है दम। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 47 ☆ अटपटे परिवेश में सद्भाव का घुटता है दम ☆

जहां के वातावरण में घुली रहती व्यंग्य भाषा

चोटें ही करती है स्वागत स्नेह की संभव न आशा

बजा करते फिर वही गाने जमाने के पुराने

रास्ते संकरे हैं इतने कठिन होता निकल पाने

ऐसे तो परिवेश में सद्भाव का घुटता है दम

सांस ले सकने को समुचित वायु मिल पाती है कम

 

जहां जाके कभी मन की बातें कोई कह ना पाता

बात कब क्या मोड़ ले यह समझ में कुछ भी ना आता

सशंकित रहती है सांसे कब बजे कोई नया स्वर

कब उठे आंधी कभी कोई या दिखे मुस्कान मुंह पर

ऐसे तो परिवेश में सद्भाव का घुटता है दम

सांस ले सकने को समुचित वायु मिल पाती है कम

 

सही बातें होने पर भी कब सहज आयें उबालें

या पुरानी गठरियों से बातें नई जाएं निकाले

या कि फिर अभिमान के अंगार नए कोई सुलग जांए

उचित शब्दों के भी कोई अर्थ उल्टे समजें जायें

ऐसे तो परिवेश में सद्भाव का घुटता है दम

सांस ले सकने को समुचित वायु मिल पाती है कम

 

अनिश्चित व्यवहार का रहता जहां डर व्याप्त मन में

बेतुकी बातों का है भंडार जहां अटपट वचन में

अप्रसांगित बातों में जहां हाँ में हाँ को न मिलायें

तो अकारण क्रोध का भाजन उसे जाया बनाये

ऐसे तो परिवेश में सद्भाव का घुटता है दम

सांस लेने ले सकने को समुचित वायु मिल पाती है कम

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 4 (71-75)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #4 (71-75) ॥ ☆

अश्व घरों की धूल से उठते शिखर समान

बढ़ – चढ़ हिमगिरि पै किया रघु ने पुनः प्रयाण ॥ 71॥

 

गिरि गहर में रह रहें सिंहों ने तब ताक

समबल सेना रव भी सुन रहे दुबक निष्पाप ॥ 72॥

 

भोजपत्र औं बाँस में भरता स्वर संगीत

गंगाजल-शीतल पवन रघु का था पथीमत ॥ 73॥

 

बैठे कस्तूरी मृगों की थी जहाँ सुगन्ध

सैनिक रूके नमेरू तल देख शिला के खण्ड ॥ 74॥

 

कण्ठ श्रृखला गजों की जैसे ज्योति लतायें

चमकी ओषधि स्पर्श पा ऊॅचे तरू की छाँह ॥ 75॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 100 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 100 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

बदल रही देखो प्रकृति, क्वांर मास में रूप।

मनमोहक-सा दृश्य है, मन को लगे अनूप।।

 

कार्तिक में पूजन करें, नित्य नियम से दान।

व्रत संयम पालन करें, हो जाता कल्यान।

 

बीत गए कुछ मास जो, कोरोना के  घाव।

लेकर हम जीते रहे, ऐसे दुसह प्रभाव।।

 

खिले मुकुल को देखकर, जागी उसकी प्यास।

मधुप विनय जो कर रहा, तुझसे ही हैं आस।।

 

मन मंजुल को देखकर, होता है आभास।

प्रियतम उसमें बस गया, आया मन को रास।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 89 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं   “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 89 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

(कुवलय, कुमुदबन्धु, वाचक, विरहित, वापिका)

 

कुवलय के नव कुंज प्रभु, कमलापति श्रीधाम

सादर वन्दन आपको, हरिये दोष तमाम

 

कुमुद-बंधु छवि मोहनी, शीतल उसकी छाँव

विकसे बिपुल सरोज जब, लगता सुंदर गाँव

 

वाचक ऐसा चाहिए, जिसके मीठे बोल

वाणी से झगड़े बढ़ें, वाणी है अनमोल

 

विरहित रहे जो प्रेम से, देखे बस निज काम

प्रेम बढ़ाता दायरा, यह ही राधे-श्याम

 

ताल तलैया वापिका, गाँवो की पहिचान

पानी के साधन सुलभ, राजाओं की शान

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 4 (66-70)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #4 (66-70) ॥ ☆

 

पारस – जय उपरांत रघु रवि की विजय समान

बढ़े उदीची ओर रख प्रखर किरण से बाण ॥ 66॥

 

सिन्धु नदी तट अश्वों ने लोट किया आराम

हिला ग्रीव झटकी लगी केशन केश तमाम ॥ 67॥

 

रघु के प्रबल विरोध वश सुन पतियों के हाल

हूण नारियों के हुये आँसू से तर गाल ॥ 68॥

 

बँधे गजों की रज्जु से मर्दित खिन्न समान

तरू अखरोटों सँग हुये काश्मीर नृप म्लान ॥ 69॥

 

झुक काम्बोज नरेश ने भेंट किये उपहार

रघु को सुंदर अश्व, धन, भूषण विविध प्रकार ॥ 70॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कहीं तेरी कहानी, अनकही न रह जाये ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता ।।कहीं तेरी कहानी, अनकही न रह जाये।।)      

☆ ।। कहीं तेरी कहानी, अनकही न रह जाये।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

।।विधा।।मुक्तक।।

[1]

देख लेना कहीं अनकही तेरी अपनी कहानी न रहे।

रुकी सी बीती जिन्दगी में कोई रवानी न रहे।।

जमीन और भाग्य जो बोया वही निकलता है।

अपने स्वार्थ के आगे किसी पर मेहरबानी न रहे।।

[2]

दुखा कर दिल किसी का कभी सुख पा नहीं सकता।

कपट विद्या से किसी का दुःख भी जा नहीं सकता।।

पाप का घड़ा भरकर एक दिन फूटता जरूर है।

बो कर बीज बबूल का कोई आम ला नहीं सकता।।

[3]

कल की चिंता मत कर तू जरा बस आज संवार ले।

मत डूबा रहे स्वार्थ में कि परोपकार में भी गुजार ले।।

अपने कर्मों का निरंतर आकलन तुम हमेशा करते रहो।

प्रभु ने भेजा धरती पे तो जरा जीवन का कर्ज उतार ले।।

 

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संतृप्त☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – संतृप्त ?

दुनिया को जितना देखोगे

दुनिया को जितना समझोगे,

दुनिया को जितना जानोगे

दुनिया को उतना पाओगे,

अशेष लिप्सा है दुनिया,

जितना कंठ तर करेगी,

तृष्णा उतनी ही बढ़ेगी,

मैं अपवाद रहा

या शायद असफल,

दुनिया को जितना देखा,

दुनिया को जितना समझा,

दुनिया में जितना उतरा,

तृष्णा का कद घटता गया,

भीतर ही भीतर एक

संतृप्त जगत बनता गया।

©  संजय भारद्वाज

(रात्रि 12:25 बजे, 16.6.2019)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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