हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 26 – आखिर में मेरा कुसूर भी… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “आखिर में मेरा कुसूर भी…। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 26– ।। अभिनव गीत ।।

☆ आखिर में मेरा कुसूर भी... ☆

चिड़ियों को क्यों बाँट दिये

पंख मछली को पाँव न दिये

बँटवारे में, सुनो न  आप

खींचते रहे हैं हाशिये

 

आँखों को दे दी बरसात

साँसों को ग्रीष्म दे दिया

चाँदनी को दे दी उजास

धूपको दिया पीलिया

 

व्यथाकथा क्या कहें नदी की हम, भीगती रही वहाँ

लिये उदासी को किनारों पर

दे सके न आप तौलिये

 

चेहरे को दे दिया चुनाव

कानों को कण्ठ परीक्षा

पाँवो को गति का हिसाब

राहों को दूरियाँ प्रतीक्षा

 

ऐसा किंतु, हार गये, पूछते हुये

हम भी खोजते

निकल गये, न मिल पाये

आपका जवाब लिये डाकिये

 

ऊँचाई  बाँट दी पहाड़ों को

और छोटी सरिता को उथला पन

झीलों को देकर के गहराई

बगुलों की पाँतों को उजला-पन

 

आखिर में मेरा कुसूर भी

बता दें तो, जो भी, लेकिन

क्या यह है बेहतर इंसाफ

आप बन्द गिरह खोलिये

 

(©राघवेन्द्र तिवारी)

 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ पाखण्ड ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ पाखंड ☆

मुखौटों की

भीड़ से घिरा हूँ,

किसी चेहरे तक

पहुँचूँगा या नहीं

प्रश्न बन खड़ा हूँ,

मित्रता के मुखौटे में

शत्रुता छिपाए,

नेह के आवरण में

विद्वेष से झल्लाए,

शब्दों के अमृत में

गरल की मात्रा दबाए,

आत्मीयता के छद्म में

ईर्ष्या से बौखलाए,

मनुष्य मुखौटे क्यों जड़ता है,

भीतर-बाहर अंतर क्यों रखता है?

मुखौटे रचने-जड़ने में

जितना समय बिताता है

जीने के उतने ही पल

आदमी व्यर्थ गंवाता है,

श्वासोच्छवास में कलुष ने

अस्तित्व को कसैला कर रखा है,

गंगाजल-सा जीवन जियो मित्रो,

पाखंड में क्या रखा है..?

 

©  संजय भारद्वाज 

रात्रि 11.52 बजे,15.10.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #19 ☆ यह कैसा छल है? ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर, अर्थपूर्ण, विचारणीय  एवं भावप्रवण  कविता “यह कैसा छल है”। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 19 ☆ 

☆ यह कैसा छल है ☆ 

यह कैसा छल है?

रिश्ते भी क्या कमाल है

सर्वत्र रिश्तों का मायाजाल है

कुछ लोग रिश्ते जोड़ते हैं

कुछ लोग रिश्ते तोड़ते हैं

निभाता है कोई कोई

आत्मा जिसकी नहीं है सोई

यहाँ टूटते रिश्ते हर पल है

यह कैसा छल है

जिसने अपने सीने से भींचा

जिसने अपने दूध से सींचा

जिसने सर पर छांव बनाई

जीवन की दौड़ सिखाई

जिन्होंने चुभने दिया ना कांटा

भूख, प्यास दोनों ने बांटा

अन्तिम प्रहर में

वो कितने निर्बल है

यह कैसा छल है

प्रेम तो है फूलों की गंध

प्रेम भरता है जीवन में सुगंध

प्रेम के लिए जीते हैं लोग

प्रेम के लिए मरते हैं लोग

प्रेम तों है नवजीवन की आशा

प्रेम पर पहरे, घोर निराशा

प्रेम पर प्रतिबंध,

नहीं! यह तो दंगल है

यह कैसा छल है

आज झूठ सर चढ़कर

बोल रहा है

अहंकार के नशें में

डोल रहा है

आंखें रहकर भी

हम सब अंधे है

गूंगे, बहरे डरपोक

बंदे हैं

कब हम इसका प्रतिकार करेंगे

सत्य का मिलकर जयकार करेंगे

सत्य एक दिन जीतेगा

चाहें झूठ कितना भी प्रबल है

यह कैसा छल है?

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 31 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 31 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 31) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 31☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

इक तुम्हारा ख्याल

ही  मुकम्मल  है…

वो कितना खुशनसीब

जिसे तू हासिल है…

 

Your thought alone is

unblemishedly complete

How lucky is that person

who possesses you..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

रफ़्तार ज़िन्दगी की कुछ

यूँ  बनाये रख ग़ालिबकि

दुश्मन भले आगे निकल जाए

पर कभी कोई दोस्त न पीछे छूटे…

 

Just keep the speed of life

in  such a  way  that  the

Enemy may overtake, but a

friend is  never  left behind..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

अगर दिल खोला होता

अपने यारो के साथ, तो

आज खोलना न पड़ता

इसे  औजारो  के  साथ

 

If  only  I’d  opened  the

heart with  the friends,

then it won’t have to be

opened today with tools

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

भीगी हुई इक शाम

की दहलीज़ पे बैठे…

हम दिल के सुलगने

का सबब सोच रहे हैं..

 

Sitting on the threshold

of  a  saddened  evening…

I’m trying to reason out

smoldering  of  heart…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 31 ☆ गीत – अपने अम्बर का छोर ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  आचार्य जी  द्वारा रचित एक गीत अपने अम्बर का छोर। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 31 ☆ 

☆ गीत – अपने अम्बर का छोर ☆ 

मैंने थाम रखी

अपनी वसुधा की डोर

तुम थामे रहना

अपने अंबर का छोर.…

*

हल धर कर

हलधर से, हल ना हुए सवाल

पनघट में

पन घट कर, पैदा करे बवाल

कूद रहे

बेताल, मना वैलेंटाइन

जंगल कटे,

खुदे पर्वत, सूखे हैं ताल

पजर गयी

अमराई, कोयल झुलस गयी-

नैन पुतरिया

टँगी डाल पर, रोये भोर.…

*

लूट सिया-सत

हाय! सियासत इठलायी

रक्षक पुलिस

हुई भक्षक, शामत आयी

अँधा तौले

न्याय, कोट काला ले-दे

शगुन विचारे

शकुनी, कृष्णा पछतायी

युवा सनसनी

मस्ती मौज मजा चाहें-

आँख लड़ायें

फिरा, न पोछें भीगी कोर….

*

सुर करते हैं

भोग प्रलोभन दे-देकर

असुर भोगते

बल के दम पर दम देकर

संयम खो,

छलकर नर-नारी पतित हुए

पाप छिपायें

दोष और को दे-देकर

मना जान की

खैर, जानकी छली गयी-

चला न आरक्षित

जनप्रतिनिधि पर कुछ जोर….

*

सरहद पर

सर हद करने आतंक डटा

दल-दल का

दलदल कुछ लेकिन नहीं घटा

बढ़ी अमीरी

अधिक, गरीबी अधिक बढ़ी

अंतर में पलता

अंतर, बढ़ नहीं पटा

रमा रमा में

मन, आराम-विराम चहे-

कहे नहीं ‘आ

राम’ रहा नाहक शोर….

*

मैंने थाम रखी

अपनी वसुधा की डोर

तुम थामे रहना

अपने अंबर का छोर.…

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 17 ☆ रामचरितमानस ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  एक भावप्रवण कविता  raamcharitmanas।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 17 ☆

☆ रामचरितमानस 

रामचरित मानस कथा आकर्षक वृतांत

श्रद्धापूर्वक पाठ से मन होता है शांत

 

शब्द भाव अभिव्यक्ति पै रख पूरा अधिकार

तुलसी ने इसमे भरा है जीवन का सार

 

भव्य चरित्र श्री राम का मर्यादित व्यवहार

पढे औ समझे मनुज तो हो सुखमय संसार

 

कहीं न ऐसा कोई भी जिसे नही प्रिय राम

निशाचरों ने भी उन्हें मन से किया प्रणाम

 

दिया राम ने विश्व को वह जीवन आदर्श

करके जिसका अनुकरण जीवन में हो हर्ष

 

देता निश्छल नेह ही हर मन को मुस्कान

धरती पै प्रचलित यही शाश्वत सहज विधान

 

लोभ द्वेष छल नीचता काम क्रोध टकरार

शत्रु है वे जिनसे मिटे अब तक कई परिवार

 

सदाचार ही संजीवनी है समाज का प्राण

सत्य प्रेम तप त्याग से मिलते है भगवान

 

भक्ति प्रमुख भगवान की देती सुख आंनद

निर्मल मन मंदिर मे भी बसे सच्चिदानंद

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ एक मत… ☆ श्री जयेश वर्मा

श्री जयेश वर्मा

(श्री जयेश कुमार वर्मा जी  बैंक ऑफ़ बरोडा (देना बैंक) से वरिष्ठ प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। हम अपने पाठकों से आपकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक  अतिसुन्दर भावप्रवण कविता एक मत…।)

☆ कविता  ☆ एक मत … ☆

आप भी यहीं में भी यहीं,

बहुत कुछ घट रहा, यहाँ,

घरोँ से देखते हम, सभी,

दृश्य सूंदर लगे सबको,

कुछ खटकते मन में कभी,

 

इस चेहरों की किताब में,

कई पन्ने चेहरे,

चिपके कुछ अभी,

कुछ, नमस्ते कर मिले,

अब पीठ किये सभी,

 

तेरी सोच, मेरी सोच,

सोच का अंतर, ही सही,

तेरी बात, मेरी बात,,

बातों में बहस ही सही,

 

सोच का अंतर,

बहस का मुद्दा,

सही हो, ना सही,

इतना तो कीजे जनाब,

कहें अपनी,

मेरी सही हो ना सही,

 

विचारधाराओं के झंडों से परे,

एक, जहां औऱ भी है,

इंसानियत का,

जहां रहते सभी हैं, एकमत..

मानते यही ..हैं..

 

रँगे रहो मन, रंगरेज़ ले जेहैं,

अब्बई कह लेव, सुन लेव, सब,

कोनों को भरोसों नईये…

 

©  जयेश वर्मा

संपर्क :  94 इंद्रपुरी कॉलोनी, ग्वारीघाट रोड, जबलपुर (मध्यप्रदेश)
वर्तमान में – खराड़ी,  पुणे (महाराष्ट्र)
मो 7746001236

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ लेखन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ लेखन ☆

नित जागरण,

नित रचनाकर्म,

किस आकांक्षा से

इतना सब लिखा है..?

उसकी नादानी हँसा गई,

ऊहापोह याद दिला गई,

पग-पग पर, दुनियावी

सपनों से लड़ा है,

लेखक तो बस

लिखने के लिए बना है!

 

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ उमंग ☆ सुश्री अंजली श्रीवास्तव

सुश्री अंजली श्रीवास्तव

☆ कविता ☆ उमंग ☆ सुश्री अंजली श्रीवास्तव☆

बहुत दिनों से जीवन मेरा था लगता सूना सूना सा,

धड़क रहा था हृदय यूँ मेरा बस,जैसे मरा मरा सा।

 

यूँ तो काम सभी करती थी मानो बोझ हो कोई,

प्रत्यक्ष में तो जगती रहती थी,लेकिन सोई सोई।

 

न तो कोई आस थी हृदय में, न ही कोई उमंग थी,

विचारों की धारा थी मानो लक्ष्य विहीन पतंग थी।

 

तन से तो कुछ ही अस्वस्थ थी,मन पूरा विदीर्ण था,

कोई बात भाती न थी, मस्तिष्क इतना संकीर्ण था।

 

यूँ  तो इस स्थिति का कारण कुछ भी विशेष न था,

विश्व महामारी में सामाजिक जीवन ही शेष न था।

 

बात अगर सोचो तो बस,बात तो बहुत जरा सी है,

हर आत्मा अकेली है और अपनेपन की प्यासी है।

 

नगरबंद समाप्त हुआ,कुछ आशा का संचार हुआ,

कुछ तन और मन के मेरे, स्वास्थ्य में सुधार हुआ।

 

प्रियजनों से मिलने की, हृदय में जाग उठी उमंग,

हुआ उल्लसित हृदय, तन मन में उठने लगी तरंग!

 

© सुश्री अंजली श्रीवास्तव

26/11/2020

संपर्क – सी-767सेक्टर-सी, महानगर, लखनऊ – 226006

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 70 ☆ गीत – मुझको दो प्यारी सौगातें ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं उनकी एक  भावप्रवण गीत  “गीत – मुझको दो प्यारी सौगातें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 70 – साहित्य निकुंज ☆

☆ गीत – मुझको दो प्यारी सौगातें ☆

मन की पीड़ा सुन लो अब तुम,

मुझको दो प्यारी सौगातें।

जीवन के खालीपन को तुम,भर  दो सुख से प्यारी रातें।।

 

झेली हमने अब तक पीड़ा,

जीवन में अब सुख बरसाओ।

मैं सपनों का शहजादा हूं

अपनी पीड़ा मुझे सुनाओ।

 

बार बार में कहता तुमसे,दे दो मुझको बीती बातें।।

 

मुझे सौंप दो आंसू सागर,

कंटक सारे दुख के बादल

चहक उठेंगी तेरी खुशियां

छटे सारे दुख के बादल।

 

खुशी तुम्हारे कदम चूमती,ले लो मुझसे सारी रातें।।

 

किया समर्पित अपनेपन को,

पूजा के सब भाव सजाकर।

दिया जलाया मन के अंदर

आरत की थाली ही बनकर।

 

विरहाग्नि शांत हुई अब तो,

कर दो  प्यार की बरसातें।

मन की पीड़ा सुन लो अब तुम,मुझको दो प्यारी सौगातें।

 

डॉ भावना शुक्ल

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