हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ग़ज़ल – वही जनून- ए- रवानी लिखनी होगी ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

( ई-अभिव्यक्ति में  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी का हार्दिक स्वागत है। बहुमुखी प्रतिभा के धनि श्री कपूर जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रिय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। हम ई – अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से आपकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर  साझा करते रहेंगे।)      

☆ ग़ज़ल – वही जनून- ए- रवानी लिखनी होगी ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

1

कुछ तो अब नई सी कहानी लिखनी होगी।

नए सिरे से बात  पुरानी  लिखनी होगी।।

2

रास्ते जो पीछे  छूट गए   यूँ   ही  कहीं।

ढूंढ कर बात   अनजानी लिखनी होगी।।

3

यूँ ही जान माल का न नुकसान होता रहे।

सोच समझ के समझदानी लिखनी होगी।।

4

असर करे जो   अंदर सीने में उतर कर।

अब वो सब बात जुबानी लिखनी होगी।।

5

काबू के बाहर बहुत कुछ निकला जा रहा।

अब करने सीधाऔघड़दानी लिखनी होगी।।

6

जो जोश कुछ कमजोर हुआ है इस बवा में।

अब खून में वही जोश रवानी लिखनी होगी।।

7

हंस लौट कर आये वापिस वही रंग और ढंग।

लहू में फिर वही जनून- ए- रवानी लिखनी होगी।।

 

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली 

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.५२॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.५२॥ ☆

 

आश्वास्यैवं प्रथमविरहोदग्रशोकां सखीं ते

शैलाद आशु त्रिनयनवृषोत्खातकूटान निवृत्तः

साभिज्ञानप्रहितकुशलैस तद्वचोभिर ममापि

प्रातः कुन्दप्रसवशिथिलं जीवितं धारयेथाः॥२.५२॥

पहले विरह से अधिक शोकआकुल

सखी को तेा अपनी बंधा धैर्य भाई

 

शिव के वृषभ श्रृंग से छिन्न उत्खात

कैलाश से शीघ्र लेकर बिदाई

ता क्षेम संदेश मम प्रियतमा से

जो प्रेषित किन्ही बोध संकेत द्वारा

प्रातः सुमन कुंद सम क्षीण होते

मेरे प्राण तन का मिला दो सहारा

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लोग भूल जाते हैं ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कविता ☆ लोग भूल जाते हैं ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

लोग भूल जाते हैं

खराब मौसम और

गर्दिश के दिनों में

की गयी मदद ।

लोग भूल जाते हैं

संघर्ष के दौर में

अंधेरी काली रातों में

अपनी दहलीजों पर

दीया जला कर

राह दिखाने वालों को ।

लोग इस्तेमाल करते हैं

दूसरों के कंधों को

सीढ़ियों की तरह

और तमन्ना रखते हैं

आकाश छू लेने की ।

कोई नहीं जानता

वे लोग अपने अंधे सफर में

कहां गिर जाते हैं

कहां छूट जाते हैं

और कब लोग

उन्हें भूल जाते हैं ,,,,

कोई नहीं जानता

लोग कब भूल जाते हैं ,,,

 

© श्री कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सृष्टि ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – सृष्टि ?

तुम समेटती रही

अपनी दुनिया और

मुझ तक आकर ठहर गई,

मैं विस्तार करता रहा तुम्हारा

और दुनिया तुममें

सिमट कर रह गई,

अपनी-अपनी सृष्टि है प्रिये!

अपनी-अपनी दृष्टि है प्रिये!

# घर में रहें। सुरक्षित रहें, स्वस्थ रहें। #

©  संजय भारद्वाज

सुबह 10.25 बजे, 17.6.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 39 ☆ क्रॉति की अमर कहानी ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  एक भावप्रवण कविता  क्रॉति की अमर कहानी।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 39 ☆ क्रॉति की अमर कहानी

(स्वयंप्रभा से साभार)

तुम्हें हम आज भारत की अमर गाथा सुनाते हैं।

वे सन ब्यालीस की बरसात के दिन याद आते हैं।

 महात्मा गाँधी का तो नाम तुमने भी सुना होगा।

किसी से पूंछकर उनके विषय में कुछ गुना होगा।

वे भारत के बड़े नेता थे उनका वह जमाना था।

 उनके गुण से उनको सबने दिल से नेता माना था।

वे अपने घुटने तक ऊँची सी बस धोती पहनते थे।

थी सीधी सच्ची आदत, गाँव में कुटिया में रहते थे।

लाठी ले के चलते थे वे बूढ़े दुबले पतले थे।

मगर अंग्रेजों से लड़ने विचारों में वे तगड़े थे।

हमारे देश में वर्षों से अंग्रेजों का शासन था।

दुखी था देश, जनता त्रस्त थी क्योंकि कुशासन था।

सभी ये चाहते थे देश में अपना ही शासन हो।

 सभी हिलमिल रहें खुश, नये विचारों का प्रकाशन हो ॥

 

इसी से देश में काँग्रेस ने झंडा उठाया था।

सभायें करके, भाषण दे के, लोगों को जगाया था।

 बड़ी ताकत है जनता में कि जब वह जाग जाती है।

तो उसके सामने सेना भी डरती, भाग जाती है।

यही नेताओं का सबका और गाँधी का इरादा था।

अहिंसक क्रांति से भारत की आजादी का वादा था।

सन ब्यालीस, महीना अगस्त था तारीख नौंवी थी। 

तभी बंबई से गाँधी ने दी एक आवाज कौमी थी।

 

 ‘करो या मरो’ नारा था यहाँ भारत की जनता को।

और अंग्रेजों को था अंग्रेजों भारत छोड़ो” और भागो ॥

बस इतनी बात ने सब में जगाई क्राँति की ज्वाला।

 कि जिसने सबको शहरों गाँवों में पागल बना डाला।।

किये गये बंद जेलों में थे गाँधी जी और सब नेता।

 नहीं था कोई भी बाहर जो जनता की खबर लेता।

की अंग्रेजों ने मनमानी सभी को डरवा धमकाकर।

उमड़ता जा रहा था देश में जन – क्रोध का सागर।।

किया लोगों ने जब प्रतिकार तो कई एक गये मारे।

 निठुर अंग्रेजों की गोली से हजारों गये थे संहारे।

 मगर फिर भी निहत्थे न डरे न मौत से हारे।

बहादुर थे वे लाने निकले थे आकाश के तारे।।

 

थे उनमें साथ सब हिन्दू मुसलमाँ, सिख, ईसाई।

ये आजादी हमारे प्रिय शहीदों की है कमाई 

उन्हीं का खून हमको इसकी रक्षा को बुलाता है।

जो भी भारत के वासी हैं, निकट का उनसे नाता है।

बिना नेताओं के भी लोगों ने जो कुछ किया खुद ही।

उसी ने सारे अंग्रेजों की हिम्मत तोड़कर रख दी।

इसी से डर के भारत छोड़कर वे लोग जब भागे।

तो भारत को मिली आजादी सेंतालीस में आगे ॥

 

यही जनक्रांति ब्यालिस की अमर जनक्रांति कहलाती।

हमारे एकता – बल – प्रेम की जो है बड़ी थाती।

हमारे राष्ट्र भारत प्रेम की अनुपम कहानी है।

 जो हमको आने वाली पीढ़ियों को भी सुनानी है।

 है हम सब एक भारत के, ये भारत प्रिय हमारा है।

 हो सारे विश्व में सुख शांति मैत्री अपना नारा है।

हमें इसको बचाना है हमें इसको बढ़ाना है।

ये पूंजी है कि जिसके बल हमें भारत को सजाना है।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.५१॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.५१॥ ☆

 

एतस्मान मां कुशलिनम अभिज्ञानदानाद विदित्वा

मा कौलीनाद असितनयने मय्य अविश्वासिनी भूः

स्नेहान आहुः किम अपि विरहे ध्वंसिनस ते त्व अभोगाद

इष्टे वस्तुन्य उपचितरसाः प्रेमराशीभवन्ति॥२.५१॥

अतः इन विविध बोध संकेत द्वारा

कुशल जान मुझको न हो मन मलीना

अविश्वासिनी हो न तुम प्राण मुझ पर

मैं हॅू उच्च कुल और तुम भी कुलीना

कहा है किसी ने विरह में अमर प्रेम

है ध्वस्त होता मिलन भूल जाता

वरन बात विपरित प्रिय के विरह में

है प्रेमी हृदय प्रेम का रूप पाता

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विराणी ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ विराणी ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील ☆ 

काळा संगे सोबत करते

मुदीत मनाने आभाळ सारे

कधी बांधते पदरामध्ये

कधी मिरवते हातात तारे

 

जपण्यासाठी करायचीती

सर्व साधना करून झाली

चंद्रा सोबत एक चांदणी

ऐश्वर्याचे जगणे जगली

 

नव्हती तेव्हा कसली चिंता

परस्परांचा आधार होता

संसाराच्या पदरा मधला

गर्भ रेशमी नव्हता गुंता

 

तृप्त मनाने जगता जगता

निरोप घेणे जमेल नक्की

आठवताना भूतकाळ पण

मध्येच येते मनात हुक्की

 

आठवले की सारे आता

तनामनाची होते फसगत

दूर नभातील चंद्र अनावर

मिठीत येतो परतून अलगद

 

©  श्री तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मुखौटा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – मुखौटा ?

बित्ता भर करता हूँ

गज भर बताता हूँ,

नगण्य का अनगिन करता हूँ

जब कभी मैं दाता होता हूँ..,

 

सूत्र उलट देता हूँ

बेशुमार हथियाता हूँ,

कमी का रोना रोता हूँ

जब कभी मैं मँगता होता हूँ..,

 

धर्म, नैतिकता, सदाचार

सारा कुछ दुय्यम बना रहा,

आदमी का मुखौटा जड़े पाखंड

दुनिया में अव्वल बना रहा..!

 

# घर में रहें। सुरक्षित रहें, स्वस्थ रहें। #

©  संजय भारद्वाज0

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 91 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 91 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

बात बात पर ही किया,

जब उसने प्रतिवाद।

चौके में बर्तन बजे,

     बजते जैसे नाद।।

 

कोरोना के काल से,

   मिले मुक्ति भगवान।

  बीमारी कुछ भी नहीं,   

 डरा हुआ इंसान।।

 

गली गली में शोर है,

   कैसी ये दुत्कार।

राजनीति का चक्र है,

   उनका ही व्यवहार।।

 

कवियों के दरबार में,

    नहीं बचा है आज।

भाव नहीं नेपथ्य में,

    बजे नही है साज।।

 

अदरक काली मिर्च का,

    पीते काढ़ा रोज।

 जल्दी ही लगवा रहे,

 वही वैक्सिन डोज।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 81 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 81 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

नियति चक्र रुकता नहीं, होता वह गतिमान

इसीलिए सब कहत हैं, करें समय का मान

 

करें सदा ही समय पर, अपने सारे काम

साथ समय के जो चले, उसका होता नाम

 

समय चक्र चलता रहे, बदले कभी न चाल

करता नृप को रंक वह, निर्धन मालामाल

 

सूरज निकले समय पर, नियमित उसका चक्र

देख नियति के खेल को, सबको होता फक्र

 

बापिस कभी न आ सका, गुजर गया जो काल

जीवन में “संतोष” गर, तब सुधरेंगे हाल

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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