English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of social media # 202 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of social media # 202 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 202) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..! 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 202 ?

☆☆☆☆☆

देख दुनिया की बेरूखी

न पूछ ये नाचीज़ कैसा है

हम बारूद पे बैठें हैं

और हर शख्स माचिस जैसा है

☆☆

Seeing the rudeness of the world

Ask me not how worthless me is coping

I’m sitting on pile of explosives

And every person is like a fuse…

☆☆☆☆☆

शहरों का यूँ वीरान होना

कुछ यूँ ग़ज़ब कर गया…

बरसों से  पड़े  गुमसुम

घरों को आबाद कर गया…

☆☆

Desolation of the cities

Did something amazing…

Repopulated the houses

Lying deserted for years…

☆☆☆☆☆

सारे मुल्क़ों को नाज था

अपने अपने परमाणु पर

क़ायनात बेबस हो गई

एक छोटे से कीटाणु पर..!!

☆☆

Every country greatly boasted of

Being  a  nuclear  super  power…

Entire universe  was  rendered

Grossly helpless by a tiny virus..!

☆☆☆☆☆

कितनी आसान थी ज़िन्दगी तेरी राहें

मुशकिले हम खुद ही खरीदते है

और कुछ मिल जाये तो अच्छा होता

बहुत पा लेने पे भी यही सोचते है…

☆☆

O life! How simple were  your  ways…

We ourselves only bought slew of  difficulties

Kept craving endlessly, even after acquiring a lot,

How nice it would be if I could get something more

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 202 ☆ सॉनेट – प्रणामांजलि… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है सॉनेट – प्रणामांजलि…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 202 ☆

सॉनेट – प्रणामांजलि ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आराम-विराम न साध्य जिन्हें

कर सकीं न बाधा बाध्य जिन्हें,

था सत्य-धर्म आराध्य जिन्हें

शत नित्य प्रणाम, प्रणाम उन्हें।

था अधिक इष्ट से भक्त जिन्हें

था शत्रु स्वार्थ-अनुरक्त जिन्हें

थी सत्ता पर में त्याज्य जिन्हें

शत नित्य प्रणाम प्रणाम उन्हें।

 *

था जनगण-मन आवास जिन्हें

था जंगल में मधुमास जिन्हें

अरि कहते थे खग्रास जिन्हें

शत नित्य प्रणाम प्रणाम उन्हें।

 *

जो कल को कल की थाती हैं,

शत नित्य प्रणाम प्रणाम उन्हें।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१६.४.२०२४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कविता ☆ श्री अमरजीत कौंके की आठ मूल पंजाबी कविताएँ ☆ भावानुवाद – डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक ☆

डॉ जसप्रीत कौर फ़लक

☆ कविता ☆ श्री अमरजीत कौंके की आठ मूल पंजाबी कविताएँ  ☆  भावानुवाद – डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक 

डॉ. अमरजीत कौंके

(डॉ.अमरजीत कौंके  पंजाबी साहित्य के आकाश पर ध्रुव तारे की तरह चमकता हुआ नाम है जिसकी रोशनी में पंजाबी साहित्य मालामाल हुआ है। उनकी रचनाएँ प्रेम के सरोकारों को नए दृष्टिकोण से परिभाषित करती हैं। उनकी कविता की विशेषता  है कि यह पाठक से बड़ी ख़ामोशी से हम – कलाम होते  हुए उस की रूह में उतर जाती है ।पंजाबी भाषा में उनका विशेष पाठक वर्ग है।उनकी इन चुनिंदा पंजाबी कविताओं का अनुवाद हिंदी पाठकों को भी अनुभूति करेगा। उनके पास लेखन प्रक्रिया का जो अनुभव है उनकी रचनाओं में वो स्पष्ट देखा जा सकता है। साहित्य समाज का दर्पण होता है उनकी कविताएँ भी इस यथार्थ को सार्थक करती हैं- यह भावपूर्ण रचनायें संकलन में संकलित कर के गौरवान्वित हूँ।)

मूल पंजाबी कविता- डॉ. अमरजीत कौंके

अनुवादक- डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक

(१) कविता की ऋतु

 जब भी कविता की ऋतु आई

 तेरी यादों के कितने मौसम

अपने साथ लाई

*

मैं कविता नहीं

जैसे तुझे ही लिखता हूँ

मेरे पोरों

मेरे नैनों

मेरे लहू में

तेरा अजब-सा नशा चढ़ता है

अजीब सा ख़याल

हैरान करने वाला

पता नहीं कहाँ से हो फूटता है

*

 तू अचानक से मेरे पास आप बैठती

तेरी नज़र

मेरी कविता का एक-एक शब्द

किसी पारखू की तरह

टनका के देखती

मेरी आँखों में

तेरा मुस्कुराता चेहरा आता

मेरे पास शब्दों की

बारिश करता

और मैं किसी बच्चे की तरह

शब्दों को उठा-उठा कर

पंक्ति में सजाता

*

कहीं भी हो चाहे

कितने ही दूर

असीम अनंत दूरी पर

*

परन्तु कविता की ऋतु में

तू सदैव

मेरे पास-पास होती।

*

(२) कैसे आऊँ

मेरी चेतना

हज़ार टुकड़ों में बँटी पड़ी हैं

मेरी स्मृतियों में

अतीत के कितने ग्रह

उपग्रह के

टुकड़े तैर रहे हैं

मेरे अन्दर

कितने जन्मों की धूल उड़ती

मेरे जंगलों में

कितनी डराती, आकर्षित करतीं

आवाज़े तैरती

मेरे समुन्दर में कितने ज्वार-भाटे

खौलते पानियों का संगीत

*

मैं चाहता हुआ भी

इन्हीं आवाज़ों

शोर संगीत बवण्डरों से

मुक्त नहीं हो सकता मैं

अपनी यादों की तख़्ती तो

कितनी लकीरों

कटी-बँटी शक्लें

*

मैं जानता हूँ

पर मेरी दोस्त!

मैं बचपन की कच्ची उम्र से

हज़ार टुकड़ों में बँटा

बिखरा

स्वयं ब्रहमण्ड में बिखरे

अपने टुकड़े

चुनने की कोशिश कर रहा हूँ

*

मैं पूरे का पूरा

तेरा

सिर्फ़ तेरा बन के

तेरे पास कैसे आऊँ…?

*

(३) मीलों तक अंधेरा

मैं जिस रोशनी में बैठा हूँ

मुझे यह रोशनी

मेरी नहीं लगती

इस बनावटी जैसी चाँदनी की

कोई भी किरण

पता नहीं क्यों

मेरी रूह में

नहीं जगती

*

जगमग करता

आँखों को चकाचौंध करता

यह जो चहु-ओर फैला प्रकाश है

अंदर झाँक के देखूं

तो मीलों तक अंधेरा है

कभी जब सोचता हूँ बैठ कर

तो महसूस यूँ होता

कि असल में

अंतर्मन  तक फैला

अंधेरा ही मेरा है

*

मेरे अंदर

अंधेरे में

मुझे सुनता

अक्सर होता विरलाप जैसा

मेरे सपनों को लिपटा

जो संताप जैसा

यह प्रकाश को बना देता

मेरे लिए एक पाप जैसा

*

 यह जगमगाती रोशनी

यह जो चहु-ओर प्रकाश है

अंदर झाँक के देखूं

तो मीलों तक अंधेरा है…।

*

(४) उदासी

छू कर नहीं देखा

उसे कभी

पर सदा रहती वह

मेरे नज़दीक – नज़दीक

उसकी परछाईं

*

सदा दिखती रहती मुझे

आस-पास

जब भी

मैं अपने गिर्द कसा हुआ  वस्त्र

थोड़ा ढीला करता

अपना पत्थर सा शरीर

थोड़ा सा नरम करता

*

वह अदृश्य सी

मेरे जिस्म में प्रवेश करती

मुझे कहती-

क्यों रहता है दूर मुझ से

क्यों भागता है डर के

मैं तो आदि-काल से तेरे साथ हूँ

मैं तो हमेशा तेरे साथ रहूँगी

वह मेरे जिस्म में फैलती

चलने लगती मेरे अंदर

*

मेरे भीतर

सोई हुई सुरों को जगाती

अतीत की धूल उठाती

मुझे अजीब संसार में

ले जाती

*

जहाँ से कितने-कितने दिन

लौटने के लिए

कोई राह न पाता

मैं फिर लौटता आख़िर

वर्तमान के

भूल-भुलैया में खोता

पर उसकी परछाईं

सदा दिखती रहती मुझे

क़रीब-क़रीब

सदा रहती वह

मेरे आस-पास…।

*

(५ ) पहला प्यार नहीं लौटता

पंछी उड़ते

जाते हैं दूर दिशाओं में

लौट आते हैं

आखिर शाम ढलने पर

फिर अपने

घोंसलों में

*

गाड़ियाँ जातीं

लौट आतीं

स्टेशनों पर

लंबी सीटी बजातीं

*

ऋतुएँ जातीं

फिर लौट आतीं

दिन चढ़ता

छिपता

फिर चढ़ता

*

बर्फ पिघलती

नदियों में जल बहता

समुद्रों से पानी

भाप बनकर उड़ता

बादल बनता

फिर पहाड़ों की

चोटियों पर

बर्फ बनकर चमकता

उड़ती आत्मा

अन्तरिक्ष में भटकती

फिर किसी शरीर में

प्रवेश करती

*

सब कुछ जाता

सब कुछ लौट आता

*

नहीं लौटता

इस ब्रह्मांड में

तो सिर्फ़

पहला प्यार नहीं लौटता

*

एक बार खो जाता

तो मनुष्य

जन्मों जन्म

कितने जन्म

उसके लिए

भटकता रहता…..।

*

(६) तब पूरी होगी दुनिया

मेरे बिना

अधूरी है दुनिया तेरी

*

तेरे हाथों में फूल हैं

माथे पर सूरज

तेरे सिर पर मुकुट है

तेरे पैरों के नीचे

सारी दुनिया की दौलत

तेरे चेहरे पर

चाँदनी नृत्य करती है

तेरे बालों में

सतरंगी चमकती हैं

पर तेरी आँखों में

भरे बादलों की

उदासी कहती है

कि मेरे बिना

अधूरी है दुनिया तेरी

*

पास कायनात है

भले ही मेरे भी

मेरे पोरों में थरथराते शब्द

होंठों पर महकता संगीत

मेरी भी आँखों में

कितनी धूप चमकती है

कितनी हवाएँ

चीर कर गुज़रती हैं मुझे

कितने समन्दर मेरे पैरों को

छू कर गुज़रते हैं

*

पर मेरे शब्दों से उदित होता

उदास संगीत बताता है

कि तेरे बिना

अधूरी है दुनिया मेरी

*

हम आदि-अनंत से

एक दूसरे बिना अधूरे

धरती ग्रहों-नक्षत्रों की तरह

घूमते एक दूसरे के लिए

एक होने के लिए

तरस रहे हैं

*

हम

जो अधूरे हैं

एक दूसरे बिना

*

हम मिलेंगे

तब पूरी होगी

दुनिया हमारी।

*

(७) बचपन-उम्र

स्कूल के एक कोने में

कुर्सी पर बैठा

आधी छुट्टी में

छोटे छोटे बच्चे भागते

देख रहा हूँ

*

नाचते कूदते

भागते दौड़ते

एक दूसरे को पकड़ते

फिर एक दूसरे से लड़ते

भगवान जैसे चेहरे इनके

बेफिक्र दुनियादारी से

अपनी अजब सी

दुनिया में

घूम रहे हैं

*

इनको देखकर

अचानक मैं

अपने अंदर खो जाऊं

छोटी उम्र वाले

भोले बचपन का

द्वार खटखटाऊं

*

पर मेरा बचपन

जैसे कोई काँटों वाली झाड़ी

जहां कहीं भी हाथ लगाऊं

काँटे ही काँटे

*

काँटों से

मासूम जैसे पत्ते बिंधते जाते

बचपन जैसे कोई डरावनी चीज़

डरते डरते लौट आऊं

सामने खेलते

नाचते कूदते

बच्चों को देखूं

*

पर मुझे कहीं भी

ऐसा बचपन मेरा

याद ना आए

बचपन की कोई याद मीठी

मेरे मन की तस्वीर पर

बन ना पाए

मेरा बचपन

जैसे कोई डरावनी चीज़

*

और लोग कहते हैं

कि बचपन की ये उम्रा

फिर कभी ना आए…..

*

(८) बस के सफर में

बस के सफर में

मेरे से अगली सीट पर

बैठी हुई थी एक औरत

साथ पति उसका

गोद में बच्चा खेलता

छोटा सा

ममता के साथ भरी वह औरत

उस छोटे से बच्चे को

बार-बार चूम रही थी

*

मासूम उसके चेहरे से

छुआ रही थी ठोड़ी अपनी

उसके अंदर से उभर रही थी

भरी-भरी ममता

उभर रहा था उसके अंदर से

ममता का प्यार

*

मेरे मन में

युगों-युगों से दबी हुई

जगी हसरत

मेरे मन में सदियों से सोया

आया ख़याल

काश कि इस औरत की

गोद में लेटा

छोटा सा बच्चा मैं होता

*

काश कि यह औरत

मेरी माँ होती।

कवि – डॉ. अमरजीत कौंके  

भावानुवाद –  डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक

संपर्क – मकान न.-11 सैक्टर 1-A गुरू ग्यान विहार, डुगरी, लुधियाना, पंजाब – 141003 फोन नं – 9646863733 ई मेल – [email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #251 – 136 – “ज़िन्दादिली से जीता हैं ज़िंदगी को…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल ज़िन्दादिली से जीता हैं ज़िंदगी को…” ।)

? ग़ज़ल # 136 – “ज़िन्दादिली से जीता हैं ज़िंदगी को…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

जिसके माथे पर चोट का निशान है,

यह आदमी एक मुकम्मल बयान है।

*

यायावरी उसकी गुल खिलाएगी ज़रूर,

उसके कदम बिजली नज़र में जहान है।

*

यह  दूसरों जैसा शख़्स दिखता तो है,

यारों पे मगर यह दिल से मेहरबान है।

*

ज़िन्दादिली से जीता हैं ज़िंदगी को,

ज़िंदगी जी लेना उसका अरमान है।

*

पुट्ठी इकलंगा धोबीपछाड़ मारता है,

वो मिट्टी से जुड़ा देशी पहलवान है।

*

उसके पास दिमाग़ तो दूसरों जैसा है,

परंतु ज़माने के हिसाब से शैतान है।

*

वो भी फिसला कठिन डगर पर कई दफ़ा,

मगर उसकी कामयाबी अजीमुश्शान  है।

*

दिखता भले ही आतिश होशियार चतुर,

ख़ुद को  जन्म से  समझता नादान है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लेखन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – लेखन ? ?

नित जागरण,

नित रचनाकर्म,

किस आकांक्षा से

इतना सब लिखा है?

उसकी नादानी हँसा गई

उहापोह याद दिला गई,

पग-पग पर, दुनियावी

सपनों से लड़ा है,

लेखक तो बस

लिखने के लिए बना है!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 27 अगस्त से 9 दिवसीय श्रीकृष्ण साधना होगी। इस साधना में ध्यान एवं आत्म-परिष्कार भी साथ साथ चलेंगे।💥

🕉️ इस साधना का मंत्र है ॐ कृष्णाय नमः 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ युद्ध ☆ डॉ प्रेरणा उबाळे ☆

डॉ प्रेरणा उबाळे

☆ कविता – युद्ध ☆  डॉ प्रेरणा उबाळे 

दो खड्ग

दो मन

दो विचार

दो आचार

भयाक्रांत पुष्प

तारामंडल तमग्रस्त 

अपरिचित अपराजेय 

घटित अघटित

म्यान नियंत्रण

तोड़ समाप्त

खींच बाहर

खनक खनक….

*

खनक खनक

टूट टूट

रक्त रक्त

सिक्त आसक्त

पवित्र अपवित्र

खनक खनक …

*

छल कपट

नाश विनाश

साम दाम

दंड भेद

बाहू युद्ध

बुद्धि युद्ध

शक्ति युद्ध

भाव युद्ध

नेत्र युद्ध

मौन युद्ध

खनक खनक …

*

लहू लुहान

श्वास आह

उर मस्तिष्क

ध्वस्त विध्वस्त

युद्ध परास्त

नाद अनहद

पुकार सत्य

खड्ग अंत

खनक खनक …

*

तार छेड

तृप्त स्वर

लय सुर

ताल गति

प्रेम विशुद्ध

निरीह अबाध

*

स्व युद्ध

आत्म युद्ध

तन तर्पण

मन तर्पण

स्नेह अर्पण

अहं अर्पण 

श्री शिव

श्री सत्

श्री चरण

श्री सरन

झंकार नुपुर

अनुनाद ब्रह्म

*

नवनिर्माण

कर विहान

हो श्रेयस 

हो प्रेयस 

समस्त गगन

गूँज अनुगूँज

वर्धिष्णु 

त्रिलोचन

वर्धिष्णु 

आत्मज्ञान

■□■□■

© डॉ प्रेरणा उबाळे

23 अगस्त 2024

सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभागाध्यक्षा, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय (स्वायत्त), शिवाजीनगर,  पुणे ०५

संपर्क – 7028525378 / [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 128 ☆ ।। मां शारदे की वंदना ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 128 ☆

।। मां शारदे की वंदना ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

हे मां शारदे है प्रार्थना विनम्र हम सब को ज्ञान दे।

हे वीणा वादिनी जीवन में क्या अच्छा बुरा संज्ञान दे।।

*****

विद्या की देवी  हर समस्या   के लिए ज्ञान विज्ञान दे।

हे मां सरस्वती कैसे हो यह भवसागर पार वो भान दे।।

कैसे बने सरल जीवन की कठिन राह वो अनुमान दे।

हे मां शारदे है प्रार्थना विनम्र हम सब को ज्ञान दे।

***

हे मां बागेश्वरी रहें विद्या विद्यार्थी मत हमें अभिमान दे।

कैसे करें हम सदा   रक्षा राष्ट्र की  वह स्वाभिमान   दे।।

कैसे रहें तन मन से शुद्ध मां वीणापाणी हमें वह ध्यान दे।

हे मां शारदे है प्रार्थना विनम्र हम सब को ज्ञान दे।।

*****

हे हंसवाहिनी विद्यादायनी भीतर मानवता का संचार कर।

श्वेत कमल विराजनी धैर्य बुद्धि विवेक का उपचार कर।।

मां भारती महाश्वेता देवी  उत्तम वर्तमान का वरदान दे।

हे मां शारदे है प्रार्थना विनम्र हम सब को ज्ञान दे।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 192 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – गीत – आदमी भगवान है… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण गीत  – “आदमी भगवान है…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 192 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – गीत आदमी भगवान है ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

जानता तो है कि वह दो दिनों का मेहमान है

पर सँजो रक्खा है कई सौ साल का सामान है।

जरूरत से ज्यादा रखता और कोई दिखता नहीं

आदमी सा भी कहीं दुनियाँ में कोई नादान है !।। १ ।।

*

आदमी को अपने उपर जो बड़ा अभिमान है

व्यर्थ उसका दम्भ झूठा ज्ञान औ’ विज्ञान है ।

खुद तो डरता, दूसरों की मौत से पर खेलता ।

आने वाले पल का तक उसको नहीं अनुमान है ।। २ ।।

*

हर घड़ी जिसके कि मन में स्वार्थ का तूफान है

नष्ट करने औरों को जिसने रचा सामान है

प्रेम से अपनों के पर जो साथ रह सकता नहीं

वह ज्ञान का धनवान है इंसान या शैतान है ? ।। ३ ।।

*

काम करना कठिन है कहना बहुत आसान है

प्रेम से उंचा न कोई धर्म है न ज्ञान है।

आदमी को इससे हिलमिल सबसे रहना चाहिये

सबको खुश रख खुश रहे तो आदमी भगवान है ।। ४ ।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कैंसर हॉस्पिटल ☆ श्रीमति लतिका बत्रा ☆

(पुकारा है ज़िन्दगी को कई बार -Dear CANCER … ये पुस्तक है कैंसर से संघर्ष और जीजिविषा की श्रीमति लतिका बत्रा जी की आत्मकथात्मक दास्तान। श्रीमति लतिका बत्रा जी के ही शब्दों में – “ये पुस्तक पढ़ कर यदि एक भी व्यक्ति का जीवन के प्रति दृष्टिकोण सकरात्मकता से रौशन हो जाये तो अपना लिखा सफल मानूँगी।”
आज प्रस्तुत है उनकी ही कविता – “कैंसर हॉस्पिटल”। कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी ने इस कविता का अंग्रेजी भावानुवाद Oncology Sanatorium” शीर्षक से किया है।)
आप इस कविता का भावानुवाद इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं। 👉 Oncology Sanatorium – Captain Pravin Raghuvanshi, NM  

? कविता – कैंसर हॉस्पिटल – श्रीमति लतिका बत्रा ? ?

?

जीवन को लेकर दौड़ती – भागती सड़क

उस पार–                                                           

गदराये गुलमोहर और गेरुए पलाश

और

एक भव्य इमारत।

पसरी है एक अभिशप्त सृष्टि

और मृत्यु की वर्तनी

काँच के विशालकाय स्वचालित द्वारों की

कोई देहरी है ही नहीं

फिर भी,

लाँघ कर चले आये हैं भीतर

क्षोभ और ग्लानियों से भरे

सैंकड़ों संतप्त चेहरे

देहें कैद हैं युद्धबंदियों सी

ढो़ रहे हैं सभी  –

अभिशापित कीटों से भरे बंद बोरे

अतीत और वर्तमान के सारे

कलुषित कर्मों की व्यथा भरे ।

चिपके हैं आत्म वंचनाओं के कफ़न

जीवन की हर आस को कुतर कर ।

रोगी हैं सब ।

कुछ सद्यः परिव्राजकों से

घुटे सिर

परिनिर्वाणाभिमुख नहीं ,

अवस्थित है — उपालम्भ

पीड़ाओं से संतप्त।

भोग कर आये हैं जो

संघाती व्यथाओं का विस्तार

उसी में लौटने को विकल हैं

प्रकांड अभिलिप्साएँ ।

 *

कुछ योद्धा — दृढ़ – संकल्पी

भीमाकार विचित्र अद्भुत मशीनों को

साधते —

नील वस्त्र धारी ,

वीतरागी निर्लिप्त कर्मठ

यांत्रिक मानव

आदतन कर्मरत

निर्वस्त्र मांसल रोगी देहें

बाँध कर उन मशीनों में,

जाँचते-

टटोलते रोग

कामुकता – जुगुप्सा —

हर भाव है निषिद्ध यहाँ —

हर द्वार पर उकेरी गई है पट्टिका

 “प्रवेश  प्रतिबंधित “

 *

गले में स्टेथस्कोप डाले

धवल कोट धारी

शपथ बद्ध हैं—

नहीं होते द्रवित विचलित कंपित

विशिष्ट योग्यताओं का ठप्पा लगा है

 वेदना संवेदना पर

जिस की परिधि में हर देह  है बस एक

” ऑब्जेक्ट “

 *

ठसाठस भरे हैं लोग पर —

कोई भी वेदना – संयुक्त नहीं है

संवेदना से ।

अनुभूतियों के फफूँद लगे बीजों से

उपजती नहीं सहानुभूतियाँ

 *

अपनी संपूर्ण विचित्रता समेटे

औचक ही कहीं, कभी दिख जाती है

संभ्रमित जीवन वृत्तियाँ

जब

गुलाबी कोट पहने एक स्वप्नद्रष्टा

स्वयंमुग्धा नर्स दिख जाती है

कोहनियों भर

सुनहरा लाल चूड़ा पहने ….

जिजीविषा का आभा मंडल

बुहारता चलता है

उसके कदमों के नीचे

मृत्यु के इस शहर का हर काला साया ।

 *

बाकी…

वृत्तियाँ तो सभी कर्मरत हैं यहाँ

छटपटाता हुआ पीड़ाओं से

युद्धरत है हर कोई – द्रवित – विगलित

दर्द  —

सधन मृत्यु का

चश्मदीद गवाह बना बैठा है हर चेहरा

प्रतीक्षारत —

आशाओं के दरदरे हाथों में थाम कर

एक चुटकी ज़िन्दगी।

 *

कैंसर हॉस्पिटल है ये ।

?

© श्रीमति लतिका बत्रा   

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 19 – ग़ज़ल – अब मुख़्तसर करेगें… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम ग़ज़ल – अब मुख़्तसर करेगें… 

? रचना संसार # 19 – ग़ज़ल – अब मुख़्तसर करेगें … ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

ख़ुद की नज़र लगी है अपनी ही ज़िन्दगी को

ज़िंदा तो हैं मगर हम तरसा किये ख़ुशी को

महफूज़ ज़िन्दगानी घर में भी अब नहीं है

पायेगा भूल कैसे इंसान इस सदी को

 *

कैसी वबा जहाँ में आयी है दोस्तों अब

हालात-ए-हाजरा में भूले हैं हम सभी को

 *

हमदर्द है न कोई ये कैसी बेबसी है

ले आसरा ख़ुदा का बैठे हैं बंदगी को

 *

गर्दिश की तीरगी है आँखों में भी नमी है

उल्फ़त को ढूँढते थे पाया है दिल्लगी को

 *

अब मुख़्तसर करेगें हम ज़ीस्त का ये किस्सा

पैग़ाम-ए-इश्क़ देगें हम रोज आदमी को

 *

वहदानियत को उस की मीना न दो चुनौती

रहमत ख़ुदा की देखो मिलती है हर किसी को

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected][email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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