हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 60 ☆ माँ ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “माँ । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 60 ☆

☆  माँ  ☆

बच्चे माँ से कर रहे, बस यह एक सवाल

कब दोगी माँ तुम हमें, रोटी के संग दाल

 

माँ की ममता जगत में, होती है अनमोल

जन्नत चरणों में बसे, समझें माँ का मोल

 

बिन शिक्षक शिक्षा नहीं, गुरु बिन मिले न ज्ञान

जीवन में मिलता सदा, शिक्षा से सम्मान

 

सूर्योदय लाता सदा, खुशी और उत्साह

केसर-सी चमके किरण, जिसका रंग अथाह

 

रखें राष्ट्र हित सामने, हो ऐसा निर्माण

देश-भक्ति जिनके नहीं, उनके दिल पाषाण

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ अंकुर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ अंकुर 

छिन्न-भिन्न कर दिया

अस्तित्व तुम्हारा,

फिर भी

तुम्हारी हिम्मत

टूटती क्यों नहीं,

आस मिटती

क्यों नहीं..?

झल्लाकर पूछा

कुटिल स्थितियों ने…,

मैं अपलक निहारता रहा

ध्वस्त कर दी गई

इमारत के मलबे से

फूटते अंकुर को…,

कुटिलता मुरझा गई,

स्थितियाँ खिसिया गईं!

©  संजय भारद्वाज 

4.33 दोपहर,17.11.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #82 ☆ कविता – शब्द तुम्हारे कुछ ले कर के, घर लौटें तो अच्छा हो ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक विचारणीय एवं सार्थक कविता  ‘शब्द तुम्हारे कुछ ले कर के,  घर लौटें तो अच्छा हो‘। इस सार्थक कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 82 ☆

☆ कविता शब्द तुम्हारे कुछ ले कर के,  घर लौटें तो अच्छा हो ☆

 कवि गोष्ठी से मंथन करते , घर लौटें तो अच्छा हो ।

शब्द तुम्हारे कुछ ले कर के,  घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

कौन किसे कुछ देता यूँ ही,  कौन किसे सुनता है अब,

छंद सुनें और गाते गाते,  घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

शुष्क समय में शून्य हृदय हैं, सब अपनी मस्ती में गुम,

रचनायें सुन हृदय भिगोते, घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

अपनी अपनी पीड़ाओं से सब पीड़ित, पर सब हैं चुप

पर पीड़ा सुन, खुद को खोते, घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

अपनी अपनी कविताओं पर, आत्ममुग्ध हैं सब के सब,

पर के भाव हृदय में ढोते, घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

कविताओं की विषय वस्तु तो , कवि को ही तय करनी है,

शाश्वत भाव सदा सँजोते, घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

रचना  पढ़े बिना, समझे बिन, नाम देख दे रहे बधाई

आलोचक से सहमत होते, घर लौटें  तो अच्छा हो ।।

 

कई डायरियां, ढेरों कागज, भर डाले सब लिख लिखकर,

छपा स्वयं का पढ़ते पढ़ते, घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

पढ़ते लिखते उम्र गुजारी, वर्षों गुजरे जलसों में,

अब जलसों में श्रोता बनके, घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

बड़ा सरल है वोट न देना,  और कोसना शासन को

वोटिंग कर कर्तव्य निभाते, घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

पहली बारिश पर मिट्टी की सौंधी खुशबू से तर हो,

खिले खिले कुछ महके महके, घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

बच्चों के सुख दुख  के खातिर  जीवन जिसने होम किया,

उसका हाथ थाम कर बच्चे , घर लौटें तो अच्छा हो ।।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ आज़ादी… ☆ श्री जयेश वर्मा

श्री जयेश कुमार वर्मा

(श्री जयेश कुमार वर्मा जी का हार्दिक स्वागत है। आप बैंक ऑफ़ बरोडा (देना बैंक) से वरिष्ठ प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। हम अपने पाठकों से आपकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक  अतिसुन्दर भावप्रवण कविता धुँए का दर्द…।)

☆ कविता  ☆ आज़ादी… ☆

आज़ादी ,मिल गयी,

लोंगो ने निकाले, अर्थ, उसके,

कई, अपनी मर्ज़ी के,

खूब, भोगा, उसको,

सरे आम नीलाम किया,

इन गुज़रे, गुज़रते, सालों बाद भी,

बुधुआ, अब भी, वैसा ही,

मज़दूर, किसान, रहा,

इस पीढ़ी के बुधुआ से पूछो,

इन टोपी, झंडों, वालों ने,

इन, नेता, अफसर, दलालों ने

उसे कितना लूटा, बेज़ार किया,

किसान का हक़ मारा,

वो, मौसम से लड़ता,

अपने फ़र्ज़ पे ईमान रहा,

उसके नाम के कई नेता,

बईमानों का बाज़ार रहा,

उसे जो दे इज़्ज़त, रोटी,

लगता नेताओँ को,

मुँह से छिनती बोटी,

जारी है, झूठ को,

सच करने की कोशिश,

अब देखो कब,

इस देश के, बुधुआ, किसान, को,

मिलती है, इनसे, आज़ादी,

मिलती है, इनसे, आज़ादी,

आज़ादी, आज़ादी, आज़ादी,…

 

©  जयेश वर्मा

संपर्क :  94 इंद्रपुरी कॉलोनी, ग्वारीघाट रोड, जबलपुर (मध्यप्रदेश)
वर्तमान में – खराड़ी,  पुणे (महाराष्ट्र)
मो 7746001236

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 49 ☆ स्वास्थ्य पर दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं    “स्वास्थ्य पर दोहे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 49 ☆

☆ स्वास्थ्य पर दोहे ☆ 

 

स्वस्थ वही है “चक्र” सुन , मन जो रखे  प्रसन्न।

शाकाहारी बन सदा, खा ले भाजी-अन्न ।।

 

श्वास-श्वास तेरी सखा, हरदम रहती पास।

“चक्र”समझ ले स्वयम को, ये ही तेरी खास ।।

 

“चक्र”वही रोगी रहें, जो रहते हैं खिन्न ।

जीवन तो उपहार है, रख तू सदा प्रसन्न।।

 

सत्य मार्ग ही श्रेष्ठ है,  करता है उद्धार ।

तन -मन आनंदित रहे , मिले प्रेम का हार ।।

 

जीवन तो अनमोल है, करें सैर और योग।

पाँच मिनट व्यायाम से, सुखमय रहें निरोग।।

 

योग,परिश्रम नित करूँ,सोचूँ शुभ -शुभ काम।

सभी समर्पित ईश को, मुझे कहाँ  विश्राम।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 71 – और कब तक…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना  “और कब तक….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 71 ☆ और कब तक…. ☆  

और कब तक

तुम रहोगे मौन साधो,

शब्द को स्वर तुम, नहीं तो

और देगा कौन साधो।

मनुजता पर हैं लगे प्रतिबंध

जिह्वा है सिली

जब करी कोशिश

कहीं संकेत करने की

उधर से

भृकुटियां टेढ़ी मिली

अन्नजल आश्रित

विवश चुपचाप बैठे

भीष्म गुरुवर द्रोण साधो।

और कब तक

आम बरगद नीम

पीपल मिट रहे

झील सरिता बावड़ी

पनघट रुआँसे,

अब तबाही के लिए

उद्यत शिकारी हाथ में

खंजर उठाए दिख रहे,

लग गया है स्वाद

जिनको खून का

वे क्यों करे दातौन साधो।

और कब तक

अब सरे बाजार

सब कुछ हो रहा

मशविरों में मस्त है

राजा पियादा

चैन की बंसी बजाते

कुंभकरणी नींद

गहरी सो रहा,

नेत्रहीन धृतराष्ट्र

सिंहासन भ्रमित है

द्रोपदी को

अब बचाए कौन साधो।

और कब तक

तुम रहोगे मौन साधो।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ विमर्श ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ विमर्श

 राजनीति ने

वाद और पंथ

निरुपित किये,

साहित्य ने

धारा और विमर्श

के बैनर तले

की समीक्षाएँ,

सोचता हूँ

आँसू, पीड़ा,

वेदना, दाह का

भला कौनसा पंथ,

कैसी धाराएँ….!

 

©  संजय भारद्वाज 

11:40 रात्रि, 29.10.18

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Experiments…☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Poem  “प्रयोग …”.  We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

☆ संजय दृष्टि  ☆ प्रयोग 

अदल-बदल कर

समय ने किये

कई प्रयोग पर

निष्कर्ष वही रहा,

धन, रूप, शक्ति,

सब खेत हुए

केवल ज्ञान

चिरंजीव रहा!

 ©  संजय भारद्वाज 

रात्रि 12:08  21-10-2018.

☆ Experiments…☆ 

Interchangeably,

Time conducted

countless experiments

But, the inference

remained the same,

Wealth, beauty,

power and authority

all perished,

Knowledge only

emerged timelessly alive!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 22 ☆ उसूलों का जोड़ बाकी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता उसूलों का जोड़ बाकी । ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 22 ☆ उसूलों का जोड़ बाकी ☆

 

खर्च हो गयी जिंदगी बेकार के असूलों को निभाने में,

उसूलों का जोड़ बाकी गुणा भाग सब अब शून्य हो गया ||

 

हिफ़ाजत से रखे थे कुछ उसूलों बुढ़ापे के लिए,

डॉक्टर ने बताया तुम्हारा जीवन अब बोनस में तब्दील हो गया ||

 

डॉक्टर ने कह दिया अब जिंदगी का हर दिन बोनस है,

जी लो जिंदगी अपनों के संग, हर दिन सुकून से बीत जाएगा ||

 

मौत करती नहीं रहम कभी पल भर का भी,

मिटा लो गिले शिकवे, दिल का बोझ दिल से उतर जाएगा ||

 

कल तक जिंदगी ठेंगा दिखाती रही मौत को,

आज मौत हंस कर बोली,आज हंस ले कल सब शून्य हो जाएगा ||

 

मौत ने कहा भगवान भी नहीं दिला सकता मुझसे निजात,

आज या कल हर कोई मेरे आगोश में आकर दुनिया छोड़ जाएगा ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 58 ☆ जी चाहता है ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साbharatiinझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “जी चाहता है”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 58 ☆

☆  जी चाहता है ☆

गले सितारों को लगाने को, जी चाहता है

पास महताब के जाने को, जी चाहता है

 

बड़ी ही सिरफिरी हवाएं हैं, मचल रही हैं

उनके साथ मचल जाने को, जी चाहता है

 

सुनाई नहीं देती आहट, ख़ामोशी है बड़ी

गाने को सरगम निराली, जी चाहता है

 

रात महके जुस्तजू से, अंदाज़ हैं निराले

पास से आसमान छू जाने को, जी चाहता है

 

समाई सी लगती है परिंदों की रूह मुझमें

आज फ़लक तक उड़ जाने को, जी चाहता है

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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